क्या खबरों के सच तक जाना इतना मुश्किल है कि खुद जो दिखा नहीं, वही बोल रहे है हम।सवाल सड़ गये राजनीतिक नेतृत्व के बोझ बनकर बाकी दोनों स्तंभों पर झूल जाना नहीं है बल्कि बौनो की भीड़ में सच का गुम हो जाना भी है। जो दिखाया वहीं आखिरी सच नहीं था। थोड़ा और आगे जाना था। शायद थक कर बैठना भी हल नही। चंडीगड़ वापसी के साथ सवाल चिपक कर साथ आ रहे है। जवाब तो तलाशना होगा भले ही कोई सुने नही तब भी अपने ही क़रार के लिये।
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