रोज एक नया हादसा होता है। ये सही है कि हादसों का कोई सीधा रिश्ता सरकार से नहीं है। हादसे हो रहे है। लेकिन हादसों के बाद की सारी कार्रवाही का नसीधा, पहला और आखिरी रिश्ता सीधा सरकार से ही होता है। एक के बाद एक हादसों के बाद लगता है कि सरकार नौकरशाही के चंगुल में बैठी है। मंत्रियों का कद तो इतना बौंना लगता है कि वो डीएम और एसएसपी को साहब कहने से बाज ही नहीं आ रहे है। उनको लग रहा है कि किस्मत से इस बार सत्ता मिल गई है और मोदी कृपा से मंत्रालय लेकिन इसके जाने के बाद तो इन्हीं साहब लोगों से कहकर अपने काम कराने है यानि असली साहब ये ही दफ्तर में बैठे हुए बाबू है हम नहीं जिनको जनता ने चुनकर भेजा है। ऐसे ही भाव से चल रही है ये सरकार।
मैं अपने घर से निकलता हूं और ऑटो स्टैंड से ( अवैध तौर पर है सब पहले से थे सो अब भी चलेंगे इस का कोई मतलब नहीं लेकिन भक्त का ये जवाब है) सामना होता है। सड़क को पूरी तरह घेरकर ( बीच सड़क में खड़े होते है और घेरकर किसी मुहावरे के तौर पर नहीं लिख रहा हूं) खड़े हुए ऑटो से उलझने का पहले भी कोई फायदा नहीं था और जान को उतना ही खतरा था जितना पहले था। लेकिन मुझे इस सब में कोई बदलाव की कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बदलाव की आशा जरूर थी कि मोदी के बाद बोलने माईक पर बोलने के रिकॉर्ड को तोड़ने की उम्मीद में जुटे हुए योगी जी कभी कभी भ्रष्ट्राचार को भी तोड़ेगे। लेकिन वही लड़का जो पहले भी हर ऑटो से सड़क के बीच में आकर दस रूपए लेता था उसी तरह से लेता है। और कोने पर अपनी मोटरसाईकिलों पर बैठे हुए फोन में खेलते हुए पुलिसकर्मी अपनी कनखियों से इस बात को निहारते रहते है कि कोई ऑटो वाला इस चांदी के जूते वाले कानून की तौहीन तो नहीं कर रहा है।
अभी शहर से आया तो एक दो नहीं कई लोगों से ये जानकारी मिली कि डीएम साहब आराम से पांच परसेंट में है। डीडीसी या इसी तरह के अधिकारी बेचारे ठेकेदारों से कहते है कि हमारा तो बाद में भी दिया जा सकता है लेकिन बड़े साहब का पहले नहीं भेजा तो काम शुरू ही नहीं होगा।
ये बात आसानी से साबित नहीं की जा सकती है । जैसे आप मकड़़ी के जाले में एक सिरे से निकल कर दूसरे सिरे की ओर ही जा सकते है बाहर नहीं ऐसे ही लग रहा है। जनता पूरी ताकत से नेताओं को चुनती है जातिवाद का आवरण काटती है, लेकिन नतीजे में जो नेता निकलते है वो अंडा ही निकलते है जैसे आमिर का विज्ञापन का आदमी वापस आकर फिर से जनता से पूछता है कि आदमी हो या अंडा। बेचारा आम आदमी।
यूं तो कई सारी कहानी कह सकता हूं लेकिन छह महीने कम नहीं होते जब कि आपको जनता ने हर चीज उतार कर हवाले कर दी हो।
मंहगाईं पर इन दिनों बीजेपी के मौजूदा मंत्रियों के पुराने बयान और फोटो ( जब वो विपक्ष में बैठ कर जादुई चिराग दिखाते थे जनता को सबकुछ हल करने का) सोशल मीडिया पर खूब घुम रहे है लेकिन जिस तरह की बेशर्मी कांग्रेस के नेताओं के चेहरे पर 7-8 साल बाद दिखाई दी थी वो इनके चेहरों पर और भी चमकदार तरीके से छह महीने में ही दिखाई दे रही है। रोमियों सड़कों पर घूम रहे है स्कवॉयड मंत्रियों के लिए सड़के खाली करवा रहे है शायद।
पता नहीं क्यों लेकिन नासिर काजमी साहब की ये लाईंने मुझे बहुत पंसद है आप चाहे तो पढ़ सकते है और सोच सकते है कि आज क्यों ये मौंजू है।
वो साहिलों पे गाने वाले क्या हुए
वो कश्तियाँ जलाने वाले क्या हुए
वो कश्तियाँ जलाने वाले क्या हुए
वो सुबह आते-आते रह गई कहाँ
जो क़ाफ़िले थे आने वाले क्या हुए
जो क़ाफ़िले थे आने वाले क्या हुए
मैं जिन की राह देखता हूँ रात भर
वो रौशनी दिखाने वाले क्या हुए
वो रौशनी दिखाने वाले क्या हुए
ये कौन लोग हैं मेरे इधर-उधर
वो दोस्ती निभाने वाले क्या हुए
वो दोस्ती निभाने वाले क्या हुए
इमारतें तो जल के राख हो गईं
इमारतें बनाने वाले क्या हुए
इमारतें बनाने वाले क्या हुए
ये आप-हम तो बोझ हैं ज़मीन के
ज़मीं का बोझ उठाने वाले क्या हुए
ज़मीं का बोझ उठाने वाले क्या हुए
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