Monday, March 26, 2018

अलाउद्दीन बे औलाद नहीं मरा था । देवबंदी फतवे का काफी देर से इंतजार था। "

अलाउद्दीन बे औलाद नहीं मरा था । देवबंदी फतवे का काफी देर से इंतजार था।
"उनकी हर रोज हमला करने की निरंतर हिम्मत बेमिसाल थी। वह रोज लड़ते और हर बार मात खाते, लेकिन फिर भी बार-बार लड़ाई करने के लिए वापस आते थे" चार्ल्स ग्रिफिथ्स
ये एक स्वीकारोक्ति है अंग्रेजों की 1857 की लड़ाई के दौरान विद्रोहियों पर। लेकिन ये मध्ययुग के इतिहासकारों की किसी चीज को हम इस तरह नहीं देख पाते क्योंकि मध्ययुगीन इतिहास को इसी तरह से लिखा गया जो कि जिहादी मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा या फिर देश के लिए लगातार विदेशी साबित होते रहे वामपंथी इतिहासकारों ने उसको उतना ही लिखा जितना देश की आत्मा पर झूठ का दामन लहरा देने तक था।
पद्मावति को लेकर देश भर में सोशल साईट्स पर हुडदंग मचा हुआ है। सोशल साईट्स का मतलब है वो पीढ़ी जिसको अब इतिहास से बावस्ता होने का मौका मिल रहा है। ऐसे में उन लाखों गांवों से अलग बर्बर अरब हमलावरों के औरतों और सोने की तलाश में इस देश को रौंदने के वक्त से ही उनके अत्याचारों के गीत गाएं जाते रहे है, इस बात का कितना असर है इसका असर कैसे मालूम हो सकता है इसका कोई बहुत पुख्ता कोई आधार शायद अभी नहीं है। सदियों से अरब और तुर्क हमलावरों के जनेऊ तुलवाने और औरतों के जौहर के किस्से आम लोक संगीत में गाएं जाते रहे है या फिर पूस की ठंडी रातों में जुल्म झेल रही पीढियों को पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाएं जाते रहे। ऐसे ही किस्से चलते रहे और सदियों तक धर्मांतरण के लिए दबाव या फिर अत्याचारों की एक लंबी श्रृंखला को झेल रही एक कौम बची रही। लेकिन आजादी के बाद जाने कैसे इतिहास को लिखने की जिम्मेदारी उन लोगों ने उठा ली जिनको इस देश के बनने पर ही ऐतराज हो गया। पाकिस्तान के बनने पर लिखना फिर से अरबों और तुर्कियों के बर्बर हमलावरों की गुनाहों की फसल पर बात करना होगा। लेकिन बात इस बचे हुए हिस्से पर है, पद्मावति को एक अभिव्यक्ति की आजादी पर बात करने वाले वामपंथियों की हालात इतनी खराब हो जाती है जब वो बहुसंख्यकों के ईतर किसी भी धर्म की रूढ़ियों पर बात करने की बहस चलती है। पद्मावति को देश के हजारों लाखों लोग गीतों में और आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के महिलाओं को प्रेरित करने के लिए तैयार किए गीतों में एक नैतिक ताकत के तौर पर गाया गया। पद्मावति न केवल चित्तौंड़ की चाहरदीवारी से निकल कर इस देश की आत्मा तक में घुस गई। अभी गुजरात के दौरे पर कई घरों के नाम पद्मावति निवास या फिर मंदिरों की दीवारों पर सती पद्मावति लिखे हुए देखता रहा और सोचता रहा कि क्या कोई देश इतने सारे दो मुंहों के साथ जिंदा रखने का माद्दा रखता है। पद्मावति फिल्म की चर्चा चली तो बहुत से ऐसे लोगों को लिखते हुए देखा जो देश की कहानी से ज्यादा अपनी घृणा की कहानी लिखना चाहते है। पद्मावति के अपमान से भरी हुई कहानी दिखाने की जिद में ये लोग अपने बाप-दादाओं की उस संघर्ष की कहानी को पददलित करने में जुट गए जिसने उनको इस सोच तक एक खास धर्म में रहने दिया। मैं देखता हूं कि उनमें से किसी की हैसियत नहीं है कि वो अभिव्यक्ति की कहानी को बहुसंख्यकों के उलट किसी और के लिए कुछ लिख सके। अभी हाल में रोहित सरदाना का हाल देखा उनके उस ट्वीट को लेकर मैं बहुत कुछ नहीं लिखना चाहता लेकिन उसके विरोध में पत्रकारों को भी मुसलमान होते हुए देखा। बहुत से अभिव्यक्ति की आजादी के उन फर्जी दीवानों की औकात भांड सी दिख गई।
खैर बात इधर से उधर हो रही है हमको सिर्फ पद्मावति पर बात करनी है। पद्मावति की कहानी के बाद राणा अय्यूब टाईप जिहादी पत्रकारों की अलाऊद्दीन को एक बेहद सात्विक और इस देश के लिए एक वरदान साबित करने की कहानी इतिहास के पन्नों में कुछ टिक नहीं पाई। हिंदुस्तानी इतिहास में मुगल सल्तनत के रोशनी की मीनार तैमूर ( अकबर हो या फिर बहादुर शाह जफर दोनों तथाकथित सहिष्णुओं ने अपने को बार बार महान तैमूरी खून कहा है) के साथ शैतानियत में टक्कर का चेहरा या फिर उससे भी आगे निकला तो वो अलाउद्दीन का खूंखार चेहरा है। पिछले कई लेखों में मैंने इतिहास की उन किताबों के आधार पर इस शैतान का चेहरा देखा है जिनके आधे हिस्सों को छिपा कर इरफान हबीब जैसे छिपे हुए जेहादी इतिहासकारों ने पूरे देश को मूर्ख बनाया। लेकिन देश ने जियाउद्दीन बर्नी, इब्नबतूता और मासूम जेहादी खुसरों की फुतूहसस्लाीन के आधार पर उस शैतान को साफ तौर पर देख लिया। ऐसे में जिहाद की पाठशाला चला रहे बहुत से मदरसों को लग रहा था कि अरे इतना शानदार सुल्तान तो दिखा नहीं। धार्मिक आधार पर गैर धार्मिक लोगों की औरतों, बच्चों और बच्चियों को ईमान वालों को बलात्कार करने की छूट और गुलाम बनाकर अरब के बाजारों में बेचने की छूट दे रहा था। ऐसे में उससे बेहतर कौन सा आईडल होगा। ऐसे में उसके साथ मलिक काफूर जैसे गुलाम के साथ उसके रिश्तें को ( इस्लाम में इस तरह के शारीरिक संबंधों को गैर इस्लामी माना गया है और गुनाह कहा है) भुला कर उसको इस्लाम का सच्चा बंदा बताने वाले सामने क्यों नहीं आ रहे थे इस सवाल का जवाब दे दिया देवंबद के मदरसे ने। देवबंद के मदरसे के शब्दों में ऐसा कुछ नहीं है जो उसको जानने वालों को चौंका सके। दरअसल दुनिया भर में जिस किस्म की अमानवीय या इंसानियत को दहलादेने वाले आतंकियों की कहानियां सुनते है तो उनमें से काफी का हिस्सा देवबंदी विचारधारा है। यानि इंसानियत के हत्यारों को काफी मार्गदर्शन मिलता है इस विचार धारा से।
यहां फिर वामपंथी इतिहासकारों की देश को खत्म करने की एक बड़ी साजिश बेपर्दा होती है। देवबंद को देश की आजादी की लड़ाई का मरकज बताने की एक बड़े झूठ को देश के सामने उतार दिया था। मैं अक्सर कुछ बौंनों की इन लाईंनों पर यकीन करता रहा कि देवबंद कट्टर इस्लामिक शिक्षा नहीं बल्कि देश की आजादी की लड़ाई में कंधें से कंधे से मिलाकर लड़ने वाला मदरसा है। लेकिन आप अगर जरा सा भी पढ़ते है इस झूठ को अपनी आंखों के सामने तार तार होते हुए देख सकते है। एक बार इसकी स्थापना पर नजर डाल दे तो शायद आपके सामने कुछ चींजें साफ हो।
दूसरा नजरिया मदरसा-ए - रहीमिया के बचे हुए लोगों का था। उन्होंने पश्चिमी तालीम को बिलकुल खारिज कर दिया और खालिस इस्लामी तहजीब की जड़ों की ओर लौटने की कोशिश करनी चाही। इस मकसद से ,मौलाना मुहम्मद कासिम ननौतवी जैसे-जिन्होंने 1857 में कुछ दिन के लिए मेरठ के पास दोआब के इलाके शामली में अपने एक आजादी इस्लामी राज्य की बुनियाद डाली थी- शाह वलीउल्लाह के मदरसे के मायूस छात्रों में मुगलों की पूर्व राजधानी से सिर्फ सौ मील दूर देवबंद में एक प्रभावशाली लेकिन बेहद संकीर्ण वहाबी किस्म का मदरसा भी शुरू किया। रक्षात्मक नीति अपनाते हुए, वह उस सबके किलाफ थे जिसे मदरसे के संस्थापक पुराने मुगल कुलीनों का पतित और दूषित आचरण मानते थे। इसीलिए देवबंद मदरसे ने सिर्फ कुरआनी तालीम शुरू की और अपने पाठ्यक्रम से हर वह चीज निकाल दी , जो हिंदुओं या अंग्रेजों से कोई भी ताल्लुक रखती थी.
इस मदरसे की सोच का उत्सर्ग देखने की कोशिश करने के लिए एक बार 1857 के युद्द के बीच ईद के दिन जेहादियों की कोशिश को भी देखना चाहिए।
'आमतौर से पूरी इस्लामी दुनिया में मुसलमान बकरईद पर हजरत इब्राहिम की कुर्बानी और खुदा की उनके बेटे इस्माईल की जान बचाने में मेहरबानी याद करने के लिए एक बकरा या भेड़ कुर्बान करते है। लेकिन इस बार , जैसा कि मुहम्मद बाकर का कहना है
" टोंक से आएं हुए गाजी इस बात पर अड़े हुए थे कि वह जामा मस्जिद के सामने खुले मैदान में ईंद के दिन एक गाय की कुर्बानी करेंगे। उन्होंने ये भी कहा कि अगर हिंदुओं ने इसका विरोध किया तो वह उनको मार डालेंगे। और हिंदुओं से हिसाब चुकाने के बाद वह सब फिंरंगियों को खत्म कर देंगे। उनका कहना था कि अगर हमको महजब के लिए शहदी होना है तो शहादत का दर्जा एक हिंदु को मारकर भी उसी तरह मिल सकता है जैसे फिरंगी को मारकर। "
दरअसल देवबंद मदरसा का पाठ काफी गलत तरीके से वामपंथियों ने लिखा और देश को एक चल रहे जेहाद की जमीन मानने वाले कुछ इतिहासकारों ने पेश किया है। इसीलिए बहुत से लोगों को समय समय पर इसके जारी होने वाले फतवों को देखकर आश्चर्य होता है। लेकिन मुझे अफगानिस्तान या पाकिस्तान में आतंकियों की फौंज की धार्मिक रोशनी देवबंद मदरसे के किसी फतवे को देखकर कुछ अलग नहीं लगता और अलाउद्दीन को मसीहा बताने वाले फतवे से कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि सालों पहले एक बार कवर करने गया था तो बड़ी मुश्किल से इजाजत मिली थी खैर मिल गई थी तो कवर किया। बहुत सी बाहर दिखाने वाली कहानियों को सुनकर बाहर आ रहा था कि एक गेट पर लिखे हुए कुछ अरबी या फिर ऐसी ही किसी भाषा में ( नहीं जानता लेकिन उस शख्स ने अरबी बताया था) देखा। पूछा तो पता चला कि ये जहीर शाह गेट है। अमेरिका के 9/11 के बाद कवर करने गया था, और तालीबान देवबंदी मदरसे की विचारधारा का है। तो ख्याल आया ( पीटीसी ) कि जब जहीरशाह ने इस मदरसे को गेट बनाने के लिए रकम अता की होगी तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा कि जिस गेट को वो बना रहा है उसी गेट के नीचे से निकले तालिब उसके साम्राज्य को ही खत्म करने देगे।लेकिन आज मुझे ख्याल आ रहा है कि और ये दोनों चीजें तालिब और जहीर शाह गेट दोनों ही चीजे देवबंदी मदरसे का हिस्सा है।

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