Monday, March 26, 2018

चन्द्रकांत देवताले - "मेरे पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं".। हमेशा शब्दों में रहेंगे।


एक ऐसे समय में जब कविता जिंदगी से जाती दिख रही है। जब कवि क्या कह रहा है क्या कर रहा है इससे आम आदमी का सरोकार दूर होता दिख रहा है। ऐसे में ही सुना कि चंद्रकांत देवताले नहीं रहे। कभी साहित्य का छात्र नहीं रहा और मुजफ्फरनगर में रहने के वक्त साहित्य के पास भी नहीं रहा। ऐसे में कविता या कवि के बारे में लिखना शायद मेरे लिए सही नहीं है। लेकिन चंद्रकांत देवताले से मुलाकात उनकी किताबों के जरिए हुए साऊथ कैंपस की लाईब्रेरी में किताबों को खोजते-खोजते एक किताब के शीर्षक ने ( किताब खोजना इसलिए कि कुछ भी नहीं पढ़ा था तो समझ में नहीं आता था कि क्या पढ़ू) अपनी ओर खींच लिया। कविता की किताब और मेरे लिए अनाम कवि ( हिंदी की कक्षा के बाहर जितने कवि थे अनाम थे और कक्षा में पढ़ाएं गये कवि इस तरह पढ़ायें गए थे कि वो सिर्फ नंबर और सवाल बन गए चुके थे जिंदगी का हिस्सा नहीं) शीर्षक था "लक्कड़बग्गा हंस रहा है" और कवि थे चंद्रकांत देवताले। बस उस दिन से उनकी कविता मेरे साथ चलती रही। कुछ दिन तक साऊथ कैंपस में ऐसे दोस्तों के साथ रहा जिनका लिखने-पढ़ने से करीब का नाता रहा तो मैं कुछ पढ़ गया। लेकिन इस प्रक्रिया में भी चंद्रकांत देवताले मुझे हमेशा ऐसे कवि लगते रहे जो इस वक्त में सुने और पढ़े जाने थे। हिंदी जगत में उनकी स्वीकार्यता कितनी है मुझे मालूम नहीं है ( मेरे मतानुसार बहुत अधिक होनी चाहिए) लेकिन उनकी कविताएं जिसतरह वक्त को इस तरह से खोल देती है पाठक के सामने कि वो खुद को बैचेन महसूस करने लगे, वो बंद खिड़की खोलकर हवा की तलाश में बाहर झांकने की कोशिश शुरू कर देता है। कुछ कुछ ऐसे ही मुझे लगता है उनकी कविताओं को पढ़कर। यूं तो बौंनों की जमात में एक छोटा सा बौंना होने के बाद इस तरह कविता पर बात करना खतरे से खाली नहींं है लेकिन चंद्रकांत जी का मुझ पर एक ऐसा अहसान है जो कि मुझ जैसे नीरस इंसान को कविता पढ़ने की ओर मजबूर करने का, मुझे लगा कि चंद्रकांत जी का जाना वीरान से होते जा रहे कविता जगत को कुछ और सूना कर जाता है।
कुछ उनकी कविताएं जो गाहें-बगाहें मुझे मिलती रही वो मैं इस में शेयर करता हूं इस उम्मीद में कि ये कविताएं हमेशा मेरे आसपास रहेंगी।
मेरे पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं
मेरा नाम तुम जानते हो / और यही है मेरा नाम/मैं छत्तीस के साल पैदा हुआ/और उसी के मुताबिक है मेरी उम्र/सरकारी स्कूलों में पढ़ा/ नौकरी की जहां-तहां/प्रेम शादी/तीन कमरों का घर/उड़ते -बिखरते मेज़ पर काग़ज़-पत्तर चिट्ठियां/सब कुछ जैसा/है उजागर/ चौंके में खटर-पटर करती/मेरी एक अदद बीबी/लड़ती झगड़ती गाती बजाती/ मेरी दो बेटियां/पानी पर तैरती रोशना या टुप्पी की /तरह आते -जाते मेरे दोस्त/ यह रही मेरी नापंसदगी की सूची/शामिल इसी में मेरे दुश्मन/गोश्त, चापलूसी करने वाले केंचुएं/घटिया किताबें, /आत्मा या सार्वजनिक फ़सलों के चोर, /तस्कर धंधेबाज/ईश्वर, भूख, बेबसी के /हरामख़ोर आत्मा ने जिनको कभी नहीं धिक्कारा/मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं / इस कमरे में यहीं किताबों के बीच यह/मेरी सोने की जगह/वह रही चौकी उसी की दराज़ में/मेरे सभी प्रमाणपत्र,महत्वपूर्ण काग़ज़ात/जिन पर इतनी धूल /
हां छिपाने को होता है बहुत कुछ
हर व्यक्ति के पास
पर मैं तो उगल चुका कविताओं में
अपने सब भेद
कान लगाकर सुन सकता है कोई भी/देख सकता है आंखें बंद कर/छू सकता हैहाथों से जो कहा मैंने बंद होंठों से भी/किया निपट एकांत अंधेरे तक में/ वह रहा फुसफुसाहटों में दबा/मेरी कमीनगी का स्याह पत्थर/इस अमलतास वाली कविता में ये /ताज़े बबूल के कांटो सी मेरी कमज़ोरियां/यह मेरी ताक़त का सबूत समुद्र/वह मेरा यक़ीन आग का दरवाजा/ सचमुच मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं/ सिर्फ़ बचाने को बहुत सा अपने भीतर/दुराव छिपाव का पहाड़ी चूहा/धीरे-धीरे कुतरता है आत्मा को/आंखों, कानो और होंठों को फिर वहां बच रहती हैं फूटी कौड़ियां/फूटी कौड़िया की संपदा बटोरने की खातिर/जो पानी की जगह फूलदान में भरते है रेत/वैसा तो नहीं मैं।

2.पुनर्जन्म
मैं रास्ते भूलता हूं /और इसीलिए नए रास्ते मिलते है मैं अपनी नींद से/निकलकर प्रवेश करता हूं/किसी और की नींद में/इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है/एक जिंदगी में ही एक ही बार पैदा होना/और एक ही बार मरना
/जिन लोगों को शोभा नहीं देता /मैं उन्हीं में से एक हूं/फिर भी नक्शे पर जगहों को दिखाने की तरह ही होगा/मेरा जिंदगी के बारे में कुछ कहना/बहुत मुश्किल है बताना/कि प्रेम कहां था किन -किन रंगों में /और जहां नहीं था प्रेम उस वक्त वहां क्या था/पानी, नींद और अंधेरे के भीतर इतनी छायाएं है /और आपस में प्राचीन दरख्तों के की जड़ों की तरह/इतनी गुत्थमगुत्था/कि एक-दो को भी निकालकर /हवा में नहीं दिखा सकता/जिस भी नदी में गोता लगाता हूं /बाहर निकलने तक /या तो शहर बदल जाता है/या नदी के पानी का रंग/शाम कभी भी होने लगती है /और उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता/जिनके कारण चमकता है /अकेलेपन का पत्थर
और आखिर में कुछ उन्हीं की पसंदीदा कविताओं के शब्द
.मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा
.मेरी कोशिश यह रही/ पत्थरों की हवा में टकरायें मेरे शब्द/ और बीमारी की डूबती नब्ज थामकर/ ताजा पत्तियों की सांस बन जाएँ
.ऐसे ज़िंदा रहने से नफरत है मुझे / जिसमें हर कोई आये और मुझे अच्छा कहे/ मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकता रहूँ/ मेरे दुश्मन न हों/ और मैं इसे अपने हक़ में बड़ी बात मानूं।
.सच बोलकर सम्भव नहीं था / सच को बताना/ इसीलिये मैंने चुना झूठ का रास्ता/ कविताओं का
.यह वक़्त नहीं एक मुकदमा है या तो गवाही दो या हो जाओ गूंगे/ हमेशा हमेशा के वास्ते
होगा जो कवि/ वही तो कहेगा/ खटाक से खुलते चाक़ू की तरह
.जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा.......
पानी के पेड़ पर जब/बसेरा करेंगे आग के परिंदें/उनकी चहचहाहट के अनंत में/थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा/मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का/उस पर बसेरा रेंगे पानी के परिंदें/परिंदों की प्यास के आसमान में/ जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा/ वहां छायाविहीन एक सफ़ेद काया/ मेरा पता पूछते मिलेगी।

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