Monday, March 26, 2018

ये कौन अजनबी है मेरे गांव में


"आजा भाई , बड़े दिनों बाद गाम में दिखाई दिया।"
आवाज तो अजनबी नहीं थी लेकिन हाल ही में ऊंची हो गईं दीवारों के पीछे से एकदम पहचान लेना मुमकिन नहीं हुआ। नजरों ने आवाज का पीछा किया। और दीवार पार जानवरों के खूंटों को पार कर सन की बुनी हुई खाट पर बैठे हुए एक कमजोर दिख रहे शख्स पर जा पड़ी। "पवन ..
क्या हाल है पवन सिंह" ।" क्या चल रहा है।" ये मेरी आवाज है जो मुझे ही दूर से आती हुई लग रही थी। उस शख्स को देखना और अपने जेहन की यादों में जमें हुए पवन से मिलाना बेहद कष्टकर लग रहा था। मेरे बचपन का दोस्त, कभी बहुत तेजी से काम निबटाने में माहिर पवन बहुत कमजोर हो चला है। पैंतालीस को पार करने के साथ ही थके हुए दिख रहे पवन के पास जाकर भी लग रहा था जैसे दूर के सफर से लौट रहे इंसान से मिल रहा हूं। वो बगड़ अब रह नहीं गया। गांव के छोटे से हिस्से में जाने कितने घर उग आएँ है। पवन, नानक या फिर ऐसे ही एक दो और लोग जिनको मैं पहचान सकता था अपनी यादों के सहारे बिलकुल दूसरे सिरों पर खड़े हुए पेड़ लग रहे थे जिनको दूर से देख भर रहा था। उनके साथ जुड़े हुए किस्सों को याद करना उनके सामने खड़े होकर भी तन्हा हो जाना था।
घर के पास से उठकर अब जिंदगी कही दूसरी जगह जा बैठी है। ऐसे में कभी भी दिल से मजबूर होकर घर नहीं जा पाता लेकिन कई बार दूसरी वजहों से गांव में जाना होता है। कल ऐसे ही गांव में गया। अपना ही घेर अजनबी सा दिखा। घर के अंदर आवाज सिर्फ हवाओं की है। तालों को खोलते हुए देखना और फिर बंद होते हुए देखना जैसे एक जिंदगी के पन्नों का पूरी तरह खुलना और फिर बंद होने जैसा था। लगा कि ताले के खुलने और बंद होने के बीच एक जिंदगी खुलती और बंद होती है। इतना बड़़ा घर और घेर ( अपने गांव के हिसाब से )। बचपन में छुट्टियों में गांव एक अनिवार्य सवाल था जिसको हर साल की गर्मियों में हल करना होता था। उसी दौरान कुटुंब के बच्चों से दोस्ती हुई। और बचपन की रवायतों के मुताबिक बनती और बिगड़ती रही। एक बार की छुट्टियों की दोस्ती अगली छुट्टी में विवाद से शुरू हो सकती थी या फिर विवाद में खत्म हुई छुट्टियों की शुरूआत दोस्ती से हो सकती थी।
सालों बाद दिल्ली आने के बाद जैसे गांव किस्सों का गांव हो गया। आज का किस्सा ऐसे ही बहुत से किस्से। लेकिन गांव तो गांव है। मेरे पुरखों की मिट्टी का गांव। उनके पसीने की बूंदों को अपने में समेटे हुए गांव। इसीलिए जब भी शहर पहुंचता हूं और पिताजी देखते है कि एक दिन रूक सकता हूं तो कहते है चलो गांव में घूम आते है। इसीलिए पिताजी को लेकर गांव चला गया। बागों से होते हुए गांव में अपने घर में घूम कर पुराने घर की ओर चल पड़ा। सुमित को लेकर चला फिर घेर से निकल कर सालों बाद उन रास्तों की ओर चल पड़ा जहां कभी बचपन में जाता था। गांव की चौहद्दी या फिर गांव की सीम। लेकिन रास्तें में अपना ही गांव अब मुझे अजनबी लग रहा था। ज्यादातर गांवों के घरों में रहने वाले बदल चुके थे। कुछ घरों में ताले लग चुके थे और दरवाजों को देखकर लगता है कि अब इनका इंतजार काफी लंबा होता है। कुछ घरों में लैटे हुए लोगों देखकर जानकारी चाही तो पता चला कि ज्यादातर के बच्चों ने अब शहर को मुकाम बना लिया है। गांवों में बैठे हुए उन हमउम्र या फिर बुजुर्गों के चेहरे पर अजनबीपन ज्यादा दिख रहा था आत्मीयता कम। लगा कि ये अजनबीपन कितने सालों में यहां पसर गया आत्मीतया की जड़ों को वक्त और बदलती जिंदगी ने सूखा दिया है। मैं खुद पर झुंझला भी रहा था कि क्या यहां सबकुछ वैसा ही होना चाहिए था जैसा मेरी सोच के मुताबिक होता। या फिर ये गांव आज भी मेरा इंतजार करता उसी तरह से जैसे पहले करता था। फिर से गौर करता हूं। गांव में अब सीमेंट की बनी हुई सड़के है। काफी नए बने हुए घरों में ऐसी तमाम सुविधाएं है जो शहरों में मिलती है। लेकिन लोग नहीं बचे। घर में बैठे हुए बूढ़ों के लिए भी एक दूसरे का घेर दो देशों की सीमाओं में दिखने लगा जहां तक की दूरी तय करने में जाने कितने वीजे और पासपोर्ट की जरूरत पड़ने लगी। गांव में बैठे हुए बुजुर्ग बस बेटों के पैसो की कहानी के सहारे वक्त की सीढि़यां चढ़ने में जुटे है। कई लोग आखिर में कहते है कि बस अब राम अपने पास बुला ले।
ये कौन सा गांव है। ये कौन लोग यहां बस गए। वो लोग कहां चले गए। जिनके सहारे बचपन से जवानी का सफर तय किया था। जिनसे बहुत सी कहानियां लेकर अपनी मर्यादाओं की नींव रखी। जिन लोगों के उसूलों की रोशनी से शहर के अंधेरों में भी सफर तय किया। और वो सीधे लोग जिन्होंने अपने मुंह से कुछ कहा नहीं कि जिंदगी को कैसे जीना है बस अपनी कहानी सुना दी थी। इस दोपहर में मुझे ऐसा लगा कि वो कहानियां मेरे कंधों से अब कौन उतारना चाहेंगा। मैं किसको कहूं कि सुनों ये गांव कैसे बना था। सुनों उन लोगों ने क्या कहा था। क्योंकि खुद मैं इस गांव से चला गया हुआ तन्हा सफर हूं। और शायद गांव की कहानी वो सिरा भी जहां से कई सौ साल से बसे हुए गांव का संवाद आने वाली पीढ़ियों से अलहदा हो जाएंगा। क्या मैं गुनाहगार हूं गांव के गूंगे होने का या फिर ये वक्त है जो इस रथ को इस रास्ते पर ले आया।
विनोद शुक्ल की एक कविता शायद मुझे इस वक्त बेहद याद आ रही थी। क्योंकि मेरे बचपन के कुएँ की जगह अब एक घर खड़ा था और मैं जानता हूं कि वहां घर के तले एक कुआँ था।
सूखा कुआँ तो मृत है
..............................
सूखा कुऑं तो मृत है
बहुत मरा हुआ
कि आत्महत्या करता है
अपनी टूटी हुई मुंडेर से
अपनी गहराई भरता हुआ
कुएं के खोदने से निकले हुए
पत्थरों से
जो मुंडेर बनी थी
कुएं के तल की कुँआसी इच्छा
उसकी अंदरूनी गहरी
बारूद से तड़कने की
परंतु अपने ही निकले हुए पत्थरों और मिट्टी से
भरता हुआ कुआँ
कुआँ न होने की तरफ लौट रहा है,
अब ये पलायन था कुएँ का
गांव तो पहले उजाड़ हो चुका था।

No comments: