चलो दिल्ली में गुम हो जाते है, बहुत बड़े-बड़े बौंने गुजरात बांच चुके। गुजरात की राजनीति पर एक भविष्यवाणी हम भी कर दे। जिग्नेश गुजरात में दलित- मुस्लिम राजनीति का नया सितारा है कांग्रेस नहीं।
चुनाव के दौरान तिकड़ी का इंटरव्यू करना मुश्किल था। हर तरफ बड़े चेहरे वाले बौंनों की भीड़ उनको घेरे हुए थी। छोटी सी स्क्रीन पर अचानक वो बड़े हो चुके थे और इससे भी बडी बात कि वो मान भी चुके है कि वो बड़े हो गए है। मैं बौंनों की भीड़ में ऐसा बराती था जिसे कार्ड तो मिला था बारात में जाने का लेकिन अपनी कोई पहचान नहीं थी। चेहरा बड़ा था न नाम और आदत इतनी खराब कि राजनेताओं से दूरी बना कर उन्हें देखने में मजा आता है। ऐसे में गुजरात में अपने सहयोगी पूरब से नंबर लिया और लग गया बात करने। ( कुछ तो करना था न भाई अगली बार की यात्रा के लिए)। जिग्नेश से बात करने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े। रात में नंबर आया। गांधी विद्यापीठ के अंदर जाना पड़ा। जिग्नेश खाना खाने गए थे। तो अपन इंतजार कर सकते थे। सो किया। काफी देर बाद हल्की सी रोशनी में हॉस्टल के बाहर जा कर खड़े हो गए। कैंटीन के साईड़ मे। पुलिस की सुरक्षा। स्कोड़ा या कुछ ऐसी ही एक गाड़ी में जिग्नेश लगातार फोन पर उलझा हुआ। कार की रोशनी में बैठा हुआ एक दम से उत्तेजित युवा। सफलता के कैमरों की रोशनी के बीच में अपने लोगों की उम्मीद। वीडियो जर्नलिस्ट जल्दी में था और मैं आराम से क्योंकि जितना वक्त युवाओं को देखने में मिलता है उतने में ही आप उनको समझने की कोशिश करते हो। खैर कुछ देर बाद जिग्नेश ने कहा कि आप ऊपर चलिए।
हॉस्टल का रूम। दो सिंगल बेड, एक कुर्सी और एक मेज जैसा आमतौर पर होता है। रूम में लाने वाले के नाम से पता चला कि वो अल्पसंख्यक है।
(टर्मिनोलॉजी के मुताबिक बोल रहा हूं किसी दुर्भावना से नहीं) फिर रूम में लेटे हुए दो लोगो से बात हुई। दोनों अल्पसंख्यक। ये रूम भी शायद अल्पसंख्यक लोगों का था। और फिर उनमें से एक तो मेरे ही गांव-गवांड का निकल गया। खैर बातचीत के बाद इंटरव्यू। इंटरव्यू अच्छा रहा, जिग्नेश ने कहा कि चैनल को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने सही सवालों को उठाया। हालांकि मैंने सिर्फ गांधी जी और जिग्नेश के समुदाय के रिश्तों और मौजूदा चुनाव में मुद्दों पर बात की थी। खैर इंटरव्यू लेकर निकला तो मेरे सहयोगी ने पूछा सर आपको क्या दिखा, मैंने मुस्कुराते हुए उसको सिर्फ इतना कहा कि अल्पसंख्यक राजनीति का नया चेहरा है। गुजरात में दलित से ज्यादा अल्पसंख्यकों को एक ऐसे चेहरे की जरूरत है जो मोदी के खिलाफ उनकी ओर से खड़ा हो जाएं और धर्म के आधार पर मोदी से नफरत भी न दिखे। खैर राजनीति का ककहरा भी मैं नहीं जानता हूं जो समझ में आता हूं लिख देता हूं।
फिर मुलाकात हुई अल्पेश ठाकोर से। अल्पेश दूसरा नाम है जिसने गुजरात में मोदी से ज्यादा कागजी चाणक्य के किले में दरार दिखाई। ( मैं ये कभी नहीं मानता कि कोई जनता की इच्छा के खिलाफ अपनी रणनीति से जीत सकता है लेकिन दिल्ली हो या अहमदाबाद इन साहब को सिर्फ चाणक्य ही लिखा जाता है) अल्पेश शराबबंदी के सवालों के साथ खड़ा हुआ युवा नेतृत्व है। अल्पेश राजनीति को अपनी तरह से करते हुए राष्ट्रीय राजनीति के मुद्दों और गुजरात के बीच समन्वय करता दिखा। इंटरव्यू के बाद की बातचीत के बाद लगा कि शराबबंदी और आंदोलन के बीच अल्पेश की राजनीतिक समझ बहुत साफ है और वो प्रदेश की राजनीति में एक नेशनल पार्टी के बीच में अपना भविष्य और महत्वाकांक्षाओं के तालमेल से गांधीनगर की राजनीति में बहुत से नेताओं में अपनी जगह बना लेगा और कांग्रेस की राजनीति के महासागर में एक बन जाएंगा।
चुनाव खत्म हो चुका था और मैं इस पूरे गुजरात चुनाव की सबसे बड़ी खबर यानि हार्दिक से नहीं मिल पाया। रैलियों का दौर चल रहा था। हजारों लोग हार्दिक के नारों के साथ सड़कों पर थे। दिल्ली या अहमदाबाद हम बौंनों की चर्चाओं के केन्द्र में सिर्फ एक ही नाम था वो था हार्दिक। मैंने भी ज्यादातर राजनेताओं से अगर राजनीति पर चर्चा की तो इन तीन नामों को लेकर ही सवाल पूछे। ( मेरी सारी चुनावी यात्रा सरकारी अस्पतालों, सरकारी स्कूलों और नदियों पर ही टिकी रही। इसके अलावा दांडी मार्च मेरे लिए जीवन भर की उपलब्धि है)। खैर जीत के एक दिन बाद पूरब हार्दिक का इंटरव्यू करने जा रहा था। मैंने फोन किया कि पूरब मैं दिल्ली जाने से पहले मिलना चाहता हूं उसने कहा कि आप आ जाओं फिर निकलने वाला है हार्दिक। मैं जल्दी में पहुंचा। फ्लैट के दरवाजे पर भी पुलिस से भरी हुई स्कार्पियों से सामना हुआ। फिर सोसायटी के गेट पर बैठे हुे लोगों से। दो रजिस्टर रखे हुए थे। मैंने पूछा भाई हार्दिक से मिलना है किस पर लिखूं। एक आदमी फौरन बोल उठा कि हार्दिक नहीं है। बाहर गया है। मैंने हंसते हुए कहा कि भाई मेरा सहयोगी उनका इंटरव्यू ले रहा है अंदर आप बाहर कह रहे हो कि नहीं है। इस पर उसने झल्लाते हुए कहा कि पता नहीं क्या कहानी है अंदर से कहते है मना कर दो सबको और फिर बुला लेते है। मैं उसकी उलझन जानता हूं बड़े लोगों से क्यों फासला रखना चाहिए ये हर बार सीखता हूं। खैर पार अंदर गया। तो सबसे आखिर में एक जगह पर फिर से हथियारबंद कमांड़ों बैठे हुए थे। मैंने पूछा हार्दिक का फ्लैट तो उन्होंने फिर कहा कि आपको क्या काम है क्या आपको अप्वाईंटमेंट मिल गया। मैंने फिर जवाब दोहराया। तो ऊपर की ओर इशारा किया। मैं चला गया तो फिर दो लोग दरवाजे पर। दरवाजा बंद और चप्पल-जूतों की बाहर भारी तादाद। उन्होंने कहा कि आप अभी रूक जाईंये इंटरव्यू चल रहा है। खैर मैंने अंदर फोन किया तो पूरब ने बुला लिया। सोफे पर हार्दिक बैठा हुआ था। एक दम से मासूम बच्चें की तरह जिसकी आंखों में रंगीन फिरकियों वाला मेला घूम रहा हो। पहली नजर में हार्दिक ऐसा ही लगा। जिस सोफे पर हार्दिक बैठा था उसके साथ में दरवाजे को पार कर एक शीशे की रैक में किताबें लगी थी जिसमें ज्यादातर किताबों का रिश्ता धर्म से जुड़ता था। धार्मिक किताबों की तादाद ज्यादा थी मैं नाम पढ़ने की कोशिश कर रहा था क्योंकि गुजराती डेढ महीने में थोड़ा थोड़ा सीख चुका था लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। खैर मैंने आश्वस्त किया कि मैं सिर्फ बातचीत करना चाहता हूं कोई इंटरव्यू नहीं। और बातचीत में मेरा एक ही सवाल था कि आप ईवीएम को क्यों दोष दे रहे हो। इस पर बिलकुल एक अंजान बच्चें की तरह कहा कि मेरा शक इसीलिए है कि जब इवीएम बंद हुई तो 950 वोट थे जब रिकाऊंटिग हुई तो 1100 वोट कैसे आएं। वराछा में हार का कोई मतलब नहीं था कैसे हारे और भी ऐसी ही बातें । मैं हैरान था कि मोदी जैसे नेता को पानी पिलाने वाले इस युवा की ऊंचाईंयों पर अभी बचपना था। और हार्दिक नहीं लोगों की इच्छाएं इस आंदोलन को चला रही थी मैंने अपनी समझ को समेटा और पूरब से कहा कि चलो चलते है। जीने से उतरते हुए देखा सीढ़ियों पर पत्थर टूटा हुआ है। पूरब ने कहा कि हां सर इस टूटी सीढ़ी से रात में कई बार दिक्कत हो जाती है और मैंने कहा कि नहीं इस सीढ़ी से किसी दिन कोई गिर जाएंगा क्योंकि इस पत्थर के नीचे कोई सपोर्ट नहीं दिख रही है, सिर्फ पत्थर अपने से हमेशा खड़ा नहीं रहता।
खैर अपनी समझ इतनी है कि इन तीनों में जिग्नेश का आंदोलन की लपट अभी और बढ़ेगी। उसको पैसा और लोग दोनों मिलेंगे और उसके पीछे सदिच्छाएं और दूसरी ताकतें भी होगी। लेकिन अगले चुनाव तक जिग्नेश किसी और के लिए नहीं कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती होगा। कांग्रेस के बड़े वोट बैंक अल्पसंख्यक और जिग्नेश का समुदाय आग उगलती उसकी तकरीरों के साथ खड़ा हो जाएंगा और कांग्रेस एक लेवल से आगे चाह कर भी नहीं बढ़ पाएंगी। जिग्नेश एक ऐसा चेहरा है जिसको अभी भारतीय राजनीति में कुछ जोड़ना है ( ये अच्छा या बुरा ये हर कोई अपने से अंदाजा लगाएं)। बाकि हार्दिक आंदोलनों की ऊर्जो को खो सकते है, क्योंकि अगले पांच साल तक उतनी ताकत बरकरार रखना आसान नहीं होगा ( अगर रख सके तो मैं कमाल मानूंगा) और अल्पेश कांग्रेस की राजनीति में बहुत से चेहरों में से एक चेहरा होगे। ( राजनीति में किस्मत बड़ी चीज है हो सकता है इससे आगे बढ़ा दे)
(फोटो मेरे पीछे पड़े हुए सौमित्रों की खोज है होटल छोड़ने वाली सुबह का)
हॉस्टल का रूम। दो सिंगल बेड, एक कुर्सी और एक मेज जैसा आमतौर पर होता है। रूम में लाने वाले के नाम से पता चला कि वो अल्पसंख्यक है।
(टर्मिनोलॉजी के मुताबिक बोल रहा हूं किसी दुर्भावना से नहीं) फिर रूम में लेटे हुए दो लोगो से बात हुई। दोनों अल्पसंख्यक। ये रूम भी शायद अल्पसंख्यक लोगों का था। और फिर उनमें से एक तो मेरे ही गांव-गवांड का निकल गया। खैर बातचीत के बाद इंटरव्यू। इंटरव्यू अच्छा रहा, जिग्नेश ने कहा कि चैनल को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने सही सवालों को उठाया। हालांकि मैंने सिर्फ गांधी जी और जिग्नेश के समुदाय के रिश्तों और मौजूदा चुनाव में मुद्दों पर बात की थी। खैर इंटरव्यू लेकर निकला तो मेरे सहयोगी ने पूछा सर आपको क्या दिखा, मैंने मुस्कुराते हुए उसको सिर्फ इतना कहा कि अल्पसंख्यक राजनीति का नया चेहरा है। गुजरात में दलित से ज्यादा अल्पसंख्यकों को एक ऐसे चेहरे की जरूरत है जो मोदी के खिलाफ उनकी ओर से खड़ा हो जाएं और धर्म के आधार पर मोदी से नफरत भी न दिखे। खैर राजनीति का ककहरा भी मैं नहीं जानता हूं जो समझ में आता हूं लिख देता हूं।
फिर मुलाकात हुई अल्पेश ठाकोर से। अल्पेश दूसरा नाम है जिसने गुजरात में मोदी से ज्यादा कागजी चाणक्य के किले में दरार दिखाई। ( मैं ये कभी नहीं मानता कि कोई जनता की इच्छा के खिलाफ अपनी रणनीति से जीत सकता है लेकिन दिल्ली हो या अहमदाबाद इन साहब को सिर्फ चाणक्य ही लिखा जाता है) अल्पेश शराबबंदी के सवालों के साथ खड़ा हुआ युवा नेतृत्व है। अल्पेश राजनीति को अपनी तरह से करते हुए राष्ट्रीय राजनीति के मुद्दों और गुजरात के बीच समन्वय करता दिखा। इंटरव्यू के बाद की बातचीत के बाद लगा कि शराबबंदी और आंदोलन के बीच अल्पेश की राजनीतिक समझ बहुत साफ है और वो प्रदेश की राजनीति में एक नेशनल पार्टी के बीच में अपना भविष्य और महत्वाकांक्षाओं के तालमेल से गांधीनगर की राजनीति में बहुत से नेताओं में अपनी जगह बना लेगा और कांग्रेस की राजनीति के महासागर में एक बन जाएंगा।
चुनाव खत्म हो चुका था और मैं इस पूरे गुजरात चुनाव की सबसे बड़ी खबर यानि हार्दिक से नहीं मिल पाया। रैलियों का दौर चल रहा था। हजारों लोग हार्दिक के नारों के साथ सड़कों पर थे। दिल्ली या अहमदाबाद हम बौंनों की चर्चाओं के केन्द्र में सिर्फ एक ही नाम था वो था हार्दिक। मैंने भी ज्यादातर राजनेताओं से अगर राजनीति पर चर्चा की तो इन तीन नामों को लेकर ही सवाल पूछे। ( मेरी सारी चुनावी यात्रा सरकारी अस्पतालों, सरकारी स्कूलों और नदियों पर ही टिकी रही। इसके अलावा दांडी मार्च मेरे लिए जीवन भर की उपलब्धि है)। खैर जीत के एक दिन बाद पूरब हार्दिक का इंटरव्यू करने जा रहा था। मैंने फोन किया कि पूरब मैं दिल्ली जाने से पहले मिलना चाहता हूं उसने कहा कि आप आ जाओं फिर निकलने वाला है हार्दिक। मैं जल्दी में पहुंचा। फ्लैट के दरवाजे पर भी पुलिस से भरी हुई स्कार्पियों से सामना हुआ। फिर सोसायटी के गेट पर बैठे हुे लोगों से। दो रजिस्टर रखे हुए थे। मैंने पूछा भाई हार्दिक से मिलना है किस पर लिखूं। एक आदमी फौरन बोल उठा कि हार्दिक नहीं है। बाहर गया है। मैंने हंसते हुए कहा कि भाई मेरा सहयोगी उनका इंटरव्यू ले रहा है अंदर आप बाहर कह रहे हो कि नहीं है। इस पर उसने झल्लाते हुए कहा कि पता नहीं क्या कहानी है अंदर से कहते है मना कर दो सबको और फिर बुला लेते है। मैं उसकी उलझन जानता हूं बड़े लोगों से क्यों फासला रखना चाहिए ये हर बार सीखता हूं। खैर पार अंदर गया। तो सबसे आखिर में एक जगह पर फिर से हथियारबंद कमांड़ों बैठे हुए थे। मैंने पूछा हार्दिक का फ्लैट तो उन्होंने फिर कहा कि आपको क्या काम है क्या आपको अप्वाईंटमेंट मिल गया। मैंने फिर जवाब दोहराया। तो ऊपर की ओर इशारा किया। मैं चला गया तो फिर दो लोग दरवाजे पर। दरवाजा बंद और चप्पल-जूतों की बाहर भारी तादाद। उन्होंने कहा कि आप अभी रूक जाईंये इंटरव्यू चल रहा है। खैर मैंने अंदर फोन किया तो पूरब ने बुला लिया। सोफे पर हार्दिक बैठा हुआ था। एक दम से मासूम बच्चें की तरह जिसकी आंखों में रंगीन फिरकियों वाला मेला घूम रहा हो। पहली नजर में हार्दिक ऐसा ही लगा। जिस सोफे पर हार्दिक बैठा था उसके साथ में दरवाजे को पार कर एक शीशे की रैक में किताबें लगी थी जिसमें ज्यादातर किताबों का रिश्ता धर्म से जुड़ता था। धार्मिक किताबों की तादाद ज्यादा थी मैं नाम पढ़ने की कोशिश कर रहा था क्योंकि गुजराती डेढ महीने में थोड़ा थोड़ा सीख चुका था लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। खैर मैंने आश्वस्त किया कि मैं सिर्फ बातचीत करना चाहता हूं कोई इंटरव्यू नहीं। और बातचीत में मेरा एक ही सवाल था कि आप ईवीएम को क्यों दोष दे रहे हो। इस पर बिलकुल एक अंजान बच्चें की तरह कहा कि मेरा शक इसीलिए है कि जब इवीएम बंद हुई तो 950 वोट थे जब रिकाऊंटिग हुई तो 1100 वोट कैसे आएं। वराछा में हार का कोई मतलब नहीं था कैसे हारे और भी ऐसी ही बातें । मैं हैरान था कि मोदी जैसे नेता को पानी पिलाने वाले इस युवा की ऊंचाईंयों पर अभी बचपना था। और हार्दिक नहीं लोगों की इच्छाएं इस आंदोलन को चला रही थी मैंने अपनी समझ को समेटा और पूरब से कहा कि चलो चलते है। जीने से उतरते हुए देखा सीढ़ियों पर पत्थर टूटा हुआ है। पूरब ने कहा कि हां सर इस टूटी सीढ़ी से रात में कई बार दिक्कत हो जाती है और मैंने कहा कि नहीं इस सीढ़ी से किसी दिन कोई गिर जाएंगा क्योंकि इस पत्थर के नीचे कोई सपोर्ट नहीं दिख रही है, सिर्फ पत्थर अपने से हमेशा खड़ा नहीं रहता।
खैर अपनी समझ इतनी है कि इन तीनों में जिग्नेश का आंदोलन की लपट अभी और बढ़ेगी। उसको पैसा और लोग दोनों मिलेंगे और उसके पीछे सदिच्छाएं और दूसरी ताकतें भी होगी। लेकिन अगले चुनाव तक जिग्नेश किसी और के लिए नहीं कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती होगा। कांग्रेस के बड़े वोट बैंक अल्पसंख्यक और जिग्नेश का समुदाय आग उगलती उसकी तकरीरों के साथ खड़ा हो जाएंगा और कांग्रेस एक लेवल से आगे चाह कर भी नहीं बढ़ पाएंगी। जिग्नेश एक ऐसा चेहरा है जिसको अभी भारतीय राजनीति में कुछ जोड़ना है ( ये अच्छा या बुरा ये हर कोई अपने से अंदाजा लगाएं)। बाकि हार्दिक आंदोलनों की ऊर्जो को खो सकते है, क्योंकि अगले पांच साल तक उतनी ताकत बरकरार रखना आसान नहीं होगा ( अगर रख सके तो मैं कमाल मानूंगा) और अल्पेश कांग्रेस की राजनीति में बहुत से चेहरों में से एक चेहरा होगे। ( राजनीति में किस्मत बड़ी चीज है हो सकता है इससे आगे बढ़ा दे)
(फोटो मेरे पीछे पड़े हुए सौमित्रों की खोज है होटल छोड़ने वाली सुबह का)
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