Thursday, December 31, 2009

साहब ..मेरी बेटी को बचा लो.......

बाबूजी....मेरी बेटी को बचा लो.... उन लोगों ने उसको गोली मार दी है, फोन पर अनजान नंबर से आयी आवाज के दर्द और बेचारगी ने मुझे दहला दिया। अगस्त 2009 के दूसरे हफ्ते की बात है मैं एक स्टोरी के सिलसिले में भारत-नेपाल बार्डर के एक छोटे से होटल में रूका हुआ था। ऐसे में ये फोन दिल्ली नंबर से आया था और मुझे लगा कि कोई हमेशा कि तरह इँफोरमेशन दे रहा होगा इसी लिये मैंने वो फोन रिसीव कर लिया। फोन पर दर्द से रोते हुये युवक की आवाज को पहचानने में मुझे कुछ वक्त लगता इससे पहले ही मैंने पूछ लिया कि कौन बोल रहा है ...सोहराब बोल रहा हूं बाबूजी जहांगीर पुरी से। औऱ मेरे दिमाग में एक दम से सारी कहानी एक रील की तरह से चलने लगी। पूछा क्या हुआ सोहराब तेरी बेटी को ......साहब पुलिसइंस्पेक्टर के इशारे पर काम करने वाले गुंडों ने गोली मार दी.. चार साल की बेटी है मेरी सर प्लीज उसको बचा लो...रोते हुये बाप की बेबसी आपने फिल्मों में देखी होंगी ..लेकिन एक पत्रकार के तौर पर मैंने कई बार महसूस किया कि बच्चे के लिये रोते हुये इंसान और कटते हुये जानवर की अर्राहट में एक जैसी सिहरन होती है।
सोहराब की बेटी सफदरगंज हॉस्पीटल की इमरजेंसी विभाग में मौत और जिंदगी के बीच झूल रही थी। उसके गले में गोली फंसी थी और डॉक्टर इस हालत में नहीं थे कि बता सके कि बच्ची की जिंदगी बचेगी या नहीं। मैंने फौरन सफदरजंगरमें अपने परिचित लोगो से बात की और डिप्टी सीएमएस डॉक्टर सुधीर चन्द्रा साहब के ऑफिस में फोन किया तो वहां से कहा गया कि सोहराब को उनके ऑफिस भेज दे। मैंने सोहराब को फोन लगाया लेकिन फोन आउट ऑफ रीच में चला गया। मैंने भी अपने सोर्स के साथ भारत का बार्डर पार कर लिया था लिहाजा मेरे लिये भी अब एक पत्रकार के तौर पर फोन करना सहज नहीं था। स्टोरी में रात गुजर गयी औऱ मैं नेपाल के कृष्णानगर इलाके में ही रूक गया। मतलब मैं भूल गया कि सोहराब की बेटी का हुया। कुछ दिन बाद जब मैं वापस लौटा तो डॉक्टर साहब के ऑफिस से जानकारी मिली कि सोहराब वहां नहीं आया था शायद सोहराब की वो जरूरत खत्म हो गयी होगी कैसे नहीं जानता लेकिन आप को वो कहानी जरूर बता दूं कि जो रूचिका से भी ज्यादा दर्द से भरी है और हरियाणा पुलिस के जुल्मों से ताल्लुक रखती है और अभी भी चल रही है।
सोहराब फिरोजपुर झिरका के गांव खेडला पुन्हाना का रहने वाला है। दिल्ली के जहांगीरपुरी ळाके की जे जे कालोनी में रहकर कोई छोटा-मोटा काम करता है। 2005 में उसके गांव के बराबर वाले गांव में कार चोरी की एक घटना हुयी। सोहराब के गांव में उसके साथ वाले घर में हरियाणा पुलिस पूछताछ के लिेये गयी। जिस दौरान पुलिस के एसएचओ ओमप्रकाश और उसकी टीम पूछताछ कर रही थी उसी वक्त दूसरी छत पर सोहराब के भतीजे की पत्नी 18 साल की फरजाना कपड़े डालने पहुंची। दुर्भाग्य से जिस वक्त फरजाना कपड़े सुखा रही थी उसी वक्त एसएचओ की नजर उसपर पड गयी और कह सकते है कि गड़ गयी। अब एसएचओ सीधा उनके घऱ जा पहुंचा. घर पर फरजाना का ससुर यानि सोहराब का बड़ा भाई नौमान और दूसरे मर्द मौजूद थे। पुलिस अधिकारी ने पूछताछ शुरू की औऱ बार-बार घूम कर सिर्फ फरजाना की जानकारी हासिल करने में लगा रहा। इस पर घर के लोग समझ गये कि हरियाणा के इस दूर-दराज के गांव में पुलिस की नजर इस वक्त उनके परिवार की बहू की इज्जत पर है । पुलिस वाले नौमान को थाने ले गये। थाने में उससे जिद की गयी कि वो अपनी जवान बहू को एसएचओ साहब के मनोरंजन के लिये एक दो दिन के लिये दे दे,बस इससे ज्यादा कुछ नहीं। पिटा हुआ नौमान अपने घर पहुंचा और परिवार को पुलिस की कहानी बतायी। परिवार ने तय किया कि नव वधू को पुलिस के हाथों से बचाने का का एक ही तरीका है कि फरजाना और उसके पति को चाचा सोहराब के यहां दिल्ली भेज दिया जाये उनको यकीन था कि देश की राजधानी में जाने की हिम्मत हरियाणा पुलिस का दरोगा नहीं करेगा।
लेकिन वो गलत थे। अंग्रेजों के दम पर चल रही वर्दी में छिपे गुंड़ों को जैसे ही मालूम हुआ कि फरजाना को उसके परिवार ने दिल्ली भेज दिया तुरंत ससुर को उठा कर थाने तब तक मारा गया जब तक उसने सोहराब का पता नहीं उगल दिया। अगले दिन सुबह के चार बजे जहांगीर पुरी की उस कालोनी में हरियाणा पुलिस के वर्दीधारी गुंडे पहुंचे और फरजाना और उसके पति को पूरी कालोनी के सामने उठाकर चलते बने। सोहराब ने 100 नंबर को कॉल की लेकिन उस वक्त 100 नंबर वाले कहां थे इस बात का कभी कोई हिसाब नहीं मिलेगा।
फिरोजपुर झिरका के थाने में थाना प्रभारी ओमप्रकाश ने अपनी हवस मिटायी और उसके साथियों को भी अपनी भूख मिटाने का पूरा मौका मिला। इसके बाद फरजाना को धमकी दी गयी कि अगर कही मुंह खोला तो उसके पति और ससुर का इसी जी दारी के साथ एंकाउंटर कर दूंगा। सोहराब को देश पर यकीन था उसने रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की लेकिन दिल्ली पुलिस ने रिपोर्ट लिखना तो दूर की बात है डांटकर भगा दिया। तब सोहराब ने सफदरजंग में फरजाना का मेडीकल कराया और रिपोर्ट में साफ कहा गया कि फरजाना के साथ बलात्कार किया गया। दिल्ली पुलिस को रिपोर्ट न लिखनी न लिखी। आखिरकार सोहराब ने कोर्ट में गुहार लगायी और कोर्ट के दखल पर रिपोर्ट लिखी गयी लेकिन जांच में जुटी महिला पुलिस अधिकारी ने सोहराब से पैसे मांगे। और इस रिपोर्ट के दर्ज होने के बावजूद न ओमप्रकाश और उसके साथियो में कोई गिरफ्तार हुआ न उनके खिलाफ कोई कार्रवाही हुयी। उसके बाद एक दिन सोहराब मेरे पास आया हम लोगों ने ये मुद्दा उठाया तो ओमप्रकाश को गिरफ्तार कर तीसहजारी कोर्ट में पेश किया गया। सोहराब खुश था कि चलो कुछ तो कार्रवाई हुयी लेकिन ये एक खामख्याली थी। कुछ दिन बाद सोहराब ने मेरे दफ्तर आकर बताया कि उसको बेटी हुयी है साथ ही ये भी बताया कि ओमप्रकाश औऱ उसके साथियों को जमानत भी मिल गयी। मैं हैरान नहीं था क्योंकि मैं जानता था कि वर्दी की गुंडई का इस देश के कानून में कोई इलाज ही नहीं है।
सोहराब ने बताया कि उसके बाद उनके परिवार के खिलाफ फर्जी मुकदमों की बाढ़ आ गयी है और हर थानेदार एक ही बात कर रहा है कि ओमप्रकाश से सौदा कर लो चार लाख रूपये ले लो। लेकिन सोहराब ने कसम खायी कि वो ओमप्रकाश को सजा दिला कर रहेगा। और यही उसका गुनाह कुछ महीने पहले उसकी बेटी को खा गया। मेरे कानों में सोहराब की आवाज गूंज रही है औऱ आंखों के सामने अफसरों का रूचिका को लेकर कार्रवाही करने के खोखले बयान।
मैं नहीं जानता क्या हुआ सोहराब की बेटी को क्योंकि मेरे फोन में पुलिस अधिकारियों के नंबर सेव है सोहराब का नहीं....सोहराब की खबर खत्म हो चली है .........

Wednesday, December 30, 2009

बहुत निकले वर्दी के गुनाह फिर भी कम निकले

जहरीली हंसी के साथ अदालत से बाहर निकले एसपीएस राठौड़ का वो फ्रेम आज हर उस आदमी के जेहन में जड़ गया जिसने भी टीवी देखा या फिर अखबार पढ़ा। पूरे देश में इस बात को लेकर जैसे एक मुहिम सी छिड़ गयी कि राठौड़ को कड़ी सजा दी जाये। एक बात जो सबको हैरान कर रही है जो खास तौर पर उन लोगों को जो अपराध को कवर करते है वो बात है सरकार और प्रशासन का रवैया। जरूरत से ज्यादा पीडित के साथ दिख रहे है ये लोग। राजनेता हो या फिर पूर्व ब्यूरोक्रेट सब चाहते है कि रूचिका के साथ इंसाफ हो। पब्लिक को लग रहा है कि हां उसकी मुहिम बदलाव ला रही है और सत्ता में बैठे लोग भी भी बदलाव करना चाहते है। लेकिन सालों तक मीडिया में अपराध को कवर करने के बाद मेरा अपना जो अनुभव है वो साफ तौर पर इशारा कर रहा है कि सिस्टम वर्दीवाले गुनाहगारो के खिलाफ उठी एक मुहिम को फिर से विफल कर देना चाहता है पूरे मामले को राठौड़ का रंग देकर। जबकि मामला पूरे अपराधिक न्याय प्रक्रिया से जुड़ा है न कि राठौड़ से।
पूरे देश में शायद ही कोई इज्जतदार आदमी हो जो थाने में जाना पंसद करता हो बिना किसी मजबूरी के। आपको इस बात के हजारों सबूत मिल जायेंगे जिसमें किसी आदमी के घर पुलिस आने का मतलब उस आदमी के लिये बेईज्जती की बात है। देश के लाखों लोग ऐसे है जो थाने में जाकर पुलिस वालों की बदतमीजी का शिकार हुय़े होंगे। पिछले दस सालों से पूरे देश में अपराध के मामले कवर करने के बाद मैं इस बात को अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं अपराधियों के लिये पुलिस वालों से ज्यादा मददगार कोई दूसरा नहीं है। हर आदमी जानता है कि देश में थानों में कैसे दलाली होती है, कैसे कमजोर पीडित की रिपोर्ट के दम पर अपराधियों से पैसे उगाहे जाते है.
कैसे अदालतों में पुलिस के आईओ को याद ही नहीं रहता कि उसने जिस अपराधी को पकड़ा वो ही कठघरे में खडा़ है या नहीं। ऐसे हजारों नहीं लाखों और शायद करोड़ो मामले देश की अदालतों को फाईलों में धूल खा रहे है।
बात अगर मामलों की हो तो मैं ऐसे सैकड़ों मामले गिना सकता हूं जिसमें अपराधी से ज्यादा अपराधी साबित है पुलिस लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
कुछ मामले मैं आपके सामने रख सकता हूं रूचिका और राजस्थान की मल्ली मीणा मामले की तरह ही ये मामले भी मैंने पांच छह साल पहले टीवी में रिपोर्ट किये थे।
नौशाद नाम के एक अपराधी का दो बार एनंकाउंटर किया गया।
सहारनपुर में एक दो नहीं एक साथ पांच लोगों को एनकाउंटर किया गया और जांच में तत्कालीन एसएसपी हरीशचन्द्र सिंह को आरोपी बनाया गया। रिपोर्ट अभी पैंडिंग है और एसएसपी आज यूपी में आईजी बन चुके है।
हरियाणा के मेवात के फिरोजपुर झिरका थाने में एक रेप हुआ 18 साल की महिला के साथ थानेदार और उसके साथियो ने किया। रिपोर्ट अदालत के आ्देश के बाद हुयी खबर करने के बाद थानेदार की गिरफ्तारी हुयी लेकिन आज वो पूरी टीम बाहर है और पीडित महिला अपने परिवार के साथ घर-परिवार से बाहर जान बचाये घूम रही है।
मेरठ के सरधना इलाके में हुये तीन बेगुनाह लोगों के एऩकाउंटर की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुयी लेकिन बाद में मामला सीबीसीआईडी की फाईळों में घूम रहा है।
मुजफ्फरनगर में एक व्यापारी को हजारो लोगों के सामने अपनी जीप में बैठाकर लूटने औऱ हत्या कर देने वाले पुलिसकर्मियों का मामला भी जांच में गुम है।
इसके अलावा यदि पुलिस वालो की कहानी लिखने लगे तो कम से कम ब्लाग की मेमोरी ही कम पड़ जायेगी।
और प्रशासन जानता है कि इस वक्त पब्लिक सेंटीमेंट का साथ दो फिर मामला ठंडा पड़ने दो औऱ सब चलता रहेगा ऐसे ही जैसे अंग्रेजों के जमाने से चल रहा है यानि कमजोर की जोरो सबकी भाभी और ताकतवर की जोरू सबकी दादी......।

Sunday, December 27, 2009

मोहे गोरा रंग दे दे, दूजा रंग मीडिया को न भाये

पिछले दिनों एक अखबार की हैडलाईन पर नजर गड़ गयी। दिल्ली के साउथ इलाके में नये खुले इंटरनेशनल ब्रांड के आईसक्रीम पार्लर ने अपने यहां आने वाले ग्राहको के लिये एक खास किस्म के इंस्ट्रेक्शन जारी किये थे। इंटरनेशनल पासपोर्ट रखने वालो का स्वागत है ये उस लाईन का तर्जुमा है जो उस पार्लर के बोर्ड पर लिखा था। और ये लाईन दिल्ली में छप कर भी पर दुनिया की राजनीति करने वाले अंग्रेजी अखबारों को लगा कि ये तो नस्लवाद है। बात पहली नजर में दिखती भी है। लेकिन एक सेकेंड बाद ही आप को पूरा माजरा समझ में आ सकता है कि जब पूरा देश विदेशी कंपनियों के लिेए अपना जमीर जूते में ले कर खडा हुआ है तो फिर इस बात से कितना हल्ला हो सकता है। बात को यूं भी समझा जा सकता है कि इस खबर का जिक्र किसी हिंदी अखबार ने नहीं किया। पूरे मामले से एक बात जो साफ दिख रही थी कि या तो ये पब्लिशिटी स्टंट है और किसी तेज तर्रार पत्रकार की पार्लर के मीडिया पीआऱ को दी गयी सलाह है कि विवाद खडा कर पेज थ्री के लोगों को बता दो कि आप आ चुके है काले साहबों के लिये एक दम नायाब औऱ अलग सी जगह लेकर या फिर काले साहबों को ये दर्द दे दो कि तमाम क्रीम इस्तेमाल करने के बावजूद एक इंटरनेशनल ब्रांड उनको अग्रेंजों के बराबर नहीं मान रहा है। और इस पार्लर में जाने से उनका दर्जा बढ़ सकता है तो जल्दी ही ये पार्लर ग्राहकों से भर जायेगा।
रही बात रंगभेद की तो आम हिंदुस्तानी की तो वो जाने लेकिन हिंदुस्तानी मीडिया तो रंगभेदी है इस बात के सबूत आपको आसानी से मिल जाएंगे। सिर्फ देश भऱ के अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों पर नजर दौड़ाने की देर भऱ है। मैंने खबर पढने के बाद देश के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबारों में छप रहे विज्ञापनों पर निगाह डाली तो मुझे एक भी विज्ञापन में कोई काला रंग का तो छोड़ा श्याम रंग का मॉडल नजर नहीं न आया और न आयी। आप खुद अपने अखबारों में ये देख सकते है कि विज्ञापन घडी का या फिर स्वेटर का हर विज्ञापन में फिरंगी चेहरे मौजूद है। हर और सिर्फ फिरंगी चेहरे। और इस बात को और सरलता से समझने के लिये आपको सिर्फ रीयल स्टेट के विज्ञापनों पर निगाह दौडानी है। हर बिल्डर के ब्रोशर में जो फैमली नजर आ रही है वो विदेशी गोरे है और खेलती फिरंगियों के बच्चे। गार्डन जो सिर्फ ब्राशर में दिखते है उन में उछलते बच्चे, स्वीमिंग पूल जो विज्ञापन में पूरी बिल्डिंग से बडा नजर आता है और मौके पर जाने पर घऱ के बाथरूम से भी छोटा उसके किनारे पर बैठी विदेशी जवान लडकियां और पूल में तैरता कोई एक फिरंगी जोड़ा। अगर आप इससे भी मुतमईन न हो तो एक काले जोड़े का विज्ञापन मुझे जरूर बता दे ताकि मुझे लगे कि मेरी राय गलत है। एक बार मजाक में ही सही एक सहकर्मी ने ऐसे ही एक ब्रोशर को देख कर कहा था कि यार इन गोरो को देखन के लिये मैंने कितने संडे खराब कर इन बिल्डिंगों की खाक छानी है कही कोई विदेशी सूरत नहीं मिली। और वही से मैंने ध्यान दिया कि किसी भी विज्ञापन में देशी सांवले रंग या फिर काले रंग को तरजीह तो दूर की बात है जगह भी नहीं दी जाती हैं। तब मुझे लगता है इंगलिश मीडिया के काले साहबों को कोई बात नहीं चुभती है।
ऐसे में एक पार्लर को लेकर आसमान सिर पर उठाने वालों को मेरा सिर्फ यही सलाह है कि पेड न्यूज सिर्फ राजनीतिक खबरों में नहीं है मेरे भाई अपने मुद्दों पर भी नजर डालों। इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये सब लोग एंकरों को तो देखते ही हैं भाई.........।

Saturday, December 26, 2009

एक भी मगरमच्छ फंसे नहीं, एक भी छोटी मछली बचे नहीं

कानून किसको कहते है ये हमको मत बताओं बेटा, हम से ज्यादा तुम नहीं जानते होंगे, एक चैनल के रिपोर्टर होने के नाते तुम जो भरोसा मुझे दिला रहे हो उससे बेहतर है कि हम लोगों को उस राठौर की नजरों से दूर रहने दो। ......। हां शायद ये ही शब्द थे...रूचिका गिरोत्रा के पिता के। शिमला के एक मोहल्ले में बेहद अनाम तरीके से अपनी जिंदगी गुजार रहे गिरोत्रा के साथ उनका बेटा कमरे में मौजूद रिपोर्टर और कैमरामैन से जैसे पूरी तरह से अनजान... खामोंशी से छत की ओर ही देख रहा था। घर से भाग कर एक दूसरे राज्य में रह रहे गिरोत्रा साहब से इंटरव्यू लेने की पुरजोर कोशिश की लेकिन वो और उनका बेटा आंसूओं के साथ हाथ जोड़ कर हमसे चले जाने के लिये कहते रहे। ये बात सन 2004 की है जब मैं रूचिका मामले में पुलिस के एडीजी एसपीएस राठौर पर लगे आरोपों को लेकर एक स्टोरी कर रहा था। मैंने चंडीगढ़ में आनंद और उनकी पत्नी मधु से इंटरव्यू कर लिया था, पूरा मामला समझने के बाद मुझे लगा कि इस स्टोरी को अंजाम तक पहुंचाने के लिये जरूरी है कि गिरोत्रा परिवार से मिला जाये। मुझे उनकी तलाश करनी थी। और इसके लिये मैंने पूरे दो दिन का समय लिया। और आखिरकार मैं पहुंच गया था गिरोत्रा फैमली के पास। शायद मेरी एक गलती के लिये आज मुझे गिरोत्रा परिवार माफ कर दे कि मैंने उनके दर्द को कैमरे पर पेश कर दिया था। पूरी खबर को हमने छह मिनट की एक बड़ी स्टोरी में तब्दील किया था। खबर के एक सिरे पर गिरोत्रा परिवार था और दूसरे सिरे पर चंडीगढ़ के पॉश इलाके में पूरी शान से रह रहे राठौर दंपत्ति थे। मैंने कई बार राठौर के घर फोन किया लेकिन पुलिस अधिकारी के रौब दाब से उन लोगों ने मुझ बात करने से इंकार करने के साथ ही मुझे धमकी दी गयी कि अगर खबर में कुछ ही उनके खिलाफ हुआ तो वो मुझे कोर्ट में घसीट लेंगे। लेकिन मैं जिद करके उनके घर चला गया न दरवाजा खुला और न ही कोई जवाब। खैर हमने अपनी खबर पूरी की। जब तक मुझे खबर याद रही तो वर्दी की ताकत और उसके सामने मिमियाते कानून की औकात भी दिखती रही। इसके बाद मैं इस बारे में सिर्फ इसके कि मैंने उस स्टोरी में एक सवाल बड़ी शिद्दत से उठाया था कि अदालत ने जब ये मान लिया कि रूचिका के भाई के खिलाफ दर्ज दर्जन भर कार चोरी के मामले झूठे है तो इस एफआईआऱ को दर्ज करने वाले पुलिस वाले उसमें बयान देने वाला आईओ बरामदगी करने वाली पुलिस पार्टी और कोर्ट में खड़े होकर झूठ बोलने वाले पुलिस वालों के खिलाफ केस दर्ज कर उन्हें बर्खास्त क्यों नहीं किया जाता। सवाल अनसुना रह गया।.....
लेकिन एक सप्ताह पहले अदालत का फैसला आया। छह महीने की कैद और 1000 रूपये का जुर्माना राठौर के खिलाफ...। इसके बाद शान से मुस्कुराते हुय़े राठौर की टीवी चैनलों पर आयी तस्वीर ने मुझे रूचिका के पिता के शब्दों को दोबारा याद करा दिया। वो हंसी राठौर के लिये जीत की हंसी थी तो बाकी सबके लिये जहरीली हंसी। तेजी जवान होती एक पीढ़ी के लिये एक ऐसी हंसी जो उनके कानून नाम की किसी भी किताब पर से यकीन को और धुंधला कर रही हैं। खैर इस मामले में बहुत दिन से अंधविश्वास और दुनिया को डराने में जुटे न्यूज चैनलों को एक काम मिला और उन्होंने राठौर के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अब सरकार कह रही है कि राठौर का पदक छीनेंगे उसकी पेंशन रोकेंगे। लेकिन कोई ये नहीं कह रहा है कि उन पुलिस वालों का क्या करेंगे जिन लोगों ने विक्की के खिलाफ दर्जनों मुकदमें दर्ज किये थे। उन पुलिस वालों का क्या करेंगे जो इस बात पर मुहर लगा रहे थे कि देश और कानून नाम की चीज कम से कम पुलिस की वर्दी के लिये नहीं है।
चैनल हल्ला कर रहे है और न्यूजपेपर सवाल करने से बच रहे है। सवाल आज का नहीं है सवाल रूचिका का नहीं है, उस जैसी हजारों मासूम जिंदगियों का है जो रोजाना पुलिसिया जुल्म का शिकार होती है। कोई ये बात क्यों नहीं कर रहा है कि फर्जी मुकदमा बनाना भले कि कितना भी बड़ा अधिकारी क्यों न कहे कत्ल से बड़ा अपराध है। फर्जी गवाही देना किसी बड़ी ठगी से ज्यादा नुकसान करता है। और सबसे बड़ी बात है किसी भी आदमी की जवाबदेही क्यों नहीं हैं। किसी को आज भी हैरत नहीं है कि कौन आदमी है राठौर का साथ देने वाले उनकी जिम्मेदारी क्यों फिक्स नहीं हो रही है। क्योंकि आपके कानून में वो प्रावधान ही नहीं है, अंग्रेजों के इशारे पर देशवासियों की खाल उधेड़ कर उनकी औरतों को बेईज्जत करने वाली पुलिस के पास इतनी ताकत है और जवाबदेही का कॉलम जीरो का हैं। बात सिर्फ जवाबदेही की है अगर ये होती तो उस वक्त के डीजीपी ये कह कर न बच जाते कि मैंने तो उसके खिलाफ रिपोर्ट फाईल कर दी थी, मुख्य सचिव को ये भी याद नहीं कि राठौर को पदक दिया गया तो उस वक्त उन्होंने फाईल पर क्या लिखा था। तत्कालीन गृहमंत्री और मुख्यमंत्री की भी कोई जिम्मेदारी नहीं है। वो बेचारे कह रहे है कि ब्यूरोक्रेसी ने उनको जो लिख कर दिया उन्होंने उस पर साईन कर दिये। यानि रूचिका मामले में आप कुछ हासिल कर पायेंगे और वो कुछ भी नहीं सिवाय इसके कि जीरो बटा लड्डू।