ताजमहल को ढहाने के लिए जिस तरह से संगीत सोम नाम के आक्रमणकारी की फौंजें निकल चुकी थी और उसको रोकने के लिए बौनों (पत्रकार) की फौजे टकरा रही हैं। ( कुछ वरिष्ठ बौनों ने तो उसको संघ का मुख्य विचारक तक साबित कर दिया बिना ये जाने कि ये जनाब 2009 के पार्लियामेंट चुनाव में संघ के हाथ-पैर तोड़ने की कवायद में थे और समाजवादी पार्टी की आंखों के तारे थे उस वक्त ताजमहल इनके लिए प्यार का शाहकार होता अगर किसी पत्रकार ने पूछा होता तो)
चारों तरफ इस तरह के भय के माहौल में अखबार पढ़ते हुए डर लग रहा था। लेकिन अखबार पढ़ना नौकरी का हिस्सा है लिहाजा उठा लिया। ताजमहल की अस्मिता पर आंच आई थी इसीलिएकुछ कुछ माफी मांगते हुए योगी और मोदी दोनों की खबरों के बीच कुछ फोटों पर नजर पड़ी दीपों से सजी हुई अयोध्या। दीपावली से पहले अयोध्या को दियों से सजाया जा रहा है। और सालों बाद अचानक जैसे कुछ याद आया कि अयोध्या के लिए ही तो दिए जलते थे। पटाखों का शोर होता था। हिंदु इस त्यौहार को मनाते थे। फिर ऐसा क्या है इस दियों से चमकते हुए फोटों में कि अयोध्या याद आ रही है।
2007 में एक शाम ऑफिस से निकल रहा था कि मोबाईल की घंटी बज उठी फैजाबाद में बम विस्फोट हुआ है। फौरन निकलो। उस समय तक लगभग सात सालों के इस कार्यकाल में देश के ज्यादातर हिस्से घूम चुका था। यूपी का रहने वाला था लेकिन कभी अयोध्या नहीं गया था। यूं तो कई बार सुनने को मिला था कि अयोध्या नगर फैजाबाद के अतंर्गत आता है। लेकिन अयोध्या जाने का संयोग नहीं हुआ था. फैजाबाद में सीरियल बम धमाके की कवरेज खत्म की तो पिताजी से बात हुई। पिताजी ने कहा कि अगर फैजाबाद गए हो तो भगवान राम के नगर अयोध्या तो भी देख आना। पिताजी से बातचीत के बाद लगा कि चलो अयोध्या हो आते है। उस वक्त फैजाबाद में कही से नहीं लग रहा था कि इसके बराबर में ही कही अयोध्या है वही अयोध्या जिसकी सुंदरता की कहानियां बचपन से सुनी थी। कभी कभी गांव में रामायणी आते थे। बेहद सुंदर और मधुर स्वरों में साकेत, अयोध्या का वर्णन होता था। उस वक्त वामपंथी इतिहासकारों की झूठी कहानियां नहीं पढ़ पाया था लिहाजा सुंदर लगता था। लेकिन देश में ये सब जाने कहा बिला गया इस पर बात फिर कभी। मैं उन कथाओं और चौंपाईंयों को भूल भी गया क्योंकि बहुत से लिबरल पत्रकारों ने इस बात का पूरा इंतजाम किया था कि इसको सांप्रदायिकता के ढांचें में रखा जाएं। खैर अयोध्या पहुंचा तो दिल धक से रह गया कहां वो वर्णित नगरी और कहां ये वीरान से मंदिरों का एक कस्बा। किसी मंदिर के सदियों पुराने होने का भी कोई चिन्ह नहीं दिख रहा था। (हालांकि बाद में फारसी और अरबी इतिहासकारों के अनुवाद को देखकर समझा था कि उत्तरभारत में कोई मंदिर उस वक्त नहीं छोड़ा गया था जिसे वामपंथी इस देश का स्वर्णकाल कहते है) शहर को देख कर कही से नहीं लगा कि पांच हजार साल की सभ्यता का केन्द्र रहा है कभी ये शहर। दीवाली , दशहरा या फिर जिस वजह से इस देश को देश कहा गया वो तमाम मान्यताओं का आधार भूत शहर। लेकिन इस शहर में रूकने कि जगह तक नहीं। शहर जिंदा था तो उन लोगों की वजह से जिन लोगों को बौद्धिक टाईप पत्रकार सांप्रदायिक अनपढ़ जनता कह रहे है। कंधों पर झोले, सिर पर पोटली और बच्चों को पकड़ते हुए धोती पहने हुए औरतें राजा राम की नगरी में अपने आप को एक बार उपस्थित होने का सौभाग्य हासिल करने पहुंचते है। पुलिस की इतनी मौजूदगी क्योंकि बीच में शांति समर्थकों ने शांति के हथियारों से बचे कुछे अवशेषों को भी बामिमान बनाने की कोशिश की थी। क्योंकि यहां मूर्ति का होना इस देश के बचे होने का सबूत दिख रहा होगा।
खैर बात सिर्फ अयोध्या की और उस फोटों की। सत्तर साल के इस देश की आजादी के इतिहास में अय़ोध्या का जिक्र ही नहीं हुआ। महज बीजेपी या संघ की सत्ता की बेल लपेटने की कोशिश के बीच ये नाम देश के बीच उभरा। परंपराओं और इतिहास के बीच जितनी दूरी इस देश में वामपंथियों ने पैदा की है वो शायद ही किसी देश में हो। रामजन्म भूमि के नाम पर जिस शहर को लगातार सदियों से सभ्यता के दरिंदों ने रौंदा, उसकी जनता के नरसंहार किए लेकिन वो स्मृति मिटा नहीं पाएं। उस शहर से इतनी दूरी सत्ताधारियों की क्यों रही। ये बात अचानक इस फोटों के साथ आई। ये देश इस तरह से नहीं बना है कि क्रिसमस का नाम लेते ही वेटिकन की फोटो जेहन में तारी हो और ईद का नाम तो आपको मक्का और मदीना की सजावट दिखाई देती है उस तरह से दीवाली पर अयोध्या बन जाएं क्योंकि सभ्यया का केन्द्र हो या फिर परिधि का बिंदु ये आस्था धर्म ने बख्शी है कि किसी को कही जाने की कोई अनिवार्यता नहीं। किसी भी धार्मिक आख्यान को मैने अभी नहीं देखा जो किसी भी हिंदु को अयोध्या की यात्रा करने को धार्मिक कर्तव्य मानता हो। जिसका मन हो राजा राम के दरबार में जाकर चरण रज ले नहीं तो जहां है वही से राम राम कर ले। इसके बावजूद भी वो शहर लोगों के मन में कही बसा हुआ था। और मैं आजतक समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इस शहर के साथ ऐसा क्यों किया गया। देश के हर हिस्से में पर्यटन के नाम पर खूब प्रचार चला चाहे शेर दिखाया हो या फिर गधा लेकिन प्रचार के लिए प्रतीकों का सहारा लिया गया। लेकिन इस शहर को तो देखा ही नहीं। तुष्टिकरण किसी भी कारणों से हो सकता है लेकिन शहर ने क्या बिगाड़ा था कि एक विकास को तरसता शहर अपनी परंपरा से ही विमुख कर दिया। इस शहर को धूल में मिलाने की कोशिश जरूर की गई होगी लेकिन धूल से फूल बनाने की कभी कोई कोशिश शहर में नहीं दिखी। वो शहर जिससे सात-आठ हजार साल पुरानी कहानी का गर्भनाल का रिश्ता जुड़ा है वो शहर इतना वीरान सा क्यों था कभी जवाब नहीं मिल सका। सरयू या नेत्रजा यानि भगवान विष्णु के नेत्रों से जन्मी नदी किस तरह नाले की तरह बहती रही इसको लेकर किसी सरकार के दिल में दर्द नहीं उपजा क्योंकि इसके कहने से शायद वोटों को टोटा पड़ जाता ।
उस वक्त थोडा़ सा दर्द हुआ था शहर को देखकर हालांकि उस वक्त ये नहीं सोचा था क्योंकि उस वक्त बीजेपी सेंटर में नहीं थी और वामपंथियों को देश के टूटने का कोई खतरा नहीं दिख रहा था और लिबरल बौंने ( पत्रकार ) देश के इतिहास को लेकर इतने चिंतित नहीं थे तो मुझ बौंने को भी कोई खतरा नहीं दिख रहा था। मैंने सोचा भी नहीं कि ये शहर क्या है और क्या हो गया। खैर मैं वापस लौट रहा था। लखनऊ से पंडित राम शर्मा जी मुझे एअरपोर्ट छोड़ने के लिए कार में साथ चल दिए। लंबी व्यक्तिगत परेशानियों से निकलने पर पंडित जी खुश दिख रहे थे और परेशानियों के दौर में मेरी हमेशा उनके साथ बात हुआ करती थी ऐसे में मैंने पंडित जी से गुजारिश की रामकथा से संबंधित कुछ सुना दो और पंडित जी ने उस दिन जो सुनाया पता नहीं क्यों मुझे आज बेहद याद आ रहा है।
कहत रघुबीर सुनत हनुमाना
सब दिन होत न एक समाना.......
इतनी मधुर आवाज से गाया गया ये भजन जैसे आज उस फोटों के साथ मुझे याद आ रहा है। कि शहरों की किस्मत भी बदलती है। मैं किसी भी पार्टी को समय का उभार मानता हूं और इतिहास के लंबें फलक में उसकी भूमिका कुछ पलों की दिखती है लेकिन इस बार अयोध्या के दियों ने मुझे काफी खुशी का अहसास दिया है। और मैं इस बात के लिए लिबरल लोगों से शर्मिंदा नहीं हूं। बस याद आ रही है तो सिर्फ ये चौंपाई आप भी पढ़ियें और नेट पर जाकर सुन भी सकते है
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥
चारों तरफ इस तरह के भय के माहौल में अखबार पढ़ते हुए डर लग रहा था। लेकिन अखबार पढ़ना नौकरी का हिस्सा है लिहाजा उठा लिया। ताजमहल की अस्मिता पर आंच आई थी इसीलिएकुछ कुछ माफी मांगते हुए योगी और मोदी दोनों की खबरों के बीच कुछ फोटों पर नजर पड़ी दीपों से सजी हुई अयोध्या। दीपावली से पहले अयोध्या को दियों से सजाया जा रहा है। और सालों बाद अचानक जैसे कुछ याद आया कि अयोध्या के लिए ही तो दिए जलते थे। पटाखों का शोर होता था। हिंदु इस त्यौहार को मनाते थे। फिर ऐसा क्या है इस दियों से चमकते हुए फोटों में कि अयोध्या याद आ रही है।
2007 में एक शाम ऑफिस से निकल रहा था कि मोबाईल की घंटी बज उठी फैजाबाद में बम विस्फोट हुआ है। फौरन निकलो। उस समय तक लगभग सात सालों के इस कार्यकाल में देश के ज्यादातर हिस्से घूम चुका था। यूपी का रहने वाला था लेकिन कभी अयोध्या नहीं गया था। यूं तो कई बार सुनने को मिला था कि अयोध्या नगर फैजाबाद के अतंर्गत आता है। लेकिन अयोध्या जाने का संयोग नहीं हुआ था. फैजाबाद में सीरियल बम धमाके की कवरेज खत्म की तो पिताजी से बात हुई। पिताजी ने कहा कि अगर फैजाबाद गए हो तो भगवान राम के नगर अयोध्या तो भी देख आना। पिताजी से बातचीत के बाद लगा कि चलो अयोध्या हो आते है। उस वक्त फैजाबाद में कही से नहीं लग रहा था कि इसके बराबर में ही कही अयोध्या है वही अयोध्या जिसकी सुंदरता की कहानियां बचपन से सुनी थी। कभी कभी गांव में रामायणी आते थे। बेहद सुंदर और मधुर स्वरों में साकेत, अयोध्या का वर्णन होता था। उस वक्त वामपंथी इतिहासकारों की झूठी कहानियां नहीं पढ़ पाया था लिहाजा सुंदर लगता था। लेकिन देश में ये सब जाने कहा बिला गया इस पर बात फिर कभी। मैं उन कथाओं और चौंपाईंयों को भूल भी गया क्योंकि बहुत से लिबरल पत्रकारों ने इस बात का पूरा इंतजाम किया था कि इसको सांप्रदायिकता के ढांचें में रखा जाएं। खैर अयोध्या पहुंचा तो दिल धक से रह गया कहां वो वर्णित नगरी और कहां ये वीरान से मंदिरों का एक कस्बा। किसी मंदिर के सदियों पुराने होने का भी कोई चिन्ह नहीं दिख रहा था। (हालांकि बाद में फारसी और अरबी इतिहासकारों के अनुवाद को देखकर समझा था कि उत्तरभारत में कोई मंदिर उस वक्त नहीं छोड़ा गया था जिसे वामपंथी इस देश का स्वर्णकाल कहते है) शहर को देख कर कही से नहीं लगा कि पांच हजार साल की सभ्यता का केन्द्र रहा है कभी ये शहर। दीवाली , दशहरा या फिर जिस वजह से इस देश को देश कहा गया वो तमाम मान्यताओं का आधार भूत शहर। लेकिन इस शहर में रूकने कि जगह तक नहीं। शहर जिंदा था तो उन लोगों की वजह से जिन लोगों को बौद्धिक टाईप पत्रकार सांप्रदायिक अनपढ़ जनता कह रहे है। कंधों पर झोले, सिर पर पोटली और बच्चों को पकड़ते हुए धोती पहने हुए औरतें राजा राम की नगरी में अपने आप को एक बार उपस्थित होने का सौभाग्य हासिल करने पहुंचते है। पुलिस की इतनी मौजूदगी क्योंकि बीच में शांति समर्थकों ने शांति के हथियारों से बचे कुछे अवशेषों को भी बामिमान बनाने की कोशिश की थी। क्योंकि यहां मूर्ति का होना इस देश के बचे होने का सबूत दिख रहा होगा।
खैर बात सिर्फ अयोध्या की और उस फोटों की। सत्तर साल के इस देश की आजादी के इतिहास में अय़ोध्या का जिक्र ही नहीं हुआ। महज बीजेपी या संघ की सत्ता की बेल लपेटने की कोशिश के बीच ये नाम देश के बीच उभरा। परंपराओं और इतिहास के बीच जितनी दूरी इस देश में वामपंथियों ने पैदा की है वो शायद ही किसी देश में हो। रामजन्म भूमि के नाम पर जिस शहर को लगातार सदियों से सभ्यता के दरिंदों ने रौंदा, उसकी जनता के नरसंहार किए लेकिन वो स्मृति मिटा नहीं पाएं। उस शहर से इतनी दूरी सत्ताधारियों की क्यों रही। ये बात अचानक इस फोटों के साथ आई। ये देश इस तरह से नहीं बना है कि क्रिसमस का नाम लेते ही वेटिकन की फोटो जेहन में तारी हो और ईद का नाम तो आपको मक्का और मदीना की सजावट दिखाई देती है उस तरह से दीवाली पर अयोध्या बन जाएं क्योंकि सभ्यया का केन्द्र हो या फिर परिधि का बिंदु ये आस्था धर्म ने बख्शी है कि किसी को कही जाने की कोई अनिवार्यता नहीं। किसी भी धार्मिक आख्यान को मैने अभी नहीं देखा जो किसी भी हिंदु को अयोध्या की यात्रा करने को धार्मिक कर्तव्य मानता हो। जिसका मन हो राजा राम के दरबार में जाकर चरण रज ले नहीं तो जहां है वही से राम राम कर ले। इसके बावजूद भी वो शहर लोगों के मन में कही बसा हुआ था। और मैं आजतक समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इस शहर के साथ ऐसा क्यों किया गया। देश के हर हिस्से में पर्यटन के नाम पर खूब प्रचार चला चाहे शेर दिखाया हो या फिर गधा लेकिन प्रचार के लिए प्रतीकों का सहारा लिया गया। लेकिन इस शहर को तो देखा ही नहीं। तुष्टिकरण किसी भी कारणों से हो सकता है लेकिन शहर ने क्या बिगाड़ा था कि एक विकास को तरसता शहर अपनी परंपरा से ही विमुख कर दिया। इस शहर को धूल में मिलाने की कोशिश जरूर की गई होगी लेकिन धूल से फूल बनाने की कभी कोई कोशिश शहर में नहीं दिखी। वो शहर जिससे सात-आठ हजार साल पुरानी कहानी का गर्भनाल का रिश्ता जुड़ा है वो शहर इतना वीरान सा क्यों था कभी जवाब नहीं मिल सका। सरयू या नेत्रजा यानि भगवान विष्णु के नेत्रों से जन्मी नदी किस तरह नाले की तरह बहती रही इसको लेकर किसी सरकार के दिल में दर्द नहीं उपजा क्योंकि इसके कहने से शायद वोटों को टोटा पड़ जाता ।
उस वक्त थोडा़ सा दर्द हुआ था शहर को देखकर हालांकि उस वक्त ये नहीं सोचा था क्योंकि उस वक्त बीजेपी सेंटर में नहीं थी और वामपंथियों को देश के टूटने का कोई खतरा नहीं दिख रहा था और लिबरल बौंने ( पत्रकार ) देश के इतिहास को लेकर इतने चिंतित नहीं थे तो मुझ बौंने को भी कोई खतरा नहीं दिख रहा था। मैंने सोचा भी नहीं कि ये शहर क्या है और क्या हो गया। खैर मैं वापस लौट रहा था। लखनऊ से पंडित राम शर्मा जी मुझे एअरपोर्ट छोड़ने के लिए कार में साथ चल दिए। लंबी व्यक्तिगत परेशानियों से निकलने पर पंडित जी खुश दिख रहे थे और परेशानियों के दौर में मेरी हमेशा उनके साथ बात हुआ करती थी ऐसे में मैंने पंडित जी से गुजारिश की रामकथा से संबंधित कुछ सुना दो और पंडित जी ने उस दिन जो सुनाया पता नहीं क्यों मुझे आज बेहद याद आ रहा है।
कहत रघुबीर सुनत हनुमाना
सब दिन होत न एक समाना.......
इतनी मधुर आवाज से गाया गया ये भजन जैसे आज उस फोटों के साथ मुझे याद आ रहा है। कि शहरों की किस्मत भी बदलती है। मैं किसी भी पार्टी को समय का उभार मानता हूं और इतिहास के लंबें फलक में उसकी भूमिका कुछ पलों की दिखती है लेकिन इस बार अयोध्या के दियों ने मुझे काफी खुशी का अहसास दिया है। और मैं इस बात के लिए लिबरल लोगों से शर्मिंदा नहीं हूं। बस याद आ रही है तो सिर्फ ये चौंपाई आप भी पढ़ियें और नेट पर जाकर सुन भी सकते है
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥
1 comment:
Jay shree Ram 🙏🚩
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