65 दिन की यात्रा, बीस राज्यों के बीच से गुजरना, सैकड़ों शहर के लोगों के बीच होकर जाना, बारिश के इंसानी रिश्तों को देखने के बहाने देश को देखने की कोशिश ( मालूम नहीं कितना सफल हो पाया)
ये यात्रा बारिश के साथ की यात्रा थी। लेकिन ये यात्रा संगीत की यात्रा भी थी। इतने सालों तक अपराध, राजनीति, आतंकवाद की रिपोर्टिंग के बीच में ये कभी पता ही नहीं चला कि संगीत की यात्रा इंसान के जंगल से सभ्य होने की यात्रा है। इस यात्रा से दिखा कि प्रकृति से संघर्ष और इंसानी द्वंद से उपजे दर्द के बीच इंसानी यात्रा संगीत की यात्रा भी है। हजारों साल के इंसानी सफर में दर्द, मौत, यंत्रणाऐं तो दिखती है लेकिन संगीत और कला जिस तरह से उन दर्द के थपेड़ों में प्रेरणा बन कर उभरी होंगी वो आज भी आपको दिख सकता है बस थोड़ा सा उसके साथ वक्त गुजारना होता है। कथकली की यात्रा से लेकर जैसलमेर के रेत के टीलों पर माड राग गाते हुए मांगणयारों और लंघाओं के बीच कालबेलिया डांस करती हुई वो लोक कलाकार इतिहास की यात्रा के गवाह है।
केरल में 30 मई को मानसून के आगमन के साथ ही शूरू बारिश के साथ का सफर जैसलमेर की जिस सुनहरी रेत में खत्म हुआ वहां अब रेत भी रास्ता बदल रहा है। रेगिस्तान में ज्यादातर हिस्सों में फसल लहलहाने लगी है। ये उन किताबों के हर्फों से अलग है जिनको पढ़ कर आप देश को समझ रहे है।
देश में बने हुए हाईवे अब फिर से इस देश का आर्थिक भविष्य बदल रहे है। कालाहांडी के पास एक खूबसूरत और इतिहास से भरा हुआ असुरगढ़ जब अपनी संपन्नता की कहानी सुनाता है तो मिट्टी से बने हुए इस दुर्ग के दक्षिणापथ और उत्तरापथ के मिलन स्थल पर होने से गुजरते व्यापारिक कारवों से हासिल समृद्दि की कहानी दिखाई देती है तो फिर जैसलमेर की रेत पर गुजरने के दौरान रेत और सिर्फ रेत के बीच पानी के अभावों से जूझते हुए इंसान ने कला और संगीत के साथ साथ संपन्नता के कितने नखलिस्तान तैयार किये वो भी इस यात्रा से ही सीखा। और उन संघर्षों को जनसाहित्य में भी जगह मिली। लिखने को तो काफी लिखा जा सकता है और हर एक जगह पर लिखा जा सकता है लेकिन जैसलमेर में बातचीत में पता चला कि इस शहर तक पहुंचने की कठिनाईंयों को लोक कवि ने कैसे कहा है उसी से हालात का अंदाजा लगता है.
" घोड़ा कीजै काठ का, पिंड कीजै पाषाण,
बख्तर कीजै लोह का, तब देखों जैसाण"
खैर इस यात्रा में इतना देखा, सुना कि लिखना भी दुष्कर दिख रहा है
लेकिन इस यात्रा में यदि उन स्थानीय दोस्तों का जिक्र न करूं तो ये यात्रा के साथ भी धोखा होगा। मैं उन तमाम दोस्तों ने जिस तरह से स्थानीय परंपराओं से लेकर इतिहास की कहानी बताने और दुर्गम जगहों पर ले जाने का जो उत्साह दिखाया वो भी इस यात्रा का हिस्सा है। उन तमाम दोस्तों के साथ अपने स्मरण मैं जल्दी ही शेयर करूंगा। क्योंकि इसमें कुछ लाईंनों में उनकी सहायता को समेटा नहीं जा सकता।
यात्रा में विलक्षण लोग भी मिले जो बघाना जैसी जगह में एक गुफा में बैठकर उस दुर्गम जगह पर आने वाले यात्रियों को चाय और पानी पिलाते रहते है बिना किसी स्वार्थ के। ऐसे युवाओं को भी देखा जो महीने भर वहां सेवा करने के लिए अकेले रह रहे है। आस्थाओं के सहारे।
इसके अलावा मेरे साथ इस यात्रा को जैसे मैंने देखा उसको वैसे ही खूबसूरत तरीके से दर्शकों तक पहुंचाने में सत्या रंजन राऊत्रे की भूमिका मेरे से ज्यादा थी। मैं तो बस उन अजनबी चीजों को अचंभें से देखता रहता था और सत्या अपने कैमरे से उनको खूबसूरती से कैद कर दर्शकों तक पहुंचाता रहता था।
और यात्रा में जिस तरह से 18500 किलोमीटर की दूरी बिना किसी बाधा के और इस दौरान तय हुई उसमें ड्राईवर अब्दुल हक का सबसे बड़ा योगदान था। अपने बालों को लेकर बेहद संवेदनशील अब्दुल हक ने जैसे थकना सीखा ही नहीं। नईं चीजों को देखकर उसका उत्साह मुझे भी हिम्मत देता था। दिन भर शूट करना और फिर रात को 500 से 700 किलोमीटर का सफर तय कर अगले शहर के लिए निकलना इस मशक्कत में कभी अब्दुल की हिम्मत नहीं टूटी।
खैर अभी अभी घर पहुंचा तो सोच रहा था कि इस यात्रा को कैसे शब्दों से कैसे पूरा किया जा सकता है। जो कैमरे से देखा उससे ज्यादा वो है जो मेरी आंखों ने देखा। ( ये फोटो उन हजारों यादों में से एक छोटा सा हिस्सा भर है)
ये यात्रा बारिश के साथ की यात्रा थी। लेकिन ये यात्रा संगीत की यात्रा भी थी। इतने सालों तक अपराध, राजनीति, आतंकवाद की रिपोर्टिंग के बीच में ये कभी पता ही नहीं चला कि संगीत की यात्रा इंसान के जंगल से सभ्य होने की यात्रा है। इस यात्रा से दिखा कि प्रकृति से संघर्ष और इंसानी द्वंद से उपजे दर्द के बीच इंसानी यात्रा संगीत की यात्रा भी है। हजारों साल के इंसानी सफर में दर्द, मौत, यंत्रणाऐं तो दिखती है लेकिन संगीत और कला जिस तरह से उन दर्द के थपेड़ों में प्रेरणा बन कर उभरी होंगी वो आज भी आपको दिख सकता है बस थोड़ा सा उसके साथ वक्त गुजारना होता है। कथकली की यात्रा से लेकर जैसलमेर के रेत के टीलों पर माड राग गाते हुए मांगणयारों और लंघाओं के बीच कालबेलिया डांस करती हुई वो लोक कलाकार इतिहास की यात्रा के गवाह है।
केरल में 30 मई को मानसून के आगमन के साथ ही शूरू बारिश के साथ का सफर जैसलमेर की जिस सुनहरी रेत में खत्म हुआ वहां अब रेत भी रास्ता बदल रहा है। रेगिस्तान में ज्यादातर हिस्सों में फसल लहलहाने लगी है। ये उन किताबों के हर्फों से अलग है जिनको पढ़ कर आप देश को समझ रहे है।
देश में बने हुए हाईवे अब फिर से इस देश का आर्थिक भविष्य बदल रहे है। कालाहांडी के पास एक खूबसूरत और इतिहास से भरा हुआ असुरगढ़ जब अपनी संपन्नता की कहानी सुनाता है तो मिट्टी से बने हुए इस दुर्ग के दक्षिणापथ और उत्तरापथ के मिलन स्थल पर होने से गुजरते व्यापारिक कारवों से हासिल समृद्दि की कहानी दिखाई देती है तो फिर जैसलमेर की रेत पर गुजरने के दौरान रेत और सिर्फ रेत के बीच पानी के अभावों से जूझते हुए इंसान ने कला और संगीत के साथ साथ संपन्नता के कितने नखलिस्तान तैयार किये वो भी इस यात्रा से ही सीखा। और उन संघर्षों को जनसाहित्य में भी जगह मिली। लिखने को तो काफी लिखा जा सकता है और हर एक जगह पर लिखा जा सकता है लेकिन जैसलमेर में बातचीत में पता चला कि इस शहर तक पहुंचने की कठिनाईंयों को लोक कवि ने कैसे कहा है उसी से हालात का अंदाजा लगता है.
" घोड़ा कीजै काठ का, पिंड कीजै पाषाण,
बख्तर कीजै लोह का, तब देखों जैसाण"
खैर इस यात्रा में इतना देखा, सुना कि लिखना भी दुष्कर दिख रहा है
लेकिन इस यात्रा में यदि उन स्थानीय दोस्तों का जिक्र न करूं तो ये यात्रा के साथ भी धोखा होगा। मैं उन तमाम दोस्तों ने जिस तरह से स्थानीय परंपराओं से लेकर इतिहास की कहानी बताने और दुर्गम जगहों पर ले जाने का जो उत्साह दिखाया वो भी इस यात्रा का हिस्सा है। उन तमाम दोस्तों के साथ अपने स्मरण मैं जल्दी ही शेयर करूंगा। क्योंकि इसमें कुछ लाईंनों में उनकी सहायता को समेटा नहीं जा सकता।
यात्रा में विलक्षण लोग भी मिले जो बघाना जैसी जगह में एक गुफा में बैठकर उस दुर्गम जगह पर आने वाले यात्रियों को चाय और पानी पिलाते रहते है बिना किसी स्वार्थ के। ऐसे युवाओं को भी देखा जो महीने भर वहां सेवा करने के लिए अकेले रह रहे है। आस्थाओं के सहारे।
इसके अलावा मेरे साथ इस यात्रा को जैसे मैंने देखा उसको वैसे ही खूबसूरत तरीके से दर्शकों तक पहुंचाने में सत्या रंजन राऊत्रे की भूमिका मेरे से ज्यादा थी। मैं तो बस उन अजनबी चीजों को अचंभें से देखता रहता था और सत्या अपने कैमरे से उनको खूबसूरती से कैद कर दर्शकों तक पहुंचाता रहता था।
और यात्रा में जिस तरह से 18500 किलोमीटर की दूरी बिना किसी बाधा के और इस दौरान तय हुई उसमें ड्राईवर अब्दुल हक का सबसे बड़ा योगदान था। अपने बालों को लेकर बेहद संवेदनशील अब्दुल हक ने जैसे थकना सीखा ही नहीं। नईं चीजों को देखकर उसका उत्साह मुझे भी हिम्मत देता था। दिन भर शूट करना और फिर रात को 500 से 700 किलोमीटर का सफर तय कर अगले शहर के लिए निकलना इस मशक्कत में कभी अब्दुल की हिम्मत नहीं टूटी।
खैर अभी अभी घर पहुंचा तो सोच रहा था कि इस यात्रा को कैसे शब्दों से कैसे पूरा किया जा सकता है। जो कैमरे से देखा उससे ज्यादा वो है जो मेरी आंखों ने देखा। ( ये फोटो उन हजारों यादों में से एक छोटा सा हिस्सा भर है)
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