मुझे जनतंत्र पर आम जनता की तरह से विश्वास है। मैं मानता हूं कि सिर्फ जनता ही माई-बाप है। हम बौंने उसके बताने के माध्यम जरूर है। गुजरात चुनाव से पहले जिस तरह का माहौल बौंनों की बारात ने बनाया था (अलग-अलग पार्टी से बौंनों के रिश्तों के आधार पर आप को खुद ज्यादा अंदाजा है) उससे लग रहा था कि जैसे यहां जनता में बहुत तनाव है। लेकिन आप चुनाव के बाद जब ऐसे ही घूमते है उनके बीच ( हम उन्हीं के आदमी है बस बौंनों की बारात माईक हाथ में लेते ही खुद को जाने क्या मान लेती है) तो आपको लगता है कि जैसे कुछ पता ही नहीं चल रहा है कि यहां से चुनाव हो चुका है और बौंनों ने जिस तरह से ऊंच-नीच का धंधा शुरू किया था उसे वो भूल चुकी है। पूरे चुनाव में मैं इस भ्रम का शिकार था कि ये जनता ऊबल रही है। ये जनता बहुत नाराज है। लेकिन इन पांच दिनों में लगातार जनता के बीच घूमता हुआ देख रहा था कि वो तो आराम से है। उसने कोई ईम्तहान नहीं दिया है। उसने पांच साल का होमवर्क चैक किया, उस पर बात की और फिर सुधार के लिए नंबर दे दिए। हो सकता है कि वो क्लास मॉनिटर को बदल दे लेकिन उसको कोई तनाव नहीं कोई गुस्सा नहीं है। वो आपस में हंस रही है, बातें कर रही है और बौंनों के चरित्र की कहानी आपस में बांट रही है। मैं भी ऐसे ही लोगों के बीच हंसता हुआ गुजर रहा था खुद पर हंसने वाली टिप्पणियां सुनते हुए। लगा कि बौंनों को कुछ ज्यादा ही तनाव है। नेता जरूर कुछ जुगत सोच रहे है। कल की हार और जीत की व्याख्या करने की। कोई तो जीतेगा और कोई तो हारेगा और इसके बाद किसी को क्या कहना है हार और जीत पर उसकी भूमिका बांध रहे होगे। फिर से बौंनों की बारात अपने हिसाब से व्याख्या करनी शुरू कर देगी। और दिक्कत ये है कि हम लोगों की अक्ल में ये डरे हुए लोगों की हार और जीत होगी लेकिन ऐसा नहीं है दोस्तों ये जनतंत्र के एक अहम अध्याय का छोटा सा हिस्सा है। आपसे एक ही विनती है कि बिना किसी आधार के अफवाहों पर बात न करे। किसी नेता के झूठ को इस तरह सच न बनाएं कि आपके पास जनता के विश्वास की चिंदी न बचे। चीथड़ों से भरा हुआ पैबंद पहन कर यहां आएं हो उसको भी न खोए। नंगे हो कर न लौटे बस जनता के विश्वास को पानी दे।
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Monday, March 26, 2018
बौंनों जनता का विश्वास न तोड़ना। डर का व्यापार नहीं खबरों का साथ रखना। जनता इम्तिहान नहीं देती है लेती है नेताओं का नहीं बल्कि बौंनो का भी।
मुझे जनतंत्र पर आम जनता की तरह से विश्वास है। मैं मानता हूं कि सिर्फ जनता ही माई-बाप है। हम बौंने उसके बताने के माध्यम जरूर है। गुजरात चुनाव से पहले जिस तरह का माहौल बौंनों की बारात ने बनाया था (अलग-अलग पार्टी से बौंनों के रिश्तों के आधार पर आप को खुद ज्यादा अंदाजा है) उससे लग रहा था कि जैसे यहां जनता में बहुत तनाव है। लेकिन आप चुनाव के बाद जब ऐसे ही घूमते है उनके बीच ( हम उन्हीं के आदमी है बस बौंनों की बारात माईक हाथ में लेते ही खुद को जाने क्या मान लेती है) तो आपको लगता है कि जैसे कुछ पता ही नहीं चल रहा है कि यहां से चुनाव हो चुका है और बौंनों ने जिस तरह से ऊंच-नीच का धंधा शुरू किया था उसे वो भूल चुकी है। पूरे चुनाव में मैं इस भ्रम का शिकार था कि ये जनता ऊबल रही है। ये जनता बहुत नाराज है। लेकिन इन पांच दिनों में लगातार जनता के बीच घूमता हुआ देख रहा था कि वो तो आराम से है। उसने कोई ईम्तहान नहीं दिया है। उसने पांच साल का होमवर्क चैक किया, उस पर बात की और फिर सुधार के लिए नंबर दे दिए। हो सकता है कि वो क्लास मॉनिटर को बदल दे लेकिन उसको कोई तनाव नहीं कोई गुस्सा नहीं है। वो आपस में हंस रही है, बातें कर रही है और बौंनों के चरित्र की कहानी आपस में बांट रही है। मैं भी ऐसे ही लोगों के बीच हंसता हुआ गुजर रहा था खुद पर हंसने वाली टिप्पणियां सुनते हुए। लगा कि बौंनों को कुछ ज्यादा ही तनाव है। नेता जरूर कुछ जुगत सोच रहे है। कल की हार और जीत की व्याख्या करने की। कोई तो जीतेगा और कोई तो हारेगा और इसके बाद किसी को क्या कहना है हार और जीत पर उसकी भूमिका बांध रहे होगे। फिर से बौंनों की बारात अपने हिसाब से व्याख्या करनी शुरू कर देगी। और दिक्कत ये है कि हम लोगों की अक्ल में ये डरे हुए लोगों की हार और जीत होगी लेकिन ऐसा नहीं है दोस्तों ये जनतंत्र के एक अहम अध्याय का छोटा सा हिस्सा है। आपसे एक ही विनती है कि बिना किसी आधार के अफवाहों पर बात न करे। किसी नेता के झूठ को इस तरह सच न बनाएं कि आपके पास जनता के विश्वास की चिंदी न बचे। चीथड़ों से भरा हुआ पैबंद पहन कर यहां आएं हो उसको भी न खोए। नंगे हो कर न लौटे बस जनता के विश्वास को पानी दे।
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