खुद से खुद तक की यात्रा। पानी के समंदर से रेत के समंदर तक के इस सफर में बारिश से ऐसा रिश्त बना कि छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था फिर इस सुनहरी रेत पर आकर लगा कि यहाँ से बेहतर कोई और मोड़ हो ही सकता, इस सफर को छोड़ने के लिये। केरल से शुरू हुए सफर से अब विदा लेता हूँ।
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Monday, March 26, 2018
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