अभिव्यक्ति के खिलाफ खड़ी विचारधारा को दिल्ली में बैठे हुए चस्की पत्रकारों और मोदी विरोधी रूदालियों का सहारा जिंदा रखेगा। मानिक की सादगी के झूठ को इतना घुमाया कि एक झूठा इमामबाड़ा ही बना दिया।
झूठ को सच कैसे बनाया जाता है ये गोएबल्स को भी कुछ हिंदुस्तानी बौंने पत्रकार सिखा सकते है। दिल्ली के एसी स्टू़डियों में बैठकर माणिक सरकार की सादगी को देश का रोल मॉडल बनाने में जुटे हुए झूठों की फौंज के लिए स्क्रीन पर आ रहे परिणाम किसी भी तरह से हजम नहीं हो पा रहे थे। पहले बीजेपी को गालियों से नवाज चुके ये बौंने पत्रकार एकदम से सन्निपात की स्थिति में आ चुके थे। और जैसे ही हार की कहानी पूरी हुई जनता को ही गालियों से नवाजने लगे।
परिणाम आ रहे थे। सामने दिख रहा था कि लाल रंग अब त्रिपुरा की गलियों से गायब हो रहा है। सीनियर बौंने ( पत्रकार ) परिणाम बांच रहे थे। और ऐसा कोई कोई ही बौंना था जो इन चुनावों में तीनो राज्य तो दूर की बात है एक राज्य की राजधानी में भी कदम रख कर वापस लौटा हो। मैं चुनाव कवर करके लौटा था लिहाजा मैं भी डरा और सहमा सा उन ज्ञानपुंजों के समीप उनके तेज से तपा हुआ बैठा था। ज्यादातर बौंने पहले से ही तय करके आएं थे कि बीजेपी धूल-धूसरित हो गई होगी क्योंकि अभी लोगों ने मोदी की पैतरेबाजी को पहचान लिया है। ऐसे बौंनों की स्टूडियों में भरमार है। और ऐसे ऐंकरों की भी जो आम को बबूल के पेड़ से तोड़ सकते है या फिर धान के खेत में गेहूं की फसल के खराब होने का रोना रो सकते है। उनकी सैलरी के पैकेज मल्टी नेशनल कंपनियों के अधिकारियों के माफिक है। उनसे कभी बात कीजिए तो उनके शौक अंग्रेजी लाट साहबों को मात दे सकते है उनकी ब्रांड पसंदगी तो आपके सर के ऊपर से गुजर सकती है। खैर उनकी आग उगलती भविष्यवाणी को साधारण सी जनता ने पानी पिला दिया। बीजेपी की जीत की कहानी चलने लगी और फिर बाईट्स पर बाईट्स। इसी बीच एक बाईट दिखाई दी जिसमें वामपंथ के मौजूदा कर्णधार सीताराम येचुरी कह रहे थे कि पैसे और अनैतिक साधनों से बीजेपी की जीत हुई है। और ये बाईट्स मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने चुनाव परिणाम से एक महीने पहले ही सुन ली थी। ये सिर्फ दोहराव है। त्रिपुरा में चुनाव की कवरेज के दौरान सबसे पहले मिला था सीपीएम के सबसे ताकतवर नेता बिजयेन धर से। कुछ दिन पहले तक अगरतला की सबसे शानदार बिल्डिंग मानी जाने वाली सीपीएम के दफ्तर की बिल्डिंग के बराबर में पार्टी का मुखपत्र भी छपता है और उसकी बिल्डिंग के कांच भी ताकत की कहानी तरह अपारदर्शी है। बिजयेन धर से बात करने की कोशिश की। देखने में बहुत ही आम दिखाई दे रहे बिजयेन की तुनकमिजाजी का खौंफ उन सीनियर पत्रकार पर काफी दिखाई दे रहा था जो मुझे उनसे मिलाने ले गए थे। पहले तो राजनाथ सिंह का प्रोग्राम छोड़ा क्योंकि उदयंता पैलेस के बराबर में दुर्गाबाड़ी के मंदिर से शुरू होने वाली रैली के लिये भी समय वही था जो बिजयेन से मिला था। मेरे सीनियर सहयोगी का कहना था कि ये टाईम के बहुत पंक्चुअल होते है और यही कारण है इनके सत्ता में इतना लंबा रहने का। ( मैं हर चीज को वहां सत्ता में रहने का कारण सुन चुका था। कई बार तो लगा था कि सूरज टाईम से निकलता है ये भी कारण है इनके सत्ता में रहने का।) खैर मैंने बातचीत शुरू की। इंटरव्यू से पहले बातचीत का सिलसिला। बिजयेन से सामना होने के साथ मुझे एक बात लग रही थी जैसे मैं किसी पुरानी लाईब्रेरी में रखी हुई किताब का पन्ना पढ़ने की कोशिश कर रहा हू्। एक से जराजीर्ण किताब जो बर्फ से ही पानी बनता है जैसा रहस्योद्घाटन करती है। ऐसी ही बास मेरे आसपास मौजूद थी। पहले तो सादगी पर चर्चा करने भर पर बिजयेन नाराज हो गए। उनका कहना था कि दिल्ली में बैठा हुआ मीडिया ये गलत बयानी करता है। और एक भ्रम उतार कर रख दिया था कि ये मुख्यमंत्री साईकिल से नहीं चलता-उलता है आपको किसी बेवकूफ पत्रकार ने अपनी कहानी से उलझा दिया होगा। ( पता नहीं उनको मालूम है कि नहीं इस हार के बाद सबसे ज्यादा जनता को कोस रहे पत्रकार बेचारे सादगी पर ही फिदा है) फिर कहा कि मुख्यमंत्री है तो मुख्यमंत्री आवास में ही नहीं रहेगा तो कहां रहेगा। और फिर कहा कि क्यों सब्जी लेने जाएंगा। उसको दूसरे काम नहीं है क्या। और रही बात सैलरी में से कुछ लेने की तो तमाम लोग पार्टी में जो काम करते है पार्टी सबके साथ ऐसा ही करती है। इसमें नया क्या है। ये बातें सब हिंदी आधिक्य वाली इंग्लिश में हो रही थी। फिर मैंने पूछा कि क्या मैं आपसे ये बात कैमरे पर कर सकता हूं तू अब तक नाराज बिजयेन धर ने फौरन पाला बदल लिया कि इन पर बात करना बचकाना है। ( बेचारे बिजयेन धर उनको ये मालूम नहीं है कि दिल्ली में बैठकर दुनिया को आंवला मान कर और मोदी को समर्थन दे रही जनता को वर्गशत्रुु मान रहे बेचारे बौंने पत्रकार इसी बात को सबसे बड़ा सच मान कर जनता को कोस रहे है) खैर बात करने के लिए तैयार हुए कि पार्टी का क्या स्टैंड है और पार्टी को कौन लोग हरा रहे है। पार्टी दफ्तर के सामने एक सुंदर तालाब है तो वही ले गया उसके किनारे बात हुई और फिर बातचीत पूरी अंग्रेजी में। मैंने गुजारिश की साहब दो चार शब्द बोल हिंदी में तो हमको भी मेहनत का फल मिल जाएंगा। लेकिन उन्होंने एक दम से इंकार किया नहीं मै् हिंदी नहीं बोल सकता हूं।और मैं तब नहीं समझ पाया कि दिल्ली में सब लोग ये बॉस लोग हिंदी में बोल रहे है लेकिन वामपंथ अभी तक बाहर अंग्रेजी को निकालने के लिए ही अंग्रेजी में बोलता है। क्योंकि इतना अंग्रेजी बोलेंगे कि एक दिन बोलते बोलते अंग्रेजी ही खत्म हो जाएंगी। और बिजयेन धर से मैेने पुूछा कि आप की पार्टी को क्या बीजेपी इस बार हरा सकती है। इस बात पर उनका जवाब पूरी तरह से वही जवाब था जो सीताराम येचुरी साहब ने हार के बाद दिया। दरअसल पूरी तरह से वामपंथ के नेता एक झूठ और देश को एक दूसरे से दूररखने की साजिशों में कामयाबी के साथ ही जिंदा थे। त्रिपुरा की सड़कों पर घूमते हुए दिख रहा था सादगी के नाम पर एक मुख्यमंत्री ने अपनी छवि तकनीकि विरोध के आधार पर ही विकसित कर ली। इंजीनियरिंग कॉलिजों, मेडीकल कॉलिजों को तरसते हुए राज्य को बताया जा रहा था कि पूर्ण वामपंथ की क्रांत्रि के बाद आपको कॉलिजों की जरूरत ही नहीं रह जाएँगी। दिल्ली के सबसे बड़े कुमार अपने भाषणों से आपको आगे ले जाएंगे। अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ खड़ी वामपंथी विचारधारा को आपको समझना है तो जिस राज्य में भी वो शासन करते है उसको जाकर देखने भर से समझ सकते है। समाज के हर हिस्से में कॉडर के सहारे आतंक को भर देने की एक पूरी कोशिश आप कही भी देख सकते है। मैंने फिक्की या एसोचैम के अधिकारियों से मिलने की कोशिश की तो उनका कहना था कि भाई वो सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोंलेगे। मैंने कहा कि भाई आप अपनी परेशानियां तो बता सकते है लेकिन उन्होंने कहा नहीं कोई राजनीतिक सवाल नहीं देगे भाई बाद में तकलीफ होती है। अब ये तकलीफ कौन पैदा करता है। ये सवाल कहने की जरूरत नहीं थी। फिर स्कूलों-कॉलिजों में इंटरव्यू जो अमूमन हर यात्रा में करता हू् किए। यूनिवर्सिटी या फिर एमबीबी कॉलिज ( सबसे बड़ा कॉलिज) सब जगह एसएफआई का कब्जा ( कब्जा इसलिए कि छात्रों का बड़ा हिस्सा बाहर आकर मोदी को पसंद करने की बात करने का हौंसला कर पाया कॉलिज के अंदर नहीं)। तो कोई भी छात्र बिना एसएफआई की अनुमति के बाईट् देने के लिए तैयार नहीं हुआ। एसएफआई के पदाधिकारी को बुलाया तो भी उनके लड़कों को ही बुलाया । और फिर बात हुई तो सबकुछ गलत कामों की जिम्मेदारी केन्द्र की सरकारों पर लद गई। और हैरानी की बात थी कि इस बार सूरज की गर्मी ज्यादा का जिम्मेदार भी केन्द्र का सामंप्रदायिक एजेंडा ठहराया गया। मुझे एक बात महसूस हुई कि कि हिंदुस्तान के जिन राज्यों में ये एजेंडा है वहां भी स्टूडेंट से बात करने में सिर्फ ये परेशानी होती थी कि दो ग्रुप टकरा न जाएं लेकिन बात नहीं करेंगे और वो भी डर कर ये बात कभी सामने नहीं आई। लेकिन ये बंगाल के बाद इस जगह पर दिख रहा था। इतिहास की कोई भी कहानी वामपंथ की किताब मे्ं ऐसी नहीं मिलती जो आपको कभी भी अभिव्यक्ति के हक में बोलती दिखाई दे। सिर्फ दिल्ली के बौंनों ( पत्रकारों ) की रूमानी दुनिया इस बात को मानती है कि अगर अभिव्यक्ति की आजादी लानी है तो वामपंथ ही लाएंगा और किसी पार्टी को वोट देने वाली जनता सांप्रदायिक है और बागी हो चुकी है।
अब उनके पास एक समाधान है। वो जनता को बदल ले।
बर्तोर ब्रेख्त की एक कविता जिसका अनुवाद मोहन थपलियाल जी ने किया है
झूठ को सच कैसे बनाया जाता है ये गोएबल्स को भी कुछ हिंदुस्तानी बौंने पत्रकार सिखा सकते है। दिल्ली के एसी स्टू़डियों में बैठकर माणिक सरकार की सादगी को देश का रोल मॉडल बनाने में जुटे हुए झूठों की फौंज के लिए स्क्रीन पर आ रहे परिणाम किसी भी तरह से हजम नहीं हो पा रहे थे। पहले बीजेपी को गालियों से नवाज चुके ये बौंने पत्रकार एकदम से सन्निपात की स्थिति में आ चुके थे। और जैसे ही हार की कहानी पूरी हुई जनता को ही गालियों से नवाजने लगे।
परिणाम आ रहे थे। सामने दिख रहा था कि लाल रंग अब त्रिपुरा की गलियों से गायब हो रहा है। सीनियर बौंने ( पत्रकार ) परिणाम बांच रहे थे। और ऐसा कोई कोई ही बौंना था जो इन चुनावों में तीनो राज्य तो दूर की बात है एक राज्य की राजधानी में भी कदम रख कर वापस लौटा हो। मैं चुनाव कवर करके लौटा था लिहाजा मैं भी डरा और सहमा सा उन ज्ञानपुंजों के समीप उनके तेज से तपा हुआ बैठा था। ज्यादातर बौंने पहले से ही तय करके आएं थे कि बीजेपी धूल-धूसरित हो गई होगी क्योंकि अभी लोगों ने मोदी की पैतरेबाजी को पहचान लिया है। ऐसे बौंनों की स्टूडियों में भरमार है। और ऐसे ऐंकरों की भी जो आम को बबूल के पेड़ से तोड़ सकते है या फिर धान के खेत में गेहूं की फसल के खराब होने का रोना रो सकते है। उनकी सैलरी के पैकेज मल्टी नेशनल कंपनियों के अधिकारियों के माफिक है। उनसे कभी बात कीजिए तो उनके शौक अंग्रेजी लाट साहबों को मात दे सकते है उनकी ब्रांड पसंदगी तो आपके सर के ऊपर से गुजर सकती है। खैर उनकी आग उगलती भविष्यवाणी को साधारण सी जनता ने पानी पिला दिया। बीजेपी की जीत की कहानी चलने लगी और फिर बाईट्स पर बाईट्स। इसी बीच एक बाईट दिखाई दी जिसमें वामपंथ के मौजूदा कर्णधार सीताराम येचुरी कह रहे थे कि पैसे और अनैतिक साधनों से बीजेपी की जीत हुई है। और ये बाईट्स मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने चुनाव परिणाम से एक महीने पहले ही सुन ली थी। ये सिर्फ दोहराव है। त्रिपुरा में चुनाव की कवरेज के दौरान सबसे पहले मिला था सीपीएम के सबसे ताकतवर नेता बिजयेन धर से। कुछ दिन पहले तक अगरतला की सबसे शानदार बिल्डिंग मानी जाने वाली सीपीएम के दफ्तर की बिल्डिंग के बराबर में पार्टी का मुखपत्र भी छपता है और उसकी बिल्डिंग के कांच भी ताकत की कहानी तरह अपारदर्शी है। बिजयेन धर से बात करने की कोशिश की। देखने में बहुत ही आम दिखाई दे रहे बिजयेन की तुनकमिजाजी का खौंफ उन सीनियर पत्रकार पर काफी दिखाई दे रहा था जो मुझे उनसे मिलाने ले गए थे। पहले तो राजनाथ सिंह का प्रोग्राम छोड़ा क्योंकि उदयंता पैलेस के बराबर में दुर्गाबाड़ी के मंदिर से शुरू होने वाली रैली के लिये भी समय वही था जो बिजयेन से मिला था। मेरे सीनियर सहयोगी का कहना था कि ये टाईम के बहुत पंक्चुअल होते है और यही कारण है इनके सत्ता में इतना लंबा रहने का। ( मैं हर चीज को वहां सत्ता में रहने का कारण सुन चुका था। कई बार तो लगा था कि सूरज टाईम से निकलता है ये भी कारण है इनके सत्ता में रहने का।) खैर मैंने बातचीत शुरू की। इंटरव्यू से पहले बातचीत का सिलसिला। बिजयेन से सामना होने के साथ मुझे एक बात लग रही थी जैसे मैं किसी पुरानी लाईब्रेरी में रखी हुई किताब का पन्ना पढ़ने की कोशिश कर रहा हू्। एक से जराजीर्ण किताब जो बर्फ से ही पानी बनता है जैसा रहस्योद्घाटन करती है। ऐसी ही बास मेरे आसपास मौजूद थी। पहले तो सादगी पर चर्चा करने भर पर बिजयेन नाराज हो गए। उनका कहना था कि दिल्ली में बैठा हुआ मीडिया ये गलत बयानी करता है। और एक भ्रम उतार कर रख दिया था कि ये मुख्यमंत्री साईकिल से नहीं चलता-उलता है आपको किसी बेवकूफ पत्रकार ने अपनी कहानी से उलझा दिया होगा। ( पता नहीं उनको मालूम है कि नहीं इस हार के बाद सबसे ज्यादा जनता को कोस रहे पत्रकार बेचारे सादगी पर ही फिदा है) फिर कहा कि मुख्यमंत्री है तो मुख्यमंत्री आवास में ही नहीं रहेगा तो कहां रहेगा। और फिर कहा कि क्यों सब्जी लेने जाएंगा। उसको दूसरे काम नहीं है क्या। और रही बात सैलरी में से कुछ लेने की तो तमाम लोग पार्टी में जो काम करते है पार्टी सबके साथ ऐसा ही करती है। इसमें नया क्या है। ये बातें सब हिंदी आधिक्य वाली इंग्लिश में हो रही थी। फिर मैंने पूछा कि क्या मैं आपसे ये बात कैमरे पर कर सकता हूं तू अब तक नाराज बिजयेन धर ने फौरन पाला बदल लिया कि इन पर बात करना बचकाना है। ( बेचारे बिजयेन धर उनको ये मालूम नहीं है कि दिल्ली में बैठकर दुनिया को आंवला मान कर और मोदी को समर्थन दे रही जनता को वर्गशत्रुु मान रहे बेचारे बौंने पत्रकार इसी बात को सबसे बड़ा सच मान कर जनता को कोस रहे है) खैर बात करने के लिए तैयार हुए कि पार्टी का क्या स्टैंड है और पार्टी को कौन लोग हरा रहे है। पार्टी दफ्तर के सामने एक सुंदर तालाब है तो वही ले गया उसके किनारे बात हुई और फिर बातचीत पूरी अंग्रेजी में। मैंने गुजारिश की साहब दो चार शब्द बोल हिंदी में तो हमको भी मेहनत का फल मिल जाएंगा। लेकिन उन्होंने एक दम से इंकार किया नहीं मै् हिंदी नहीं बोल सकता हूं।और मैं तब नहीं समझ पाया कि दिल्ली में सब लोग ये बॉस लोग हिंदी में बोल रहे है लेकिन वामपंथ अभी तक बाहर अंग्रेजी को निकालने के लिए ही अंग्रेजी में बोलता है। क्योंकि इतना अंग्रेजी बोलेंगे कि एक दिन बोलते बोलते अंग्रेजी ही खत्म हो जाएंगी। और बिजयेन धर से मैेने पुूछा कि आप की पार्टी को क्या बीजेपी इस बार हरा सकती है। इस बात पर उनका जवाब पूरी तरह से वही जवाब था जो सीताराम येचुरी साहब ने हार के बाद दिया। दरअसल पूरी तरह से वामपंथ के नेता एक झूठ और देश को एक दूसरे से दूररखने की साजिशों में कामयाबी के साथ ही जिंदा थे। त्रिपुरा की सड़कों पर घूमते हुए दिख रहा था सादगी के नाम पर एक मुख्यमंत्री ने अपनी छवि तकनीकि विरोध के आधार पर ही विकसित कर ली। इंजीनियरिंग कॉलिजों, मेडीकल कॉलिजों को तरसते हुए राज्य को बताया जा रहा था कि पूर्ण वामपंथ की क्रांत्रि के बाद आपको कॉलिजों की जरूरत ही नहीं रह जाएँगी। दिल्ली के सबसे बड़े कुमार अपने भाषणों से आपको आगे ले जाएंगे। अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ खड़ी वामपंथी विचारधारा को आपको समझना है तो जिस राज्य में भी वो शासन करते है उसको जाकर देखने भर से समझ सकते है। समाज के हर हिस्से में कॉडर के सहारे आतंक को भर देने की एक पूरी कोशिश आप कही भी देख सकते है। मैंने फिक्की या एसोचैम के अधिकारियों से मिलने की कोशिश की तो उनका कहना था कि भाई वो सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोंलेगे। मैंने कहा कि भाई आप अपनी परेशानियां तो बता सकते है लेकिन उन्होंने कहा नहीं कोई राजनीतिक सवाल नहीं देगे भाई बाद में तकलीफ होती है। अब ये तकलीफ कौन पैदा करता है। ये सवाल कहने की जरूरत नहीं थी। फिर स्कूलों-कॉलिजों में इंटरव्यू जो अमूमन हर यात्रा में करता हू् किए। यूनिवर्सिटी या फिर एमबीबी कॉलिज ( सबसे बड़ा कॉलिज) सब जगह एसएफआई का कब्जा ( कब्जा इसलिए कि छात्रों का बड़ा हिस्सा बाहर आकर मोदी को पसंद करने की बात करने का हौंसला कर पाया कॉलिज के अंदर नहीं)। तो कोई भी छात्र बिना एसएफआई की अनुमति के बाईट् देने के लिए तैयार नहीं हुआ। एसएफआई के पदाधिकारी को बुलाया तो भी उनके लड़कों को ही बुलाया । और फिर बात हुई तो सबकुछ गलत कामों की जिम्मेदारी केन्द्र की सरकारों पर लद गई। और हैरानी की बात थी कि इस बार सूरज की गर्मी ज्यादा का जिम्मेदार भी केन्द्र का सामंप्रदायिक एजेंडा ठहराया गया। मुझे एक बात महसूस हुई कि कि हिंदुस्तान के जिन राज्यों में ये एजेंडा है वहां भी स्टूडेंट से बात करने में सिर्फ ये परेशानी होती थी कि दो ग्रुप टकरा न जाएं लेकिन बात नहीं करेंगे और वो भी डर कर ये बात कभी सामने नहीं आई। लेकिन ये बंगाल के बाद इस जगह पर दिख रहा था। इतिहास की कोई भी कहानी वामपंथ की किताब मे्ं ऐसी नहीं मिलती जो आपको कभी भी अभिव्यक्ति के हक में बोलती दिखाई दे। सिर्फ दिल्ली के बौंनों ( पत्रकारों ) की रूमानी दुनिया इस बात को मानती है कि अगर अभिव्यक्ति की आजादी लानी है तो वामपंथ ही लाएंगा और किसी पार्टी को वोट देने वाली जनता सांप्रदायिक है और बागी हो चुकी है।
अब उनके पास एक समाधान है। वो जनता को बदल ले।
बर्तोर ब्रेख्त की एक कविता जिसका अनुवाद मोहन थपलियाल जी ने किया है
"सत्रह जून के
विप्लव के बाद
लेखक संघ के मन्त्री ने
स्तालिनाली शहर में पर्चें बाँटे
कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है
और तभी
दुबारा पा सकती है
यदि दोगुनी मेहनत करे
ऐसे मौक़े पर
क्या यह आसान नहीं होगा
सरकार के हित में
कि वह जनता को भंग कर
कोई दूसरी चुन ले।"
विप्लव के बाद
लेखक संघ के मन्त्री ने
स्तालिनाली शहर में पर्चें बाँटे
कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है
और तभी
दुबारा पा सकती है
यदि दोगुनी मेहनत करे
ऐसे मौक़े पर
क्या यह आसान नहीं होगा
सरकार के हित में
कि वह जनता को भंग कर
कोई दूसरी चुन ले।"
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