Monday, March 26, 2018

चाणक्य ने देश की जनता पर भरोसा खो दिया है, इसीलिए पार्टी जनता के लिए नहीं रणनीति के लिए काम कर रही है। नरेश ही पार्टी है।


" ये सब क्या हो रहा है। आप त्रिपुरा जीत गए हो लेकिन लगता है कि नैतिकता का दर्जा आपका कुछ ज्यादा नीचे जा रहा है।" शीशे की मेज को तबला समझ कर बजा रहे संघ के करीबी ने समझाने वाले अंदाज में कहा कि जनाब अगर वहां हम सिर्फ यही देखते कि क्या नैतिक है और क्या अनैतिक तो लगातार हम हारते चले जाते और हमेशा के लिए हमारे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट जाता। अब यदि वो जीत गए है तो अगली बार हारने के बाद भी हमारे लोगों को ये यकीन रहेगा कि हम सत्ता में आ सकते है। मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं था। 2014 से अब तक का सफरनामा इन शब्दों में खत्म हो चुका था। ये वो पार्टी थी जो जीत का सेहरा जनता के सर नहीं बल्कि रणनीति के सिर पर रख रही है। और इस बातचीत के एक हफ्ते बाद ही इस बात का सेहरा खुद पूरी पार्टी के माथे पर जनता ने बांध दिया। राज्य का मुख्यमंत्री जिसकी लोकप्रियता को देश के प्रधानमंत्री की टक्कर का बताने में जुटे बौंने बार बार इस बात को झुठला रहे थे कि उत्तरप्रदेश की पार्टी की जीत में दलबदलूओं के कीड़े थे। हवा परवा थी तो सब पक गए थे लेकिन खाने का स्वाद तो अलग अलग ही होना था। मंत्रिमंड़ल में शामिल हुए लोगों का डीएन काफी पार्टियों में घूम कर आने का है। दरअसल जिस जीत को जनता बीजेपी के सर पर रखना चाहती थी उसको बीजेपी ने दलबदलुओं के सर पर रख दिया। पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता ये समझ ही नहीं पाएं कि पूरी जिंदगी बीजेपी को गाली देने वाले नेता रातो-रात मालपुए खाने वालों मे बदल गए और बीजेपी के अपने कार्यकर्ता पंगत से ही बाहर कर दिए गए। पूरे प्रदेश में आप किसी आदमी से बात कीजिए तो हकीकत सामने आ जाती है। पूरे राज्य को पुलिस स्टेट में तब्दील कर देने का दावा करने वाली सरकार की आंखें पत्थर में बदल गई है। जो लोग पहले सड़क पर गुंडागर्दी कर रहे थे, वो आज भी आपको वही खड़े हुए नजर आते है। पूरा ट्रैफिक सिस्ट्म आराम से मोबाईल पर बैठ कर वसूली के पैसों का हिसाब करता दिखता है। कई लोगों ने साफ तौर पर कहा कि पुलिस के रेट काफी बढ़ गए है। और जिन लोगों का एनकाउंटर हुआ है उनके बारे में आम आदमी तो दूर की बात है खुद जिले के पत्रकारों को भी मालूम नहीं होता। बड़े बड़े ड़ॉन आराम से धंधा पानी चला रहे है। डिप्टी सीएम साहब का इलाका चुनाव के वक्त देखा था, वो रास्ता जो फूलपुर तक जाता था यानि हाईवे उस पर सड़के नहीं बनी थी।
सरकार का बडा मेकओवर था कि सड़कों को गड्ढे रहित बनाने का दावा। झूठ की बाजीगरी को आंकड़ों का नाम देने वाली नौकरशाही ने एक योगी को झूठ का झुनझुना थमा दिया था। और योगी बजाने लगे कि गड्ढा मुक्त कर दी गई सड़के। चिप्पियां उधड़ी हुई और जाम में फंसते हुए पूरे उत्तरप्रदेश को कही से भी देख सकते है।
गुजरात से निकलते वक्त मैंने सोचा था कि यदि पार्टी को 2019 का चुनाव जीतना है तो बौंनों के चाणक्य जैसे मुहावरों के जाल से निकलना होगा। और सबसे पहले बीजेपी के नेताओं में उग आएँ अंग्रेजी प्रेम से मुक्ति पानी होगी। भाषाई पत्रकारिता और हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्रों में सांप्रदायिकता का आरोप झेलते हुए बहुत से पत्रकारों ने यूपीए शासन के दौरान पूरी तरह जनता से कटे हुए एक वर्ग की कहानी को जोर -शोर से उठाया। साथ ही उठाया कि भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यकों के नाम पर तुष्टीकरण की एक बड़ी घुन की कहानी को सामने लाकर रखा। अंग्रेजी पत्रकारों के लिए किसी किस्म की नैतिकता की गुंजाईंश नहीं थी। वो सिर्फ इस बात से खार खाएं हुए थे कि ये सब लोग जैंटिलमेन नहीं है। बात तो कई लोगों से हुई। लेकिन उनके पास बौंनों के बताएँ हुए गणित थे जो उन्होंने किसी नेता से सुने थे। जनता की बौंने सुन रहे है न नेता।
लिखने को तो आप कुछ भी लिख सकते है लेकिन त्रिपुरा चुनाव की जीत के बात की रिपोर्टिंग को देखना है और अगर आप त्रिपुरा गए है तो उससे जोड़ कर देखना है तो तस्वीर साफ हो जाएँगी कि दिल्ली के बौंनों के जाल में किस तरह से ये छोटे से राजनेता बड़ी सी जनता के विश्वास को पददलित कर रहे है। त्रिपुरा इसलिए अनुभव है क्योंकि वहां बोले या लिखे गए मीडिया के बौंने के झूठ आसानी से तस्दीक नहीं कर सकता है आम आदमी। जैसे सबसे बड़ा झूठ मुझे दिखा कि जीत में योगी का बड़ा हाथ। योगी ने बहुत ही बड़ी भूमिका निबाही त्रिपुरा में जीत के लिए। नाथ संप्रदाय का बड़ा हिस्सा वहां रहता है और उसने योगी को देखकर बीजेपी को वोट दिया। ये एक ऐसा झूठ है जो आप त्रिपुरा के किसी भी स्थानीय रिपोर्टर से बात करने के बाद कुछ मिनट बाद साफ साफ देख सकते है। त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में कई दिन रहने के बाद भी मुझे नाथ संप्रदाय का कोई इतना बड़ा भक्त नहीं दिखा जिसने मोदी के नाम के ऊपर योगी का नाम लिया हो। गांव गांव में घूमा हर तरफ गया लेकिन आम आदमियों में से किसी ने नहीं कहा कि वो योगी की वजह से बीजेपी वोट दे रहा है। हर तरफ मोदी के नाम पर लोगो को उम्मीद थी और नार्थ ईस्ट का देश की राजधानी में जिक्र भी इसका एक बड़ा हिस्सा था। लेकिन पत्रकारों की एक जमात का झूठ मुंह में दही तरह से जम गया था और उसको बीजेपी के तथाकथित चाणक्यों ने खरीद भी लिया। बीजेपी के 51 उम्मीदवारों में से सिर्फ चार उम्मीदवार पार्टी की अपनी विचारधारा के थे बाकि सभी बाहर से आएँ हुए थे। मंगनी की धोती, मंगनी का कुर्ता, मंगनी की पगड़ी, घर की तो बस मूंछे ही मूछें थे। लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था। हर किसी से बात करो तो वो चाणक्य बना हुआ रणनीति की बात कर रहा है। दरअसल जिस तरह से बीजेपी की गंगा में नहा कर पवित्र होने से पहले आरोपों की आंधी में हेमंत विस्व सरमा घिरे हुए थे उसपर बीजेपी की पूरी कैंपेन टिकी हुई थी। वही विश्वसर्मा गंगा में नहाएँ और सफेद हंस हो गए। इस बार पूरे नार्थ ईस्ट में वही चुनाव लड़ा रहे थे। और जीत का श्रेय उनके ही हत्थे आया। कार्यकर्ता ठगे से रहे गए। किसी को ये कहने को नहीं लगा कि भाई लूट-पाट में जो शामिल थे वो आपके आशीर्वाद से संत कैसे बन गए। लेकिन जीत के बाद कोई सवाल नहीं टिकते है और हार के बाद जवाब नहीं मिलते है।
2014 में चुनाव से महीनों से पहले भारत भ्रमण शुरू हुआ जो अब तक नहीं थमा है। राज्य दर राज्य एक हवा का अहसास करता हुआ घूम रहा हूं। कई बार सही से दिख जाती है लोगों की आकांक्षाएं और कई बार आप पढ़ने में चूक जाते है लेकिन ये पत्रकारिता का हिस्सा है जो जिंदगी भर चलती रहने वाली प्रक्रिया है। लेकिन एक बात जो समझ में आई है कि दिल्ली में बैठकर पूरे देश को आवंला बनाने वाले बौंने एक अलग व्याख्या रचने में मशगूल रहते है। वो हवा में अपनी हवा खोजते है। उनके लिए देश सिर्फ एक आंकड़ों का जाल है जिसमें वो जाल रचते रहते है। वो उन ओझाओं में तब्दील हो चुके है जो किसी भी बीमारी के ठीक होने पर खुद को मसीहा बनाता जाता है और मर जाने पर ईश्वर की इच्छा आदेश मनवा देता है। किसी भी तरह से उसका कुछ भी दांव पर नहीं होता।

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