कोई बताओं इस पोस्टर में कौन है जो माणिक की हार का जिम्मेदार बनेगा और कौन है जिसने माणिक को इतने दिन जीतने में मदद की थी ?। ये पोस्टर नहीं वामपंथ का सच है जिसको इस देश में बौंनों के एक गैंग ने बाकायदा अभिव्यक्ति का ठेकेदार बनाया है।
त्रिपुुरा में चुनाव से लौटकर भी मेरे जेहन से ये पोस्टर हट ही नहीं रहा था। एक पोस्टर जो त्रिपुरा में पच्चीस साल के वामपंथी शामन की उपलब्धि है और मैसेज है। हर दफ्तर पर चिपका ये पोस्टर पार्टी का माऊथपीस है। पार्टी के दफ्तर के बाहर लगा पोस्टर का एक मैसेज होता है जो ये बताता है कि पार्टी के किन किन चेहरों ने देश के लिए क्या क्या किया। पार्टी का देश के विकास में, देश की आजादी में, या फिर दिल्ली के महान बौंने ( पत्रकार) गैंग्स के मुताबिक आम इंसान की अभिव्यक्ति की आजादी को बनाएं रखने में किस किस चेहरे का बलिदान दिया। जब ये पोस्टर मैंने पहली बार देखा तो चौंक गया था। लेकिन मुझे लगा कि बाकि देश से अगरतला आने वाले अंग्रेजी दां वामपंथियों को रिझाने के लिए लगाया होगा। सीनियर पत्रकार प्रदीप चक्रवर्ती जिनसे मैं त्रिपुरा को लेकर बात कर रहा था वो कहने लगे कि ये ही पार्टी का मुख्य पोस्टर है। मैंने अचानक पूछा कि क्या आप बता सकते हो कि इनमें किस किस के चेहरे है। प्रदीप जी हंसते हुए कहने लगे कि सारे तो सही सही नहीं बता सकता हूं। इस पर मैंने साथ में बैठे हुए स्थानीय पत्रकार देवाशीष भट्टाचार्य से पूछा कि क्या आप इनका सही सही नाम बता सकते हो। इस पर देवाशीष ने भी थोड़ा परेशानी के साथ कहा नहीं मैं साफ तौर पर ही नहीं बता सकता हूं कि ये कौन कौन है।
इस पर मेरे जेहन में पहला सवाल यही कौंधा कि भाई इन लोगों की त्रिपुरा के इतिहास, भूगोल या फिर सांस्कृतिक जीवन में क्या भूमिका है। किसी भी पार्टी का दफ्तर उस पार्टी का आईना होता है जो ये बतलाता है कि पार्टी किस हालत में है और पोस्टर पर छपने वाले चेहरे तो उस खास जगह के साथ ऐसा रिश्ता रखते है जो पार्टी से लोगों को जुड़ने के लिए मजबूर करता है। लेकिन इन चेहरों में से एक भी ऐसा नहीं है जो त्रिपुरा कभी आया हो और ज्यादातर तो कभी हिंदुस्तान भी नहीं आएँ। तब त्रिपुरा के दफ्तरों पर टंगे हुए पोस्टरों को चुनाव से त्रिपुरा की जनता से क्या रिश्ता है। ये सवाल आप को हमेशा अपने सामने खड़ा दिखाई देगा। इसका जवाब आम कार्यकर्ता नहीं दे सकता । फिर उसके बाद जब मैं त्रिपुरा के बाहर उदयपुर गया था और आगे फिर त्रिपुरेश्वरी के मंदिर के रास्ते में हर दफ्तर के बाहर टंगा हुआ ये पोस्टर मुझे आकर्षित करने की बजाय वितृष्णा से भरता दिखा। व्यक्तिगत तौर पर इन लोगों की विचारधारा का मुझे हिंदुस्तान से कोई गहरा नाता नहीं दिखता है लेकिन त्रिपुरा के चुनाव में जहां आम आदिवासी और त्रिपुरा का आदमी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जूझ रहा हो वहां ये पोस्टर किस तरह उसे ढाढस बंधाता है या उससे रिश्ता जोड़ता है ये पता नहीं चला। लेकिन इसके साथ साथ ही ये भी पता चला कि अभिव्यक्ति के लिए दिल्ली में एसी स्टूडियों में बैठकर छटपटाते हुए एक विशेष गैंग के बौंनों के लिए अभिव्यक्ति के मायने क्या है।
पोस्टर पर एक भी चेहरा ऐसा नहीं है जो अभिव्यक्ति के लिए लड़ रहा हो। एक भी चेहरे का रिश्ता अहिंसा से नहीं जुड़ता है। पूरी तरह हिंसात्मक तरीके से विरोधियों के बीज नाश की अवधारणा के पोषक इन लोगों के अनुयायी दिल्ली में गांधी की अहिंसा के सिद्धांत के लिए लड़ रहे है। इतने विरोधाभासों को पालती इस विचारधारा ने कितने दिन तक इस देश के इस सुदूर उत्तरपूर्व के राज्य में किस तरह शासन चलाया होगा ये आपको यही आकर दिखाई देता है।
क्या गांधी को मानने का भाषण दे रहे अपूर्वानंद को जेएनयू में इस पोस्टर की याद थी या नहीं। क्या इस पोस्टर पर छपे हुए चेहरों के इतिहास को लेकर अपूर्वानंद टाईप लोगों को कुछ भ्रम है या स्मृति विलोपन हो चुका था। ( अपूर्वानंद से मेरा परिचय नहीं है लेकिन क्रांत्रिपु्त्र कन्हैंया जन्म के वक्त प्रसव पीड़ा से ऊबल रहे महान शिक्षक समुदाय के रोज के भाषणों में से अपूर्वानंद का महात्मागांधी पर क्लेम का भाषण उस दिन सुना था। सच में यकीन आया कि हिटलर के साथ किस तरह ये जमात रोटी पानी साथ की होगी क्योंकि जब तक हिटलर इनके खिलाफ नहीं गया ये उसके भाईबंद थे। ) महात्मा गांधी को लेकर इस वक्त वामपंथियों का रूदन महात्मा के बच्चों को शर्मा देता है। दरअसल पूरे मूवमेंट की कहानी इस देश में संचार के साधनों पर एक खास वर्ग के कब्जें की कहानी है। सही मायने में इस देश में गोयबल्स के बच्चों ने पहले संचार माध्यमों को अपने कब्जें में लिया। फिर देश का इतिहास बदल दिया। देश की भाषा बदल दी। देश को तोड़ने के लिए आजादी के लिए नक्सल गैंग्स खड़े कर दिए। लेकिन ये जीत नए संचार माध्यमों की जीत है, दरअसल संचार माध्यमों ने बदल दिया इस वामपंथ का चेहरा। एक नकाब जो ओढ़ लिया था उसको नए मीडियम से बनते हुए एक देश ने नोंच लिया। ये पोस्टर देश को नहीं देखने देने वाला एक बौंनों का गैंग्स अपनी तमाम युक्तियों में अकेला रह गया क्योंकि षडयंत्र को उसी जनता ने काट दिया जिसको अपने जाल में रखे घूम रहे थे वामपंथी। यकीनन देश मेें राजनीतिक विमर्श की जरूरत थी और है और रहेगी लेकिन क्या वामपंथ कभी यहां कि विमर्श में शामिल हो सकता है ये सवाल इस पोस्टर से ज्यादा निकलता है। और कविवर आलोक धन्वा साहब को यकीन होगा कि गोली दागों पोस्टर से क्या मतलब है। गोली यकीनन चल रही है लेकिन उन लोगों पर जिनका जनतंत्र में कुछ भी विश्वास था और है। गोली सा जरूर चुभता होगा ये पोस्टर उन तमाम लोगों को जिनका यकीन महात्मा गांधी की अहिंसा में है। उन लोगों को भी इस पोस्टर को देेखकर आह दिखती होगी जो ये मानते है कि इस देश में एक जीवन शक्ति है । ये देश इंसानियत के लिए लड़ने का माद्दा रखता है और सबसे पहले तो उन लोगों को ये पोस्टर डराता होगा जो इस देश को एक देश मानते है। मिस्टर पत्रकार और गैंग्स को ये पोस्टर यकीन दिलाता होगा कि उनकी गोलियों और इस देश को खत्म करने के लिए रची गई साजिश को रखने के लिए एक पोस्टर तो है ही बाकि का पता नहीं।
सभी लोग इस पोस्टर पर बने चेहरों को देखकर क्रमवाईज देख सकते है लिख सकते है।
भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता को आप पढ़ सकते है।
निर्भयता।
किसी से मत डरो का मतलब बेधड़क चोरी करो नहीं है
करो या मरो का मतलब मारों या मरों नहीं है
शब्दों का उनका अपना अर्थ है
तुम्हारी तोड़-मरोड़ व्यर्थ है और खतरनाक है
मेरे मन पर शब्दों के सही अर्थों की बड़ी धाक है
मैं सही अर्थों की गलत मीमांसा से डरता हूं
इसलिए तुम्हारे भाष्य पर मुझे कम से कम शक तो करने दो
मुझे बिना किसी को मारे अपने पथ पर चलते हुए मरने दो
इस पर मेरे जेहन में पहला सवाल यही कौंधा कि भाई इन लोगों की त्रिपुरा के इतिहास, भूगोल या फिर सांस्कृतिक जीवन में क्या भूमिका है। किसी भी पार्टी का दफ्तर उस पार्टी का आईना होता है जो ये बतलाता है कि पार्टी किस हालत में है और पोस्टर पर छपने वाले चेहरे तो उस खास जगह के साथ ऐसा रिश्ता रखते है जो पार्टी से लोगों को जुड़ने के लिए मजबूर करता है। लेकिन इन चेहरों में से एक भी ऐसा नहीं है जो त्रिपुरा कभी आया हो और ज्यादातर तो कभी हिंदुस्तान भी नहीं आएँ। तब त्रिपुरा के दफ्तरों पर टंगे हुए पोस्टरों को चुनाव से त्रिपुरा की जनता से क्या रिश्ता है। ये सवाल आप को हमेशा अपने सामने खड़ा दिखाई देगा। इसका जवाब आम कार्यकर्ता नहीं दे सकता । फिर उसके बाद जब मैं त्रिपुरा के बाहर उदयपुर गया था और आगे फिर त्रिपुरेश्वरी के मंदिर के रास्ते में हर दफ्तर के बाहर टंगा हुआ ये पोस्टर मुझे आकर्षित करने की बजाय वितृष्णा से भरता दिखा। व्यक्तिगत तौर पर इन लोगों की विचारधारा का मुझे हिंदुस्तान से कोई गहरा नाता नहीं दिखता है लेकिन त्रिपुरा के चुनाव में जहां आम आदिवासी और त्रिपुरा का आदमी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जूझ रहा हो वहां ये पोस्टर किस तरह उसे ढाढस बंधाता है या उससे रिश्ता जोड़ता है ये पता नहीं चला। लेकिन इसके साथ साथ ही ये भी पता चला कि अभिव्यक्ति के लिए दिल्ली में एसी स्टूडियों में बैठकर छटपटाते हुए एक विशेष गैंग के बौंनों के लिए अभिव्यक्ति के मायने क्या है।
पोस्टर पर एक भी चेहरा ऐसा नहीं है जो अभिव्यक्ति के लिए लड़ रहा हो। एक भी चेहरे का रिश्ता अहिंसा से नहीं जुड़ता है। पूरी तरह हिंसात्मक तरीके से विरोधियों के बीज नाश की अवधारणा के पोषक इन लोगों के अनुयायी दिल्ली में गांधी की अहिंसा के सिद्धांत के लिए लड़ रहे है। इतने विरोधाभासों को पालती इस विचारधारा ने कितने दिन तक इस देश के इस सुदूर उत्तरपूर्व के राज्य में किस तरह शासन चलाया होगा ये आपको यही आकर दिखाई देता है।
क्या गांधी को मानने का भाषण दे रहे अपूर्वानंद को जेएनयू में इस पोस्टर की याद थी या नहीं। क्या इस पोस्टर पर छपे हुए चेहरों के इतिहास को लेकर अपूर्वानंद टाईप लोगों को कुछ भ्रम है या स्मृति विलोपन हो चुका था। ( अपूर्वानंद से मेरा परिचय नहीं है लेकिन क्रांत्रिपु्त्र कन्हैंया जन्म के वक्त प्रसव पीड़ा से ऊबल रहे महान शिक्षक समुदाय के रोज के भाषणों में से अपूर्वानंद का महात्मागांधी पर क्लेम का भाषण उस दिन सुना था। सच में यकीन आया कि हिटलर के साथ किस तरह ये जमात रोटी पानी साथ की होगी क्योंकि जब तक हिटलर इनके खिलाफ नहीं गया ये उसके भाईबंद थे। ) महात्मा गांधी को लेकर इस वक्त वामपंथियों का रूदन महात्मा के बच्चों को शर्मा देता है। दरअसल पूरे मूवमेंट की कहानी इस देश में संचार के साधनों पर एक खास वर्ग के कब्जें की कहानी है। सही मायने में इस देश में गोयबल्स के बच्चों ने पहले संचार माध्यमों को अपने कब्जें में लिया। फिर देश का इतिहास बदल दिया। देश की भाषा बदल दी। देश को तोड़ने के लिए आजादी के लिए नक्सल गैंग्स खड़े कर दिए। लेकिन ये जीत नए संचार माध्यमों की जीत है, दरअसल संचार माध्यमों ने बदल दिया इस वामपंथ का चेहरा। एक नकाब जो ओढ़ लिया था उसको नए मीडियम से बनते हुए एक देश ने नोंच लिया। ये पोस्टर देश को नहीं देखने देने वाला एक बौंनों का गैंग्स अपनी तमाम युक्तियों में अकेला रह गया क्योंकि षडयंत्र को उसी जनता ने काट दिया जिसको अपने जाल में रखे घूम रहे थे वामपंथी। यकीनन देश मेें राजनीतिक विमर्श की जरूरत थी और है और रहेगी लेकिन क्या वामपंथ कभी यहां कि विमर्श में शामिल हो सकता है ये सवाल इस पोस्टर से ज्यादा निकलता है। और कविवर आलोक धन्वा साहब को यकीन होगा कि गोली दागों पोस्टर से क्या मतलब है। गोली यकीनन चल रही है लेकिन उन लोगों पर जिनका जनतंत्र में कुछ भी विश्वास था और है। गोली सा जरूर चुभता होगा ये पोस्टर उन तमाम लोगों को जिनका यकीन महात्मा गांधी की अहिंसा में है। उन लोगों को भी इस पोस्टर को देेखकर आह दिखती होगी जो ये मानते है कि इस देश में एक जीवन शक्ति है । ये देश इंसानियत के लिए लड़ने का माद्दा रखता है और सबसे पहले तो उन लोगों को ये पोस्टर डराता होगा जो इस देश को एक देश मानते है। मिस्टर पत्रकार और गैंग्स को ये पोस्टर यकीन दिलाता होगा कि उनकी गोलियों और इस देश को खत्म करने के लिए रची गई साजिश को रखने के लिए एक पोस्टर तो है ही बाकि का पता नहीं।
सभी लोग इस पोस्टर पर बने चेहरों को देखकर क्रमवाईज देख सकते है लिख सकते है।
भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता को आप पढ़ सकते है।
निर्भयता।
किसी से मत डरो का मतलब बेधड़क चोरी करो नहीं है
करो या मरो का मतलब मारों या मरों नहीं है
शब्दों का उनका अपना अर्थ है
तुम्हारी तोड़-मरोड़ व्यर्थ है और खतरनाक है
मेरे मन पर शब्दों के सही अर्थों की बड़ी धाक है
मैं सही अर्थों की गलत मीमांसा से डरता हूं
इसलिए तुम्हारे भाष्य पर मुझे कम से कम शक तो करने दो
मुझे बिना किसी को मारे अपने पथ पर चलते हुए मरने दो
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