Friday, November 27, 2015

वर्दी वालों से समझौते को तोड़ोंगे तो मरोगे -

पिछले कुछ दिनों से यूपी में अलग अलग जगहों पर विरोध प्रर्दशनों पर लाठियां बजातें हुए पुलिस कर्मियों के फोटो आपको दिख जाएँगे। मीडिया के कैमरे तोड़ देना और उनको भी ढ़ंग से ठोक देना भी इसी कर्मकांड का हिस्सा सा बन गया। आलाअधिकारी विरोधियों को गरियाते है , धमकी देते है और पिटाई के बाद दिलासा देते है कि रिपोर्ट दर्ज करा दो।  लेकिन कल एक खबर पर थोड़ा ज्यादा ध्यान गया। हत्या की खबर थी। शराब के लिए पानी न देने की वजह से चौंकी में घुसकर सिपाही की हत्या।  (खबर पर किसी और की रिपोर्ट देखी और पढ़ी लिहाजा  उम्मीद करता हूं लिखने वाले ने सनसनी के लिए कुछ अपने से नहीं जो़ड़ा होगा) पुलिस वालों पर हमले की खबर भी अब थोडा़ चौंकाती नहीं। क्योंकि उत्तरप्रदेश में इस तरह की खबरें आप को गाहे-बगाहे मिल जाती है। और रही बात हत्या की तो इस पर हिलना इस लिए बंद कर दिया क्योंकि हर रोज इस शहर में दुनिया के किसी भी आपराधिक रिकॉर्ड वाले शहर के मुकाबले की हत्या होती है।  आधे-अधूरे रिकॉर्ड इस बात की गवाही दे देंगे। ( आधे-अधूरे इस लिए क्योंकि जिले में मिलने वाली लावारिस लाशों को पुलिस वाले भी लावारिस ही समझते है- और कभी आगे बहा देते है कभी गुम कर देते है और कभी कागजों में खेल कर देते है-- ऐसी रिपोर्टें कई बार सामने आई है) । सिपाही का नाम पढ़ा और अँदाज लगाया कि कल तक पुलिस को हत्यारों को आसमान पर भेज देना चाहिए। खैर आज का अखबार मेरे अंदाजे को कुछ झूठ तो कुछ सच साबित कर रहा था। एक गैंगस्टर के भाई को पुलिस ने एक मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार कर लिया। तीन गोलियां लगी ङुई थी उस आरोपी के जिस्म में। बच गया। उसकी किस्मत। पुलिस की सक्रियता की कहानी आज उसी अखबार की सुर्खियों में थी। मसलन 32 ए-के 47 से लैस पुलिस वाले तलाश में थे। समाजवादी एसएसपी खुद कमांड कर रहे थे इस मामले की। पूरी बारात से पूछताछ । फिर सीसीटीवी को खंगाला गया और आखिर में पुलिस पर ( अगर पुलिस ने सिर्फ इसी बात को ध्यान में रख कर कार्रवाई की हो तब) हुए हमले के आरोपियों को धर दबोचा।  लेकिन पुलिस पर हमले की ऐसी ही एक और वारदात लखनऊ में हुई थी  जहां  एक सिपाही से पिस्तौल लूट ली गई उसको भी गोली लगी है।अस्पताल में है और गंभीर है। लेकिन आरोपियों के लिए पुलिस ने किस तरह की कार्रवाई ही उसका मालूम नहीं । शायद वो पुलिस में है समाजवादी पुलिस में नहीं है और कुछ  इधर के अखबार में उधर की खबर कुछ कॉलम की होती है।
खैर बात समाजवाद पर न घुमाएं तब भी सवाल ये उठता है कि पुलिस वालों पर होने वाला हमला कानून पर होने वाला हमला हो जाता है। कानून व्यवस्था को चुनौती हो जाती है। लेकिन हर रोज होने वाले कत्ल आम आदमी के कत्ल होते है और उन कत्लों को कानून पर हमला नहीं माना जा सकता है। इसीलिए पुलिस की ए के 47 रखने वाली 32 टीमें बैरक के अंदर ही रहती है। क्या ये कोई अलिखित समझौता तोड़ने का रिएक्शन है। या फिर कानून का खौंफ बैठाने के लिए की जाने वाली एक साहसिक कार्रवाई। कई बार उलझ जाता हूं। उन लोगो के लिए ये बहुत आसान होगा पुलिस की तारीफ करना जिनका कभी पुलिस से सीधा सामना नहीं हुआ या फिर उन्होंने एक क्राईम रिपोर्टर के तौर पर कभी काम नहीं किया। पिछले 17 सालों से पुलिस की कार्यप्रणाली को देखता रहा हूं। समझा या नहीं ये पक्के तौर पर नहीं कह सकता। लेकिन अपनी छोटी सी समझ में ये ही आया है कि पुलिस आपकी औकात देख कर कार्रवाही करने में यकीन करती है। रात भर चौंकी पर बैठे सिपाहियों के सामने बैठ कर रोते हुए बहुत से लोगो को  देखता रहा हूं, देखता हूं। पुलिस उनके लिए एक कागज खराब करने की जहमत नहीं उठाती है। लेकिन एक ट्रक न निकल जाएं इसके लिए तैनात किया गया आदमी ( कोई होमगार्डस भी हो सकता है और प्राईवेट आदमी भी, मौके की नजाकत पर है) अपनी जान पर खेल सकता है। हर ट्रक को हर चौंकी का सम्मान करके जाना होता है। घर से दफ्तर तक आपक कही रहते हो किसी शहर में रहते हो आपके रास्ते में अगर कोई अलग सीन आता है तो मैं माफी मांग लेता हूं।  पुलिस इस वक्त किस किस्म की पुलिसिंग कर रही है इस पर सवाल उठते है। लेकिन पुलिस पहले से ही किस किस्म की पुलिसिंग कर रही थी ये कभी जेरे बहस रहा ही नहीं। मीडिया के शुरूआती पितामहों ने ( आजादी के बाद की पत्रकारिता के नायकों को समर्पित है ये शब्द) कभी इस बात पर गौर किया या नहीं कि किसी दलित या पिछड़े या फिर बे औकात के आदमी का थाने में क्या चल रहा था। थानों में सामंतशाही और गुलामी के समय हिंदुस्तानियों को कुत्तों की तरह देखने की परंपरा खत्म हुई कि नहीं। आम आदमी की हैसियत किसी भिखारी की हैसियत से ज्यादा हुई कि नहीं। किसी ने नही देखा और किसी ने नहीं लिखा। दूर दराज के इलाकों में निकल रहे पत्रकारों ने अगर कोई हिम्मत की भी होगी तो उसको  जूतों का स्वाद अर्से तक याद रहा होगा ( अगर वो जिंदा रहा होगा तो) और दिल्ली जैसी जगह में उस वक्त संपादकों के पास बहुत से काम रहे होगे।
पुलिसकर्मियों के अपराध में शामिल होने की वारदात आज सिर्फ आपको डरा सकती है। लेकिन आप डर कर भी कुछ कर नहीं सकते। आपकी कोई हैसियत नहीं है। सिस्टम को इस तरह से  गढ़ा गया है कि पुलिस वाले की ओर देखने भर से आपकी आंखें निकाल ली जाएंगी। यूपी में एक के बाद एक पुलिस के थानों में अत्याचारों की कहानियां मिलती है। कुछ दब जाती है कुछ सामने आ जाती है। कुछ में वादी सिर्फ खून का घूंट पी कर चला जाता है। क्योंकि अगर उसमें कुछ दम होता या फिर औकात होती तो फिर थानेदार पहले ही समझ चुका होता और उसको सलाम ठोंक रहा होता। इस दौरान एक के बाद एक पुराने ड़ीजी रिटायर होते ही पुलिस सुधारों की बात ठोंकने लगते है। अंग्रेजी के पत्रकारों और अखबारों की चर्चा में ये शब्द काफी चलते है। लेकिन पुलिससुधारों को गौर से देखे तो ये सुधार उनको और ताकत देने की ओर जाते है। पूरी दुनिया में अगर किसी डेमोक्रेसी में देखे तो हिंदुस्तान में शायद डेमोक्रेसी के खोल में सबसे ज्यादा ताकत अगर किसी के पास है तो वो है हिंदुस्तान में पुलिस का थानेदार।
(मैं पुलिस विरोधी नहीं हूं और किसी भी पुलिस वाले पर हमला और आम आदमी पर हमला दोनो को एक जैसा ही मानता हूं)
अशोक अंजुम साहब की एक गजल शायद इस पर कुछ और कह सके
धमकियाँ हैं-सच न कहना बोटियाँ कट जाएँगी।।
जो उठाओगे कभी तो उंगलियाँ कट जाएँगी।।
आरियों को दोस्तों दावत न दो सँभलो ज़रा
वरना आँगन के ये बरगद इमलियाँ कट जाएगी।
कुछ काम कर दस की उमर है बचपना अब छोड़ दे
तेरे हिस्से की नहीं तो रोटियाँ कट जाएँगी।
दौड़ता है किस तरफ़ सिर पर रखे रंगीनियाँ
ज़िंदगी के पाँव की यों एड़ियाँ कट जाएँगी।
माँ ठहर सकता नहीं अब एक पल भी गाँव में
तेरी बीमारी में यों ही छुट्टियाँ कट जाएँगी।
कुर्सियाँ बनती हैं इनसे चाहे तुम कुछ भी करो
देख लेना क़ातिलों की बेड़ियाँ कट जाएँगी।

Tuesday, November 24, 2015

आमिर खान, आजम खान नहीं है। बात पर गौर कीजिए।


आमिर खान को महसूस हुआ है कि इस देश में माहौल पिछले छह महीने से खराब हुआ है। और हालात इतने खराब हो गए है कि परिवार देश छोड़ कर जाने की सोचने लगा। परिवार की खास बात है कि वो हिंदुस्तान की एक सहिष्णु तस्वीर मानी जा सकती है ( आजकल की बुद्दिजीवि सहिष्णु व्याख्या) पति मुसलमान है और पत्नी हिंदु है। और इस बात को ऐसे समझना है कि बकौल आमिर खान बाहर जाने का सुझाव उनकी हिंदु पत्नी ने दिया है ( अगर शादी स्पेशल मैरिज एक्ट में हुई है तो किरण राव नाम रहा होगा अगर मुस्लिम रीति-रिवाज से तो वो मुस्लिम धर्मांततरित हो चुकी होगी नाम मालूम नहीं) एक के बाद एक सेक्युलर बुद्दिजीवियों के दुख के बाद अब आमिर साहब का दुख सामने आया। इस दुख में थोड़ा कुछ ज्यादा मामला है। क्योंकि देश में लाखों- करोड़ों भीख मांगकर खाने वालों को भी आमिर खान का नाम मालूम है। आमिर खान साहब की फिल्मों देखी है और भीख से हासिल रूपयों से एक बड़ा हिस्सा खान साहब को दिया है। शायद ही किसी भिखारी ने अवार्ड वापसी के नाटक में शामिल किसी बुद्दिमान की किताब पढ़ी हो या फिर नाटक देखा। मुझे मालूम नहीं कि कृष्णा सोबती की किताबों को अब लाईब्रेरी से कितना इश्यु कराया जाता है। ( मेरी पसंदीदा लेखक है) ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि आमिर किस बात से आहत है। बीफ न खाने देने के अधिकार से। अखलाख की हत्या से या फिर राजनीति के बदलाव से। रही बात बीफ खाने की तो आपके पडोस में रहने वाली शोभा डे खुले आम ट्वीट कर असहिष्णुओं की गैरत को ललकारती है कि मैंने अभी बीफ खाया है आओ मारों मुझे। और कोई पानीदार नहीं पाया गया लिहाजा इस बात से आपको आहत होने की कोई वजह नहीं है। अब आमिर की बीबी अखबार नहीं खोलती है। डर से। लेकिन किसी फिल्मी हस्ती से पर्स छीनते हुए कत्ल नहीं हुआ। किसी फिल्मी हस्ती को मिल रेप केस जैसे हादसे से नहीं गुजरना पड़ा। ( ये सिर्फ घटना बता रहा हूं फिल्मी हस्तियों पर व्यंग्य नहीं कस रहा हूं) उनके बच्चों को डर है। उनके बच्चे देश में नहीं पढ़ते है शायद। या देश के सबसे सुरक्षित माहौल वाले महंगे स्कूलों में पढ़ते होंगे। उनके बच्चों को जो माहौल मिला है वो शायद देश के 1 फीसदी से कम लोगो के बच्चों को मिल पाता होगा। उनकी बीबी को मार्किट में सब्जी खरीदते हुए या फिर बच्चों के लिए ड्रेस खऱीदते हुए भी नहीं देखा है। फिर कुछ तो है जो आमिर खान को परेशान कर रहा है। पिक्चर के हिट कराने का दर्द। या फिर दूसरा कोई कारण।
पिछले कई दिनों से ये सवाल बार बार दिमाग में आता है और फिर लौट जाता है क्योंकि कडवा सच और कड़वा बोलना दोनों मिट्टी की आम रवायतों में शामिल नहीं है ( धर्म नहीं कह रहा हूं और जिनको लगता है इसमें धर्म का योगदान है तो वो अपनी समझे) इसीलिए अगर पिक्चर चलाने का दबाव नहीं है तो फिर ये भी धर्म से जुड़ा हुआ मामला है क्या। क्योंकि अगर माहौल असहिष्णु है तो इसका खामियाजा सबसे ज्यादा मुसलमान ही भुगत रहे होगे। मुसलमानों पर अत्याचारों का एक लंबा सिलसिला चल रहा होगा। अखलाख की मौत की कहानी मीडिया में जिस तरह आई और जिस तरह पेश की गई उसका जमीन से कोई रिश्ता नहीं था। लेकिन मीडिया के बौंनों के दम पर पेश की गई कहानी को देश की कहानी बना दिया गया और उस पर बहस नहीं देश को नीचा दिखाने की एक हो़ड़ शुरू हो गई। लेकिन अपना सिर्फ एक मानना है कि आमिर खान साहब आपके लिए देश ही देश है। आपने गरीब और असहिष्णु हिंदुस्तानियों की वजह से काफी पैसा कमा लिया। लिहाजा आप शैतानों के देश अमरीका भी जा सकते है , या छोटे शैतानों के देश यूरोप के किसी देश में अपने इसी पैसे के दम पर पनाह ले सकते है। क्योंकि आप की पत्नी को यहां का माहौल बड़ा असहिषणु दिख रहा है । आप को याद है कि नहीं पिछली फिल्म में आपने असहिष्णुओं के देवता का सरेआम मजाक उड़ाया था और आप मजे में सुपरहिट रहे। हम लोग सिर्फ ये कह सकते है कि आप आजम खान नहीं है इसीलिए आपकी बात सुननी चाहिए।
आजम खान साहब की तुलना इस लिए नहीं कर रहा हूं क्यों आजम खान साहब को वोट चाहिए और वो जानते है कि इस रास्ते से वोट की फसल काटना आसान है। और उनको वोट मिल भी रहे है। उनकी व्याख्या बेहद महीन होती है। वो आज भी बादशाह में यकीन रखते है। वो मानते है कि फिलिस्तीन, सीरिया, इराक, लीबिया या दुनिया के तख्ते पर जो भी मुसलमानों के साथ हो रहा है कुछ वैसा ही हिंदुस्तान में बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों के साथ कर रही है। उनके पास रामपुर के नवाब के भाषणों की कॉपियां भी बची होगी जो बंटवारे के वक्त उऩ्होंने दिए थे।
खैर बात वापस फिर आमिर साहब पर। आमिर खान साहब आप भले ही कही चले जाएं आपकी सामर्थ्य में है ये बस। लेकिन सवा अरब लोग अपने बच्चों का क्या करे उनकी सुरक्षा के लिए क्या करे। इस धरती के तख्ते पर उनको कहां पनाह मिलेगी। और आखिर में एक बात और जो अपनी ओर से कहना चाहूंगा कि आप कही भी जाएं लेकिन प्लीज मिडिल ईस्ट न जाएं क्योकि महिलाओं को वहां ये सुझाव देने की ताकत वहां नहीं रह जाएंगी। ( ये मेरी समझ है और दोस्त नाराज न हो)

Saturday, November 7, 2015

एक दूसरे में समाता जाता है खून ...........................................................................


खून से सने खंजर को साफ करते हुए
भीड़ के साथ नारा लगाया 
एक और काफिर मारा गया
पूरा हुआ फर्ज
खत्म हुआ ऊपर वाले का कर्ज
कयामत के दिन
नहीं होगा कोई ऊपरवाले के सवालों का डर
सड़क पर फैला खून
धीरे धीरे सड़क से रिस रहा था
उसी वक्त दूर कही
ऐसी ही भीड़ से निकलकर
एक साफ करता है चाकू
खून से फव्वारों के सने हुए कपड़े
जहर से भीगे ठहाकों के बीच
नारा लगाता है
उनका भी एक मारा गया
अब कोई डर नही
उपरवाले के लिए बचा अपना कोई फर्ज नहीं
ईश्वर ने इसी के लिए हमे बनाया है
सफाया हर उस राक्षस का होगा
जिसने हमारे धर्म को धमकाया है
बिखरे हुए खून में लिपटा अऩाम चेहरा
दोनो भीड़ की खुशियों से अनजान
खून उतरता चला जाता है नालियों में
पानी के साथ बहता हुआ
मिल जाता है एक दूसरे से
बिना खंजर और चाकू के दर्द की परवाह किए हुए
नालियों से नालों और नालों से भी बहुत आगे
एक दूसरे से समाता जाता है खून
धीरे धीरे आसमान से घूम कर
धरती की कोख में आता है खून
फिर से जनमने के लिए
बेपरवाह इस बात से
जेहादी के घर या काफिर के घर
किसी कोख में फल जाता है खून।

खरबों का डॉन चौबीस घंटें में अरबों का रह गया। ..........................................................

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पल में तौला-पल में माशा। ये कहावत बचपन में बहुत सुनी थी। लेकिन आजकल मीडिया की खबरों को देखकर लगता है मीडिया के लिए कही गई थी। खबरों की आपा-धापी में आदमी को ये समझ ही नहीं आता कि कौन सा चैनल कौन सी खबर को कैसे कह रहा है। तरीका अलग हो सकता है लेकिन मूल खबर अलग कैसे हो सकती है। ये सवाल आपको रोज परेशान कर सकता है। आज एक खबर पढ़ने के बाद सिर घूम गया क्योंकि कल ही वो खबर दूसरी थी। कल कहानी थी कि मुंबईया भगौडे अपराधी छोटा राजन (माफ करना डॉन कहा था स्क्रिप्ट में और वीओ में थोड़ा जमता है) की देश-विदेश में चार से पांच हजार करोड़ की प्रोपर्टी है। इसमें चीन से लेकर मध्यपूर्व के देशों, अफ्रीकी देशो और मुंबई में बेनामी प्रोपर्टीज की हजारों करोड़ की खबर कल ही पढ़ी है। कल मीडिया ने दिन भर चलाया। बहुत मजा आया पब्लिक को। दाल के दो सौ रूपये भारी लग रहे है लेकिन डॉन की खरबों की संपत्ति पर मजा आया। डॉन की इस बहती गंगा में हम जैसे बौनों ने जमकर पीटीसी और बकार की। इंडोनेशिया में ड़ॉन को धकियाते हुए बहादुर रिपोर्टर तो जैसे स्वर्णिम पल थे मीडिया के। खैर रात बीत गई। सुबह देखते ही दिमाग घूम गया अरे भाई ये क्या हुआ रात भर में डॉन की संपत्ति क्या हुई। दलाल स्ट्रीट के आंकड़ों की तरह ये भी अबूझ हो गई। हजारों करोड़ की संपत्ति महज चार-पांच सौ करोड़ की रह गई। रात रात में इतना पैसा किसी का हवा हो गया। कल की खबर गलत थी या आज की। कल का सोर्स गलत था या आज का। इसकी जांच करने की किसको फुर्सत है। कल की पीटीसी और बाईलाईऩ कर मिल चुकी है। आज की खबर पर आज कर देंगे। मुंबई पुलिस के मुखबिरनुमा पत्रकारों या पत्रकारनुमा मुखबिर जो चाहे कहिए उनकी चांदी हो रही है। जो चाहे कह दे जो चाहे बक दे सब सोना ही सोना। मीडिया की सबसे बड़ी खबर देश के सबसे बड़े डॉन में से एक सुरक्षा एजेंसियों के हत्थे चढ़ गया है। कई रिपोर्टर तो वंदना में इतना धुत हो गए कि मीडिया और गपबाजों में जैसे होड़ शुरू हो गई। राजन की गिरफ्तारी के बाद जैसे लगा कि मुंबई की फिल्मों और मीडिया की खबरों में अंतर ही गायब हो गया।
गिरफ्तारी की खबर के बाद हैडलाईंस
देश का सबसे बड़ा डॉन गिरफ्तार। हिंदु ड़ॉन गिरफ्तार। दाऊद का सबसे बड़ा दुश्मन गिरफ्तार। चैंबूर का छोटा राजन कैसे बना अंडरवर्ल्ड का बड़ा डॉन। या फिर ऐसी सैंकड़ों हैडलाईँस मानों दिमाग का कचूमर बनाने में एक दूसरे से होड़ कर रही हो। इस कहानी में सबसे ज्यादा मुंबई का मीडिया मुखर था। इसीलिए हर कहानी को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे जिंदगी मे रीयल कहानी और रील की कहानी में बाल भर भी फर्क न आ जाए। मुंबई की रिपोर्टिंग के दौरान अक्सर उन तमाम पुलिस वालों से मिलना हुआ जो हिंदी फिल्मों की हीरोपंती के नायक होते है। झूठ और सच की इतनी मिलावट शायद ही कही दिखाई दे। नायकों की तरह घूमते पुलिसवाले। कितने एनकाऊंटर कैसे एनकाऊंटर , कहां कहां एनकाऊंटर, किस किस के एनकाऊंटर सबकी कहानी मुंहजुबानी। लेकिन इनके साथ ही चलती रहती है उपकहानी। किस-किस पुलिसवाले ने किस किस माफिया के कहने पर किस किस का एनकाउंटर किया ये इनसाईक्लोपीडिया आपको आसानी से हर क्राईम रिपोर्टर और हर किसी एनकाऊंटर स्पेशलिस्ट से मिल जाएंगा। कई सरेआम जेल गए। मुकदमे चले और छूट गए। किस तरह बार में बैठकर डील होती थी। कानून को किस तरह टके के भाव बेच दिया जाता था इसकी कहानी आप कही भी सुन सकते है लेकिन सरकार ( मालूम नहीं किसको कहते है अभी तक) को मालूम नहीं।

हम क्रांति के छलावों से छले थे । ...........................................................


पैर छालों से भर गए
हाथों से गिर गई रोटियां
बेटियों की इज्जत को तार-तार देखा 
बेटों की लाशों को बार बार देखा
हर बार घास की खाई रोटियां
हल ये हुआ कि
उनके हाथ आई बोटियां
उनका कुछ गया नहीं
हमारा कुछ रहा नहीं
इस कदर आराम से आई
हमारे यहां क्रात्रियां
वो रोटियों से चोटियों पर चले थे
हम उनके बोझ तले थे
वो देश भी है विदेश भी
ऐसा उन्होंने कमाल किया
हमने ढो रहे है उनके सपनों की पालकिया
दिन की तलाश में
आधी रात को चले थे
हम दूध से नहीं
छाछ से जले थे
कई बार रो दिए
कई बार हंस दिए
अब तो ये भी याद नहीं
अब है कि पहले भले थे
हम रोटियों की तलाश में चले थे
हम क्रांत्रियों से नहीं
क्रात्रियों के छलावों से छले थे