Monday, June 13, 2016

मथुरा- बौंने - पुलिस और दहकते हुए सवाल

मथुरा में जवाहर पार्क है। दो सालों से वहां कब्जा है। उपरी अदालत तक मामला चला गया। सत्याग्रही है हजारों की तादाद में। फिर एक दिन टीवी चैनलों पर चलने लगा। पुलिस पर पथराव। सत्याग्रहियों को निकालने के लिए पुलिस ऐक्शन में एसपी सिटी और फरह के थानाध्यक्ष की मौत। इसके बाद पता चलता है और फिर सब कुछ आग के हवाले। आग से निकलती है दो दर्जन से ज्यादा लाशें। पहचान होना मुश्किल है। डीजीपी भी मौके पर पहुंचे। फिर अगले दिन तक देश के मीडिया को सुध आ गई। इसको और सरल शब्दों में कहे तो सूंघ आ गई टीआरपी की। और तमाम चैनल चल पड़े टीआरपी से सुर्खरूं होने। फिर अखबारों में भी लिख रहे पत्रकारनुमा लोगो को जोश आया। और फिर शुरू हुआ एक शख्स का टीकाकरण। किताबों में ब्रह्मराक्षस के जितने गुण हो सकते थे सबसे नवाज दिया। मैं अखबारों को पढ़ रहा था और सैकड़ों मील दूर बैठा हुआ कांप रहा था। हे भगवान। इतना ताकतवर शख्स वहां बैठा था। पूरा प्लॉन तैयार था। देश पर कब्जा करना था। लग रहा था कि मथुरा से शुरू होकर ये शख्स जल्दी ही दिल्ली पर कब्जा करने वाला था। पार्क में उसकी सत्ता चल रही थी। सैंकड़ों की तादाद में हथियार थे। फिर सुर्खियों में आया कि रॉकेट लांचर भी मिल गया। अमेरिका में बना हुआ। कुछ बच्चों के खिलौने जल गए होंगे आग में नहीं तो टैंक भी मिलना चाहिए था। कुछ लोगो ने उसको नक्सल से लिंक की जांच एमएचए से करा दी। गजब का उत्साह चल रहा था एक दूसरे से आगे बढ़ कर खबर लिखने का। लेकिन कुछ दिन पहले तक इस सब का कुछ पता नहीं था इन पत्रकारों को। ये पार्क शहर के भीतर ही था। एसपी और डीएम के दफ्तरों के करीब। शहर के बीचोंबीच। जहां रोज ये महान खोजी पत्रकार अपनी बाईक लगाकर किसी दफ्तर में बैठ कर साहब लोगो को नमस्ते करने जाते थे। और साहब लोग वो जो मथुरा जैसे जिले में समाजवाद के नायकों के प्रसाद स्वरूप इस जिले में पोस्टिंग का मजा लूट रहे थे। लेकिन किसी को लगा नहीं कि लादेन का गुरू यही रहता है। किसी को लगा नहीं नक्सलवाद के नायकों से भी बड़ा नायक सामने पार्क में जन्म ले रहा है। लेकिन क्या ये सच है। क्या झूठ के धुएं में सच को इतना पीछे नहीं धकेल दिया गया है कि इस घटना के लिए दिल्ली से कुछ घंटों या कुछ दिनों की मोहलत लेकर रिपोर्टिंग करने पहुंचे बौंनों की आंखों पर लगे रेबैन के चश्मों से दिखना मुमकिन नहीं रहा । लेकिन रिपोर्ट तो करनी थी। शहादत हो चुकी थी। पुलिसअधिकारी मर चुके थे घटना में। आखिर ये शहादत कम तो नहीं है। ऐसे में लाशों की गिनती करना बेकार है। 
अब दिल्ली से पहुंचे पत्रकारों की सूचना का स्रोत क्या होगा। लोकल के वे लोग जो पुलिस के करम के मोहताज है। जो टीवी पर चेहरा और अखबार में नाम छपवाने के लिए कुछ भी बोल सकते है। वो लोग जिनको पुलिस अब गवाह बना देंगी। वो लोग जो पार्क में थे और अब पुलिस की निगरानी में, हिरासत में अस्पतालों में बंद है। उनकी जिंदगी अचानक किसी की दया पर अटकी है। और दयानायकों के साथ आएं हुए बौंनों की भीड़ सच जानना चाहती है। सच जो मुफीद हो दयानायकों के लिए। खैर ये भी सच है कि बौंनों की इस टीम का हिस्सा मैं भी हूं। और दोनो तरफ से गालियां खाता हुआ मैं सच के करीब कभी ही पहुंच पाता हूं। अपने जमीर से भी और खबर देखने और पढ़ने वालों से भी। इस कहानी के हर पहलू में अब रामवृक्ष खलनायक है। उसके फोटो दिख रहे है। उसकी कहानियां अखबारों में छप रही है। एक के बढ़कर एक। एक अखबार ने लिखा जींस नहीं पहनने देता था और खुद जींस पहनने वाली महिलाओं से मिलता था रामवृक्ष यादव। किसी को लगा कि पुलिस बिछी हुई थी यादव के सामने। किसी ने लिखा बहुत लंबे प्लॉन के साथ वहां टिका था यादव। लेकिन सवालों का घेरा इस तरह है कि किसी को भी चोट न पहुंचे। जो मर गया सारा दोष उसी के माथे लिपट जाएं।
लेकिन सवाल है कि वो मर कैसे गया। किसने आग लगा दी उन सिलेंडरों को। किसने आग लगा दी उन टैंटों को। कैसे पसलियां टूटी मिली रामवृक्ष की। मौत पिटाई से कि जलने से। वो कौन लोकल थे जिन्होंने इतना बहादुराना काम किया कि पुलिस से आगे बढ़कर इतने बड़े हथियारबंद लोगो की पिटाई कर दी। ये बहादुर इतने दिन तक कहां छिपे हुए थे। उन लोगो की लाशों की शिनाख्त क्यों नहीं हुई। आखिरी सत्ताईस लाशों का सच क्या है। किसने मारा उनको। पुलिस के बयानों पर कितना यकीन करना चाहिए। उसी पुलिस के जिसकी टोपी समाजवादी परिवार की सेवा में लगी रहती है। रामवृक्ष का सवाल अपने आप में एक जाल है सवालों का। हर बार ऐसे सवाल उठते है लेकिन बौंनों के समर्पण के साथ ही खत्म हो जाते है। एक आईजी पुलिस तैयारी में था लेकिन तैयारी नहीं थी। एक एसपी और थानेदार मरता है। और फिर दो दर्जन से ज्यादा लोग जल मरते है। फिर पता लगना शुरू हो जाता है कि इतना हथियार था और इतना खतरनाक था। किस-किस राजनीतिज्ञ के साथ उसका रिश्ता था ये कहानी चलने लगती है। जांच सीबीआई से नहीं कराना या नही कराना राजनीति लगता है। क्या आपको लगता है कि उन लोगो ने खुद आग लगाई होगी। क्या आपको लगता है कि टैंट में आग लगाकर मरने वाले औरते और बच्चें फिदाईन थे। क्या आपको लगता है कि रामवृक्ष खुद ही जलना चाहता था। उसके परिवार को किसके क्रोध ने जला डाला। एक बाप के साथ बेटी और उसका पति और बेटा और बच्चें कैसे गायब हो गए। जैसे इंसान नहीं थे बल्कि धुआं था और पुलिस की सीटियों की हवा से गुम हो गया। कहां और कैसे जिंदा जला दिया गया इन सबको। कैसा और किसका गुस्सा खा गया इनको। 
पुलिस की जांच कभी हो नहीं सकती। पुलिस के टुकड़ों पर पलने वाले बौने सच को इतना धुंधला कर देते है कि उसके पार कुछ देखना असंभव हो जाता है। अब कोई ये नहीं बता पाएंगा कि औरतों और बच्चों से भरे हुए पार्क में इस तरह का पुलिस एक्शन गोलियों और बंदूकों के साथ होना था। एक ड्राईवर के दसहजार करोड़ के आश्रम की सत्ता संभालने के पीछे किस समाजवादी नायक का हाथ था। क्या उस का इसके साथ कोई रिश्ता था या नहीं। अब किसी भी सवाल को उठाने पर आपको गालियां मिलेगी क्योंकि लोग अपनी जाति के हिसाब से खबर का अर्थ तय कर लेते है। और पुलिस यही चाहती है। हर बार उसकी तरफ उठने वाले सवालों का रूख वो फिर से जातियों की आपसी लड़ाई की ओर मोड़ देती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। नहीं तो कम से कम 27 जिंदा लोगो को लाश में बदलने वालों को कुछ तो सबक दिये जाते। 
बहुत सारे लोगो को गालियां देने से पहले रामपुर तिराहा कांड, विक्टोरिया पार्क और रामलीला मैदान को याद करना चाहिए। इन सबके नायक पुलिस वाले ही थे।
आजकल एक समाजवादी एसएसपी की चिट्ठियों को बहुत से बौंने बहुत सुंदर मानकर शेयर कर रहे है बस इस सरकार के आने के बाद उन साहब की पोस्टिंग देख ले और फिर जरा सोचे कि कितना दम है साहब की कथनी और करनी में। एक कविता थोड़ी लंबी है लेकिन जिन्होंने इस लेख को इतना पढ़ने में वक्त खराब किया है शायद उनको चंद्रकात जी की ये कविता कुछ बता दे।
डर पैदा करो/ भयभीत लोग जब बड़ी तादाद में इकट्ठे हो जाएंगे/तो खून-खच्चर-आगजनी का फायदा मिलेगा/हर वक्त हमें लोहा लेना है अमन-चैन से /सुरक्षित मानसिकता सबसे बड़ी दुश्मन है/इसके विरुध्द पर्चियां, पैम्फलेट,गुमनाम खत,टेलीफोन/ और अफवाह फैलाने वाली कानूफूसी/सबसे कारगर हथियार है/पेट्रोल और आग घरों और इंसानों पर ही काफी नहीं/उनके सोच, सपनों और नींद तक पर हमले की /सूक्ष्म कार्यविधि पर अमल हो/ होना ये चाहिए कि लोग कुछ भी तय न कर पाएं/असमंजस,अटकलें ,अफवाह से बस्ती और बाजार ही नहीं/आदमी के भीतर का चप्पा-चप्पा गर्म रहे /असल मकसद है डर पैदा करना/फिर आग अपने करतब खुद दिखाएंगी
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साफ-साफ कह दिया गया था/कि हरकत में कुछ भी ना बचे/सिर्फ लपटों और धुएं के सिवा/चीख तक नहीं मुंह में डुच्चा दिया जाए/पत्थर हो जाएं आंखों में आंसू/होंठों पर कातर पुकार/चेहरे पर दहशत/बचाओं का चीत्कार टूटे हुए पंख की मानिन्द/लटक जाए वहीं होंठ के नीचे/ पर मिले है सबूत लापरवाही के/हिल रहे थे कटे स्तन बह रहा था दूध/पास ही फड़फड़ा रहे थे बच्चे के चीथड़ा होठ/पहला आपत्ति हरकत में पाया जाना इनका/दूसरे कोई शिनाख्त नहीं बची/ हलाक हुए मां-बच्चे की/मुश्किल हो रहा था मर्दुमशुमारी में/इनकी धर्म जाति भाषा का जान पाना/इस बाबत सख्त चेतावनी दी है ऑपरेशन प्रकोष्ठ के/सरदार क्रमांक दो ने/क्योंकि गड़बड़ा जाते है आंकडे़/किस खाते में डाला जाएं ऐसी वारदात को।

Thursday, June 9, 2016

गरीबी और गरीब इस देश का व्यापार है। गरीब दो किडनी, दो आंखे, एक लीवर और छह लीटर खून रख कर क्या करेंगे

साहब गांव के गांव कट रहे है। गरीबी के चंगुल में फंसे हुए लोग दक्षिण भारत में जाकर अपने आप को कटवा रहे है। दो ढाई लाख रूपए के लालच में वो लोग अपने आप को जिंदगी भर के लिए बेच रहे है। आवाज में दर्द था न खुशी। बडी ही सपाट बयानी के साथ वो युवा बोल रहा था। साहब गरीबों का खून पानी की तरह बिकता था आज किड़नी सेम के बीज की तरह बिक रही है। चलिए दिल्ली में ही दिखा देता हूँ भीख मांग रहे एक किडनी वालों को ......
दिल्ली पुलिस के हालियां किडनी रैकेट के छापे की कहानी के बाद ये पुरानी कहानी याद आ गई। और याद आ गए वो सब किरदार जिन को मैंने अपनी एक खबर में शामिल किया था। देश की राजधानी से लेकर आंध्र प्रदेश, तमिलनाड़ु, गुजरात, राजस्थान उत्तरप्रदेश और भी दूसरे राज्यों तक किड़नी का अवैध व्यापार चल रहा था। एक दो साल से नहीं उस वक्त भी एक दशक से। एक गांव ऐसा जिसमें एक भी परिवार ऐसा नहीं था जिसके घर से एक या दो किड़नियां नहीं बिकी थी।
एक दशक पहले की बात है। रिसेप्शन से फोन आया। एक लड़का आया हुआ है आप से मिलना चाहता है। नाम क्या है। खुशी। अजीब नाम था। मैं बाहर निकल कर रिसेपश्न पर आया। एक युवक वहां बैठा था। मैंने कहा कि बताईएं मेरा नाम ही धीरेन्द्र है। युवक ने कहा कि उसकी बात लंबी है। थोड़ा सा आपको समय देना होगा। युवक शक्ल से ही थका हुआ और भूखा दिख रहा था लिहाजा मैंने उसे कहा कि चलो बाहर चलते है। बाहर ढाबे पर बैठकर कुछ खाते हुए मैंने पूछा कि ये आपाक नाम बड़ा अजीब है। तो उसने कहा कि साहब नाम तो यही रख दिया गया है कागजों में। मैंने आगे पूछा कि क्या बात है बताओं। खुशी ने अपनी शर्ट ऊपर उठा दी। अजीब सी बात थी। ये क्या कर रहे हो। खुशी ने कहा कि सर शरीर में कोख के हिस्से पर देखिए। एक लंबा सा चीरा दिख रहा था। जो टांकों के निशान से भरा हुआ था। ये क्या है। साहब किडनी बेच दी हुुई है। दी हुई है मतलब। परिवार को दी हुई है। नहीं साहब बेच दी है। बेच दी है कितने में  बात तो दो लाख रूपए की हुई थी लेकिन पहले 70 हजार रूपए देने के बाद बाकि पैसा नहीें दिया गया। क्या आप ये खबर करेंगे। तुम को क्या मिलेगा। साहब मुझे तो अब पैसे की उम्मीद नहीं है। लेकिन बाकि सब गरीबों की जिनकी किडनी दी जा रही है शायद इसके बाद उनके पूरे पैसे मिल जाएं। लेकिन हम करेंगे कैसे। बहुत आसान है साहब। मुझे उसकी बात पर शक हो रहा था। क्योंकि आसानी से कैसे शूट हो सकता है। लेकिन उसने कहा कि साहब वहां तो आपकों झुंड़ के झुंड़ मिल जाएंगे आप चलिए तो। मैंने उसकी बात पर यकीन करने से पहले कहा कि इस पर तो कानून बना हुआ है एक कमेटी है वो चैक करती है। खुशी ने कहा कि साहब आप चलिये तो चैन्नई आपको सब कुछ अपनी आंखों से दिख जाएंगा। मैं फिर भी मुतमईन नहीं हुआ तब उसने एक कागज दिखाया और मुझे उसकी बात में मद लगा। कागज में मोहम्मद खुशी ने एक हिंदु आदमी के तौर पर अपनी किड़नी बेची थी, एक एक मुस्लिम लड़के ने हिंदु व्यापारी के रिश्तेदार के तौर पर अपनी किडनी दान दी थी कागजों के मुताबिक। खबर काफी हैरान करने वाली थी। लेकिन हिंदी टीवी चैनलों की टीआरपी गणित में फिट नहीं बैठ रही थी। क्योंकि इसका सिरा दक्षिण भारत तक जा रहा था। .ये ही सवाल था ब्यूरो चीफ का। कोई दुर्भावना नहीं बस टीआरपी और टीवी का ख्याल। आप खुद ही बात कर लो न्यूज डायरेक्टर से। मैंने खुद जाकर न्यूज डायरेक्टर सर से बात की। उनको विश्वास दिलाया कि ये एक पब्लिक इंट्रेस्ट की खबर है। खैर जाने की अनुमति मिल गई। खुशी और अपने साथी कृपाल सिंह के साथ निकल पड़े चैन्नई में खबर कवर करने। एक किड़नी ट्रांसप्लांट के रोगी की फाईल का इंतजाम किया। इंदौर से जीतू दा ने एक पेशेंट की फाईल भेज दी। चैन्नई के होटल में रूकने के वक्त लगा कि शायद काफी मेहनत का काम ले लिया हाथ में। अपनी भाषा समझने वाला एक भी नहीं। पहले दिन सिर्फ खुशी से पूरे मामले को लेकर फिर से माथापच्ची की। और प्लॉन तैयार करने की कोशिश की। लेकिन खुशी का कहना था कि साहब किसी प्ला़न की जरूरत नहीं आप चलो तो। और फिर चैन्नई के नामचीन हॉस्पीटल्स का दौरा शुरू हुआ। मैंने कई हॉस्पीटल्स में जाकर चैक किया। और लगा कि ये क्या हो रहा है। दिमाग एक दम से सुन्न हो चुका था। कोई कानून नहीं दिख रहा था। शेरू। अहमदाबाद का रहने वाला दलाल। स्वर्णा भवन में आकर मिला। फिर गिरीश दलाल। फिर हनीफ, सलीम, दीपक और भी जाने कितने नाम जो आकर अपने रेट बता रहे थे। हर किसी ने कहा साहब बीस लाख रूपए में ऑपरेशन का ठेका। मेडीकल से लेकर लीगल तक सब का हिसाब-किताब उनका। शेरू के साथ रेस्टोंरेंट में पांच किडनी देने वालों से मिला जिनकी किडऩी निकल चुकी थी और वो अस्पताल से उसी दिन निकल कर अपने गांव जा रहे थे। पैसा मिलने की खुशी उनके चेहरे पर दिख रही थी। हालांकि किसी को भी पैसा पूरा नहीं मिला था लेकििन जो भी अभी मिल रहा था उनके लिए काफी ज्यादा था। शेरू ने बताया उसके बीस से ज्यादा ऑपरेशन उस वक्त चैन्नई के अलग-अलग हॉस्पीटल में चल रहे है। और वो उन डोनर को इसलिए लाया था ताकि मुझे विश्वास दिलाया जा सके कि उसके पास बहुत तादाद में डोनर है। गुजरात के अलग-अलग गांवों से लाएं गए हुए इन डोनर्स को देखकर कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अपने परिवार वालों के लिए या खुद के लिए ये किडऩी बेच रहे है। फिर मुलाकात हुई गिरीश के आदमी से। गिरीश अहमदाबाद का रहने वाला एक बहुत बड़ा दलाल था। इतना बड़ा कि दलालों के बीच एक महानायक। नाडियाद इलाके का रहने वाला। नाडियाद गुजरात का वही जिला है जहां सबसे पहले देश में किडनी ट्रांसप्लांट के नाम पर किडनी खरीद कर लगाने का भांड़ा-फोड़ हुआ था। गिरीश के आदमी ने कहा साहब आप बताएँ कब ऑपरेशन कराना है उसी से पहले टेस्ट के लिए आपको आदमी मिल जाएंगा। फिर दीपक सिंह नाम का एक लड़का आया जिसने बताया किस तरह से वो पिछले चाल साल से इस इलाके में ये ही नेट वर्क चला रहा है। यहां तक कि चैन्नई के कई इलाकों में नार्थ इंडिया से आने वाले लोग किराए के मकानों में रह रहे है जिसमें डोनर भी उनके परिवार के आदमी के तौर पर रह रहा है। ये तो साफ दिख रहा था कि यहां डोनर के नाम पर गरीब आदमी अपनी किडनी बेचने में जुटा है।
अब हमने सोचा कि किडऩेी के लिए कमेटी को देखे। वहां जाकर देखा कि दीवारों पर इतने नियम कायदे थे कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि यहां कोई गलत काम करने की हिम्मत भी कर सकता है या सफल भी हो सकता है। लेकिन फिर वहां बैठे हुए दलालों ने बताना शुरू किया कि लाईन में  लगे हुए कई आदमी उनके अपने है। और जिस आदमी के साथ रिश्तेदार बन कर बैठे है उनका कोई लेना देना नहीं है। हाईकोर्ट के सामने एक वकील का नाम दिया गया जहां से अफिडेविट मिलते है। उसके बाद फिर थामस हॉस्पीटल में बैठे हुए एक वकील त्रिमूल से मिलना था। त्रिमूल ही वो शख्स था जो हमको डॉक्टर पलनी एस रविचंद्रन तक ले जाता। त्रिमूल की जिम्मेदारी थी कि वो हर आदमी से पूरे तौर पर मोलभाव कर ये भी चैक कर ले कि आदमी जेन्यूईन केस भी है या फिर कोई गडबडझाला है। आखिर में पलनी एस रविचन्द्रन से मुलाकात हुई। फाईल पर एक नजर डालने के बाद उस डॉक्टर ने कहा कि ठीक है सब काम हो जाएंगा त्रिमूल से बात कर ले। इसी दौरान विदेशी लोगो को भी इन हॉस्पीटल में मंडराते हुए देखा। और जब ये स्टिंग्स किया जा रहा था उस वक्त तक इन हॉस्पीटल में एक दो रेड हो चुकी थी लिहाजा ये इतने बड़े पैमाने पर हो रहा काम भी सतर्कता में चल रहा था। इतना बड़ा काम इतने खुले तौर पर सर्तकता से हो रहा है तो सिर्फ ये अंदाज ही लगाया जा सकता है कि कितने बड़े पैमाने पर ये चल रहा था एक दो साल पहले तक। खैर बात ये ही है कि हम यो स्टिंग्स करके लौट आएं। स्टिंग्स के दो पैकेज चलाएं भी गए। फिर बात आई गई हो गई। खुशी भी ये जान गया कि हम क्या कर सकते है और कितना कर सकते है। वापस चुरू लौट गया। शेरू और हनीफ उसके बाद फोन करके ये बताने लगे कि सर हम इस धंधें को बंद करने में मदद कर सकते है। लेकिन मैं उस तरफ से हट चुका था। बाद में चैन्नई के इसी डॉक्टर को मुंबई पुलिस ने गिरफ्तार किया तब पता चला कि ये आदमी 1500 करो़ड़ रूपए के नेटवर्क का किंगपिन था। लेकिन ये सिर्फ एक चेहरा था। जमानत हुई और ये काम शुरू हो गया देश के अलग-अलग हिस्सों में और भी जोर शोर से शुरू हुआ। दिल्ली के हॉस्पीटल हो या फिर देश के बाकि हिस्सों के सब को मालूम है कि कहां से किडऩी हासिल हो सकती है। किस तरह गरीब लोगो इस देश के लिए एक ब़ड़ी नियामत बन चुके है।
क्योंकि दलाल की निगाह में इस गरीब आदमी के पास दो किड़नी, चार से छह लीटर खून एक लीवर और दो आंखें है। इतना कीमती सामान रखे हुए ये गरीब आदमी अगर दलालों की निगाह में काफी अमीर है। दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ड्रग्स ट्रायल या गैरकानूनी तौर पर होते है। सैकड़ों लोग एक ही शहर में मर गए लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। खबर सिर्फ इस लिए बन गई कि ये देश की राजधानी दिल्ली में एक बड़े हॉस्पीटल से जुड़ा हुआ मामला है और जानकार लोगो की नजर में ये मामला उनके लिए नया नहीं बल्कि इस हॉस्पीटल पर हाथ डाल देना नया है। लेकिन अपना मानना है कि ये केस भी  जल्दी ही हवा हो जाएंगा। और फिर हॉस्पीटल हो या डॉक्टर अपने काम पर लग जाएंगे। 

Saturday, June 4, 2016

अमृतलाल किरार उर्फ डाकू अमृतलाल उर्फ चंबल की लोमड़ी।

अमृतलाल किरार
चंबल के बीहड़ों में डकैतों के किस्सों का सिलसिला बहुत लंबा है। एक से बढ़कर एक दुस्साहसी, एक से बढ़कर एक खूंखार एक से बढ़कर एक निशानेबाज। लेकिन चंबल के बीहड़ों के बीहड़ों में डाकुओं के किस्सों में एक डाकू ऐसा भी है जिसे पुलिस फाईलों में एक लोमड़ी कहा गया। इतना तेज तर्रार कि फरारी में भी आराम से शहरों में घूमता रहे, शक्की इतना कि अपनी परछाई से भी परहेज करे और दुस्साहसी इतना कि डीएम के घर को ही लूट ले,... पुलिस फाईलों में दर्ज चंबल का सबसे शातिर डकैत जिसने अपने दिमाग के दम पर एक दो साल नहीं लगभग चौथाई सदी तक चंबल में आतंक मचाएं रखा उस डाकू का नाम है अमृतलाल। बाबू दिल्ली वाला या अमरूतलाल।
बीहड़ों में खाकी का खौंफ हर किसी बागी या डकैत को होता है। मुठभेड़ हो तो भी डाकू पुलिस से बच निकलने की कोशिश करते है लेकिन अमृतलाल एक ऐसा डकैत जिसको पुलिस का कोई खौंफ नहीं था। वो आम लोगो को नहीं राजाओं को भी लूट लेता था।  घरों को ही नहीं गढ़ियों को लूट लेता था और इतने पर भी बस नहीं तो सुन लीजिए वो पुलिस के थाने भी लूट लेता था। और ये कहानी भी  उसके साथ ही जुड़ती है कि कोई जेल या थाना अमृतलाल को रोक नहीं पाती थी। और चंबल में पकड़ यानि अपरहण को डाकुओं की कमाई का जरिया बनाने की शुरूआत भी अमृतलाल से ही मानी जाती है।  

पुलिस के थाने लूटने वाला डाकू। लेकिन चंबल के डाकुओं के मिजाज से एक दम अलग। किसी भी लूट के लिए मिलिट्री की तरह से तैयारी और फिर लूट के बाद अय्याशी का एक खुला खेल। चंबल के डाकुओं में शायद अमृतलाल अकेला डकैत था जिसकी अय्य़ाशी भी सुर्खियों में थी और मौत भी उसको अय्याशी के चलते ही मिली। 
अमृतलाल के सैकड़ों किस्सें आज भी चंबल की फिजाओं में गूंजते है लेकिन एक किस्सा ऐसा है जिसका रिश्ता सीधे बॉलीवुड से जा जुड़ता है. कहते है कि एक बार  सिनेतारिका मीनाकुमारी और कमाल अमरोही भी अमृतलाल के गैंग के हत्थे चढ़ गए थे। और रात गुजरने के बाद ही उसने दोनों को बाईज्जत शिवपुरी के जंगलों से छोड़ दिया था 
 
चंबल की पुलिस फाईलों में दर्ज एक ऐसे डाकू अमृतलाल ने कैसे हासिल की चंबल की बादशाहत और कैसे पुलिस अधिकारियों ने माना उसके शातिर दिमाग का लोहा देखिए इस बार शिवपुरी। मध्यप्रदेश के बीहड़ों में एक जंगलों से घिरा एक और शहर। इसी शहर के पौहरी थाने का एक गांव गणेशखेड़ा। घने जंगलों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों से घिरा हुए इस गांव तक पहुंचना आज भी आसान काम नहीं है। ... 
इस छोटे से गांव का ये घर किसी की भी निगाह अपनी और खींच लेता है। और इसी घर में 1916 में अमृतलाल का जन्म एक किसान भगवान लाल के घर हुआ था। कभी ये गांव अमृतलाल के बाबा ने ही बसाया था और गांव में ज्यादातर घर उन्हीं के परिवार के है।  
बचपन में अमृतलाल को पढ़ने के लिए गांव के स्कूल भेजा गया। और फिर गांव के स्कूल से वो पौहरी के स्कूल पढ़ने गया। अमृतलाल का दिमाग तो तेज था लेकिन वो पढ़ाई के रास्ते में नहीं था। उसका मन खुरापातों में लगा रहता था। घर वालों ने बहुत मान-मनौवल कर उसे स्कूल भेजा लेकिन उसका मन स्कूल में नहीं लगा। स्कूल और गांव के बीच के रास्ते में एक दुकान अमृतलाल की निगाह में चढ़ गई। और फिर एक दिन रात में अमृतलाल ने एक कदम तो दुकान के अंदर रखा और दूसरा कदम अपराध की दुनिया में। पुरिस रिकॉर्ड में ये अपराध क्राईम नंबर 62/39 के तौर पर दर्ज हो गया।
परिवार का कहना है कि इस चोरी में अमृतलाल के साथ पढ़ने वाले बड़े परिवार के लड़के भी थे लेकिन जब पुलिस कार्रवाई की बात हुई तो सिर्फ अमृतलाल को आगे कर दिया। इस बात ने अमृतलाल का दिमाग उलट दिया। अमृतलाल गिरफ्तार हो गया। लेकिन पौहरी थाने के लॉकअप में बंद अमृतलाल ने एक ऐसा कारनामा कर दिखाया कि पुलिस ही चौंक उठी।  लॉकअप में बैठे अमृतलाल ने एक पुलिस सिपाही को काबू किया औ 26 जून 1939 को हिरासत से निकल भागा और साथ में थाने से दो मजल लोडेड राईफल और कारतूस लूट कर ले गया। थाने में ये अपराध भी 68 नंबर की जगह पा गया।
अमृतलाल ने थाने से निकलने के साथ ही अपराध की दुनिया में पूरे तौर पर एंट्री ले ली। 1939 में अमृतलाल ने थाने से भाग कर सबसे पहले उत्तरप्रदेश के बीहड़ों में अपनी आमद दर्ज कराई। दो साल तक अमृतलाल चंबल के बीहड़ों में एक दम से गुम हो गया था। 1941 में अमृतलाल ईटावा के जसवंतनगर के डकैत गोपी ब्राह्मण के गैंग में शामिल हुआ। गैंग में उसने सिर्फ गोपी को ही अपनी असलियत बताई बाकि सब उसके बारे में कुछ नहीं जानते थे। गैंग में आते ही उसने लूट और डकैती के लिए योजना बनाने का जिम्मा अपने कंधों पर उठा लिया। 
एक के बाद एक वारदात करनी शुरू कर दी। हर किसी वारदात के बाद अमृतलाल कुछ दिन के लिए गायब हो जाता था। बीहड़ों से निकल कर वो किसी भी शहर में पहुंच जाता था। बस और ट्रेन के सहारे दूर दूर के शहरों में लंबा वक्त बिता कर वापस चंबल में पंहुच जाता था। अपने इन्हीं कारनामों की वजह से अमृतलाल का नाम पुलिस फाईलों में बाबू दिल्लीवाला के तौर पर मुखबिरों ने दर्ज कराया। क्योंकि  न तो पुलिस जानती थी कि पैंट बुशर्ट पहनने वाला कौन सा नया डकैत चंबल के बीहड़ों में पैदा हो गया और न ही बीहडों के बाशिंदें जानते थे कि चंबल का ये डकैत शहरों में कहां गायब हो जाता है।  ये चंबल में अमृतलाल की आमद थी। एक ऐसी आमद जिसकी आवाजाही अगले पच्चीस सालों तक चंबल में गूंजनी थी। 
उत्तरप्रदेश के बीहड़ों में अमृतलाल ने अपनी कारीगरी दिखानी शुरू कर दी। एक के बाद एक लूट और डकैती करने लगा। लेकिन शायद चंबल में उस वक्त किसी को अमृतलाल का नाम याद नहीं था। लेकिन एक दिन अमृतलाल ने अपने गैंग के साथ ऐसा काम कर दिखाया कि पुलिस महकमें के पैरों तले की जमीन खिसक गई। अमृतलाल ने इटावा के डीएम एस के भाटिया आईसीएस के घर की लूट कर डाली। 
इसके बाद अमृतलाल ने कानपुर में एक मिल्स से हथियार लूट लिए। अब गैंग के पास काफी हथियार हो गये थे। 1942 में ईटावा के जसवंतनगर में दो बडी डकैतियां डाली। 1943 में अमृतलाल अपने सरदार के साथ ग्वालियर में एक बड़ी डकैती डालने पहुंचा लेकिन मुठभेड़ में गोपी गिरफ्तार हो गया। गोपी की गिरफ्तारी के साथ ही गैंग की कमान अमृतलाल ने संभाल ली।  अमृतलाल ने गैंग की कमान संभालते ही ताबड़तोड़ डकैतियां डाली और कत्ल किए। हर मौका ए वारदात पर अमृतलाल अपने गैंग के साथ मौजूद रहा। 
1944 में यूपी पुलिस ने अमृतलाल को पकड़ने के लिए कमर कस ली। उसके गैंग के लोगो की निशानदेही की जाने लगी। लेकिन इससे बेपरवाह अमृतलाल ने कई डकैतियां डाली और फिर छिपने के लिए वापस शिवपुरी के जंगलों की पनाह ली। जंगलों में रहते रहते अमृतलाल ने शिवपुरी पर अपनी निगाह गड़ाई और एक के बाद एक लूट और डकैतियां इलाके में डालने लगा। धीरे -धीरे अमृतलाल के गैंग का नाम, उत्तरप्रदेश के ईटावा, मैनपुरी, मध्यप्रदेश में शिवपुरी, गुना, मुरैना और ग्वालियर तो राजस्थान में सवाईमाधोपुर की पुलिस फाईलों में दर्ज होने लगा।
 
पुलिस अमृतलाल के पीछे थी और बेपरवाह अमृतलाल शहरों में आराम से घूमता था। इसी बीच 1946 में आगरा शहर में अमृतलाल अवैध असलहे के साथ पुलिस के हत्थे चढ़ गया। पहचान होने पर अमृतलाल पर डकैती के मुकदमों की झड़ी लग गई और 18 साल की कड़ी सजा सुनाई गई। अमृतलाल पर अलग अलग शहरों में डकैतियों के चार्ज थे लिहाजा पुलिस उसको लेकर अलग-अलग शहर जाती थी। ऐसी ही एक पेशी शिवपुरी में भी हुई। और फिर कोलारस के थाने की हिरासत से अमृतलाल भागने में कामयाब हो गया।  इस बार भी अमृतलाल अकेला नहीं गया। अपने गैंग के दो डाकुओं माता प्रसाद और साधुराम को तो साथ ले गया उसके साथ-साथ तीन दूसरे कैदियों को भी साथ लेकर निकल भागा। 
दो साल तक अमृतलाल ने फिर पूरे इलाके में ताबड़तोड़ वारदात की। और एक दिन ग्वालियर शहर की पुलिस के हत्थे च़ढ़ गया। अवैध हथियारों के साथ गिरफ्तार अमृतलाल को सजा काटने के लिए जेल भेज दिया गया। लेकिन अमृतलाल ने तो जैसे जेल की दीवारों को खिलौना मान रखा था। 1949 में एक दिन अमृतलाल यहां से भी हैरतअंगेज तरीके से फरार हो गया। 
ग्वालियर से फरार होने के बाद अमृतलाल एक दम से बदल गया। गैंग ने बेगुनाह लोगो को मारना और जिंदा जलाना भी शुरू कर दिया। 1950 में मैनपुरी जिले के एक गांव में पांच लोगों को डकैती के दौरान जिंदा जला दिया। एक के बाद एक डकैती। चंबल के बीहड़ों के बाहर अमृतलाल का नाम दहशत का नाम बन रहा था लेकिन चंबल के बीहड़ों के अंदर अमृतलाल का नाम एक दूसरी वजह से बिगड़ रहा था। अमृतलाल की अय्याशियां उसके गैंग के लोगो की निगाह में भी चढ़ने लगी थी।
चंबल के डकैतों ने अपने कुछ उसूल बनाएं हुए थे जिनको वो आसानी से या फिर लोगो की नजरों के सामने कभी तोड़ना नहीं चाहते थे। और सबसे पहला उसूल था कि गैंग के सदस्यों के परिवार पर कोई बुरी नजर नहीं रखेगा। लेकिन अमृतलाल की अय्याशियों ने सारे बीहड़ के सारे उसूलों को धता बता दी। अपने ही गैंग के जेल गए हुए सदस्यों के परिवार की महिलाओं के साथ अमृतलाल अवैध रिश्ते बनाने लगा। 
इसके साथ साथ जिन लोगो ने भी अमृतलाल की हथियार खरीदने या छिपने में मदद की उनके परिवार की औरतों की ईज्जत के साथ भी अमृतलाल हथियारों के दम पर खेलने लगा था। इसी बीच एक डकैती के दौरान अमृतलाल को गोली लग गई। लेकिन अमृतलाल को गोली से भी ज्यादा चोट इस बात से लगी कि ये गोली उसी के गैंग मेंबर जयश्रीरमान ने उसको निशाना बना कर चलाई थी। गैंग में दरार पड़ चुकी थी। जय के साथ गैंग के कई लोग हो गये थे जो अमृतलाल की अय्याशियों से नाराज थे। अमृतलाल अपने समर्थकों को साथ लेकर वहां से निकला और इसी के साथ उसने फिर कभी किसी यूपी के आदमी को अपने गैंग में न रखने की कसम खाई। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक अमृतलाल ने इसके बाद यूपी के इलाकों में कभी कोई वारदात नहीं की और पूरी तरह से अपना ऑपरेशन मध्यप्रदेश और राजस्थान को को ही बना लिया।
अमृतलाल की अय्याशियां पूरे चंबल में सुर्खियां बटोर रही थी। दारू और औरत अमृतलाल की कमजोरी कही जाने लगी। लेकिन अमृतलाल अपने दिमाग की मदद से फिर से बड़ा गैंग खड़ा करने में कामयाब हो चुका था। फिर से चंबल के इलाकों में अमृतलाल का सिक्का चल रहा था। डकैतियों में होने वाली फायरिंग और पुलिस मुठभेड़ से बचने का रास्ता निकाल चुका अमृतलाल अब पकड़ का मास्टर बन चुका था। कही से भी कही भी अमृतलाल आ सकता था और पकड़ को दिन दहाड़े ले जा सकता था। और पकड़ को इस तरह से रखता था कि पुलिस चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी।
शिवपुरी, गुना, मुरैना और ग्वालियर के जाने कितने गांवों में अमृतलाल ने लूट और डकैतियां डाली। लेकिन पकड़ करने के बाद उसने इसी को अपना मुख्य औजार बना लिया। एक दो के बजाया कई बार तो वो आदमियों को झुंड के तौर पर जंगल में ले जाकर बंधक बना लेता था और जबतक एक मोटी रकम हासिल नहीं होती थी वो किसी को नहीं छोड़ता था। एक ऐसी ही वारदात में शिवपुरी शहर के एक प्रसिद्ध मंदिर में पूजा करने गए चालीस लोगो में से 26 लोगो का अपहरण करके वो पालपुर के जंगलों में दाखिल हो गया। एक दो दस दिन नहीं  बल्कि महीनों तक पुलिस उनको छुड़ाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाती रही लेकिन अमृतलाल के शिकंजे से किसी भी पकड़ को बिना फिरौती रिहा नहीं करा पाई। पकड़ रिहा हुई और शिवपुरी पहुंची तो पुलिस के होश ठिकाने नहीं रहे जब किसी भी पकड़ ने अपने अपहरण से ही इंकार कर दिया। 

अमृतलाल का नाम शिवपुरी के जंगलों में एक खौंफ बन चुका था। पुलिस के हाथ पैर बंधे हुए थे। दुसस्साहसी अमृतलाल हर बार पहले  से अलग कारनाम कर पुलिस को चौंका दिया करता था। शहर के सेठ को लूटने से पहले सेठ जी के पैर छूं कर आशीर्वाद लेने की बात हो या फिर उमरी के राजा की गढ़ी लूटने का कारनामा। हर बार अमृतलाल के किस्से लोगो की जुबां पर चढ़ जाते थे। 
अमृतलाल मध्यप्रदेश की उमरी रियासत के राजा अपनी गढ़ी में ( मंत्री शिवप्रसाद सिंह के पिता अगर शिवप्रसाद सिंह का फोटो नीरज मध्यप्रदेश से मिल जाएं तो उसको लिख कर फोटो लगा सकते है ) बैठे तेंदुपत्ते का हिसाब किताब कर रहे थे। कि एक मारवा़डी सेठ अपने कारिदों के साथ आया। राजा साहब के करीब पहुंचा तो राजा साहब ने पूछा बोलो। मारवाड़ी सेठ ने हाथ जोड़ कर सिर झुकाया और जब सिर ऊपर किया तो राजा साहब के होश फाख्ता हो गए। पगड़ी उतार कर हाथ में रिवाल्वर लिए खड़ा शख्स और कोई नहीं अमृतलाल था। । छाती पर बंदूक रख कर पूरी गढ़ी से माल मत्ता और हथियार बंधवाकर अमृतलाल गढ़ी के दो नौकरों के सिर पर सामान रखवा कर फरार हो गया।  

अमृतलाल का हौंसला आसमान पर था और पुलिस को कुछ सूझ नहीं रहा थ। इसी बीच एक दिन अमृतलाल जा धमका राजस्थान के बारा जिले में। वहां के एक थाने कस्बां में दिनदहाड़े जा धमके अमृतलाल ने थाने के हथियार और गोलियों लूटी और आराम से चलता बना।  1954 में एक और थाने बैराड़ जा पहुंचा लेकिन पुलिस समय से चेत गई और अमृतलाल गैंग को भारी गोली बारी का सामना करना पड़ा। अमृतलाल थाने को लूटे बिना ही वापस हो गया। लेकिन इन घटनाओं ने पूरे चंबल में अमृतलाल को और भी कुख्यात कर दिया। अमृतलाल गैंग नंबर तीन बन चुका था। पुलिस चार्ट में पहले नंबर में रूपा पंडित यानि मानसिंह के बाद उसके गैंग का मुखिया दूसरे पर लाखन तो तीसरे पर  जी 3 के नाम पर अमृतलाल का नाम दर्ज हो चुका था। पुलिस शिवपुरी के जंगलों में माथा पकड़ रही थी लेकिन अमृतलाल अपनी अय्याशियों में आराम से मशगूल था। हर गांव में अपने लिए एक औरत का इंतजाम करने वाले अमृतलाल की रात अय्याशियों में ही कटती थी।  पुलिस रिकार्ड में दर्ज दर्जनों औरतों के नाम और पते आज भी अमृतलाल की अय्याशियों का पता देते है। ये रिकॉर्ड़ उन महिलाओं के नाम पर रखा गया जिनके गहरे रिश्ते अमृतलाल के साथ थे। 
अमृतलाल की तलाश में पुलिस जमीन-आसमान एक किए हुए थी। पौहरी थाने में नए इंचार्ज लाए गए। लेकिन अमृतलाल की अपराध कथा में पन्ने जुड़ते जा रहे थे। मध्यप्रदेश 1956 में नया राज्य बना था तो पुलिस ने चंबल को डकैतों से मुक्त करने के नाम पर एक बड़ा अभियान शुरू किया। शिवपुरी और गुना के जंगलों का खार बन चुके अमृतलाल पुलिस के पहले निशानों में से था। लेकिन बेपरवाह अमृतलाल ने मुरैना जिले में पाली घाट के पास शादी के लिए जा रही एक पूरी बारात को ही लूट लिया और चालीस हजार रूपए की रकम हासिल की। बारात से एक आदमी का अपहरण कर उसको जंगल में अपने साथ ले गया बाद में 60,000 की रकम हासिल करने के बाद ही उसको छोड़ा। पुलिस की नाक दम बन चुके अमृतलाल अपने 25 आदमियों के गैंग के साथ धामर में एक बडे़ ठाकुर के घर डकैती डाली और लाखों रूपए के साथ हथियार भी लूट कर ले गया। लूट के साथ ही दो लोगो को भी पकड़ के तौर पर अपने साथ ले गया। 
इसके बाद उसने राजमार्गों पर ही गाड़ियां रोक कर पकड़ बनाना शुरू कर दिया। ग्वालियर के राष्ट्रीय राजमार्ग से दिन दहाड़े दो बड़े व्यापारियों का अपहरण किया और उनसे फिरौती वसूल कर ली। सुर्खियों में बढ़ते जा रहे अमृतलाल ने एक नया धंधा और शुरू कर दिया था. और वो था इलाके ठेकेदारों से चौथ वसूली का। शिवपुरी और गुना के जंगलों में तेंदुपत्ता का हर ठेकेदार उसको वसूली दिया करता था। कोई भी ठेकेदार बिना अमृतलाल को चौथ दिए अपना काम नहीं कर सकता था। 
अमृतलाल के पास इतना पैसा हो गया था कि वो इसको ब्याज पर देने का काम भी करने लगा। इलाके के बडे सेठ उससे  ब्याज पर पैसा लेने लगे। चंबल में एक किस्सा ये भी है कि चंबल के सबसे बड़े कातिल माने जाने वाले लाखन सिंह को भी उसने पचास हजार रूपया उधार दिया था। अमृतलाल ने पैसे के दम पर इलाके में पुलिस से बड़ा मुखबिर तंत्र खड़ा कर लिया था। और उन पर अमृतलाल पानी की तरह से पैसा बहाता था। पूर्व पुलिस प्रमुख के एफ रूस्तमजी ने इस बारे में लिखा कि पचास के दशक के शुरूआत में एक नाई के हेयरकट से खुश होकर अमृतलाल ने उसको 100 रूपए का नोट ईनाम में दिया था। इतना ही नहीं एक मुखबिर ने दस मील साईकिल पर आकर पुलिस के बारे में खबर दी तो अमृतलाल ने उसको 1000 रूपया दिया। 
लेकिन उसकी अय्याशियां उसके खिलाफ जा रही थी। वो अब अपने ही इलाके लोगो को अपना दुश्मन मानने लगा था। औरतों को लेकर उसके लफड़े फैलने लगे थे। अपनी अय्याशियों और शराब की लत ने उसकी समझदारी को हवा कर दिया था. ऐसी ही एक वारदात में वो अपने ही रिश्तेदारों के गांव में जा चढ़ा।
गांव में कई लोगो को मौत के घाट उतारने वाले अमृतलाल को अपने दुश्मन का कुलनाश करना एक खेल लगता था। दुश्मनों का नामों-निशान मिटा देना। और इसी सनक में वो पुलिस थाने को ही उडाऩे चल दिया। 
शिवपुरी पुलिस अधीक्षक चुन्नीलाल ने अमृतलाल को पकड़ने की जोरदार कोशिश शुरू की। इसके लिए इलाके को अच्छे से समझने वाले लहरी सिंह को पौहरी थाने का इंचार्ज बनाया गया। लहरी सिंह ने अमृतलाल के परिजनों पर शिकंजा कसा। लहरी सिंह ने कसम खाई कि वो अमृतलाल को जिंदा पकड़ कर उसको पांच जूते सरेआम लगाएंगे। 
अमृतलाल को ये बात पता चल चुकी थी। उसने भी बदला लेने की ठान ली। लहरी सिंह और अमृतलाल एक दूसरे को मात देने के लिए चाल चलने लगे। लहरी सिंह की धार्मिक आस्था को इस्तेमाल कर उनको मौत के घाट उतारने के लिए अमृतलाल ने कई बार पांसे फेंके।
तो लहरी सिंह भी रोज अमृतलाल के गांव में जाकर उसके परिजनों का सरेआम बेईज्जत करने लगे। अमृतलाल अपनी मां को बहुत मानता था। एक दिन पुलिस अधीक्षक चुन्नीलाल और लहरी सिंह ने अमृतलाल की मां के साथ गेस्टहाउस में थोड़़ी सी सख्ती बरती तो ये खबर अमृतलाल को बर्दाश्त नहीं हुई। अमृतलाल को गुस्से में ये भी ख्याल नहीं रहा कि पुलिस से सीधे शहर में जाकर टकराना मौत से टकराने जैसा है। उसको धुन सवार हो गई कि चुन्नीलाल और लहरी सिंह को ठिकाने लगाना है। और तभी उसको पता चला कि चुन्नीलाल कोलारस थाने पर निरीक्षण करने जाने वाले है। बस इतनी खबर अमृतलाल के लिए बहुत थी और फिर वो जा धमका कोलारस थाना। 
पुलिस थाने में घुसे अमृतलाल ने एक दीवान और सिपाही का कत्ल कर दिया। थाना लूट लिया और बंदूकों को उठा कर चलता बना। लेकिन चुन्नीलाल और लहरीसिंह किस्मत के चलते बच गए। क्योंकि कुछ देर पहले ही वो पुलिस लाईँस जा चुके थे। 
इस घटना ने पूरे प्रदेश में बवाल खड़़ा कर दिया। एक डकैत दिन दहाडे थाना लूट रहा है और सीधे एसपी को मारने के लिए शहर में जा धमकता है। प्रदेश सरकार ने अपना ऑपरेशन कड़ा करने के लिए कहा। लेकिन अमृतलाल तो इस वारदात के बाद बीहड़ों के पत्थरों में गुम हो चुका था। पुलिस के पास न कोई मुखबिर था और न ही कोई पता । आखिर पत्थरों में खोजे तो किसको। लेकिन तभी लहरी सिंह और पुलिस को एक पत्थर में पारस दिखा। एक ऐसा पारस जो किसी लोहे को सोना नहीं बनाता बल्कि एक हैवान बने इंसान से इलाके को छुटकारा दिला सकता है। 
लहरी सिंह का रात दिन सिर्फ अमृतलाल की या फिर उसकी खबर की खोज में ही कट रहा था। हर तरफ मुखबिर लगे हुए थे। लेकिन कही से ऐसी खबर नहीं आ रही थी जो पुलिस को अमृतलाल तक पहुंचा सके। लहरी सिंह अमृतलाल की किलेबंदी में दरार खोज रहे थे कि उनको पता चला कि एक बद्री किरार नाम का लड़का है। ( बद्री किरार का फोटो फीड में है जहां अमृतलाल किरार की लाश के पास बैठा है)  जिसका जीजा कभी अमृतलाल के गैंग में रहा है। और कुछ कहानी का सिरा भी लहरी सिंह को पता चला।  बीस हजार का ईनामी डाकू जिंदा या मुर्दा किसतरह  से कानून के हाथ आ सकता है ये योजना लहरी सिंह के दिमाग में उतर गई।
बद्री किरार की बहन पर अमृतलाल की बुरी नजर थी। बद्री का रथी किरार भी अमृतलाल गैंग का एक्टिव मैंबर था और उसकी मौत हो गई थी। अमृतलाल की नजर उसकी पत्नी नारायणी पर थी। उसको हासिल करने के लिए वो बद्री पर दबाव बनाए हुए था। लाचार बद्री परिवार बचाने के लिए उसके सामने झुकने को तैयार था कि लहरी सिंह उसतक पहुंच  गए।
बद्री किरार के बारे में कई कहानियां पुलिस की फाईलो में दर्ज है। लेकिन उस वक्त के इंचार्ज लहरी सिंह बता रहे है कि किस तरह से उसको ट्रैनिंग दी गई और कैसे उसको कोड़ भी बताया गया। उसके साथ तिवारी जी कोलारस के इंचार्ज थे वो भी  पुलिस के इस सबसे अहम ऑपरेशन को करीब से देख रहे थे।
बद्री को गैंग में एक मैंबर के तौर पर भेजा गया। उस वक्त तक अमृतलाल शराब और अपनी अय्याशियों के चलते गैंग में ही काफी बदनाम हो चुका था। और उसके बुरे दिन शुरू हो चुके थे। लगभग दो दशक से पुलिस की निगाहों से दूर और हर मुठभेड़ में साफ बच निकलने वाले अमृतलाल को लगने लगा था कि पुलिस की गोली और उसके सीने के बीच की दूरी लगातार कम हो रही है। शक्की मिजाज अमृतलाल बेरहम भी हो उठा। युद्दानगर और नवलपुरा की दो मुठभेड़ों में उसको बेहद नुकसान उठाना पड़ा। उसको अपने ही गैंग मेंबर दौलतरसिंह के भाई मंगलसिंह पर संदेह हुआ। मंगलसिंह को गैंग से निकाल दिया गया था। गुस्से से भरे अमृतलाल ने अपने वफादार दौलत सिंह को तड़पा तड़पा कर कत्ल किया। कत्ल के दिन गैंग में फूट पड़ गई। और अमृतलाल के दो बाजू सुल्तान सिंह और देवीलाल शिकारी गैंग से टूटकर चले गए थे।
अमृतलाल ने अपने गैंग में बहनोई मोतीराम को शामिल किया। मोतीराम को एक केस में सजा होनी थी तो अमृतलाल ने उसके दुश्मनों को बेरहमी से कत्ल कर दिया। मोतीराम भी बद्री की बहन पर नजर रखे था। इसके बाद दोनो ही बद्री किरार को परेशान किये हुए थे। इसी बीच बद्री पुलिस के साथ मिल कर दोनों का गेम बजाने का प्लान तैयार कर चुका था। 
बद्री गैंग में शामिल हो गया लेकिन उसने लहरी सिंह के प्लॉन के मुताबिक ये जाहिर नहीं होने दिया कि वो किसी भी हथियार को चलाना जानता है। जब भी उसको कोई हथियार लेने के लिए कहा जाता वो कह देता कि नहीं उसको तो लाठी ही पसंद है। और फिर एक दिन जब अमृतलाल ने उसको कहा कि आज रात उसको बद्री की बहन के साथ गुजारना है। बद्री महीनों से इस दिन को टाल रहा था लेकिन अय्याश अमृतलाल ने उसको विवश कर दिया कि वो अपनी बहन को आज अमृतलाल को सौंप दे। बद्री ने कहा कि गोपालपुर में उसकी बहन आज की रात रहेंगी।
पूरा गैंग गोपालपुर की ओर चल दिया। रास्ते में अमृतलाल ने बद्री पर खुश होकर उसको शिवपुरी के डीएम का वो पर्चा भी दिखाया जिस पर अमृतलाल के सिर पर बीस हजार रूपए के इनाम की घोषणा लिखी हुई थी। बद्री का इरादा पक्का हो चुका था बस मौके की तलाश थी।
18 अगस्त 1959। मुंह अंधेरे से चला हुआ गैंग चलते चलते थक चुका था। भरी दोपहर में गोपालपुर से कुछ दूर पहले ही महुवा के पेड़ों के नीचे गैंग ने आराम करने का तय किया। मोतीराम और अमृतलाल दोनो खुश थे। गैंग के लोगो के लिए पास के गांव से बकरा लाकर काटा गया और शराब का लंबा दौर चला। खाने के बाद गैंग मेंबर तालाब के किनारे सो गए। बीच में अमृतलाल और मोतीराम सो गए और उनके पास बद्री किरार बैठ गया। बद्री ने जानबूझकर खाना नहीं खाया था। तबीयत खराब होने का बहाना किए हुए बद्री को पहली बार अमृतलाल ने अपनी राईफल थमा दी। शायद ये अमृतलाल की पहली और आखिरी भूल थी। 
 
कुछ देर बाद जब गैंग के लोग सो गए तो बद्री ने सबकी राईफले और बंदूके उठाकर तालाब में फेंक दी और अमृतलाल की राईफल से उसको सटाकर एक गोली चला दी। चंबल में चली लाखों गोलियों में से सबसे कीमती गोली। एक ही गोली अमृतलाल को चीरते हुए मोतीलाल के सीने में धंस गई। एक गोली दो शिकार। चंबल के इतिहास में किसी डाकू का अपनी ही गोली से ऐसा अंत इससे पहले कभी नहीं हुआ होगा। 
गोली की आवाज से उठे गैंग के मेंबर जैसे ही आगे बड़े । बद्री ने गोलियों की बौंछार कर दी। निहत्थे गैंग के सदस्य जान बचा कर जंगल की ओर भागे। बद्री ने मोती की राईफल भी उठाई और दोनो राईफलों को टांग कर गोपाल पुर जा धमका। थाने में जाकर लहरी सिंह को कोड वर्ड में सदेंश भेजने की गुहार की। काली गाय मिल गई।
थानेदार गजाधर सिंह ने भगा दिया लेकिन जल्दी ही उनको शक हुआ तो फौरन बद्री को बुलाया गया और बद्री उनको लेकर पुलिस पार्टी के साथ मौका ए वारदात पर पहुंच गया। मौके पर दो लाशे थी जिसमें से एक लाश पच्चीस साल से चंबल के सीने में धसें हुए कांटे यानि अमृतलाल की थी।  पुलिस प्रमुख के एफ रूस्तम जी ने पत्रकारों को कहा कि ये एक चालाक लोमडी़ का अंत है। एंड ऑफ ए क्लेवर फॉक्स। और अमृतलाल की मोटी फाईल में आखिरी शब्द दर्ज हो गए। 
thus ended the criminal career of a man who. starting from thieving, committed almost every serious crime known to law. in his active career of 23 years he committed hundreds of serious offences in, UP,Rajasthan and M.P and collected an enormous sum of money, his death will relieve the people of a large tract of central India from the fear of dacoity.


चंबल का बादशाह रूपा महाराज उर्फ रूपा पंडित जिसे पुलिस डायरी में नाम मिला नीली आंखों का शैतान।

चंबल का पानी कभी नहीं सूखता और नहीं सूखते है रिश्तें। रिश्तों में अहसान चुकाने के लिए पीढ़ियां कुर्बान हो जाती है। जिसमें एक घर और छत देने का अहसान चुकाना है खून से। चंबल में रवायत है कि डकैत की मौत के साथ ही उसकी कहानी खत्म हो जाती है लेकिन मानसिंह के साथ ऐसा नहीं हुआ। मौत मानसिंह की हुई कहानी की नहीं। मानसिंह के बाद भी उसका गैंग हर वारदात के बाद सिर्फ मानसिंह की जय बोलता था और किसी की नहीं। क्योंकि मानसिंह के बाद गैंग का सरदार बना हुआ डकैत सिर्फ मानसिंह की जय चाहता था और किसी की नहीं। चंबल में ये पहला मौका था जब किसी डकैत का खून नहीं उसका रिश्तेदार नहीं बल्कि उसका पाला हुआ डाकू गैंग का सरदार बना। और इस कसम के साथ कि खून का बदला सिर्फ खून है। मानसिंह की मौत का ऐसा बदला कि सुनने वाले भी कांप उठे।  
चंबल के बीहड़ों में राजा मानसिंह की मौत से भी बड़ा सवाल था कि आखिर मानसिंह के बाद कौन।  चंबल के बीह़ड़ों का राजा मानसिंह। पुलिस हो सरकार हर किसी के लिए राजा मानसिंह का कद कानून से बड़ा हो चुका था। गैंग में मानसिंह का भाई नवाब सिंह, बेटा तहसीलदार सिंह, सूबेदार सिंह. लाखन सिंह, रूपा पंडित सब एक से बढ़कर एक। मानसिंह गैंग की बादशाहत चंबल में चल ही रही थी कि अचानक एक दिन मानसिंह और उसका बेटा सूबेदार सिंह पुलिस की गोलियों का निशाना बन गया। अब चंबल के 800 मील के एरिये में अपनी बादशाहत बनाएं हुए गैंग का मुखिया कौन हो। और तब बीहड़ों में ऐलान हुआ कि मानसिंह गैंग का नया मुखिया और कोई नहीं बल्कि रूपा महाराज होगा। 
मानसिंह के बदले रूपा महाराज। चंबल में किसी को यकीन नहीं था कि रूपा मानसिंह के गैंग की बादशाहत को बनाए रखेगा। लेकिन रूपा महाराज ने मानसिंह की मौत के बाद गैंग को और खतरनाक बना दिया। पहले मानसिंह का बदला। और  फिर अपने गैंग की बादशाहत बनाने की हवस ने रूपा महाराज को चंबल के कसाई में तब्दील कर दिया। एक ऐसा डकैत जो न कत्ल करने से पहले सोचता था और न कत्ल करने के बाद। बेखौंफ रूपा को अपने निशाने पर इतना भरोसा था कि चंबल में कहा जाता था कि जिस रूपा की लाश गिरेगी वो अकेली होगी लेकिन उसके आसपास पुलिसवालों की कई ट्रक लाशें होंगी। एक के बाद एक कत्ल की झड़ी लगाने वाले रूपा महाराज की कहानी फिल्मी पर्दे पर उतरी तो दोस्ती और दुश्मनी की एक नई ईबारत के तौर पर। अचूक निशानेबाज रूपा जिसके बारे में कहा जाता है कि एक गोली और एक शिकार। चंबल में टेलीस्कोपिक राईफल के सहारे रूपा एक आतंक बन चुका था। 150 से ज्यादा कत्ल और सैकड़ों की तादाद में डकैतियां और जाने कितनी पकड़ के साथ  रूपा का नाम मध्यप्रदेश पुलिस की लिस्ट का सबसे पहला नाम यानि जी 1 बन चुका था।  चंबल में डकैतों का नामों-निशान मिटाने की कसम खाकर मध्यप्रदेश पहुंचे पुलिस प्रमुख के एफ रूस्तम की डायरी का दुश्मन नंबर एक यानि नीली आंखों वाला शैतान। हैजल्ड आई मॉनस्टर । दुश्मनों को निबटाने में किसी हद तक पहुंचने वाले रूपा ने चंबल के सबसे तेजतर्रार ऑफिसर से दोस्ती भी कर ली।  दो दुश्मनों की ऐसी दोस्ती जिसने चंबल में पुलिस और डाकुओं की एक नई ईबारत लिखी। दोनो का निशाना एक ही लाखन  सिंह। मानसिंह के बाद किस्मत के सहारे गैंग का मुखिया बना रूपा भी किस्मत के हाथों ही मारा गया। दोस्ती और दुश्मनी का एक अजब खेल है चबंल के इस डकैत की दास्तां।  सबसे ज्यादा पुलिस वालों को अपनी गोलियों का निशाना बनाने वाले रूपा का किस्सा चंबल के एक खूबसूरत आंखों वाले बच्चे का हैडल्ड आई मॉनस्टर में बदलने का किस्सा है जो ऐसी दुश्मनी में चंबल के बीहड़ों में आ धंसा जिस दुश्मनी  का उससे दूर का भी रिश्ता नहीं था। यानि अपने जिजमान मानसिंह की दुश्मनी को अपनी दुश्मनी मानने वाले रूपा का एक ऐसा किस्सा जो चंबल के साथ सदियों तक बहता रहेगा।  
खेड़ा राठौड़। ये नाम आपको जाना पहचाना लग रहा होगा। ऐसे हर आदमी को जिसका चंबल से जरा सा भी रिश्ता है उसको ये नाम कभी भूल ही नहीं सकता है।  ये गांव डाकू राजा मानसिंह का गांव है। टूटे-फूटी गढ़ी में मानसिंह की कहानी आपको सुनाई दे सकती है लेकिन इस गढ़ी के सामने  बिखरे पड़े मिट्टे के टीलों में भी किसी का घर ये कोई आसानी से नहीं बता सकता।
वॉकथ्रू
दशकों के मौसम की मार झेलता हुआ एक घर अब टीला बन चुका लेकिन इस टीले से निकली एक आवाज अब भी चंबल के बीहड़ों में गूंजती है। जब भी मानसिंह का नाम गूंजता है तो एक और आवाज साथ में फूट पड़ती है वो है रूपा पंडित की आवाज।  मानसिंह की गढ़ी के ठीक सामने उसके आंगन में एक छोटा सा घर कभी के रूप्पे पंडित का घर था।  रूपा के पुरखे मध्यप्रदेश में रहते थे लेकिन  मानसिंह के परिवार वाले कुल पुरोहिताई के लिए उनको मध्यप्रदेश से बुला कर लाए थे और रहने के लिए अपने ही हिस्से से थोड़ी  सी जमीन दे दी थी। रूपा का परिवार इसी पुरोहिताई और थोड़ी सी खेती के सहारे अपने दिन काट रहा था।
बाईट नरेश सिंह मेरे दादा रूपे के दादा को मध्यप्रदेश के गांव से लाए थे। 
 
मानसिंह के परिवार की दुश्मनी गांव के पंडित तलफीराम से शुरू हुई तो आंच रूपा महाराज के परिवार पर आनी शुरू हो गई। 30 जुलाई 1928  गांव में कत्ल हुए तो रूपा के पिता छविराम का नाम भी मानसिंह के साथ ही लिखा दिया । मामले में मानसिंह के साथ छविराम को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।  छविराम जेल से बाहर नहीं आ पाया। उसके चार लड़के रूपनारायण, कन्हाई, लक्ष्मीनारायण और दुल्ला  पूरे तौर पर मानसिंह के परिवार पर ही निर्भर थे। रूपनारायण उर्फ रूप्पा उस वक्त महज 12 साल का था। छविराम की तबीयत जेल में खराब रहने लगी। और फिर एक दिन छविराम ने आखिरी सांस लेते हुए मानसिंह से वचन लिया कि वो रूप्पे के अपने बेटे की तरह से ख्याल रखेंगा। 
छविराम का परिवार सदमे में दिन गुजार रहा था कि एक और हादसा इस परिवार के साथ हो गया। एक दिन पुलिस गांव में पहुंची और रूपा के चाचा मुरारीराम को पकड़ कर ले गई। और उसके कुछ देर बाद लाश बीहड़ों में पड़ी मिली। मुरारीराम का किसी से कोई झगड़ा नहीं था। रूपा लाश की हालत देखकर रोता हुआ पुलिस के पास पहुंचा और हत्यारों को पकड़ कर सजा दिलाने की गुहार लगाई। किस्सा है ये कि थाने में रूपा को बजाय मदद के एक किक मिली और थाने से बेईज्जत कर बाहर कर दिया। 
चंबल में जब भी कानून से किसी को निराशा मिलती है उसकी आशा बीहड़ों में सिमट आती है। रूपा के लिए तो चंबल वैसे भी जाना-पहचाना था। 12 साल की उम्र से ही गांव की दुश्मनी में मानसिंह के साथ खड़े रूपा ने गैंग के लिए काम करना शुरू कर दिया। शुरूआत में गांव में आने वाले गैंग के लिए पहरे पर खड़े होने वाले रूपा के दिलेरी मानसिंह के दिल में घर करने लगी।
रूपा को सिर्फ बाहर से नहीं भीतर से चंबल को देखना था। बंदूकों की रखवाली नहीं करनी थी बल्कि बंदूकें चलानी थी। रूपा ने बंदूकों का साथ देते देते एक दिन खुद ही बंदूक थाम ली। और अब वो चंबल में मानसिंह गैंग का एक मैंबर हो गया। एक ऐसा मेंबर जिसको मानसिंह बेटे जैसा मानता था। 
रूपा का निशाना काफी तेज था। पुलिस की फाईलों में रूप्पा का नाम दर्ज हो गया रूपा पंडित के तौर पर। मानसिंह के गैंग में उसका बड़ा भाई नवाबसिंह, उसका बेटा सूबेदार सिंह और तहसीलदार सिंह थे। लेकिन रूपा अपनी पहचान बनाने में सफल रहा था। रूपा ने अपने बाप की मौत के बाद सिर्फ मानसिंह को ही अपना सगा मान लिया था। मानसिंह के इशारे पर किसी भी जान लेने के लिये तैयार रूपा उसके एक इशारे पर अपनी जान देने के लिए भी तैयार रहता था। 
रूपा अपने सरदार मानसिंह की तरह ही पूजा पाठी था। और किसी भी वारदात से पहले शगुन का विचार करता था। यहां तक कि मानसिंह की आखिरी मुठभेड़ से पहले भी उसने मानसिंह से गैंग को उस दिशा में ले जाने से मना किया था।  लेकिन होनी को कौन टाल सकता है इतने शगुन विचार वाले रूपा पंडित को भी पुलिस की गोलियों का ही निशाना बनना था। मानसिंह के गैंग में लोग बढ़ने लगे थे। और गैंग में एक और डकैत था जिस पर गैंग को नाज था और वो था लाखन सिंह तोमर। लाखन सिंह और रूपा गैंग में एक दूसरे से होड़ करते थे। दोनो बेहद शातिर और तेज निशानेबाज, और दोनो पर ही गैंग की नजर। ऐसे में मानसिंह को लगने लगा था कि इन दोनों की दोस्ती गैंग को लेकर कभी भी दुश्मनी में बदल सकती है। और ऐसे में एक दिन मानसिंह ने गैंग को दो हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्सा लाखन सिंह को देकर दूसरे हिस्से में रूपा को रख लिया। 
लाखन सिंह ने अलग गैंग बना लिया। और रूपा मानसिंह के साथ रह कर वारदात करने लगा। इसी बीच एक मुठभेड़ में मानसिंह का लड़का तहसीलदार सिंह घायल होकर गिरफ्तार हो गया। तहसीलदार सिंह के खिलाफ कुछ लोगो ने गवाही दी। तहसीलदार सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए मानसिंह और रूपा ने चंबल में तबाही मचा दी। हर उस गवाह या उसके रिश्तेदारों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया जिसकी गवाही से तहसीलदार सिंह के गले पर फांसी का फंदा कस सकता था। 
एक दिन मानसिंह गैंग लौट रहा था कि उसकी पुलिस से मुठभेड हो गई। मुठभेड़ में मानसिंह पुलिस के जवान गोविंद सिंह थापा की गोलियों का निशाना बन गया।  गोलियों से जख्मी मानसिंह ने रूपा को देखा और दम तोड़ दिया। रूपा अपने मुखिया की लाश को वहां छोड़ना नहीं चाहता था। 100 किलो वजनी मानसिंह की लाश को कंधें पर उठाकर रूपा ने दो किलोमीटर तक दौड़ लगाई लेकिन सैकड़ों की तादाद में पुलिस की गोलियां गैंग पर भारी पड़ रही थी। गैंग के लोगो ने रूपा से लाश को वही छोड़कर निकलने को कहा। निराश रूपा ने लाश को वहां रखा और हाथ जोड़कर सबके सामने कसम खाई कि वो इस खून का बदला लेगा। 
गैंग लौट चुका था। मानसिंह के साथ उसका बड़ा बेटा सूबेदार सिंह भी मारा जा चुका था और तहसीलदार सिंह जेल में था। ऐसे में गैंग की कमान किसको दी जाए। मानसिंह का बड़ा भाई नवाबसिंह जिंदा था लेकिन गैंग को एक ऐसे मुखिया की जरूरत थी जो टूटे हुए मनोबल को ऊंचा उठा सके और गैंग का खौंफ आम जनता पर बनाएं रखे। सबकी निगाहें टिकी रूपा पंडित पर। और चंबल में मानसिंह के बाद उसके गैंग की कमान संभाल ली रूपा पंडित ने।  रूपा पंडित अब रूपा महाराज बन चुका था। और वक्त था उसकी कसम पूरी करने का।  
रूपा महाराज चंबल में खौंफ का नया नाम बन चुका था। गैंग की कमान संभालते ही उसने दुश्मनों से हिसाब किताब करना शुरू कर दिया। लाखन सिंह का गैंग भी चंबल में बड़ा गैंग बन चुका था। पहले तो मानसिंह की मौत के बाद सुलह सफाई हुई। लेकिन जल्दी ही चंबल की बादशाहत को लेकर दोनो में दुश्मनी ने एक नया रंग ले लिया। पहले लाखन ने कुछ लोगो को परेशान किया रूपा के फिर रूपा ने लाखन के लोगो को मारना शुरू कर दिया। दोनों गैंग का आमना-सामना भी होने लगा। लेकिन रूपा का अचूक निशाना और दिलेरी हर बार लाखन सिंह पर भारी पड़ती थी। लाखन सिंह के साथ के लोग आसानी से रूपा महाराज या उसके गैंग पर गोलियां चलाने से इस लिये भी पीछे हट जाते थे कि ये मानसिंह का गैंग है यानि राजा मान सिंह का गैंग जिसको चंबल में किसी ने चुनौती नहीं दी थी।
चंबल में रूपा ने जल्दी ही मानसिंह की तरह से ही दरबार लगाना शुरू कर दिया। चंबल के गांवों में रूपा का कहा कानून बन गया। कानून से निराश लोगों ने रूपा के दरबार में गुहार लगाना शुरू कर दिया। रूपा हर किसी का इंसाफ अपने अंदाज में करता था। उसके फैसले के खिलाफ कही अपील नहीं थी। जिसको भी दोषी पाया गया उसकी सजा मुकर्रर थी। एक गोली की आवाज और सांस जिस्म से बाहर। 
मानसिंह की मौत के बाद उसके दुश्मनों ने फिर से सिर उठाया। मानसिंह की जमीन को जोतना शुरू कर दिया। मानसिंह की पत्नी रूकमणी देवी हताश थी क्योंकि तहसीलदार सिंह जेल में था और पूरे गांव में पहरा। मानसिंह के दुश्मन  दीवाली का त्यौहार जोरो-शोरो के साथ मनाने जा रहे थे। गांव में शाम हो चुकी थी। और कुछ पटाखों की आवाज आई। लेकिन ये पटाखें दीवाली के पटाखे नहीं थे ये मौत के पटाखे थे और मौत रूपा महाराज के नाम से आई थी। 
रूपा ने ये ऐलान कर दिया था कि जब तक वो जिंदा है मानसिंह के परिवार की ओर आंख उठाने वाले को गोलियों से भून दिया जाएंगा। रूपा की मानसिंह के लिए झुकाव का ये आलम था कि रूकमणि देवी कोबुरे वक्त में आर्थिक मदद तक करने से पीछे नहीं हटता था।
रूपा का आतंक चंबल में फैलता जा रहा था। रूपा के गैंग में 35 से 40 लोग थे। और पुलिस के मुताबिक हर रोज का खर्च 200 रूपए था। गैंग के पास सबसे अत्याधुनिक हथियार थे।  टेलीस्कोपिक राईफल तो रूपा की पहचान थी तो उसके गैंग के पास शक्तिशाली दूरबीन, हैंडग्रेनेड, टीएमसी, ब्रेनगन और वॉयरलैस सेट तक थे।  रूपा ने दशको तक पकड़ कर उनके परिवारवालों से लाखों रूपए इकट्ठा किए । पुलिस रूपा का कुछ नहीं बिगाड पा रही थी। गैंग अपहरण करता और रूपा का नाम घर तक पहुंचता था और घर वाले पैसा पहुंचा दिया करते थे। एक बार चंबल के एक गांव से रूपा के गैंग ने पकड़ की और लड़के के बाप को फिरौती की खबर भिजवा दी गई। लेकिन लड़के के बाप ने ये खबर पुलिस को दे दी। ये बात रूपा तक पहुंची तो रूपा ने घात लगाकर बाप को भी उठा लिया। उसके बाद चंबल के बीहड़ों में बाप बेटे को ऐसी यातनाएं दे कर मौत के घाट उतारा कि सुनने वालों की रूह कांप उठे। इसके बाद चंबल में रूपा का विरोध करने की हिम्मत किसी की नहीं रही।  
चंबल में रूपा का नाम आंतक और खौंफ का नाम बन चुका था।. अब यदि पुलिस को किसी पकड़ के बारे में जानकारी मिलती और वो पूछताछ के लिए भी पहुंचती तो पकड़ के परिवार वाले ही पकड़ से इंकार कर देते थे। चंबल में रूपा महाराज का नाम तो गूंज रहा था लेकिन बेताज बादशाह बनने की इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। और ये ही कारण था कि रूपा और लाखन की दुश्मनी बढने लगी। 
चंबल में एक तरफ रूपा की बंदूकें गरज रही थी तो उसी  वक्त लाखन सिंह भी पुलिस को नाकों चने चबवा रहा था। लगातार डकैतियों और कत्ल की वारदात से पुलिस हैरान-परेशान हो उठी।  चंबल का बादशाह बनने के लिए छटपटा रहे रूपा महाराज ने अपने गैंग के लोगो से वादा किया कि वो लाखन को खत्म कर के रहेगा। दोनों गैंग कई बार आपस में टकराए लेकिन हर बार लाखन बच कर निकलने में कामयाब हो गया।
 
लाखन सिंह से बुरी तरह नाराज रूपा भी चाहता था कि किसी तरह से लाखन सिंह का सफाया हो जाए तो फिर चंबल में उसके सामने बोलने वाला कोई नहीं बचेगा। रूपा को बादशाहत पसंद थी। वो किसी को भी मार गिराने में पल भर भी नहीं लगाता था। चंबल के किस्सों में एक बहुत मशहूर किस्सा है कि 1946 में रूपा अपने मुखिया मानसिंह से कहकर चंबल से बाहर कोलकाता गया था। महीनो बाद लौटे रूपा से मानसिंह ने पूछा कि तुमने कोलकाता क्या किया तो उसने जवाब दिया था कि दाऊ एक दर्जन से ज्यादा लोगो का सफाया। 
रूपा इस दौरान चंबल में वारदात भी कर रहा था। चंबल में उसने सैकड़ों पकड़ की थी, और सैकड़ों डकैतियों से उसको लाखों का माल हासिल हुआ था। खुद गांव के लोग भी सामान पहुंचाते थे। ऐसे में इतनी रकम का रूपा क्या करता था ये सवाल भी पुराने पुलिस अधिकारियों की डायरियों मिलता है। बाप का कत्ल कर उसके बेटे को पैसा थमा देने जैसी सनक का शिकार था रूपा। किसी पर खुश होकर उसके पैसा थमा देना उसके लिए रोजमर्रा की बात थी।  मध्यप्रदेश पुलिस ने 1958 में कहा कि वो रूपा का इस साल के आखिर तक सफाया कर देंगी। और रूपा ने पुलिस के इस बयान का अपने अंदाज में जवाब दिया। 
31 दिसंबर 1958 की रात मध्यप्रदेश और राजस्थान के के बीच एक छोटे से गांव से चार लोगो को रूपा ने पकड़ा और उनका कत्ल कर दिया। थोड़ी देर बाद ही मुरैना जिले के एक गांव से चार और बेगुनाह लोगो को पकड़ उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। रूपा ने मध्यप्रदेश पुलिस के ऐलान का जवाब इस तरह से बेगुनाहों का खून बहा कर दिया था।
 
मध्यप्रदेश पुलिस डायरियों में रूपा और लाखन जी1 और जी 2 के गैंग के तौर पर दर्ज हो चुके थे। पुलिस किसी भी कीमत पर इन दोनो का सफाया करना चाहती थी। इसी बीच अपने दुश्मनों की हवेली जला कर लाखन ने पुलिस के लिए बड़ी चुनौती डाल दी थी। इस पर सरकार ने सबसे पहले लाखन का सफाया करने के लिए एसएएफ की एक पूरी बटालियन पुलिस अधिकारी टी क्विन के नेतृत्व में लाखन के गांव नगरा में उतार दी।  टी क्विन किसी भी तरह से लाखन का सफाया चाहता था।  पहले तो सीधी मुठभेड़ हुई लेकिन लाखन सिंह आसानी से पुलिस के जाल को काटकर निकल भागा। इस पर टी क्विन ने पहली बार चंबल में ऐसी चाल चली जो चंबल में न कभी सुनी गई थी और न देखी गई थी।
टी क्विन नगरा के आस पास के गांवों की रात दिन खाक छान रहा था। हर गांव में उसने अपना मजबूत मुखबिर तंत्र खड़ा कर लिया था। लेकिन उसको न लाखन का सुराग मिल रहा था और न ही रूपा का।  टी क्विन ने  रूपा के गैंग छोड़ कर पुलिस के सामने समर्पण करने वाले एक डकैत को अपने विश्वास में ले लिया।    उससे हासिल सूचनाओं के आधार पर टी क्विन ने एक के बाद एक रूपा के लोगो को पकड़ना और मार गिराना शुरू कर दिया। रूपा ने बदला लेने का प्लान बनाया। भिंड में पुलिस के घेरे में रह रहे मुखबिर के रिश्तेदारों को टार्चर किया और उन्हें मजबूर कर दिया कि वो मुखबिर को किसी बहाने से अपने यहां बुलाएं। और एक दिन जब वो मुखबिर जाल में फंस कर अपने रिश्तेदारों के यहां पहुंचा तो वहां उसका इंतजार कर रहा था रूपा। मुखबिर को बुरी तरह से यातना देकर मौत के घाट उतार दिया। 
 
इसके बाद रूपा ने अपना दिमाग लगाया टी क्विन के सफाए पर। टी क्विन ने कई बार रूपा को दौड़ाया था और उधर रूपा ने एंबुश करना शुरू कर दिया। एक दिन मुरैना के जंगलों में घूम रहे टी क्विन पर उसका निशाना लग भी गया लेकिन टी क्विन के ड्राईवर ने अपनी जान पर खेलकर भी टी क्विन को निकाल लिया। वारदात में टी क्विन के साथ बात करने वाले 9 लोगो को रूपा ने गोलियों से भून दिया। 
टी क्विन ने हार नहीं मानी। एक के बाद एक मुखबिरों के सहारे दोनो गैंग को ठिकाने लगाने की कोशिशों में जुटा रहा। लेकिन दोनो गैंग अलग अलग दिशाओं में काम करते थे ऐसे में एक दिन टी क्विन को  एक मुखबिर ने सलाह दी कि क्यों न कांटे से कांटा निकाल दिया जाएं।
कांटे से कांटा यानि लाखन का कांटा रूपा के कांटे से निकाल दिया जाएं। और फिर रूपा का देखा जाएंगा।  टी क्विन को ये राय जम गई। और फिर टी क्विन ने रूपा पर जाल बिछाना शुरू कर दिया।  रूपा के एक रिश्तेदार की मदद से टी क्विन उस तक पहुंच गया। 
टी क्विन ने रूपा को लालच दिया कि अगर वो लाखन सिंह का सफाया करा देता है तो फिर उसको हाजिर कराने में टी क्विन उसकी मदद करेगा। ये तो आज भी साफ नहीं कि क्या वाकई रूपा इस बात परयकीन कर रहा था लेकिन ये साफ था कि वो लाखन सिंह का सफाया चाहता था लिहाजा उसने टी क्विन से हाथ मिला लिया। इसके बाद टी क्विन को सूचना मिलना शुरू हो गया।  

पुलिस को पोरसा इलाके में लाखन सिंह की सटीक मुखबिरी पुलिस को कर दी। सैकड़ों  पुलिस वाले तेजी से पोरसा के जंगलों में चुपचाप जा धमके। लेकिन किस्मत ने लाखन का साथ दिया। उसकी लोकेशन से पहले ही पुतली का गैंग निश्चित होकर खाना बना रहा था। ऐसे में पुलिस का उसके साथ आमना सामना हो गया। घटना में पुतली और उसका पूरा गैंग पुलिस की गोलियों का निशाना बन गया। लेकिन लाखन मौके का फायदा उठाकर निकल चुका था। 
पुलिस की काफी किरकिरी हो रही थी। इससे भी ज्यादा परेशानी टी क्विन और रूपा पंडित के बीच के रिश्तों को लेकर होने लगी। टी क्विन चंबल के सबसे खूंखार डकैत के साथ दोस्ती की कहानियां सरकार को मिलने लगी। मीडिया ने दबाव बढ़ा दिया। टी क्विन को जेड ओ यानि जोनल ऑफिसर वन कहा जाता था लेकिन इन दोनो के रिश्तों के चलते पूरे इलाके में रूपा को जेड़ ओ 1 और टी क्विन को जेड और 2 कहा जाने लगा। 
पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक 26 अक्तूबर 1959 का दिन था। टी क्विन ग्वालियर से वापसी के रास्ते में महुवा गांव में रूके। इस बीच महुवा थाने के रिकॉर्ड में दर्ज हुआ कि जी 1 गैंग की आमद इलाके में होने वाली है। रूपा का गैंग वारदात के लिए लाखन के गांव नगरा की ओर जाने वाला है। गैंग की दूरी कुछ मील दूर है।  टी क्विन ने कुछ ही देर में 9 बटालियन का इंतजाम कर लिया। इलाके को पूरे तरह से घेर लिया गया।  
दो प्लानटून नगरा की तरफ
दो प्लाटून महुआ, 
दो प्लाटून काली आरोली
और एक एक प्लाटून उद्योतगढ़ और पोरसा भेज दी गई। 
क्विंस ने छह बटालियन के साथ मार्च किया।  और बीहड से चंबल के बीच की जगह में घेरा बंदी कर ली। पुलिस जैसे ही कुछ आगे बढ़ी तो गैंग के पहरेदार जिसे आउटपोस्ट कहा जाता है ने शोर मचाना शुरु कर दिया कि पुलिस के कुत्ते भागों। गोलियां चलने लगी। पुलिस ने आवाज को निशाना बना कर 28 ग्रुप बना कर एक के बाद एक कई घेरे बना  दिये। 
गैंग तीन तरफ से भागर तीन मील को पार कर राजस्थान में निकलना चाहता था लेकिन हर तरफ पुलिस की भारी फायरिंग हो रही थी। और रूपा के गैंग के बचने का कोई रास्ता नहीं था। चंबल की ओर भागते हुए गैंग को चंबल से आधा किलोमीटर पहले ही एक दूसरी पुलिस पार्टी से सामना हुआ। पुलिस जमादार बालम सिंह ने अपनी रेंज में दिख रहे  तीन लोगो पर अचानक अपनी टॉमीगन से गोलियों की बौछार कर दी। गोलियों के साथ चीखने की आवाज भी हवा में गूंजी और फिर शांत हो गई। रात का वक्त था ऑपरेशन रोक दिया गया। अल सुबह तलाश शुरू हुई तो कुछ दूर जंगल में एक लाश मिली लेकिन जैसे उसका चेहरा पहचाना गया तो टी क्विन निराश हो गया क्योंकि ये रूपा नहीं था बल्कि उसका गैंग का राजाराम था। पुलिस पार्टी लौट ही रही थी कि एक और खून के निशान दिखाई दिए।ष निशान के पीछे जाने पर कुछ दूर पर ही गोलियों से छलनी एक लाश थी। और लाश की पहचान के साथ ही टी क्विन खुशी के साथ नाचने लगा। क्योंकि ये लाश किसी और की नहीं मानसिंह के बाद चंबल के सबसे बड़े डाकू रूपा की लाश थी। 
हालांकि चंबल के किस्सों में ये कहानी कुछ दूसरे तरीके से कही जाती है। इसके मुताबिक टी क्विन ने लाखन को मार पाने में नाकाम रहने पर रूपा का ही काम तमाम करने की ठानी। उधर रूपा को टी क्विन पर पूरा विश्वास था लिहाजा टी क्विन के बुलावे पर वो  गैंग को पीछे छोड़ कर सिर्फ राजाराम के साथ ही महुआ आ पहुंचा और वहां टी क्विन ने उसका एनकाउँटर कर दिया।
लेकिन कहानी कुछ भी हो चंबल का एक और आतंक पुलिस की गोलियों का निशाना बन गया था। इस मुठभेड की सूचना मिलने पर के एफ रूस्तम जी ने अपनी टेबल में लगे हुए चार्ट से जी 1 गैंग के नाम पर भी काटा लगा दिया। और चंबल का एक और खौंफनाक डाकू जमीन से उठ कर किस्सों की नदी में उतर गया।