Friday, June 25, 2010

मेरे पास एक जनम था, चुनना था कई जनमों को

इसी जनम में मुझे जीना था
सच
कई जनमों का,
इसी जनम में मुझे
बोलना सुनना था
झूठ
सातों दुनिया का,
बनाने थे रिश्ते सात जनमों के
भोगने थे
पाप
कितने जनमों के
कमाना था
पुण्य
अगले जनमों का
इतना ही नहीं
जान लेना था
इस दुनिया को
भूल जाना था पुरानी दुनिया को
मेरे पास एक जनम था
उम्मीद थीं कई जनमों की
मुझे दोहराना था
शैतान से
हजारों जनमों की लड़ाई को
मुझे गाना था
अजनमा
ईश्वर की असीम बड़ाई को,
मेरे पास एक जनम था
चुनना था कई जनमों को
फिर
मैंने तुम को चुन लिया
बाकी
सब
छोड़ दिया
मैंने
अगले जनमों के लिये।

Sunday, June 20, 2010

बड़े बेशर्म हो नीतिश जी....सम्राट नहीं सेवक हो बिहार के

यूं तो किसी राजनेता पर लिखने का अब कोई मन नहीं होता है। जातिय गोलबंदी के नेता। उनके पास अपना कुछ नहीं है सिर्फ जाति के। ना कोई सपना ना कोई ईमानदारी का विकल्प। सबके पास है सिर्फ जातिय गणित के दम पर की गयी घेराबंदी। कभी एक कबीले का नेता दूसरे कबीले से मिलकर सामंजस्य बैठा लेता है। कभी किसी दूसरे को अपने मुताबिक कर लेता है। और लोकतंत्र और भीड़तंत्र में अंतर कर पाने में नाकाम रही जनता सिर्फ नेता की जाति को ही महत्व देती उसके चरित्र को नहीं। मीडिया हर सत्तारूढ़ नेता को महान साबित करने की होड़ में रहता है बस अनुपात इतना रखता है जितना वो टुकडे़ फेंकता है।
नीतिश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री है। खुद्दार मुख्यमंत्री। इतना खुद्दार कि उसने दो साल पहले बिहार में आयी बाढ़ के दौरान गुजरात राज्य की दी गयी सहायता के पांच करोड़ रूपये वापस कर दिये। इस खुद्दार नेता ने तर्क दिया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने राज्य की दी गयी सहायता का गुनगान कर बिहार को अपमानित किया है। एक और बात कि बीजेपी के पटना अधिवेशन में नरेन्द्र मोदी का नीतिश कुमार के साथ हाथ मिलाते हुए फोटों भी लगाया गया। इस बात पर भड़क गये है नीतिश कुमार।
गजब की खुद्दारी है। बीजेपी के समर्थन से सरकार चला रहे हो। उसकी सरकार में केन्द्र में मंत्री रहे हो। लेकिन हाथ मिलाने के फोटों से खफा। ऐसे ही है जैसे एक बाप घर में बैठ कर चोर बेटे की कमाई पर ऐश कर रहा हो। लेकिन बाहर उस पर नाराज होता रहे। ये कैसी खुद्दारी है। लेकिन नीतिश के जातिय बंधुओँ की निगाह में ये उनके नेता की महानता है। गुड़ खाये और गुलगुलों से परहेज। लेकिन नीतिश की जातिय समीकरण में राजनीतिक लाभ कमा रहे लोगों को अपने नेता की अदा दिखेंगी।
देश के तमाम लोगों की नजर में मोदी खलनायक हो सकते है। ऐसे खलनायक जिसने अल्पसंख्यकों के सफाये की कोशिश की। लेकिन लोकतंत्र की बुनियादी बात के मुताबिक गुजराती लोगों ने नरेन्द्र मोदी को उससे बेहतर तरीके से चुना है उसी तरह से जिस तरह से नीतिश कुमार को उनके राज्य के लोगों ने। अपन दोनों नेताओं के राजनीतिक विचारों से कोई ईत्तफाक नहीं रखते है। लेकिन लोकतंत्र की कसौटी वोट के दम पर दोनों चुने गये है। यहां तक तो ठीक है। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी ने पांच करो़ड़ रूपये अपनी जेंब से दिये थे। क्या पांच करोड़ रूपया मोदी का था। क्या हर गुजराती मोदी की तरह से नीतिश कुमार का दुश्मन है। ऐसा दुश्मन जिसकी रोटी से अपना पेट पाल रहे हो नीतिश कुमार। लेकिन ये बात मुझे नहीं झकझोरती। बात में हैरानी तब होती है जब आम जनता जिसके दम पर ये नेता जिन्हें नौकर होना चाहिये मालिक बन बैठते है। नीतिश कुमार अगर बिहार के स्वाभिमान की चिंता करते है तो दिल्ली में रोजगार से रोटी चला रहे लाखों बिहारियों को वापस बुला क्यों नहीं लेते। क्योंकि कई बार दिल्ली में उन लोगों को गाली देकर अपमानित किया जाता है।
पैसा मोदी का नहीं था। पैसा नीतिश कुमार को नहीं दिया गया था। पैसा हिंदुस्तान के एक राज्य के लोगों के टैक्स से जमा किया गया था। वो पैसा देश के ही एक राज्य बिहार के लोगों को संकट में मदद के तौर पर दिया गया था। लेकिन नीतिश का स्वाभिमान आहत हो गया। भीख के तौर पर मिली सत्ता की रोटियां तोड़ते वक्त नीतिश को शर्म नहीं आ रही है। लेकिन हाथ मिलते हुए देख कर तिलमिला उठा हूं। आखिर ये हो क्या रहा है संघीय ढ़ांचे की ऐसी की तैसी कर रहे है नेता। लेकिन संविधान में इस बात पर कोई रोकथाम नहीं कि भाई आप नेता है सम्राट नहीं कि आपकी सनक से शासन के नियम तय होंगे। जिस सनक और हनक के साथ नरेन्द्र मोदी जनता के वोटों से चुनकर आयी सोनिया गांधी को रोम की बेटी और जाने क्या क्या कहते है उसी तरह से नीतिश कुमार अपनी हनक और सनक से एक राज्य के लोगों की मदद को वापस कर उन करोडो़ं लोगों का अपमान करते है।
दरअसल इस संविधान को बनाते वक्त नहीं सोचा गया था कि बौने लोग ऊंची गद्दी पर बैठने के लिये हील के जूते नहीं बल्कि दूसरों की गर्दन काट लेंगे। इसी लिये नीतिश ने अपनी सनक में पैसे तो वापस कर दिये लेकिन बीजेपी के समर्थन को वापस नहीं किया। बेशर्मी देखिये बीजेपी की भी वो कह रही है कि वो नीतिश कुमार को समर्थऩ देती रहेंगी। सत्ता की मलाई खाने के लिये बेशर्म बनने में कोई बुराई नहीं है और नूरा कुश्ती से जातिय कबीलों को अपने नेताओँ के हक में बोलने की छूट मिलती है।

दिल्ली के भेडिये....

इस
खबर का क्या करूं। अखबार में छोटी सी छपी। दिमाग पर बड़े से हथौड़े की तरह से बज रही है। ध्यान हटाना चाहता हूं लेकिन हट नहीं रहा है। और भी अखबार है जिनमें चमकते हुए फोटो छपी हुईं हैं रगींन। लेकिन दिमाग है कि सौं शब्दों में समेटी गयी खबर से हटता ही नहीं। क्रूरता की मिसाल देने के लिये आप के दिमाग में बहुत सी मिसालें होंगीं। भोपाल छोड़ भी दें तो आपके दिमाग में बसी फिल्मों में फिल्माई गयी सारी निर्दयता भी इस खबर के सामने बौनी लग रही है। खबर..... दिल्ली की एक सड़क पर पुलिस को लाश के छोटे-छोटे टुकडे़ बीनने पड़े।....... एक्टीडेंट में घायल इस आदमी को कारो में गुजर रहे लोगों ने मदद नहीं दी बल्कि उसके उपर से कार के पहिये उतार दिये। कारों की रफ्तार इतनी तेज थी कि एक जिंदा इंसान पहले तो घायल फिर लाश और फिर टुकड़ों में तब्दील हो गया। सड़क पर इंसानी जिस्म के टुकड़े इधर से उधर फैल गये। खून सड़क से उठकर कारों के पहिये से लग कर कार वालों के साथ ही चला गया। खबर को सोच कर किसी भी इंसान के रोंगटें खड़े हो सकते है। अफसोस है कि ये पहला मामला नहीं है दिल्ली में कुछ दिन पहले ही अक्षर धाम टैंपल के सामने वाली सड़क पर इसी तरह से एक इंसान के टुकड़ें दिल्ली पुलिस ने उठाये थे। सवाल ये बचा ही नहीं कि किस गाड़ी की टक्कर से मरने वाला घायल हुआ। सवाल ये है कि हजारों कारें एक इंसान को रौंदते हुए गुजरती जा रही है बिना किसी अफसोस के। कारों में सवार ज्यादातर लोग घर वापस लौट रहे होंगे। घर जिसके अंदर उनके अपने इंतजार कर रहे होंगे। अक्सर आपने देखा होगा कई बार सड़क के बीच में किसी जानवर की लाश पड़ी होती है। पहले उस लाश के आस-पास मांस और खून का कीचड़ होता है। अगले दिन आपको सिर्फ उसकी खाल दिखाई देती है। इस तरह से जमीन से चिपकी हुई जैसे कि किसी ने सड़क पर तस्वीर बना दी हो। और फिर वो भी गायब हो जाती है। लेकिन इस तरह के आम दृश्यों में भी आप ऐसी किसी चीज की कल्पना नहीं कर सकते है कि कोई इंसान इस तरह से कुचल कर गायब होगा। ये देश की राजधानी दिल्ली है। देश के शंहशाहों का शहर। शहर जिसको खूबसूरत बनाने में हजारों करोड़ रूपये लगाये जा रहे है। ये शहर जिसमें कानून बनानी वाली संसद है। तब ये शहर इतना बेदर्द क्यों है। इसका जवाब भी दिल्ली के बाशिंदों में ही छिपा हुआ है। 15000 करोड़ रूपये खर्च कर विदेशी मेहमानों के लिये दुल्हन की तरह से सज रही है दिल्ली। लेकिन इसके लिये सबसे पहली बलि दी गयी उस गरीब आदमी और सड़क पर लेटे हुए आदमी जिसके नारों से दिल्ली की गद्दी सजती रही है। लेकिन हजारों करोड़ रूपये के इस नाजायज खर्च को राष्ट्रीय सम्मान का नाम दिया जा रहा है। इस शहर में पानी बिकता है। इस शहर में पेशाब करने का पैसा लगता है। इस शहर में भीड़-भरे इलाके में चाकूओं से गोद दिया जाता है इंसान को। इस शहर में पुलिस वाले दिन-दहाड़े रेप करने के आरोपों से घिर जाते है। लेकिन शहर है कि जागता ही नहीं।
कुछ दिन पहले देश की राजधानी मान कर हजारों लोग इस शहर में चले आये थे अपना विरोध जताने। दिल्ली शहर के मीडिया ने जिसे राष्ट्रीय मीडिया कहा जाता है पूरे अखबार के पन्ने और टीवी प्रोग्राम्स सिर्फ किसानों के खिलाफ गालियों से भरे थे। एक राष्ट्रीय अखबार में तो बाकायदा कुछ शराब की बोतलें एक साथ इकट्ठा कर खींचे गये फोटों को ये कह कर दिखाया गया कि शराब पी रैली में आने वाले किसानों ने। ठीक है शहर के शराब के ठेके का किसानों के दम पर चलते है। फाईव स्टार होटल्स और हाल ही में माल्स में दी गयी शराब परोसने की छूट का फायदा क्या किसानों को मिलता है। भालू-बंदरों सा दर्शाया था मीडिया ने उन किसानों को जो सिर्फ दिल्ली वालों को परेशान करने ही आये थे। ऐसा ही है ये शहर। ये अलग बात है कि इस शहर का दिल कहलाये जाने वाले कनॉट प्लेस की साज-सज्जा का खर्चा आम आदमी के पैसे से जा रहा है। उस आदमी के जो अपने खून पसीने को बेच कर इस दिल में बहने वाले खून का इंतजाम कर रहा है। लेकिन शहर है कि उन आदमियों को गंदगी कह रहा है। शहर में बहुत सारी बातें है जो राष्ट्रीय मीडिया के पहले पन्ने पर छपती है जैसे कि दरियागंज में एक बस में दो भाईयों को चाकूओं से मार कर गुंड़ों ने लूट लिया। वो चिल्लाते रहे लेकिन किसी ने उनको बचाने की कोशिश ही नहीं की। इसके बाद जब ड्राईवर बस को थाने में ले जाने लगा तो उन दिल्ली वालों ने ड्राईवर को गाली-गलौज कर बस को रुकवाया और उतर कर चलते बने। ये जाने क्यों इस शहर की फितरत है। कभी रोम के बारे में लिखते हुए विश्व कवि नाजिम हिकमत ने कहा था कि
" इस शहर को तो ऐसा ही होना था...क्योंकि इस शहर की नींव में भेडिये का दूध और भाई का खून......। लेकिन हमको इतिहास की किताबों में सिर्फ ये तलाशना है कि क्या किसी पीर, मुर्शीद , औलिया या साधुःसंत ने इस शहर को ऐसा होने का शाप दिया था क्या।

Thursday, June 17, 2010

जुबां का सच उतना दिलफरेब क्यूं नहीं

आंखों में कुछ जुबां से कुछ
दिल में जो वो कहता क्यूं नहीं
टूट-टूट कर बिखर रहा है अंदर
आंखों से बहता क्यूं नहीं
सफऱ दर सफर घूमता दर दर
जिसे मंजिल कहता है उन आंखों में रहता क्यूं नहीं
आंखों का फरेब है जितना दिलकश
जुंबा का सच उतना दिलफरेब क्यूं नहीं

...............................................................
राख है अभी, कुछ देर में बिखर जायेगी
एक जले हुए ख्वाब की तुमको याद तो आयेगी
देखा, रूकी, मुस्कुराई ,चली जायेगी
जिंदगी कहां देर तलक किसी को मनायेंगी
.....................................................
टूटी हुई ही सही आस रहनी रहनी चाहिये
भरे गले में भी एक प्यास रहनी चाहिये।

Monday, June 14, 2010

हे ईश्वर, यह सब बंद करो| :

अदालत का फैसला आ गया।
25 हजार इंसानों की हत्याओं के दोषियों को 2 साल की कैद और दस मिनट में जमानत मिल गयी। बाहर चींखतें हुए इंसानों की तस्वींरें टीवी चैनल्स पर दिखती रही। अगले दिन के अखबारों में छप गया वो फोटो एक बेहद मासूम सी बच्ची को दफनाते वक्त का। फैसला आया तो कुछ सूझा ही नहीं। दर्द और अपमान के अलावा कोई दूसरी भावना दिमाग में नहीं थीं। लिख नहीं पाया। पुराने सारे मंजर और तस्वीरें एक एक कर टीवी चैनल्स दिखा रहे थे। फैसले की बार-बार हवा में तैरती आवाज दिल को तोड़ रही थी। देश के कानून मंत्री ने कहा कि न्याय को दफन कर दिया गया। किसने ...। अदालत ने, देश के कानून ने, नेताओं ने या खुद जनता ने ये सवाल हवा में गूंज रहा है। लेकिन मुझे इसको लेकर कोई अफसोस नहीं कि ये सब झूठ बोल रहे है। पूरा देश पिछले साठ सालों से इसी तरह से चलाया जा रहा है। जातियों के दम पर टके के नेता चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुंच कर कानून बनाने में जुटे हैं। कौन सा कानून वहीं जो अमीरजादों और ताकतवर लोगों के हक में काम करता रहे। लेकिन ये मरे हुए मन का रूदन है। पुराना पाठ है।
जब हजारों लोग मारे गये। किसी ने तो लापरवाही की होंगी। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का फैसला रहा होंगा। लेकिन किसी को क्या फर्क पड़ता है। केन्द्र हो या राज्य दोनों में दूसरी पार्टियों की सरकारों ने भी राज किया है इस पच्चीस सालों के बीच। लेकिन किसी को को वास्ता नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में बैठे न्यायधीशों को इस बात का याद रहता है कि आरटीआई के माध्यम से सूचना देना सुप्रीम कोर्ट के विशेषाधिकारों का हनन है। बेस्ट बेकरी केस जहीरा शेख का मामला हो या फिर गुजरात में अहसान जाफरी गुलबर्गा सोसायटी का मामला हो सब में नयी परंपरा डाली जा सकती है लेकिन पच्चीस हजार लोगों की अकाल मौत पर नहीं। अगर आप देश को और करीब से समझना चाहते है तो सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सरकार की ओर से और कंपनी की ओर से खड़े वकीलों की फेहरिस्त देख लेंगे तो समझ लेंगें कि क्यों दोगलापन इस देश की रगो में दौड़ रहा है।
आज इस लिये कोई निराशा नहीं है कि ये सब चल रहा है। आज दिल मुठ्ठी में बंद सा लग रहा है तो इस लिये कि देश की जवानी के उपर इस फैसले का कोई फर्क नहीं पड़ा।
देश का भविष्य जो जेसिका लाल को इंसाफ न मिलने पर मोमबत्ती जलाता है तो कोई निरूपमा के कत्ल पर आंसू बहाता है। वो नौजवान चुप है। वो देश का मुस्तकबिल चुप है जिस पर देश की जिम्मेदारी आने वाली है। क्रिकेट के स्टेडियम में तिरंगे को लहराने वाला अपने सर औऱ चेहरे पर तिरंगा बनवाने वालों की जवानी है ये। मौका मिलते ही अमेरिका निकलने की छटपटाहट के साथ जिंदा इन देशभक्त नौजवानों पर देश निसार है। ये नये प्रतिमान गढ़ रहे है। बिना किसी इतिहास बोध के चलती हुई एक पूरी सदी। और आपके पास इस बात का कोई रास्ता नहीं कि अपना गुस्सा कैसे उतारे। ये लोग आसानी से तिरंगा लहरा सकते है दूसरे हाथ से अमेरिका या फिर किसी भी यूरोपिय देश में जाने के लिये रिश्वत दे सकते है। दरअसल देश के लिये नारा लगाने वाले इस जवानी के लिये अमेरिका माई -बाप है। उसकी कल्चर इसका सपना है उसके शहरों में खरीददारी करना सबसे बेहतर लाईफ स्टाईल। ये नौजवान उन रोटियों के लिये जूझते हिेंदुस्तान की लड़ाई लड़ेगे। ये वो नौजवान है जिनकी याद में आजादी की लड़ाई पुरानी बात है। जिनके लिये आउट्रम लेन,हडसन लेन और नील लेन में रहना तैयारी के लिहाज से अच्छा है। किसी को नहीं चुभता कि हडसन और नील ने हजारों हिंदुस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया था निर्दयता पूर्वक। औरतों के साथ बलात्कार हुए बच्चियों को कुचल दिया गया बच्चों को नेजों की नोंकों पर उछाल कर बींद दिया गया। लेकिन ये नाम किसी को नहीं चुभते। दिल्ली के पॉश इलाके में शुमार होते है ये इलाके।
विदेश जाने की चाहत कितनी है इसका अंदाज सिर्फ इस बात से लगा सकते है कि पंजाब में कई ऐसे मामले रिपोर्ट हुए है जिनमें बहन अपने सगे भाई के साथ या बाप अपनी बेटी के साथ मां बेटों के साथ शादी के फर्जी दस्तावेज तैयार कर कर बाहर निकले है। ऐसे ही लोगों के दम पर टिकी है इस देश की देशभक्ति।
लेकिन देशभक्ति से उलट एक बात पर इन लोगों को जरूर ध्यान देना चाहिये कि न्यूक्लियर प्लांट से हुई एक भी चूक हजारों इंसानों का नहीं बल्कि लाखों इंसानों को मौत के घाट उतार देंगी। और तब भी इसी तरह से होना है इस बार 800 करोड़ रूपये मिल गये है लेकिन अगली बार पांच सौ करोड़ रूपये मिलेंगे। हां एक बात और मौत के घाट उतरने वाले भी इस बार वहीं भूखें-नंगें होंगे जिनकी वोट के दम पर नाच रहे कबीलाई नेता संसद में बैठ कर कानून बना रहे है और अमेरिका के तलवे चाट रहे है।
बात खत्म नहीं हो रही है लेकिन मैं कुछ शब्द उधार लेकर खत्म करना चाहता हूं
" सिलेटी बुदबुदाते हुए चेहरों की कतारें, भय का नकाब ओढ़े खाई की गहराई से उठकर ऊपर तक आती हैं, उनकी कलाईयों पर व्यस्त समय अकारण टिक्-टिक् करता और उम्मीद, जलती हुई आँखों, कसमसाती मुट्ठियों के साथ कीचड़ में लोट पोट --हे ईश्वर, यह सब बंद करो|"

Friday, June 11, 2010

मैं पत्थर पर यकीं कर रहा हूं आदतन

मैं पत्थर पर यकीं कर रहा हूं आदतन
वो खुद को तेज कर रहा है इरादतन
मुझे यकीन हैं बदल दूंगा उसकी फितरत
वो मुत्मईन है तोड़ देगा मेरी हसरत
मेरा वजूद मेरे हौंसले में हैं
उसकी हस्ती तोड़ने में है
मेरे ईरादों की गर्मी से ये पिघल जायेगा
उसकी सोच का ठंडापन ये भी गुजर जायेगा
चाहता हूं कि कुछ देर वो सीने से लगे अपना हो ले
उसका इंतजार हो खत्म मुलाकात और ये भी रो ले

Wednesday, June 9, 2010

चेहरा बदलते हुए अंधा हो जाता हूं, मैं

एक चेहरे से पाया मैंने,
एक चेहरे से खो दिया,
यही दर्द है,
चेहरे बदलने का।
दर्प से उल्लसित,
विजयी चेहरे के साथ,
मिलता हूं दुनिया से,
मैं,
पराजित चेहरे में,
नितांत अकेला, निराश,
दर्पण के साथ,
इन्हीं में से किसी चेहरे से,
जुड़ गयी थी,
तुम
तु्म्हें याद है अब तक वो चेहरा,
मैं भूल भी गया वो चेहरा,
तुम रोज मुझ में तलाशती हो उसी आवाज को,
मैं गफलत में चेहरे बदलता हूं जल्दी जल्दी,
लेकिन खोज नहीं पा रहा उसी चेहरे को,
काम निकला और चेहरा गायब,
यहीं उसूल है ज्यादातर चेहरों को लगाने का,
तुम मेरे करीब आयी,
मेरे चेहरे ने पा लिया वो,
जिसके लिये बना था वो
फिर बदल गया दुनिया के लिये,
चेहरा बदलते हुए अंधा हो जाता हूं,
मैं,
केंचुली बदलते हुए,
सांप,
कैसे याद करूं,
मैं,
अपने खोये हुए चेहरे को,
लेकिन,
सोचना जरूर कभी,
कहां से सीखा
मैंने
चेहरे बदलना।

Monday, June 7, 2010

कैसा अर्थशास्त्र पढ़े हो प्रधानमंत्री जी

"देश के लिये आज का दिन सौभाग्य का दिन है, देश को एक बेहद ईमानदार और पढ़ा लिखा प्रधानमंत्री मिला है" कॉफी हाउस में बैठते हुए एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने मुझसे कहा था। देश की कमोबेश यही हालत थी। वर्ल्ड बैंक के लिये नौकरी कर चुके प्रधानमंत्री की ईमानदारी और अर्थशास्त्र की समझ पर कांग्रेसियों और बाकी पूरे देश को ऐतबार दिख रहा था।
वर्ल्ड बैंक की नौकरी यानि अमेरिकी और ताकतवर अमीर देशों के इशारों पर काम करने वाला बैंक। मैंने बस इतना सा ही जवाब दिया था। उन लोगों का मजा किरकिरा नहीं करना चाहता था। पत्रकार होने के नाते मेरे जेहन में ऐसे सवाल जरूर चुभ रहे थे। मैं चाहता तो भी मेरे दोस्त उनका जवाब नहीं दे पातें। हालांकि मैंने चलते-चलते पूछ लिया कि ये प्रधानमंत्री हिंदी में अच्छा बोलतें है कि पंजाबी में। जवाब में अटकते कांग्रेसी दोस्तों ने कहा कि नहीं वो इन दोनों भाषाओं में नहीं बल्कि अंग्रेजी में बहुत शानदार बोलते है। मुझे लगा कि देश के लिये ये प्रधानमंत्री कितने मुफीद होंगे साफ नहीं था लेकिन एक बात थी कि ये जनाब अर्थशास्त्र के भारी विद्धान है
बात आई-गई हो गयी। वो कांग्रेसी दोस्त भी मेरे साथ है। कभी-कभी मिलते है। देश के सामने भी प्रधानमंत्री का काम-काज है। चौबीस मई को छह साल के अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने दूसरी बार प्रेस कांफ्रेस की। यानि देश से दूसरी बार प्रधानमंत्री मुखातिब हुए। उनकी पहली बात थी कि देश तरक्की कर रहा है। पूरी प्रेस कांफ्रेस के फूटेज को बार-बार देखता हूं, उसको पढ़ता हूं एक बात समझ में आती है कि ये वर्ल्ड बैंक के अर्थशास्त्री है किसी गरीब जनता के प्रतिनिधि नहीं। गरीब देश की अमीर संसद के प्रधानमंत्री। तीन सौ से ज्यादा करोड़पति सांसद है इस बार की कुल पांच सौ पैतालिस की संसद में। ये कैसा अर्थशास्त्र है कि गरीब आदमी रोटी के लिये तड़प रहा है। गरीब आदमी आम आदमी नहीं है इस देश में। आम आदमी देश के मध्यमवर्ग को कहा जाता है। वो वर्ग भी मंहगाई से बिलबिला रहा है। देश की 38 फीसदी जनता को एक वक्त का खाना नहीं मिल रहा है। बच्चे मिट्टी की रोटियां खा रहे है। परिवार आत्महत्या कर रहे है। कुपोषण का कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन प्रधानमंत्री का चेहरा खुशी से दमक रहा था और उनके मुंह से देश को पता चल रहा था कि बढ़ती विकास दर से मंहगाईं बढ़ रही है। मुझे सिर्फ एक हिंदुस्तानी अर्थशास्त्री की बात याद आ रही थी कि वर्ल्ड बैंक गरीब आदमी के निवाले से अमीरों की थाली सजाता है।
ये सोचा जा सकता है कि गरीबी पर नियंत्रण तो प्रधानमंत्री के हाथ से बाहर की बात है। लेकिन मंत्रीमंडल में मक्कारों की फौज पर प्रधानमंत्री का कोई बस है कि नहीं। उनको कोई घोटाला समझ आता है कि नहीं। टेलीकॉम घोटाला 60,000 करोड़ रूपये की देश के साथ लूट। एक के बाद एक घोटाले लेकिन प्रधानमंत्री का कहना है कि जांच होंगी। लेकिन जांच किस बात की होंगी..सबूतों से तो साफ दिख रहा है कि इसमें देश के साथ लूट हुई लेकिन ये अर्थशास्त्री समझ नहीं पा रहे है।
शरद पवार का कुनबा लूट की छूट के साथ ही मंत्रीमंडल में शामिल हुआ। संसद के गलियारे में शरद पवार की सांसद बेटी देश के सामने सफेद झूठ बोलती है कि उसके परिवार का कोई लेना-देना इंडियन पैसा लूटो लीग से नहीं है माफ करना इंडियन प्रीमियर लीग मैं चाह कर भी नहीं कह पाता हूं।
पहले पता चलता है कि सुप्रिया सुले के पति के उस कंपनी में शामिल है जिसको प्रसारण अधिकार के हजारों करो़ड़ के ठेके मिले है। खुदा खैर करे ...लेकिन अब सामने आया कि पुणे टीम की खरीद में शामिल सिटी कॉर्प के पीछे शरद पवार का परिवार है। खुद शरद पवार उनकी पत्नी और बेटी की इस कंपनी में 16 फीसदी हिस्सेदारी है। कंपनी ने पुणे की टीम खरीदने की 1100 करोड़ की बोली लगाई थी। कोई बेवकूफ भी बता सकता है कि कैसे ये खेल हुआ होंगा। लूट में जुटे इस परिवार के करीबी और इंटेलीजेंट और ओनेस्ट प्रधानमंत्री के एक और मंत्री प्रफुल्ल पटेल की बेटी ललित मोदी के लिये काम कर रही है।
दाल घोटाले में हजारों करोड़ रूपये का खेल कैसे हुआ। चीनी घोटाला क्या है। लोग भूल जाते हैं। इस भूल की कीमत बैठती है पवार कुनबे के दम पर जम कर देश को लूट रहे बिजनेस समूहों के लिये हजारों करोड़ रूपये की छप्परफाड़ कमाईं। देश के सामने शरदपवार झूठ बोलते है कि चीनी का उत्पादन कम होने की उम्मीद है मंहगाईं बढ़ती है 14 रूपये किलो चीनी 50 रूपये किलो तक जाती है। और देश में चीनी का उत्पादन ज्यादा हो जाता है। कैसे... ज्योतिषी जानता है प्रधानमंत्री नहीं।
हैरानी और भी है। लेकिन किसी को मालूम नहीं कि प्रधानमंत्री देश से बात करते हुए किस बात पर ज्यादा खुश है कि छह साल तक गद्दी पर बैठे रहे या देश के युवराज की अभी गद्दी संभालने की इच्छा नहीं है।
लेकिन एक बात और देश के प्रधानमंत्री की सभा में मीडिया की दरियादिली देखिये कि पूछता है कि आप किसकी ज्यादा सुनते है अपनी पत्नी की या अपनी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी की। मुस्कुराते प्रधानमंत्री और अपने सवाल पर इतराता मीडिया गजब की नूरा कुश्ती है।
लेकिन सवाल है अर्थशास्त्री जी देश के गरीब आदमी को कितनी रोटी खानी चाहिये और आम आदमी के एक दिन की थाली का मैन्यू क्या हो।

Friday, June 4, 2010

लड़कियों, औरतों को सामान कहूं तो मां को क्या कहूं

कुछ और झूठ मेरे चेहरे पर लगा दो
कुछ और मेरा चेहरा सजा दो,
कहीं बचा हो अगर सीने में
दर्द
किसी का, उसे भी हटा दो
तैयार हो रहा हूं मैं
अब
दुनिया से मिलने के लिये।
बहुत मुश्किल है भूलना
सच
कोई याद है तो उसे भी जेहन से मिटा दो।
सीखा है जो मैंने
अब
एक बार फिर उसे दोहरा लूं
सम्मान में किसी के लिये
जब भी मैं झूंकू
इशारा है मेरा
इसका सर उड़ा दों
जब भी मैं खिलखिलाऊं
कुछ मासूमों का रक्त बहा दो.
मैं आंसूं बहाऊँ
तो निर्दोषों की जान से खेलों
मैं कहूं
इसे कुछ देना है
ये मेरा इशारा
उसकी आखिरी रोटी भी ले लो
मेरे सच का मतलब झूठ है
मेरे झूठ में फरेब में
मेरे इश्क में ऐब है
मेरे दोस्ती में दिल्लगी है
यहां तक तो सब ठीक-ठाक है
थोड़ा गड़बड़ आखिरी एक पाठ है
लड़कियों और औरतों को सामान कहूं
तो मां
को क्या कहूं।