Monday, March 26, 2018

Dhirendra Pundir 
ज़िंदगी की पाठशाला में नए सबक़ के लिये फिर पाठशाला में।
यात्रा फिर से साथ चल दी। एक बार से फिर सच मुझे बतायेगा कि मैं कितना कम जानता हूँ अपने ही देश को।

यात्रा आपको बदल भी सकती है।


यात्रा से एक बात समझ में आती है कि इस देश ने इतिहास से रिश्ता तोड़ लिया था। या तो इतिहास से मुक्त हो गया था कर दिया गया था। आत्महीनता की ग्रंथियों जूझता हुआ एक झूठे इतिहास के दम पर कागज की तलवार से लड़ने लगा। ये बात मध्य कालीन इतिहास के बीच में समझ में आती है कि क्यों इस तरह का अंधकार पैदा किया गया प्राचीन इतिहास और मध्ययुगीन भारत के बीच। लेकिन आजादी के बाद उसी मध्य युग को सच बना कर पूरे देश की स्मृति पर चेप दिया गया। और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया।
ये बात मुझे काफी हैरान कर रही है कि लेकिन एक कहानी भी बता रही है कि वेस्ट से हासिल ज्ञान से आधुनिक युग से रिश्ता जोड़ने वाले राजनेताओं ने प्राचीन भारत से अपनी जड़े काटने की कोशिश को प्रश्रय क्यों दिया इसका बड़ा कारण वेस्ट का पुराने इतिहास को मध्यकालीन इतिहास से तुलना करना था।
आजादी के बाद इसी इतिहास से टूटे रिश्तों की वजह से आजादी के दीवानों को दूध में गिरी मक्खी की तरह भूला दिया। आजादी के दीवानों और अपनी जान गंवाने वालों के घर वालों को भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा। ये भी इतिहास से टूटे रिश्तों की वजह से हुआ। ऐसे कई परिवारों की कहानियों से बावस्ता हुआ कि जिनकी जमीनों को नीलाम कर दिया गया और आज उनके परिवार वाले ठोंकरे खाकर उनके घरों के बाहर बैठ कर रोटी मांग रहे है जिनको अंग्रेजों के जूते चाटने के लिए पुरस्कृत किया गया। हजारों किलोमीटर की ये यात्रा मुझे बहुत सारी उलझनों में डाल रही है तो उनको सुलझाने के कुछ सूत्र खोजने के लिए भी मजबूर कर रही है। लग रहा है जैसा इस यात्रा को शुरू करते वक्त था अब जब यात्रा के आखिरी पड़ाव की ओर चल रहा हूं वैसा रह नहीं जाऊंगा।

तस्लीमा नसरीन औरंगाबाद नहीं रुक पाई।


जिहादियों की तलाश करने की ज़रूरत नहीं होती वो आस पास मौजूद होते है। कि बार सोचता हूं कि दिखावे की देशभक्ति से कड़वी हक़ीक़त बेहतर दवा होती है।
औरंगाबाद था मध्युगीन जिहादी बादशाहों की विनाश लीला वह हर तरफ बिखरी है। जिस चीज को लेकर आत्म चिंतन होना चाहिये वो गर्व है जिहादियों के लिये।
फेस बुक पर रोज़ अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिये रोने वालो को देखता हूं और यह भी उस पर कॉमेंट्स क्या क्या और करने वाले कौन कौन है। यह सवाल काफी बड़ा हो जाता है जब यह आज़ादी हत्यारों को शहीद बना कर इस देश को मरघट बनाने वालों के लिये रोटी है
तस्लीमा ने इस देश के मुसलमानों को अभिकुच कहा या लिखा नही लेकिन हैदराबाद से लेकर औरंगाबाद तक जिहाद जारी है।
हो सकता है मेरे विचार कुछ लोगो को अजीब लगे लेकिन यह हैरानी मुझे उनपर भी ऐसे ही होती है जब वो जंतर मंतर पर आईएसआईएस टाइप प्रवक्ताओं की तरह बोलते है।
खैर यह चलन अभी बढ़ेंगे।
No protest by Activists who are otherwise at forefront. No award Waapsi. CM Maharashtra. Police who cannot guarantee safety of individual ought to be given bangles. Home Minister of Maharashtra should be sacked.

चल खुसरो घर आपने सांझ भई परदेश।

 
खुद से खुद तक की यात्रा। पानी के समंदर से रेत के समंदर तक के इस सफर में बारिश से ऐसा रिश्त बना कि छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था फिर इस सुनहरी रेत पर आकर लगा कि यहाँ से बेहतर कोई और मोड़ हो ही सकता, इस सफर को छोड़ने के लिये। केरल से शुरू हुए सफर से अब विदा लेता हूँ।

घर आ गया तो सोच रहा हूं कि क्या क्या देखा और क्या क्या छूट गया।


65 दिन की यात्रा, बीस राज्यों के बीच से गुजरना, सैकड़ों शहर के लोगों के बीच होकर जाना, बारिश के इंसानी रिश्तों को देखने के बहाने देश को देखने की कोशिश ( मालूम नहीं कितना सफल हो पाया)
ये यात्रा बारिश के साथ की यात्रा थी। लेकिन ये यात्रा संगीत की यात्रा भी थी। इतने सालों तक अपराध, राजनीति, आतंकवाद की रिपोर्टिंग के बीच में ये कभी पता ही नहीं चला कि संगीत की यात्रा इंसान के जंगल से सभ्य होने की यात्रा है। इस यात्रा से दिखा कि प्रकृति से संघर्ष और इंसानी द्वंद से उपजे दर्द के बीच इंसानी यात्रा संगीत की यात्रा भी है। हजारों साल के इंसानी सफर में दर्द, मौत, यंत्रणाऐं तो दिखती है लेकिन संगीत और कला जिस तरह से उन दर्द के थपेड़ों में प्रेरणा बन कर उभरी होंगी वो आज भी आपको दिख सकता है बस थोड़ा सा उसके साथ वक्त गुजारना होता है। कथकली की यात्रा से लेकर जैसलमेर के रेत के टीलों पर माड राग गाते हुए मांगणयारों और लंघाओं के बीच कालबेलिया डांस करती हुई वो लोक कलाकार इतिहास की यात्रा के गवाह है।
केरल में 30 मई को मानसून के आगमन के साथ ही शूरू बारिश के साथ का सफर जैसलमेर की जिस सुनहरी रेत में खत्म हुआ वहां अब रेत भी रास्ता बदल रहा है। रेगिस्तान में ज्यादातर हिस्सों में फसल लहलहाने लगी है। ये उन किताबों के हर्फों से अलग है जिनको पढ़ कर आप देश को समझ रहे है।
देश में बने हुए हाईवे अब फिर से इस देश का आर्थिक भविष्य बदल रहे है। कालाहांडी के पास एक खूबसूरत और इतिहास से भरा हुआ असुरगढ़ जब अपनी संपन्नता की कहानी सुनाता है तो मिट्टी से बने हुए इस दुर्ग के दक्षिणापथ और उत्तरापथ के मिलन स्थल पर होने से गुजरते व्यापारिक कारवों से हासिल समृद्दि की कहानी दिखाई देती है तो फिर जैसलमेर की रेत पर गुजरने के दौरान रेत और सिर्फ रेत के बीच पानी के अभावों से जूझते हुए इंसान ने कला और संगीत के साथ साथ संपन्नता के कितने नखलिस्तान तैयार किये वो भी इस यात्रा से ही सीखा। और उन संघर्षों को जनसाहित्य में भी जगह मिली। लिखने को तो काफी लिखा जा सकता है और हर एक जगह पर लिखा जा सकता है लेकिन जैसलमेर में बातचीत में पता चला कि इस शहर तक पहुंचने की कठिनाईंयों को लोक कवि ने कैसे कहा है उसी से हालात का अंदाजा लगता है.
" घोड़ा कीजै काठ का, पिंड कीजै पाषाण,
बख्तर कीजै लोह का, तब देखों जैसाण"
खैर इस यात्रा में इतना देखा, सुना कि लिखना भी दुष्कर दिख रहा है
लेकिन इस यात्रा में यदि उन स्थानीय दोस्तों का जिक्र न करूं तो ये यात्रा के साथ भी धोखा होगा। मैं उन तमाम दोस्तों ने जिस तरह से स्थानीय परंपराओं से लेकर इतिहास की कहानी बताने और दुर्गम जगहों पर ले जाने का जो उत्साह दिखाया वो भी इस यात्रा का हिस्सा है। उन तमाम दोस्तों के साथ अपने स्मरण मैं जल्दी ही शेयर करूंगा। क्योंकि इसमें कुछ लाईंनों में उनकी सहायता को समेटा नहीं जा सकता।
यात्रा में विलक्षण लोग भी मिले जो बघाना जैसी जगह में एक गुफा में बैठकर उस दुर्गम जगह पर आने वाले यात्रियों को चाय और पानी पिलाते रहते है बिना किसी स्वार्थ के। ऐसे युवाओं को भी देखा जो महीने भर वहां सेवा करने के लिए अकेले रह रहे है। आस्थाओं के सहारे।
इसके अलावा मेरे साथ इस यात्रा को जैसे मैंने देखा उसको वैसे ही खूबसूरत तरीके से दर्शकों तक पहुंचाने में सत्या रंजन राऊत्रे की भूमिका मेरे से ज्यादा थी। मैं तो बस उन अजनबी चीजों को अचंभें से देखता रहता था और सत्या अपने कैमरे से उनको खूबसूरती से कैद कर दर्शकों तक पहुंचाता रहता था।
और यात्रा में जिस तरह से 18500 किलोमीटर की दूरी बिना किसी बाधा के और इस दौरान तय हुई उसमें ड्राईवर अब्दुल हक का सबसे बड़ा योगदान था। अपने बालों को लेकर बेहद संवेदनशील अब्दुल हक ने जैसे थकना सीखा ही नहीं। नईं चीजों को देखकर उसका उत्साह मुझे भी हिम्मत देता था। दिन भर शूट करना और फिर रात को 500 से 700 किलोमीटर का सफर तय कर अगले शहर के लिए निकलना इस मशक्कत में कभी अब्दुल की हिम्मत नहीं टूटी।
खैर अभी अभी घर पहुंचा तो सोच रहा था कि इस यात्रा को कैसे शब्दों से कैसे पूरा किया जा सकता है। जो कैमरे से देखा उससे ज्यादा वो है जो मेरी आंखों ने देखा। ( ये फोटो उन हजारों यादों में से एक छोटा सा हिस्सा भर है)

कभी कभी मुड़ कर देख देना दीवानों, हमने किस लिए चूमे फंदें और सीने पर खाईं गोलियां। राजपरिवारों को चुनने वाली जनता। (आजादी के दीवाने ---1)

देश भर की यात्रा से लौटा तो अगस्त महीना सामने आ खड़ा हुआ। अगस्त में धर्म के त्यौहार तो कई होते है लेकिन अगस्त का त्यौहार तो देश का त्यौहार होता है। ऐसे में देश भर में घूमते हुए राजाओं की कहानी देखी कई राजाओं ने बदलाव के रास्ते को चुना लेकिन ज्यादातर राजाओं को देखा, जो अंग्रेजों के टुकड़ों पर पले पूर्वजों से हासिल महलों और किलों को अपने कब्जें में रखकर उनको होटलों में बदल कर पैसे कमाने मेें लगे हुए है और बहुत से चुनाव जीत कर जनता की नुमाईंदगी कर रहे है उसी जनता की जिसकी आजादी की पहली जंग में ये लोग अंग्रेजों के पालतू कुत्तों की तरह जनता पर ही झपट रहे थे। 
ऐसे में लगा कि इतिहास के इस पहलू को भी देखा जाना चाहिए। ऐसे में कुछ लोकगीतों और युद्द के वक्त के गवाहों की नजर से इस को देखने की कोशिश करता हूं और कुछ आपके साथ शेयर करता हूं। आपको भी लगे तो आप भी शेयर कर सकते है।
"प्राचीन वंशक्रम और महान युद्ध परंपराओं का दावा करने वाले राजस्थानी राजाओं ने राष्ट्रीय विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेंजों को अपनी सेनाओं का उपभोग करने दिया। इस तरह से उन्होंने अपनी और शेष भारत की जनता की इस आशा को झुठला दिया कि वो अंग्रेज विरोधी धर्म युद्द में शामिल होंगे। अगर राजपूताना ने विद्रोह किया होता तो आगरा कैसे बचा रह पाताऔर दिल्ली में हमारी फौंजें कैसे रह सकती थी।" (मेलसन)
"मध्य भारत में ग्वालियर का स्थान महत्वपूर्ण था। सिंधिया पर जनता का बहुत दबाव था, किंतु उसने इसे झेल लिया।
....अगर उसने (सिंधिया ने) उनका (अपने विद्रोह उत्सुक सैनिकों का ) नेतृत्व किया होता और उसके भरोसेमंद मराठों की तरह युद्ध के मोर्चों पर पहुंचा होता तो परिणाम हमारे लिये बहुत विनाशक होते। वह हमारे कमजोर मोर्चों पर कम से कम बीस हजार टुकड़ियां लेकर आया होता। आगरा और लखनऊ का उसी समय पतन हो गया होता। हेवलॉक को इलाहाबाद में बंद कर दिया गया होता और या तो उसे घरे लिया गया होता या उसके सहारे विद्रोहियों ने बनारस से कलकत्ता तक मार्च किया होता। उन्हें रोकने के लिए न तो कोई सैन्यदल होता और न कोई किलेबंदी।" (रेड पैंफ्लेट का अनाम लेखक)
"सिंधिया की वफादारी ने भारत को अँग्रेजों के लिए बचा लिया।" (इन्स)
पटियाला और जींद के सिख राजाओं और करनाल के नवाब ने अपने सारे संसाधन अंग्रेजों को उपलब्ध करा दिए और सेना में भरती द्वारा अंग्रेजों के प्रमुख आधार स्थल अंबाला से दिल्ली तक सड़क खुली रखने का जिम्मा लिया, जिससे विद्रोहियों को राजधानी में घेर हुए अंग्रेजों तक कुमुक पहुंच सकी।
समाचार -पत्रों की किपोर्ट पढ़ने के बाद अपनी घटनावार टिप्पणियों में मार्क्स ने लिखा ;
"अंग्रेजी कुत्तों का वफादार सिॆंधिया वैसे ही उसके सैन्य दल, पटियाला का राजा, अँग्रेजों की मदद के लिए सैनिकों की कमान भेज रहा है। शर्म हैं"
विद्रोहरत उत्तर और भारत में अंग्रेजों के पहले ठिकाने मुंबई को जोड़ने वाला क्षेत्र था राजपूताना। सिर्फ राजपूताना ही नहीं , बल्कि सारे देश के लोगों को आशा थी किि राजपूत राजा अंग्रेजों को समुद्र पार खदेड़ने में मदद करेंगे, किंतु ये सामंती राजा अंग्रेजी सत्ता से चिपरके रहे और अपना राष्ट्रीय कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएं। बुंदी के प्रसिद्द दरबारी कवि सूरजमल ने राजपूताना राजाओं को राष्ट्रीय विद्रोह में शामिल करवाने की पुरजोर कोशिश की, पर वह असफल रहा था उसने अपने तीव्र मोह भंग और रोष को सशक्त कविता में उतारा है। कुछ दोहे आप पढ़ सकते है।
" सुअर उजाड़ रहे हरियाली
हाथी बिगाड़ रहे तालाब
शेर डूबा शेरनी के प्यार में
भूला अपना दांव
अपने को कहोगे कैसे सिंह तुम ठाकुर
तुमने परदेसियों से दया की भीख मांगी
जो अपने पंजों से हाथी को गिरा दे
वही है काबिल इस नाम का , न कि बुजदिल
अपने पुरखों के गुण भूल
विदेशियों की तुम करते चापलूसी
और आलस-विलास में करते
अपने कीमती दिन बरबाद
सारे वैभव से टूटे फूटे झोंपड़ों
की कच्ची दीवारों के तिनके तक
छि ; छि; ऊंचें उऊंचे राजमहलों
के राज करने वालों पर
महलों के लुटेरों के लिए
झोंपड़ियां तो बस अभिशाप हैं
झोंपड़ियों को लूटने चलेंगे तो
बस मौत ही दे पाएंगे।
जब सामंत कवि ही विद्रोह से इस तरह से प्रभावित हो तो लोक कवि तो और भी बेफिक्र हो कर लिख रहे थे। जोधपुर में सिंहासनारूढ़ महाराजा के बाद दूसरे सबसे प्रभावित व्यक्ति अउवा के ठाकुर ने अपने स्वामी-महाराज- और अपने अधिराज के अधिराज-अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उसने आसपास के कृषकों और कुछ देशभक्त सामंती मुखियाओं को एकत्रित ककर जोधपुर की शाही सेना को हरा दिया। अंग्रेजों के राजनीतिक एजेंट मांक मासन को युद्ध में मार दिया। और राजपूताना में गवर्नर जनरल के अंग्रेज एजेंटों को महीनों तक चुनौती दी। अउवा के उस संघर्ष को लोकगीतों में अर्से तक गाया गया। होली पर गाएँ जाने वाला एक लोकगीत आप पढ़ सकते है।
अरे, हमारे काले लोगों ने
बनियों की हरी-भरी जमीन पर
गाड़ दिये है अपने झंडे
हमारा राजा तो दे रहा है अंग्रेजों का साथ
उसने लाद दिया हम पर युद्ध
गोरे फिरंगियों के सिर पर काली टोपी
काली टोपी वाले गोरे
हकाल रहे हैं हमें
विदेशियों की बंदूकों की गोली
कर रही है मिट्टी को ही घायल
और हमारी बंदूकें
उड़ा रही है उनके शिविर
यह तुम्हारा प्रताप है अउआ
हे प्रतापी अउवा -
इस धऱती को धारण करने वाले
तुम्ही हो , अउवा
जब गरजती हैं हमारी बंदूकें
दहल जाता है अरावली पहाड़
अउवा का मालिक करे प्रार्थना
देवी सुगाली से
और लो, लड़ाई शुरू...
अउवा है भूमि लड़ाकू लाड़लों की
हो लड़ाई शुरू
अरे राजा की घुड़सवार सेना
कर रही पीछा अपने ही काले देशवासियों का
अगर अउवा के घोड़े उन्हें
मार रहे दुलत्ती पीछे
लड़ाई चलने दो
युद्द करते रहो
विजय होगी तुम्हारी ही
अरे लड़ाई चलने दो
युद्ध करते रहो।
....... पार्ट --1

लोकतंत्र की सड़क और अगस्त का महीना। ऐसे ही एक सड़क के साथ।


सड़क बहुत लंबी नहीं है। इस तरफ के गोल चक्कर से लेकर दूसरे गोल चक्कर के बीच लगभग एक किलोमीटर का फासला हो सकता है। चौड़ी सड़क के दोनो और घने और पुराने पेड़ लगे है। ज्यादार पेड़ अपनी उम्र की गवाही देते है। कभी इस सड़क के दोनो और की ईमारते राजाओं के दिल्ली प्रवास के वक्त के लिए उनकी रियासत की जनता का खून पसीना छीन कर बनवाई हुई थी।विलासिता के तमाम साधन दुनिया भर से इकट्ठा किए गये। अय्याशियों की मिसाल मिलना मुश्किल है। हिंदुस्तान के सदियों के सफर में इस देश के पास अभिमान करने के लिए अत्याचारी राजाओं और धर्मांध बादशाहों के बनवाएं हुए महल और उन महलों की नींव में दबी हुई है उनके अत्याचारों और ऐय्याशियों की कहानियां। लेकिन सदियों के बाद भी और लंबी गुलामी के बाद भी जनता इन महलों से कभी नफरत करना नहीं सीख पाई। हमेशा अपने राजा की तारीफ में कशीदें पढ़ने से अपने आप को ऊंचा महसूस करते हुए लोग आजादी के नायकों और खलनायकों में भेद करना ही भूल चुके है। आजादी हासिल करने के दशकों बाद भी लोगो को मयस्यर हुई है तो लोकतंत्र को कोसने की ताकत। उसी लोकतंत्र को जिससे उन्हें ये बात कहने का अधिकार मिला। अक्सर इन ईमारतों में बैठे हुए लोगो से बात करने पर या फिर दूर दराज गांव में बैठे हुए आदमी से बात करने पर एक बात उलझन में डा देती है कि कैसे सत्ता का उपभोग कर रहे लोगों ने हजारों किलोमीटर दूर बैठे इस इंसान के दिमाग में भी ये बात बो दी है कि आज के माहौल से तो गुलामी का शासन यानि अंग्रेजों का शासन ही बेहतर था। लाखों लाख लोग इस बात को अपना मुहावरा बनाएं हुए बैठे है कि कैसे अंग्रेजों के राज में इंसाफ मिल जाता था। हालांकि इंसाफ के क्या मायने है ये पूछोंगें तो घाघ नौकरशाह इस बार हंसने लगते है और गांव वाले की समझ में कुछ आता नहीं। सड़क के दोनो और की ईमारतों का नाम उनकी पुरानी रियासत के नाम है। पूरी सड़क ही ऐसे नाम पर है जिसका इतिहास अपनी कौम और देश से गद्दारी के लिए कहावतों में शुमार किया जाता है। मानसिंह को लेकर देश के इतिहासकारों की राय क्या है इससे उलट लोक कथाओं में ये शख्स एक ऐसे गद्दार के तौर पर याद किया जाता है जिसने मुगल बादशाह अकबर की गुलामी करने में कौम की सारी मर्यादाओ को धता बता दी थी।

नौकरशाहों के सामने नाचते योगी

योगी की औकात नौकरशाह नाप कर रोज दिखा रहे है। पहले सड़कों का झूठ फिर कानून व्यवस्था और अब अस्पताल में मौत का नंगा नाच। लखनऊ में हुए हादसे में वाईसचांसलर से ही रिपोर्ट बनवा दी। ऐसे में पहले दिन के कुछ भाषणों से ही मालूम हो गया था कि जनता को एक भाषवबाज मिल गया है। जनता ने लाईंनों में लगकर देश के खिलाफ दिख रही राजनीति को मात देने की कोशिश की लेकिन जिस नायक को गोदी में चढ़ाया वो नौकरशाहों की महफिले में नाचता सा दिख रहा है। गाजियाबाद जैसे शहर में वही चोर अफसरों की तैनाती उन्हीं मलाईदार पोस्टिंग्स पर देखकर लग रहा था कि बौंनों को कितनी भी ऊंचाई पर बैठा दो बौंना ही रहेगा। ( बात किरदार की है किसी भी इंसान के कद को लेकर तंज नहीं है गोरखपुर में मारे गए बदनसीब बच्चों की स्मृतियां उनके परिवार के लोगों को कभी चैन से सोने नहीं देगी। हो सकता है मोदी और योगी के विरोधी धार्मिक आधार पर इस मौके को भुनाने लगे। ऐसे लोगोंकी जमात और इस जमात से चिढ़ कर मोदी या योगी के हर काम को सही कहने वालों की अंताक्षरी इस वक्त सोशल मीडिया पर शुरू हो गई होगी। इसमें किसी को जाने की जरूरत नहीं है। लेकिन एक के बाद एक ऐसे फैसले दिख रहे है जिसमें लग रहा है कि नौकरशाहों से रूह कांप रही है योगी की। जिस तरह का भाषण चलता है उस तरह का चाबुक नहीं। चोर और देश के गद्दार नौकरशाहों को नौकरी से बाहर करने में कौन रोकता है। इस तरह का प्रचंड बहुतम मिला है जकि बदलाव के तुष्टिकरण और लूट को राजनीति का औजार बनाने वालों की जरूरत ही नहीं है। लेकिन जब भी देखों फलां ने ऐसा कर दिया था फ्लां ने वैसा कर दिया था तब आप बताओं कि तुमको क्या तिलक लगाने के लिये चुना है भाई। दरअसल विकास् एक ऐसा शब्द मिल गया है इस सरकार और और दूसरी सरकारों को कि हर भाषण में हर दूसरा शब्द विकास ही होता है। अरे भाई तुम जैसे अनपढ़ों को विकास के लिए नहीं चुना है गुंडई और बौने से कबीलाई जातिवादि नेताओं के हमप्याला और हम निवाला बन चुके नौकरशाहों को सबक सिखाने के लिए चुना था। लेकिन लगता है इस बार भी जनतंत्र ने जिस को जन्मा है वो भी पहले से जन्में कपूतों की श्रृंखला में एक नया नाम दिख रहा है।

नौकरशाह मौत बांट रहे है धड़ल्ले से, बीजेपी वाले पारस पत्थर से शुद्ध कर रहे है गैर भाजपाईयों को। ये जनता के सपनों की हार है।


लखनऊ के शपथ ग्रहण के समय लाईव पर बैठ कर देख रहा था कि प्रदेश भर में बदलाव के लिए वोट करने वाले लाखों-करोड़ों मतदाता एक राहत की सांस ले रहे थे। लग रहा था कि लूट और जातिवाद का एक अंखड़ साम्राज्य ढह गया है। जिस तरह से जाति को एक खास धर्म के अंदर घृणा को जिंदगी बनाएं हुए कट्टरपंथियों के साथ मिलाकर एक मारक औजार में तब्दील किया है उस लुटेरे तंत्र में बदलाव का सपना पूरा हुआ। मेरे साथ लाईव में बैठा कांग्रेसी अल्पसंख्यक प्रवक्ता हलकान हुआ जा रहा था उसको लग रहा था कि भगवा रंग इस देश के लिए हत्यारों का रंग है। मैं सिर्फ हंस रहा था और सोच रहा था कि ये जनता कई बार किस तरह से फैसला देती है।
भुक्खल नवाब जैसे लोगों पर कार्रवाई ही बात हो रही थी। यशवंत सिंह या फिर और भी सिंह जो गुंडई और लूट का दाग बनकर समाजवादी कुनबे की छाती पर मैडल की तरह चमक रहे थे के खिलाफ लोगों को उम्मीद हो गई थी कि कुछ कार्रवाही होगी।
खैर उम्मीद से लंबा भाषण सुना, उसके जार्गन सुने और दिमाग ने काम करना बंद कर दिया और इशारा किया की सही चेला मिला है गुरू को। गुरू दो हाथ तो ये दस हाथ। भाषण ही भाषण वही विकास की कहानियाां। लग रहा था कि ट्रंप को कटोरा दे देंगे इतना विकास करेंगे। उधर आम जनता कैराना की गुंडई, मुजफ्फरनगर में हत्यारो को संरक्षण और दादरी जैसी कहानियां न हो उनको रोकने की उम्मीद कर रही थी।
ये भी सही है कि घृणा में डूबे मोदी विरोधी और बीजेपी विरोधी इस सरकार को शुरू से ही जाने किस किस के खिलाफ साबित करने में जुटे थे। लेकिन जनता ने अपना एजेंडा तय करके इन लोगों को वोट दिया था। और उम्मीद की थी कि नौकरशाहों ने जिस तरह टके के जातिवादी नेताओं को नोटों की चाशनी मे डुबों कर जनता की उम्मीदों को खत्म करने का एक तिलिस्म रचा है वो शायद टूट जाएंगा। लेकिन जिस तरह से योगी ने बताना शुरू किया कि नौकरशाह काम करेंगे, हम फलां करेंगे और चिला करेंगे। दो दो उपमुख्यमंत्री और दूसरे मंत्रियों की शक्ल देखकर तो नहीं लग रहा था कि कोई बडडा काम हो रहा है। लेकिन उम्मीद होती है कि मरते मरते भी आंखों में बसी रहती है।
पहली बार यूपी में सड़कों पर यात्रा की तो मिर्जापुर से लेकर रीवातक जो नरक झेला लगा कि ये झूठों और बौंनों को मिलाकर नौकरशाहों की कठपुतली सरकार आ बैठी है सत्ता में। क्योंकि महान योगी जी ने बताया था कि 100 दिन में गड्ढे भर गए है। मैंने सोचा कि कितना बौना मुख्यमंत्री है कि उसको आसानी से झूठ बोल गए अफसर। आपको तीन सौ सीट मिली है नौकरियां बचाने के लिए नासूर बन चुके इन नौकशाहों की नौकरियां छीन कर इन को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए।
लेकिन एक आंख में मक्खी दिखी तो लखनऊ अस्पताल में हादसा। सात लोगों की जिंदगी ऐसे लील ली गई जैसे पानी के गिलास का पानी रेत में बिखेर दिया गया हो। और जिस आदमी को जेल भेजना चाहिए था वो प्रिंसीपल बता रहा है कि किसी की गलती नहीं थी। तब भाई अस्पतला खोल क्यों रखा है जिसको भगवान को ले जाना होगा ले जाएंगे और जिसको छोड़ना होगा वो ट्रक के नीचे आएँ या फिर गोलियां खाएं बच ही जाएंगा। भूख के लिए बदन बेचती बेचारी औरतों के बदन से नुचे हुए पैसे से भी टैक्स हासिल कर अपने बच्चों की ऐय्याशियों के लिए टैक्स ले रहे हो उसी से नौकरी चल रही है। लेकिन ये बेवकूफों और बदतमीजों की सरकार तो जैसे जाग नहीं रही है।
खून तो पानी है नहीं तो इतनी सरकारों को कैसे बर्दाश्त करती है जनता। लेकिन बदवाल के लिए जिस लोकतंत्र के अल्टीमेट हथियार को इस्तेमाल करती है वही भोथरा साबित कर देते है ये बौंने।
लगता है कि नौकरशाहों ने इस देश के लोकतंत्र को ग्रस लिया है। कोई उम्मीद नहीं आती है।
एक और इन बौंने नेताओं को लग रहा है कि जनता इनकी बातों पर यकीन कर के इन को वोट दे रही है या फिर ये इतने महान नेता है कि इनका आभा मंडल लोगों को मजबूर कर रहा तो मूर्ख है ये । जनता इस वक्त बदलाव करने के मूड़ में है। जिस तरह के राजनेताओं को एक के बाद एक करके चुना वो भांड से लुटेरों में तब्दील हुए। जातियां गुंडों के कबीलों में बदली और इन सब एक परमेश्वर के तौर पर नौकरशाह विराजमान हुआ।
मैं हामिद अंसारी टाईप आदमियों की किसी टिप्पणी से बहुत परेशान महसूस नहीं करता हूं क्योंकि ज्यादातर लोगों से मिल चुका हूं, देश में इस तरह की प्रक्रिया चलती रहती है। बहुत से लोगों को देश, झंडा और मिट्टी इन सब चीजों के लिए कही से लिखा हुआ चाहिए।
लेकिन नौकरशाहों से निबटना इस देश की सबसे प्रमुख समस्या है। उससे निबटने में अभी तक जनता के वोटों से महाबली बने बौंने सोच भी नहीं पाते है। किसी तरह से जूते साफ करते हुए टिकट हासिल करते है। नंबर दो के पैसे से इलेक्शन में प्रचार करते है रात को जाकर जाति ने सामने मत्था टेकते है और जब जीत कर आते है तो नौकरशाहों के सामने नंगे नाचने लगते है। नौकरशाह जानता है कि अगर कोई मुख्यमंत्री या मंत्री कड़क हो कर मीडिया में बोल भी दिया तो ये उसके नाटक का हिस्सा होता है।
लखनऊ बीजेपी के दफ्तर में बैठे हुए उन बौंनों को देखकर किसी को भी घिन आ सकती है क्योंकि वो सिर्फ अंहकार की उल्टियां कर रहे है। उनको इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि उनको वोट क्यों मिला, जनता ने इतना बड़ा वोट दिया किस लिए दिया। उनके सामने मोदी का मंत्र है उनको लगता है कि जनता नहीं मोदी पारस पत्थर है और अब तो पारस पत्थर का जेबी संस्करण योगी भी हासिल हो गया है इसलिए जिसे चोर चोर कहकर शोर मचाया था वो भी इस पारस पत्थऱ के छिड़के हुए गंगाजल को पी कर शुद्ध सफा हो सकता है। ऐसा साफ कि सत्ता कि पंगत में बैठकर फिर से जनता के खून के गिलास पी सकता है। मुझे सरकार के बनने के एक हफ्ते बाद ही इलाकों में घूमने के बाद लगा था कि अगर कोई बदलाव सड़क पर नहीं है तो फिर वो कही नहीं है। फाईलों को रंगनेवाले अफसरों में डर की कोई बात नहीं है तो फिर किसी गुंडे को डरने की बात नहीं है।
मुझे प्रदेश भर के सबसे बड़े लुटेरे नौकरशाह के बारे में पता चला कि जब उसने फाईलों को देते हुए हंसते हुए कहा कि हमने बहुत से देखे है ये भी देख लेंगे। इनको भी जल्दी ही हमारी याद आ जाएंगी। लेकिन मुझे लगता है कि उस भ्ऱ्ष्ट नौकरशाह ने भी अंदाजा नहीं लगाया होगा कि इतनी जल्दी से उसकी याद और जरूरत इस सरकार को पड़ जाएंगी।
दुख और गुस्सा अब सिर्फ थूका हुआ बलगम है जो सड़ कर बीमारियां फैला रहा है। .ये समाज बीमार होता जा रहा है। बदलाव के लिए जो भी गोलियां दी जा रही है वो एक्सपाईरी पार कर चुकी है।
कहते है कि गोरखपुर में पत्ता भी योगी के आदमियों की मर्जी से हिलता है ऐसे में ये मौत के पर्दे हिले है तो किसी ने इनकी डोरो को हिलाया होगा। कोई तो होगा जो ठेकेदारी के इस धंधें के मठ से जुड़ा होगा। कोई तो होग जिसने इस अस्पताल के हेड को चुना होगा । डीएम और एसएसपी से लेकर डीआईजी और कमिश्नर सब योगी जी विशाल आईने से गुजर कर आएं होगे। ऐसे में ये कत्ल किसकी वर्दी पर दिखते है लोगों को समझ लेना चाहिएय़

जिन को लग रहा था कि कुछ बदलेगा उनको अपने आसपास देखना चाहिए कि क्या क्या बदला है। उत्तर प्रदेश का अभूतपूर्व जनादेश बदलाव के लिए था न कि चेहरे और मंत्री बदलने के लिए।

 
तीस बच्चों की आसामयिक मौत एक कत्ल से अलग कुछ नहीं है। सरकारी कातिलों ने मासूमों और असहाय लोगों के जिगर के टुकड़ों को छीन कर मौत के सामने फेंक दिया। इस बात के लिए किसी को दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि मरने वालों के परिवार वालों का आर्थिक स्तर क्या होगा। अगर कोई मूर्ख पैदा भी हुआ होगा तो वो जानता है कि गरीब लोगों के अलावा कोई सरकारी अस्पतालों का रूख नहीं करता है। रात दिन ऐसे लोग मरते रहते है। ये सिर्फ वोट होते है या फिर आधार कार्ड का नंबर। इसके अलावा ये सिर्फ सरकारी फाईलों के नंबर होते है। क्योंकि इस देश में पिछले 10-15 सालों से नागरिक सिर्फ नौकरशाह और नेता रह गए है। बाकि दलाल भी समयानुसार कभी कभी इनमें घटते और जुडते रहते है। पत्रकारिता के दलाल बौंने भी शामिल है जो ये तय करते रहते है कि कैसे इस देश में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है या फिर मानवाधिकारों की रक्षा हो रही है।
दरअसल ये राजनेताओं के लगातार बौंने होते जाने की और नौकरशाहों के लगातार ताकतवर होने की कहानी भर है। इतने भारी भरकम बहुमत से सत्ता में पहुंचने वाले नेता को भी लगता है कि नौकरशाहों को अपने साथ रखना जरूरी है। ये कैंसर की विषवेल को साथ रखने वाली कहानी है. अगर समाजवादी सरकार में लूट हुई थी तो कौन लोग थे जिन्होंने लूट की। वो लोग कहां है। वो गुंडे मवाली बदमाश कहां है। वो आफिसर कहां जिन्होंने झूठी रिपोर्टोे को फाईलोे में लगाया। वो कहां जिन्होंने समाजवादी पार्टी के इशारों पर मुजफ्फरनगर के दंगों को भड़काने में अहम भूमिका निबाही वो अफसर कहां जिन्होंने भ्रष्ट्राचारी की फाईलों पर साईन किए। वो भर्ती बोर्डों में रहने वाले नौकरशाह कहां । वो कहां जिन्होंने कई सौ कई सौ करोड़ की जमीनों को औने-पौने दाम पर बेच दिया। इतने सारे सवालों के जवाब सिर्फ एक ही में शामिल हो जाएंगा कि वो सब अपने पदों पर है। ट्रांसफर पोस्टिग्स का खेल खेलना सिर्फ पैसे की कवायद है । नौकरशाह बस जाकर पैर दबाता है और आकर जनता का गला दबाता है। उसको बहुत कुछ नहीं करना है लूट का कुछ हिस्सा नेता से विधायक मंत्री बने लोगो को देना है। और बदले में नौकरशाह अपने टुकड़ेखोर पत्रकारों के जरिए जनता में नेताओं को बौने साबित करने का पुनीत कार्य करता है।
मैं आजतक नहीं समझ पाया कि अगर एक चपरासी की भऱती के लिए हजारों लाखों फॉर्म आते है तो फिर इन भ्रष्ट लोगों को हटाने में अदालतों में जाने या फिर विधानसभाओं से कानून पास कराने में क्या दिक्कत आती है। अगर इतने बेरोजगारों की टीम सड़कों पर है तो फिर चोर-दलालों से काम चलाने की जरूरत क्या है। अक्सर इसकी कहानियां सुना दी जाती है कि अदालत है कानून है तो फिर अपनी सेलरी बढ़ाने के लिए जिस तरह एक मत होकर प्रस्ताव किए जाते है उसतरह की विधानसभा की ताकत उसी वक्त आती है क्या।
इस सरकार के कुछ दिनों बाद ही अहसास होना शुरू हो गया था कि ये तो ऐसी सरकार बन गई जो नौकरशाहों को बराबर में बैठाने से ज्यादा उनकी चाटुकारिता कर रही है। नौकरशाहों को शायद पहली बार इस तरह की सरकार दिख रही होगी जो लूट में हिस्सा मांगने से भी बढ़कर उनकी ही चाटुकारिता करने में लगी हुई है। कुछ लोग तो दिल्ली से भी गए है सरकार में शामिल होने तो वो जानते है कि अफसरान कितने काम की चीज होते है। कितने तालों की चाबी होते है।

सिद्धार्थनाथ सिंह नाना से भी नहीं सीखें कि अगस्त का महीना बच्चों की मौत का नहीं इस देश की आजादी का होता है। मौत का नाम तुमने दिया। वो अस्पताल में आएँ थे सांस रोकने की प्रैक्टिस करने किसी बाबा के आश्रम नहीं।


इस देश में अगस्त के महीने से पहले ही पूरे देश में तैयारी शुरू हो जाती है क्योंकि इसी महीने में देश का सबसे बड़े त्यौहार यानि स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को आता है। कई त्यौहार भी आते है। लेकिन लोगों को सिर्फ 15 अगस्त का इंतजार रहता है। लेकिन पहली बार देश को उसके प्यारे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी के दोहते ने बताया कि अगस्त का महीना बच्चों की मौत का महीना होता है। ये बात नईं पता चली है। बेशर्म सरकार के दो मंत्रियों को बैठे हुए देख रहा था और सोच रहा था कि परिवारवाद के विरोध पर रात दिन गाल बजाने वाली पार्टी के दो नेता नेताओं के परिवार के ही कुल दीपक है। सिद्धार्थनाथ सिंह के साथ जुगलबंदी में थे लालची ( माफ करना मुंह से निकल जाता है क्योंकि लखनऊ में कई बार लखनऊ के लोगों के मुंह से भी निकल जाता था) नहीं नहीं लालजी टंडन के बेटे आशुतोष टंडन। हैरानी की बात है कि दोनो सफाई ऐसे दे रहे थे कि जैसे बच्चों ने इस महीने में मरने की विशेष तैयारी की हुई थी। और वो इसलिए भी मरना चाहते थे कि ये अगस्त है और इस महीने में बच्चे मरते है।
काशी में मरना सुने थे सिद्धार्थनाथ सिंह ये अगस्त में मरने का गणित कहां से निकाला है।
मैं सोच रहा था कि दो घंटे ऑक्सीजन नहीं थी ये बात इतने प्यार और सम्मान और मुस्कुराहट से साथ बता रहे थे सिद्धार्थनाथ सिंह की लगता था जैसे कोई प्रेम कहानी बता रहे हो। बेशर्मी की चमक के साथ चमकते हुए सिद्धार्थनाश सिंह से किसी बौंने ने ये सवाल ही नहीं किया कि महान नजूमी क्या ये बता सकते हो कितनी देर तक एक बच्चा बिना ऑक्सीजन के जिंदा रह सकता है। और अगर ये बात वो खुद अपनी नाक मुंह बंद कर के वहां दिखा देते तो शायद देश को पता भी चलता।
बहुत दिन पहले रूचिका गिरोत्रा केस में कानून की हंसी उड़ाती हुई अभियुक्त और पूर्व डीजीपी राठौड़ की विषैली हंसी ने डरा दिया था और आज जिस तरह से हंसी के साथ वो प्रेस कांफ्रैंस की जा रही थी वो भी किसी भी विलेन की स्वाभाविक एक्टिंग को पानी पिला सकती थी। बता रहे थे कि मैन्युअली ऑक्सीजन कुछ देर तक दी गई अरे भाई कितनी देर। कौन दे रहा था डॉक्टर दे रहे थे या फिर पार्टी के कार्यकर्ता।
ये उन पार्टी के कार्यकर्ताओं के मुंह पर ये नेता आज तमाचा मार रहे थे जिन्होंने रात दिन मेहनत कर इस पार्टी को सत्ता में लाने के ख्वाब को पूरा किया था। लिखने को तो आज कितना भी दर्द लिखा जा सकता है लेकिन लगता है कि आज की रात सिर्फ उन बच्चों को याद करने की रात है जिनके परिवार वाले पानी बिन मछली की तरह से अपनों की याद में तड़प रहे होंगे। और ये तड़पन और बढ़ती जा रही होगी जब फाईंलों में गुलाबी लिखने वाले नौकरशाह आंकड़े पर आंकड़े पेल रहे है जनता के बीच।
बाबा योगी राज आप आंकड़े तो दे रहे हो लेकिन उस जिलाधिकारी का क्या कर रहे जिसके दफ्तर तक ये बात बताई जा चुकी थी। उस अधिकारी का क्या कर रहे हो जिसको इसकी खबर थी। क्या ये लोग सिर्फ लापरवाही के अधिकारी है या फिर आप की आंख में रतौंधी इतनी ज्यादा चढ़ गई है कि जनता का गुस्सा समझ में नहीं आ रहा है।

एक और "जय जवान जय किसान", दूसरी ओर "अगस्त मौत का महीना"। डीएम साहब सिर्फ जनता की कमाई पर राज करने के लिए है क्या।

अभी तक हम लोग फ्रैंच क्रांत्रि का वो आधार वाक्य ही पढ़ते थे कि "रोटी नहीं है तो क्या हुआ केक खाओं।" लेकिन इस तरह की प्रतिभाएं सिर्फ फ्रांस में हुई हो ऐसा नहीं है इसका बेहतरीन मुजाहिरा किया है सिद्धार्थनाथ सिंह ने।बीजेपी के चश्मों-चिराग सिद्धार्थनाश सिंह ने एक और मुहावरा किताबों में लिखवा दिया है। बच्चों की मौत पर दुख मनाने वालों परेशान मत हो क्योंकि आपके बच्चों की मौत अगस्त नाम के महीने ने ली है। उसको कोई इनसिफैलाईटिस, जापानी बुखार फिर और कोई बीमारी नहीं हुई थी। अगस्त का महीना शुरू हो चुका था इसीलिए बच्चों को मरना था मर गए। इसमें सरकार का क्या दोष है। इस खोज के लिए यूपी के मुख्यमंत्री को ईनाम भी देना चाहिए सिद्धार्थनाथ सिंह को और हो सके तो इसके लिए चिकित्साक्षेत्र में खोज के लिए नोबेल के लिए भी रिकमंड करना चाहिए। 
योगी जी को शायद वो तमाम धर्म की बातें भूल गई है या फिर नौकरशाही ने भुलवा दी है। जिनमें कहा जाता था कि राज लोकलाज से चलता है वो आँकडों से चलाने लगे।
हो सकता है कि आपके पास जो आंकड़े हो वो कुछ कहानी कह रहे हो लेकिन क्या आपको राजधर्म मालूम नहीं है। क्या जिस भगवान राम की कहानी सुनाते है उसका धर्म मालूम नहीं है। किस लिए इतना महान त्याग किया गया। लोक समाज की धारणा क्या है ये भी याद नहीं रही। योगी हो इनको कैसे भूल सकते हो। चाणक्य भले ही याद न हो लेकिन राम तो याद रहने चाहिए।
जनता के दिल से तभी उतर गए जिस दिन कड़ी कार्रवाई के नाम पर हर मुद्दे पर जांच होने लगी अब तो नजरों से भी उतर रहे है ये तमाम लोग।
इस पूरे मुद्दे पर कई दिन देखने के बाद भी जिस बात का अफसोस होता है कि डीएम साहब को किस दिल में छिपाकर रखा है। डीएम साहब किस मर्ज की दवा है वो भी गोरखपुर के। चिट्ठी पर लिखे हुए हर्फ हर किसी की पोल खोल रहे है। आप जो चाहे बहाना बना लो लेकिन इस बात से कोई इंकार कर पाएंगा कि डीएम ऑफिस को गई चिट्ठी को उसने कूड़ें के ढेर में फेंक दिया होगा। क्या डीएम साहब के लिए ऑक्सीजन की कमी से बच्चों के मरने का अंदेशा कोई अंदेशा नहीं है। या किसी ट्रांसफर-पोस्टिंग्स का हिसाब बन रहा था। क्या चल रहा था। जिस डीएम के पास ये ताकत सिस्ट्म ने दी है कि वो किसी भी वक्त अपने चीफ सेकेट्री से बात कर सकता है किसी भी घटना की सूचना दे सकता है यहां तक किसी सत्तारूढ़ नेता का कुत्ता खोने की चिंता में भी घुल सकता है उसको दर्जनों बच्चों की संभावित मौत का आशंका ने जरा भी भयभीत नहीं किया तो इसका कारण और कुछ नहीं नौकरशाहों को लूट की संवैधानिक छूट की वजह है। उनका क्या सकते है नेताजी ( वैसे भी ये तो कुछ करने ही नहीं जा रहे है सिर्फ घंटों भर का भाषण देने के अलावा) अरे ट्रांसफर और सस्पैंशन के अलावा इनके हाथ में है क्या। क्योंकि किसी भी राज्य से आजतक ऐसे लोगों को बर्खास्त करने की जोरआजमाईश नहीं होती है। इनको ताकत किस लिए दी गई थी और ये क्या करने लगे। क्या सरकार को नहीं लगता कि जिले के मालिक के तौर पर राज करने वाले को चिट्ठी मिली और वो सरकार की चिट्ठी से ही गायब है।
दरअसल सिस्ट्म ने गरीबों को और उनके बच्चों को ऐसे मुर्गों और बकरों में तब्दील कर दिया है जिनका कोई मसीहा नहीं। बस कटते रहो वोट के वक्त गिनवा दिया जांएगा कि फलां जाति के बकरों को भेड़ियों की ड्रैस दे दी गई। फ्लां जाति के मुर्गें को बाज के कपड़े पहनादिए गये है।
आखिर जिस डीएम को रात में ही मौके पर होना चाहिए वो कहां था क्या ये जांच का हिस्सा होगा। नहीं उसतक किसी को जाने की फुर्सत नहीं है। ये डॉक्टर इस तरह कमीशन खोरी कर रहे थे ये खबर किसी को नहीं थी। बेचारी एलआईयू का काम है कितने रिक्शेवाले शक्ल से खूंखार दिख रहे है। और ज्यादातर जगह तो फलां साहब किस नेता के करीब जा रहे है ये ही रिपोर्ट हो रही थी। हो सकता है कि आपको लगे कि ये किस तरह की रिपोर्ट है लेकिन ये सड़े हुए सिस्ट्म की संडांध है जिसका शिकार ज्यादातर लोग कभी भी हो सकते है। लेकिन नौकरशाहों का एक वर्ग ऐसा इम्यून है कि उसतक हाथ पहुंचना असंभव है। नेताओं को जिनता गाली जनता देती है उतनी ताकत नौकरशाहों की बढ़ती है और एक नया शगल मुझ जैसे बौंनों के गैंग पाल रहे है कि साहब इनको काम नहीं करने देते। क्या इसमें कोई ड़ीएम साहब का हाथ पकड़ लेता। बात को बहुत सारी है। दरअसल सत्ता में आएँ हुए नेता इन नौकरशाहों के इंद्रजाल में इस तरह फंसता है कि वो सिर्फ सामने वाले नौकरशाह को देखता है जड़ देख ही नहीं पाता कि कौन है जो इस जाले को बूुनता है लिहाजा जितने दिन सत्ता में रहता है इन नौकरशाहों के लिए टुकड़े जुटाता रहता है। और ये जी जी करके उसके हाथ में कुछ टुकड़े रख देते है ये कहते हुए कि मालिक आप ही आप है।
खैर ये तो अभी बदल नहीं रहा है कम से कम हाल के योगी जी के कदमों से तो नहीं बदल रहा है लेकिन बात है सिद्धार्थनाथ सिंह के करिश्माई बयान की गजब की बात है।
दुख इसलिए भी है कि आज दशकों बाद भी खेत में बैठा हुआ किसा भी जिस लालबहादुर शास्त्री जी का नाम लेते ही हाथ जोड़ लेता है और देश के किसी भी हिस्से में चले जाएँये किसी भी गांव में ट्रैक्टर ट्राली पर लिखा हुआ मिल जाएंगा "जय जवान जय किसान" । किसी भी भाषा में लिखा हुआ मिल जाएँगा यहां तक कि आप इतनी भाषाओं को पढ़ नहीं सकते है।
इतना सम्मान देता है महज ढाई साल तक इस देश की सत्ता संभालने वाले शास्त्री जी को। बहुत से प्रधानमंत्रियों के नाम आप किसी बच्चें से पूछना शुरू करो वो कोई भी नाम भूल सकता लेकिन शास्त्री जी का नहीं। बहुत से लोग आज भी उन्हीं शास्त्री जी की वजह से हफ्ते में एक दिन खाना नहीं खाते है या फिर एक वक्त उपवास रखते है,. उन्हीं लालबहादुर शास्त्री जी के नाम पर सत्ता में अपना टुकड़ा हासिल करने वाले सिद्धार्थनाथ सिंह ने उनको कितनी चोट पहुंचाई होगी ये वो शायद ही समझ पाएं।
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चन्द्रकांत देवताले - "मेरे पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं".। हमेशा शब्दों में रहेंगे।


एक ऐसे समय में जब कविता जिंदगी से जाती दिख रही है। जब कवि क्या कह रहा है क्या कर रहा है इससे आम आदमी का सरोकार दूर होता दिख रहा है। ऐसे में ही सुना कि चंद्रकांत देवताले नहीं रहे। कभी साहित्य का छात्र नहीं रहा और मुजफ्फरनगर में रहने के वक्त साहित्य के पास भी नहीं रहा। ऐसे में कविता या कवि के बारे में लिखना शायद मेरे लिए सही नहीं है। लेकिन चंद्रकांत देवताले से मुलाकात उनकी किताबों के जरिए हुए साऊथ कैंपस की लाईब्रेरी में किताबों को खोजते-खोजते एक किताब के शीर्षक ने ( किताब खोजना इसलिए कि कुछ भी नहीं पढ़ा था तो समझ में नहीं आता था कि क्या पढ़ू) अपनी ओर खींच लिया। कविता की किताब और मेरे लिए अनाम कवि ( हिंदी की कक्षा के बाहर जितने कवि थे अनाम थे और कक्षा में पढ़ाएं गये कवि इस तरह पढ़ायें गए थे कि वो सिर्फ नंबर और सवाल बन गए चुके थे जिंदगी का हिस्सा नहीं) शीर्षक था "लक्कड़बग्गा हंस रहा है" और कवि थे चंद्रकांत देवताले। बस उस दिन से उनकी कविता मेरे साथ चलती रही। कुछ दिन तक साऊथ कैंपस में ऐसे दोस्तों के साथ रहा जिनका लिखने-पढ़ने से करीब का नाता रहा तो मैं कुछ पढ़ गया। लेकिन इस प्रक्रिया में भी चंद्रकांत देवताले मुझे हमेशा ऐसे कवि लगते रहे जो इस वक्त में सुने और पढ़े जाने थे। हिंदी जगत में उनकी स्वीकार्यता कितनी है मुझे मालूम नहीं है ( मेरे मतानुसार बहुत अधिक होनी चाहिए) लेकिन उनकी कविताएं जिसतरह वक्त को इस तरह से खोल देती है पाठक के सामने कि वो खुद को बैचेन महसूस करने लगे, वो बंद खिड़की खोलकर हवा की तलाश में बाहर झांकने की कोशिश शुरू कर देता है। कुछ कुछ ऐसे ही मुझे लगता है उनकी कविताओं को पढ़कर। यूं तो बौंनों की जमात में एक छोटा सा बौंना होने के बाद इस तरह कविता पर बात करना खतरे से खाली नहींं है लेकिन चंद्रकांत जी का मुझ पर एक ऐसा अहसान है जो कि मुझ जैसे नीरस इंसान को कविता पढ़ने की ओर मजबूर करने का, मुझे लगा कि चंद्रकांत जी का जाना वीरान से होते जा रहे कविता जगत को कुछ और सूना कर जाता है।
कुछ उनकी कविताएं जो गाहें-बगाहें मुझे मिलती रही वो मैं इस में शेयर करता हूं इस उम्मीद में कि ये कविताएं हमेशा मेरे आसपास रहेंगी।
मेरे पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं
मेरा नाम तुम जानते हो / और यही है मेरा नाम/मैं छत्तीस के साल पैदा हुआ/और उसी के मुताबिक है मेरी उम्र/सरकारी स्कूलों में पढ़ा/ नौकरी की जहां-तहां/प्रेम शादी/तीन कमरों का घर/उड़ते -बिखरते मेज़ पर काग़ज़-पत्तर चिट्ठियां/सब कुछ जैसा/है उजागर/ चौंके में खटर-पटर करती/मेरी एक अदद बीबी/लड़ती झगड़ती गाती बजाती/ मेरी दो बेटियां/पानी पर तैरती रोशना या टुप्पी की /तरह आते -जाते मेरे दोस्त/ यह रही मेरी नापंसदगी की सूची/शामिल इसी में मेरे दुश्मन/गोश्त, चापलूसी करने वाले केंचुएं/घटिया किताबें, /आत्मा या सार्वजनिक फ़सलों के चोर, /तस्कर धंधेबाज/ईश्वर, भूख, बेबसी के /हरामख़ोर आत्मा ने जिनको कभी नहीं धिक्कारा/मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं / इस कमरे में यहीं किताबों के बीच यह/मेरी सोने की जगह/वह रही चौकी उसी की दराज़ में/मेरे सभी प्रमाणपत्र,महत्वपूर्ण काग़ज़ात/जिन पर इतनी धूल /
हां छिपाने को होता है बहुत कुछ
हर व्यक्ति के पास
पर मैं तो उगल चुका कविताओं में
अपने सब भेद
कान लगाकर सुन सकता है कोई भी/देख सकता है आंखें बंद कर/छू सकता हैहाथों से जो कहा मैंने बंद होंठों से भी/किया निपट एकांत अंधेरे तक में/ वह रहा फुसफुसाहटों में दबा/मेरी कमीनगी का स्याह पत्थर/इस अमलतास वाली कविता में ये /ताज़े बबूल के कांटो सी मेरी कमज़ोरियां/यह मेरी ताक़त का सबूत समुद्र/वह मेरा यक़ीन आग का दरवाजा/ सचमुच मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं/ सिर्फ़ बचाने को बहुत सा अपने भीतर/दुराव छिपाव का पहाड़ी चूहा/धीरे-धीरे कुतरता है आत्मा को/आंखों, कानो और होंठों को फिर वहां बच रहती हैं फूटी कौड़ियां/फूटी कौड़िया की संपदा बटोरने की खातिर/जो पानी की जगह फूलदान में भरते है रेत/वैसा तो नहीं मैं।

2.पुनर्जन्म
मैं रास्ते भूलता हूं /और इसीलिए नए रास्ते मिलते है मैं अपनी नींद से/निकलकर प्रवेश करता हूं/किसी और की नींद में/इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है/एक जिंदगी में ही एक ही बार पैदा होना/और एक ही बार मरना
/जिन लोगों को शोभा नहीं देता /मैं उन्हीं में से एक हूं/फिर भी नक्शे पर जगहों को दिखाने की तरह ही होगा/मेरा जिंदगी के बारे में कुछ कहना/बहुत मुश्किल है बताना/कि प्रेम कहां था किन -किन रंगों में /और जहां नहीं था प्रेम उस वक्त वहां क्या था/पानी, नींद और अंधेरे के भीतर इतनी छायाएं है /और आपस में प्राचीन दरख्तों के की जड़ों की तरह/इतनी गुत्थमगुत्था/कि एक-दो को भी निकालकर /हवा में नहीं दिखा सकता/जिस भी नदी में गोता लगाता हूं /बाहर निकलने तक /या तो शहर बदल जाता है/या नदी के पानी का रंग/शाम कभी भी होने लगती है /और उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता/जिनके कारण चमकता है /अकेलेपन का पत्थर
और आखिर में कुछ उन्हीं की पसंदीदा कविताओं के शब्द
.मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा
.मेरी कोशिश यह रही/ पत्थरों की हवा में टकरायें मेरे शब्द/ और बीमारी की डूबती नब्ज थामकर/ ताजा पत्तियों की सांस बन जाएँ
.ऐसे ज़िंदा रहने से नफरत है मुझे / जिसमें हर कोई आये और मुझे अच्छा कहे/ मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकता रहूँ/ मेरे दुश्मन न हों/ और मैं इसे अपने हक़ में बड़ी बात मानूं।
.सच बोलकर सम्भव नहीं था / सच को बताना/ इसीलिये मैंने चुना झूठ का रास्ता/ कविताओं का
.यह वक़्त नहीं एक मुकदमा है या तो गवाही दो या हो जाओ गूंगे/ हमेशा हमेशा के वास्ते
होगा जो कवि/ वही तो कहेगा/ खटाक से खुलते चाक़ू की तरह
.जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा.......
पानी के पेड़ पर जब/बसेरा करेंगे आग के परिंदें/उनकी चहचहाहट के अनंत में/थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा/मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का/उस पर बसेरा रेंगे पानी के परिंदें/परिंदों की प्यास के आसमान में/ जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा/ वहां छायाविहीन एक सफ़ेद काया/ मेरा पता पूछते मिलेगी।
पंकज सारस्वत के शांत हो जाने की दुखद खबर अभी सुनी।ईश्वर परिवार को दुख सहने की शक्ति दे। मुझे हमेशा याद रहोंगे पंकज। 
अभी व्हाटएप्प चैक कर रहा था कि एटा के एक युवा पत्रकार का मैसेज देखा। मैसेज को पढ़ा तो एक बारगी सन्न रह गया। मैंसेज में बताया गया था कि पंकज अब इस दुनिया में नहीं रहे। 
पकंज सारस्वत अलीगढ़ का एक ऐसा युवा पत्रकार जो हमेशा नए की तलाश में आपसे ज्यादा उत्साह दिखाता था। सालों पहले हरि जोशी जी ने फोन किया और कहा कि आप के यहां अलीगढ़ में एक जगह खाली है ( उस वक्त मैं आजतक में था) एक लड़का आप रख सकते है। मैंने बायोडाटा मंगाया और आजतक में असाईंनमेंट को कह दिया। बाद में इंटरव्यू के बाद उस लड़के को रख लिया गया। कुछ दिन बाद मैं ऑफिस पहुंचा तो एक शख्स मेरी डेस्क पर बैठा था, मैंने कभी पहले नहीं देखा लेकिन वो एक दम से आदर से खड़ा हुआ और नमस्कार करके धन्यवाद कहने लगा। मैंने कहा कि दोस्त मैंने आपको पहचाना नहीं तो उसने कहा कि आप मेरे गुरू है इस संस्था में आपकी वजह से मैं आ पहुंचा हूं और मेरा नाम पकंज सारस्वत है। मैंने कहा कि बस यही शुभकामना है कि बेहतर काम करो।
उसके बाद से पंकज के साथ काफी काम किया। ये बात अलग है कि आपको उसकी कार्यशैली से मतभेद हो सकते थे लेकिन उसकी समझ खबरों को समझने की और उस को जमीन से खोज कर लाने के लिए उसके कॉन्टेक्ट दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देते थे। हर खबर को जल्दी से जल्दी करने की उसकी आदत से कई बार मैं उन स्टिंग्स में झुंझला जाता था जिनमें पंकज मेरे साथ होता था। क्रिकेट जगत में उसके संबंधों और क्रिकेट की दुनिया में अपने कदम जमाने के उसके संघर्षों से मैं तभी रूबरू हूआ था। किस तरह से आर्थिक हालात ने उसके बचपन के सपनों को एक जगह से ऊपर जाने नहीं दिया था लेकिन उसके बाद के उसके संघर्ष ने उसको मौजूदा मुकाम तक ला दिया था।
मेरे चैनल बदलने के बावजूद उसका मेरे लिए आदर कभी कम नहीं हुआ था। जब भी मैं उसको फोन करता था उसका एक वाक्य हमेशा होता था कि सर आप कभी भी फोन कर कुछ भी बोल सकते है फोन के इस तरफ से आपको कभी ना नहीं मिलेगी।
हाल में ही जब भी पंकज से बात होती थी वो अपने बेटे को लेकर बहुुत उत्साहित रहता था बेटा बेहतरीन क्रिकेट खेल रहा है। उसको मिले अवार्ड को लेकर कई बार चर्चा हुई। और हाल ही में उत्तरप्रदेश के चुनावों के दौरान अलीगढ़ जाते ही सबसे पहला फोन पंकज को ही किया। और पंकज हाजिर। सब समस्याओं के समाधान के साथ पंकज हाजिर होता था। पंकज को कही बेहद जरूरी काम से बाहर जाना था लेकिन पंकज ने एक दिन के लिए अपना काम टाल दिया । और फिर उस दिन काफी बातें हुए। अगले दिन प्रदीप के साथ रहा और शाम को निकलने के वक्त पंकज के घर पहुंच कर चाय पी कर ही अलीगढ़ से बाहर निकला।
उसके बाद एक दो बार पंकज का फोन आया लेकिन मेरी बात हो न सकी। ऐसे में ये खबर काफी दर्द से भरी हुई है। एक दम स्वस्थ और जिंदगी से भरे हुए पत्रकार, सपने देखते हुए बाप और परिवार की जिम्मेदारी संभाल रहे एक व्यक्ति को इस तरह से अचानक जाते हुए देखना काफी दुखद है। मेरे लिए ये और भी दुखद इसलिए है कि मुझे पंकज के न रहने की सूचना कई दिन बाद ही मिल पाई। मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि इतनी जल्दी नहीं जाना था पंकज। आपके परिवार को अभी बहुत जरूरत थी। दोनों बेटों और बेटी को तुम्हारी ऊंगिलयों के सहारे काफी सफर तय करना था। लेकिन ये सफर जैसे तुमने बहुत जल्दी खत्म कर दिया।
अलविदा पंकज। जहां भी रहो खुश रहो, अपनी ऊर्जा से भरे हुए रहो। ईश्वर पंकज के परिवार को ये दुख सहने की शक्ति दे।

28 अगस्त की तारीख गुरमीत राम रहीम सिंह को ये याद दिला देंगी कि भगवान की लाठी बेआवाज होती है।

एपिसोड़- 1
28 अगस्त 1999 की रात। एक शैतान को भगवान मानने वाली एक मासूम लड़की को शैतान ने अपनी हवस का शिकार बना लिया। आत्मा को छलनी करने वाली इस घठना ने उस लड़की के विश्वास को ही तोड़ कर रख दिया। राम रहीम एक गुरू नहीं शैतान निकलान। उस लड़की की जिंदगी में वो रात ऐसी अमावस की रात बन कर छा गई जिसकी कोई सुबह नहीं हो रही थी।
28 अगस्त की तारीख अब फिर लौट आई है लेकिन इस बार अमावस की रात अपराधी गुरमीत के लिए है। और उस लड़की जिंदगी में इंसाफ की रोशनी आई है। लेकिन इस के बीच 18 साल का एक संघर्ष भी ह।
मैं इस कहानी में 2004 से हू्ं और इसके ज्यादातर पात्रों से मिल चुका था। जांच एजेंसी से लेकर पीड़ितों तक सभी से मुलाका हुई थी। सालो बाद फिर से इस खबर में लौटा तो जैसे सब कुछ याद आया। लेकिन ये कहानी बहुत लंबी है। लेकिन इऩ सब पर बात 28 अगस्त के बाद। यानि उस तारीख से आगे जिस तरीख में गुनाह हुआ है उसी को सजा का फैसला भी उसी तारीख को लिखा जाता है। ये ऊपरवाले का इंसाफ है।
अपराध को अदा में बदल देने का चमत्कार करने वाला गुरू माना जाएंगा राम रहीम सिंह को।

गुरमीत ने 38 बेगुनाह की बलि दी। सरकार और भ्रष्ट्र नौकरशाही का खेल- 2


सच के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता। लेकिन बौंनों ने जो देखा क्या वो ही सच है। पंचकूला में जो दिख रहा है वो सब सच के ऊपर की कहानी है। बौंनों को सच से ज्यादा शिकार की तलाश है। हाईकोर्ट के आम आदमी के लिए सदिच्छा से दिए गए आदेश को सरकार ने हत्या के लाईंसेंस में बदल दिया था क्या।

मैं गुनाहगार बौना। वो मारे गए या मार दिये गये। -3

गुरमीत के गुनाहों की सज़ा आज उसको सुना दी जाएंगी लेकिन इस कवरेज के बाद अब सोच रहा हूँ कि 38 लोग जिनकी ज़िंदगी इस हादसे में गई वो मारे गए या क़त्ल हुए। सब कुछ दिमाग को उलझा रहा है। क्योंकि पत्थर बहुत बार उछाले जाते है बदले में हर बार गोलियां नहीं मिलती। गली में उस लड़के के पास सिर्फ डंडा था और एक मात्र पत्थर वो उन सुरक्षित पुलिस जवानों पर फेंक चुका था जो वीडियो में किसी को लगा नहीं था। लेकिन वो इतना खतरनाक कैसे लगा कि सीधी गोली उसके जिस्म में पैबस्त हो गई।

गुरमीत और पंचकूला आगजनी सवाल बन गयी। किसे परवाह है अब उनसे जूझने की। लाइव खत्म, खबर खत्म।

क्या खबरों के सच तक जाना इतना मुश्किल है कि खुद जो दिखा नहीं, वही बोल रहे है हम।सवाल सड़ गये राजनीतिक नेतृत्व के बोझ बनकर बाकी दोनों स्तंभों पर झूल जाना नहीं है बल्कि बौनो की भीड़ में सच का गुम हो जाना भी है। जो दिखाया वहीं आखिरी सच नहीं था। थोड़ा और आगे जाना था। शायद थक कर बैठना भी हल नही। चंडीगड़ वापसी के साथ सवाल चिपक कर साथ आ रहे है। जवाब तो तलाशना होगा भले ही कोई सुने नही तब भी अपने ही क़रार के लिये।

वो चाय मेरे मुंह पर पड़ी थी और उसकी आग पता नहीं अंदर से कब जाएंगी- (गुरमीत राम रहीम के साथ मीडिया की चुप्पी )-4

"क्यों तू क्या मीडिया से अलग है। तेरे पास नहीं गएं थे क्या हम मदद मांगने। 
बाबा की करतूत बताने। तब का याद है क्या नहीं।"
मैं समझ ही नहीं पाया कि इस लड़के की आंखों में उठा हुआ गुस्सा मेरे पर क्यों उबल रहा है। मैंने तो सिर्फ उन लोगों से ये ही पूछा था कि क्या मीडिया ने कभी कोई मदद नहीं की थी क्या।
और जवाब इतना तीखा और वो भी सीधा मुझपर।
और तब उस लड़के ने जो मुझे चाय पकड़ा रहा था कहा कि याद नहीं आ रहा है आपको। जब हम आपके ऑफिस आएं थे। और जैसे किसी ने मेरे दिमाग में फिल्म की रील की तरह वो दिन याद दिला दिया।
2003-2004 के किसी दिन आजतक के रिसेप्शन से फोन आया। धीरेन्द्र जी दो लोग आपसे मिलना चाहते है। मैं सीधा उतर कर 6 फ्लोर पर आया और देखा दो कुर्ता-पाजामा पहने हुए लोग बेहद शांत से बैठे हुए थे। मैं रोज इस तरह के आदमियों से मिलता था लिहाजा अंदाजा हुआ था कि ये लोग डरे हुए है लेकिन कुछ खबर है। टीवी की पैदाईश के साथ ही ये भी पैदा हो गई थी कि गांव वाले सिर्फ आपदा के वक्त खबर होते है। इसके अलावा टीवी में गांव का कोई मतलब नहीं है। वो लोग किसी दूसरी दुुनिया के लोग है उनसे ऐसे ही बर्ताव करना है। लेकिन मैं ये कभी याद नहीं कर पाया लिहाजा इस तरह के गांव से आने वाले लोगों को मोनिका याद कर के मुझे ही मिलने के लिए भेज देती थी। इन लोगों से मिलने के लिए बॉस ने किसी और को कहा था ( नाम नहीं दे रहा हूं ) लेकिन उसके पास दिल्ली के क्राईम की काफी बड़ी खबरें थी( मसलन एक आदमी का कत्ल हो गया या फिर जिस्मफरोंशों का गैंग पकड़ा गया) मैंरी उनसे बातचीत शुरू हुई।
एक ने कहा कि हमारे भाई का कत्ल हो गया है और पुलिस कुछ मदद नहीं कर रही है। हमारे परिवार के लोगों पर भी मौत का खतरा मंडरा रहा है। मैंने कहा कि वजह क्या है और कौन है जिसके लिए पुलिस इतना लाड़ दिखा रही है। क्या कोई नेता है या उसका बेटा।
नहीं एक बाबा है।
कौन बाबा
गुरमीत राम रहीम सिंह
मेरे लिए ये नाम बिलकुल अजनबी था। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में डेरों की कोई परंपरा नहीं थी और उस समय तक शायद ये नाम बहुत ज्यादा चर्चा में भी नहीं था दिल्ली में न्यूज की दुनिया में उसका मुझे कोई वजूद नहीं दिखा।
मैंने पूूछा कि आखिर वो आपके परिवार को कत्ल क्यों करना चाहता है। इस पर उन में से एक ने एक पर्चा निकाला और दे दिया। मैंने पढ़ना शुरू किया देश के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को लिखा हुआ खत। और कहानी इस तरह की झकझोर देने वाली की उस पर एक बारगी यकीन नहीं होता था। मैंने अंत में देखा कि भेजने वाला का कोई नाम नहीं था। खत गुमनाम साध्वी की ओर से आया था। पहला सवाल यही था कि ये कैसे तय हो कि इसमें लिखी बातें सच है। इस पर उन दोनों लोगों ने जिस विश्वास के कहा कि इसमें लिखी हुई एक एक बात सच है बस आपको इसके पीछे लगना होगा और हम आपकी थोड़ी बहुत मदद कर सकते है लेकिन बहुत पोशीदा तौर पर।
मुझे उनकी बातों में सच नजर आया और वो खत लेकर मैं अपने तत्कालीन बॉस के पास पहुुंचा। बॉस ने उस खत को देखा और मुझे देखा और फिर कहा कि गुरू गजब करते हो। गुरमीत राम रहीम को जानते हो। मैंने जवाब में न में गर्दन हिला दी । कहने लगे उसके चेले चपाटे आकर यही दफ्तर को जाम कर देंगे। और इस खत की कहानी को पता कैसे लगाओंगे।
मैंने कहा कि सर इस स्टोरी पर काम किया जा सकता है अगर आप कहो तो।
कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा कि छोड़ो यार इतनी एनर्जी किसी और खबर पर लगाओं। मैं बुझे हुए कदमों से बाहर आया और मैंने उन दोनों से साफ साफ तो नहीं लेकिन इस तरह से कह दिया कि उनकी उम्मीद बुझ जाएं। वो लोग चले गए और मैं बहुत सी बातों की तरह इस बात को भी आसानी से भूल गया।
लेकिन सालों बाद इस बार सीबीआई की चार्जशीट का समय सामने आया तो चैनल ने उस रिपोर्टर को पहले भेजा जिसने उन लोगों से मिलने से मना कर दिया था और फिर मुझे स्पेशल स्टोरी करने भेजा। मैं तलाश करता हुआ इधर से उधऱ घूम रहा था। मुझे तलाश थी कि वो खत किसका लिखा हुआ था। वो लड़की कौन थी जो चैनल पर अपना चेहरा दिखाकर चैनल की टीआरपी बढ़ा दे और अपने परिवार के लिए मौत खरीद ले। मौत के एक सौदागर की तरह मैं शिकार तलाश कर रहा था।( ऐसा आज मुझे लग रहा है)
खैर पहली मुलाकात सिरसा में वहां से लोगों से हुई। अंशुल मिला। एक दम युवा बेहद शांत और ऐसा जिसके सिर से बाप का साया उठा दिया उस बाबा के गुंडों ने। कुछ किलोमीटर दूर हजारों -लाखों ऐसे अंध भक्तों के साथ बैठा हुआ वो बाबा जो उसे भगवान से नीचे कुछ मानने को तैयार ही नहीं। उसके इशारे पर लोगों को मौत के घाट उतारने वाले स्क्वायड के तौर पर तैयार ये लोग हर रोज अंशुल और उसके घर के आसपास से ऐसे गुजरते थे जैसे उसको ये बता रहे हो कि तुम हर पल हमारी नजर में हो। जब भी हमारे भगवान का आदेश होगा हम तुम्हें दूसरी दुनिया में पहुंचा देंगे। लेकिन इन तमाम डर के बीच वो युवा जिसकी मूूंछ और दाढ़ी भी अभी सही से नहीं उग पायी थी। उस बाबा की करतूतों पर से पर्दा उठा रहा था। पूरा सच नाम के उस अखबार का नाम ही पूरा सच नहीं था उस वक्त वो पूरा सच ही लिख रहा था। रामचन्द्र छत्रपति का एक बड़ा फोटो सामने लगा हुआ था। फोटों में हंसते हुए छत्रपति जैसे हर आदमी से कह रहा हो कि सच बताया जाना जिंदगी से भी कीमती है। और खास तौर से उन पत्रकारों से ज्यादा जो उस दफ्तर में अपने लिए कहानी खोजने जा रहे थे क्योंकि उनके चैनल को अब इस खबर में टीआरपी दिख रही थी। इसलिए नहीं कि वो खबर थी क्योंकि खबर तो वो 2002 से ही थी। तब से किसी ने इस तरफ अपनी मेहरबानी भरी नजर नहीं डाली थी। मैं अंशुल की आंखों में उम्मीद देख रहा था कि शायद उसके पिता जिस धंधें की पवित्रता के लिए अपनी जिंदगी भी कुर्बान कर चले थे अब जाग रहा है। खैर मैंने अंशुल से सारे पेपर लिए। उस पेपर का शाट्स भी जिसमें वो खत छपा था जो मुझे भी सालों पहले मिल चुका था और मैं उसको खो चुका था।
तब तक खट्टा सिंह नाम का ड्राईवर भी सामने आ चुका था। मैंने अपनी आदत के अनुसार तमाम कागजातों की कॉपी कराई और फिर पूछा कि क्या मैं उस साध्वी को खोज सकता हूं।
अब ये कहना मुझे लगता है कि किसी को चोट पहुंचाना या फिर उस विक्टिम की पहचान बताना नहीं कि उस वक्त भी सिरसा के हर आदमी को मालूम था। खैर उन्होंने कहा कि आप रणजीत के घर जा कर उसके परिवार वालों से मिल सकते हो।
और फिर मुझे रणजीत की कहानी का पता चला। वो जो एक्जीक्युटिव कमेटी का मेंबर था। उसका कत्ल इस खत से जुड़ा था। और यही खत रामचन्द्र छत्रपति के कत्ल का कारण भी था। ऐसे में मैंने उसका पता पूछा तो सिर्फ गांव का नाम पता चला कि खानपुर कोलियां। और फिर अगले दिन सुबह से ही गांव की तलाश शुरू की। कुरूक्षेत्र के सड़क के किनारे सटे हुए मंदिर के सामने एक सड़क और उस सड़क से गांव में घुसते ही बाएं हाथ पर एक खूबसूरत सा घर। गांव के हिसाब से भी खूबसूरत और अपनी और खींचता हुआ घर। मैं रणजीत का नाम लेकर पूछ रहा था कि एक बेहद साफ कपड़ों में गुजर रहे बुजुर्ग ने मुझे पूछा कि आपको क्या काम है। मैंने अपना परिचय दिया और कहा कि मैं मिलना चाहता हूं। उस पर उन्होंने कहा कि मैं मरहूम रणजीत सिंह का पिता हूं। आओ आप क्या पूछना चाहते हो। लेकिन पहले आप दूर से आएं हो चाय पी लो। मैं गांव का था तो गांव के रीतिरिवाज भी जानता था। घर में आया हुआ अनजान भी मेहमान और मेहमान तो पहले चाय पानी भले ही गमी में आया हुआ मेहमान क्यों न हो। और इसी औपचारिक बातचीत में चाय लेकर आएँ हुए लड़के ने मेरे सवाल का जवाब इस अंदाज में दिया था।
कमरे में इतनी खामोशी थी कि कुछ कह पाना एक बेबसी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा था। ...............
अब गुरमीत राम रहीम की खबरें नहीं यौंन कुंठाएं बेची जा रही है। मुंबई की बारिश से ज्यादा अभी काम क्रीड़ाओं की कहानियां तैर रही है। अब रह रह कर डरना चाहिए कि जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में क्या-क्या सड़ रहा है और उसके लिए किस तरह की आड़ ली जा रही है।

बलात्कारी और राजनेताओं की जुगलबंदी में मारा जाना किसके खाते में आयेगा। हाईकोर्ट के ऑर्डर को किस तरह मौत के वारंट में बदल दिया राजनेताओं और रीढ़विहीन नौकरशाही ने।। तुम्हारा डेटा गया किसी का बेटा गया।

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25 अगस्त को फैसले के कुछ ही देर बाद जहां लाईव चल रहा था, उससे कुछ दूर ही धुआं ही धुआं नजर आऩे लगा। अचानक भीड़ ने आगे बढ़ना शुरू कर दिया। और पार्क के पास खड़ी हुई मी़डिया की गाड़ियों में आग लगाना शुरू कर दिया। और शुरू में अपने बचाव के लिए भागे रिपोर्टर कुछ ही देर में वापस घटनास्थल पर पहुंच गए। आग ही आग दिख रही थी। हांफते-भागते ( जैसे भी टीवी में उत्तेजना पैदा की जा सकती है) आग के चारों और चक्कर काटते हुए उस पार्क के आसपास ठहरी हुई भीड़ को हत्यारों की भीड़ में तब्दील कर दिया। हर शब्द से आग निकल रही थी। लग रहा था कि कारों और बाईक को जलाने वाली आग को लील जाएंगी हम बौंनों के मुंह से निकली आग। सेक्टर पांच के चौराहे के पास सरकारी बिल्डिंग के शीशे सामने पड़े थे। सुरक्षा बलों की गाड़ियों की तादाद बढ़ती जा रही थी। और फिर उनके साथ आगे- आगे दंगाईंयों का पीछा शुरू हो गया। कुछ दूर चलने पर पेट्रोल पंप के पीछे छिपे हुए कुछ लोग दिखे।तब तक कैमरा संभालते कि मुंह ढ़के एक अफसर की गुस्से भरी आवाज निकली कोई शूट नहीं । आपने देखा है ना क्या किया इन लोगों ने। पीछे जलती हुई ओबी वैन और गाड़ियों को कवर करने के बाद कुछ सौ मीटर दूर भागते हुए बुजुर्गों, औरतों और बच्चों को एक जैसा मान रहा था लेकिन उससे भी ज्यादा कानून के रखवालों की लाठियों की मार को जानता था। 16 दिसंबर के प्रर्दशनों के दौरान राजपथ से लेकर जंतर-मंतर तक स्वाद मालूम था। ( ये संयोग हो सकता है कि तेजेन्द्र लूथरा उस वक्त जंतर मंतर पर भी मौजूद थे और इसबार चंडीगढ़ के आला अफसर। हालांकि वो इस वक्त यहां मौजूद नहीं थे। जैसा मुझे याद आता है)
और कैमरा खुद ब खुद आगे बढ़ गया। सामने गोल पार्क से बदहवास भागते हुए उन लोगों को करीब से जाकर देखने की इच्छा थी लेकिन ऐसा होना मुमकिन नहीं था।
खैर रात भर वो जलती हुई गाड़ियों ने जैसे पूरे देश का मन जला कर राख कर दिया। कुछ पता नहीं चल रहा था कि कितने लोग घायल हुए और मरने वालों की तादाद कितनी थी। इसी बीच अपनी बौंनी योग्यता दिखाना जरूरी था जिसकी मारकाट चल रही थी। जिस बौंने को बैग दिख रहा था वो उसको उठाकर कैमरे के सामने नाच रहा था। कुछ ने शीशे हाथों में उठाएं हुए थे। मेरे सामने भी एक बैग था जिसमें कुछ पत्थर भरे थे और कुछ रोटियां। मेरे लिए जैसे सबकुछ उगलदेने का वक्त था। फिर दूसरे पार्क में गया। पार्क में बैग ही बैग बिखरे थे। पन्नियां जिन पर रात बिताई गई थी। सामने टूटी हुई दीवार। खिड़कियों के शीशे टूटे हुए थे। पार्क में बिखरे हुए बैंगों को देखा, छूकर देखा लेकिन किसी में पत्थर नहीं निकला। हल्के-फुलके कपड़ो से भरे हुए बैग। अचानक सामने इंसानी खून और मांस का मिला-जुला धब्बा। खून इधर उधर नहीं फैला था और देखने भर से समझा जा सकता था कि गोली लगने के बाद जहां था वहीं ढेर हो गया था। एंबुलेंस की आवाज ने कानों के पर्दों तक पहुंच की हुई थी। और अस्पताल में पहुंचा था तो हर तरफ खून से भीगे कपड़ों से भीगे डेरे के अनुयायी थी। और रात बीत गई। रात भर दिमाग में जली हुई गाड़ियां गूंजती रही। अस्पताल में बिन किसी तीमारदारों के पड़े हुए कराहते हुए लोगों के बीच एक पुलिस वाला भी अपने बिस्तर पर बैठा हुआ था। उसको भी शायद पैर में चोट लगी थी।
अगले दिन सुबह उठा। और उन तमाम जगहों पर पहुंच गया जहां एक घंटे तक दंगे के हालात दिख रहे थे। और फिर जैसे सड़कों से आवाज आनी शुरू हुई। पत्थर कहां थे। वो हथियार कहां थे, वो आग लगाने वाली कैने कहां थी। वो दंगा करने आएँ हुए लोगों की तैयारी कहां थी।
इतने सालों में कई दंगें कवर किए। अगले दिन सड़कों पर फैले पत्थरों और ईंटों के ढेर अगले दिन के अखबारों के पहले पन्नों पर छपते है। लेकिन यहां तो सड़कों पर पत्थर दिखे नहीं। फिर याद आया कि कल भी नहीं दिखे थे सिर्फ इक्का-दुक्का पत्थरों के अलावा। फिर याद आया कि सिर्फ तीन सौ मीटर के आसपास के दायरे में खड़ी हुई गाडियों में आग लगी थी। और उन आसपास की बिल्डिंगों में तोड़फोड़ हुई थी और कही नहीं। फिर सेक्टर सोलह में पहुंच कर देखा तो एक एचडीएफसी बैंक और एक रैस्टोंरेंट को जलाया हुआ था। लेकिन उसतक के रास्तें में किसी भी टूट-फूट या फिर किसी मकान पर हमले के कोई सबूत नहीं दिख रहे थे। भागते भागते जिस तरह से पार्क में रखे पत्थरों को भी नहीं छुआ गया। रास्तें में कई मकानों के सामने चिनाई के लिए रखे हुए ईंट के चट्टों को भी नहीं छुआगया था।
यहां तक कुछ ड़डें दिखे थे तो वो पार्क के पेड़ों से तोड़े गए थे।
ऐसे में लगा कि ये कैसी भीड़ थी जो पूरे शहर को फूंक देने पर आमादा थी। और औंरतों, लड़कियों, बुजुर्गों और बच्चों से भरी हुई।

वो कौन है जो लोकतंत्र को बचा रहा है।

 
ये अदालत भी है, ये मुंसिफ भी है और ये पीड़ित भी। ग़ज़ब है भाई। और इनकी मासूमियत भी कुछ लोगो के लिए ही है। मैं क्या कहूं गड़बड़ा गया हूं लगता है कि आजतक कोई ख़बर ही नहीं की। खुद ही तय करते है कि कौन क्या है और क्या किसने किया है और किसको क्या कह दे।

बौंनों की जिंदगी अब वामपंथी बचाएँगें।

 
इस तरह से लोकतंत्र खत्म हो चुका है कि बौंनों की आजादी बचाने की बात दूर चली गई है। हम बौंने अपनी जिंदगी के लिए वामपंथ के झंडें तले जल्दी पहूंचे नहीं तो फासिस्ट ताकतें हमें लील जाएंगी। हाथ-पैर ठंडें हो रहे थे। हर तरफ लग रहा था कि कही से गोली न चल जाएं। इतनी बुरी तरह से डरा रही है फासीस्ट ताकते की रात में नींद नहीं आती है। कई बार तो बौंनों के क्लब में ही रात गुजारनी पड़ती है। 
हालात इतने खराब है कॉमरेड कि दूर दराज कस्बों में और ऐसे शहरों में जहां अंग्रेजी नहीं मिलती है रिपोर्टिंग करने वालों के भेष में घूम रहे और मरने का ड्रामा कर रहे बौंने हमको दिल्ली में डरा रहे है।
वैसे तो कई रिपोर्ट पढ़नी थी ऐसी खबरें भी दिखानी थी जिन्होंने इन फॉसिस्ट ताकतों के तिलिस्म तो तार तार कर दिया था और उन्होंने निहत्थी पत्रकार को गोलियां का निशाना बना दिया।
बीजेपी विरोधी पत्रकार। ये नये किस्म की पत्रकारिता है। सरकार विऱोधी पत्रकारिता ये भी नयी किस्म की पत्रकारिता है। अरे इसकों पत्रकारिता के स्कूल में नहीं पढाय़ा गया तो ये पत्रकारिता पढ़ाने वालों की गलती है। ये तो पढ़ कर आएं है भाई।
बौंने के सबसे बडे शक्तिस्थल पर धरने और प्रदर्शन में पूरी दुनिया में क्रांत्रि की आवाज पहंची है। हर तरफ से फॉसिस्ट ताकते बड़़ी बुरी तरह से लज्जित हो गई है।
वैसे कॉमरेड जिस तरह से भारत विरोधी नारों में आपकी जांच के बाद ही आपको कुछ कहा जाना था और उसको लेकर भी इस शक्तिस्थल पर कपो में क्रांत्रिया हुई थी उसी तरह से इस मामले में भी किसी को जांच तो करने दी गई होती।
और हैरानी होती है इस बात की पत्रकारों की आजादी की बात लाल झंडे तले हो रही है। गजब का विरोधाभास है।
बौंनों जनता को जनतंत्र तुम जैसे टुच्चों से नहीं सीखना है। इतनी कहानियां बिखरी हुई है तुम्हारी अलमारियों की दुर्गंध से भन्ना जाएँ जो भी इन आलमारियों में गलती से झांक ले।
ये झूठ में जिंदा लोगों का ऐसा समाज था जिसको मसखरे से ज्याादा कुछ नहीं माना जाता और जिसका लोकतंत्र टके के भाव रोज बिकता है।

वो एक क्लब है, प्रेस नाम का नशा फ्री। पत्रकार को गेट आउट तो नारा है।


पत्रकारों की आज़ादी के लिए , पत्रकारों की सुरक्षा के लिये और आखिर में जाम की आज़ादी और किफायती होने के लिये नारे वही से लगने चाहिये। सरकारी सब्सिडी पर दारू पीने का रिकॉर्ड पता नहीं कोई बराबरी कर पायेगा। अब वहां दारू पीकर डर भगाने वालों ने आसमान को ज़मीन में मिला दिया। मैं हमेशा इस क्लब लेकर गलत ही सोचता था क्योंकि इनके लोग जो भी बोलते थे जनता में उसका कोई वजूद ही नहीं मिलता था।
ज़्यादातर लोगों को जिनको प्याले में क्रांति का इतना अनुभवहैं कि किसी भी वक़्त देश को गाली दे सकते थे। सरकारी सब्सिडी की ज़मीन सरकारी सब्सिडी की सुविधाएं और सरकार को गाली। भाषाई पत्रकार वहाँ दोयम से दिखते है। पत्रकार वही जो लेफ्ट को नाम की संस्था को सपोर्ट कर सके और इतना डेडिकेशन कि दारू भी लेफ्ट हैंड से पीनी पड़ती है।
बहुत साल पहले अपने ब्यूरो चीफ के कहने पर वहाँ गया। सुना था कि सत्ता की उथल पुथल वहाँ से तय होती है। अंदर घुसते ही जैसे दारू की बदबू ने पूरे मानस पर कब्ज़ा कर लिया हो। वो आज तक दिमाग से नहीं निकलती लगता है कि उस दिन लेफ्ट के पैर छूने में भी वही ज़्यादा कारगर थी।
फ़ोन एप्पल , गाड़ी बाहर , इच्छा लूट की और नारा लेफ्ट का।
( मेरे बहुत से दोस्त है जो वहां के सदस्य है और अच्छे आदमी है। मेरा किसी से व्यक्तिगत कोई दुराग्रह नहीं है बस वहां की फ़ितरत थोड़ा अजनबी सी दिखती है आज भी देश को तोड़ने की इच्छा रखने वालों के साथ रहने वालों का सम्मान वहीं होता ह

"काश भगवान उसको आंख देकर नहीं भेजता तो वो कुछ नहीं देखता और ज़िंदा रहता।उसके हाथ तोड़ देता पैर तोड़ देता पर ज़िंदा छोड़ देता। " प्रधुम्न की माँ।

रोती-बिलखती एक माँ अपने बेटे के लिये इसको भी दुआ मान लेती अगर उसका बेटा अंधा होता या फिर हमला करने वाला उसके हाथ पैर पर चोट करता तो भी वो ज़िंदा तो होता। प्रद्युम्न की माँ की यह चीख हर उस आदमी को अंदर तक चीर रहीं है जो भी इंसानी दिल रखता है। स्कूल के अंदर छह साल का मासूम तो उस दर्द को देखसुन भी नहीं सकता जो मरने से पहले उसको इंसानी भेड़िये से मिला। हर माँ-बाप ने डर कर अपने बच्चों को सीने से लगा लिया होगा। लेकिन सिस्टम को यह चीख सुनाई नहीं देती। क्योंकि वो सुरक्षित है किसी को सज़ा नहीं होगी। वो कंडक्टर बस निशाने पर आ जायेगा। यह स्कूल के हत्यारे चेहरे पर एक नकाब का काम करेगा
एक बाप के दर्द को समझने वाले बहुत होंगे जो इस तरह के लूट की मशीन बन चुके पब्लिक स्कूल की चक्की में अपने बच्चों के भविष्य को चमकदार बनाने में पिस रहे है।
कोई ऐसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है जो उस माँ और बाप के दर्द को राहत दे। ताउम्र उस स्कूल की इमारत उनको सिर्फ अपने बेटे की याद दिलाती रहेंगी और उस स्कूल के प्रबंधन के लिये सिर्फ कुछ लाख की रिश्वत जो वो बाकि बच्चों के माँ बाप से वसूल चुके होंगे। कुत्तों की तरह बोटियां नोंचते सिस्टम को और कुछ बोटियां मिल जाती हैं प्रबंधन से।
सचमुच क्या हम ज़िंदा है क्या हम लोगो में खून दौड़ रहा है।

ये कौन अजनबी है मेरे गांव में


"आजा भाई , बड़े दिनों बाद गाम में दिखाई दिया।"
आवाज तो अजनबी नहीं थी लेकिन हाल ही में ऊंची हो गईं दीवारों के पीछे से एकदम पहचान लेना मुमकिन नहीं हुआ। नजरों ने आवाज का पीछा किया। और दीवार पार जानवरों के खूंटों को पार कर सन की बुनी हुई खाट पर बैठे हुए एक कमजोर दिख रहे शख्स पर जा पड़ी। "पवन ..
क्या हाल है पवन सिंह" ।" क्या चल रहा है।" ये मेरी आवाज है जो मुझे ही दूर से आती हुई लग रही थी। उस शख्स को देखना और अपने जेहन की यादों में जमें हुए पवन से मिलाना बेहद कष्टकर लग रहा था। मेरे बचपन का दोस्त, कभी बहुत तेजी से काम निबटाने में माहिर पवन बहुत कमजोर हो चला है। पैंतालीस को पार करने के साथ ही थके हुए दिख रहे पवन के पास जाकर भी लग रहा था जैसे दूर के सफर से लौट रहे इंसान से मिल रहा हूं। वो बगड़ अब रह नहीं गया। गांव के छोटे से हिस्से में जाने कितने घर उग आएँ है। पवन, नानक या फिर ऐसे ही एक दो और लोग जिनको मैं पहचान सकता था अपनी यादों के सहारे बिलकुल दूसरे सिरों पर खड़े हुए पेड़ लग रहे थे जिनको दूर से देख भर रहा था। उनके साथ जुड़े हुए किस्सों को याद करना उनके सामने खड़े होकर भी तन्हा हो जाना था।
घर के पास से उठकर अब जिंदगी कही दूसरी जगह जा बैठी है। ऐसे में कभी भी दिल से मजबूर होकर घर नहीं जा पाता लेकिन कई बार दूसरी वजहों से गांव में जाना होता है। कल ऐसे ही गांव में गया। अपना ही घेर अजनबी सा दिखा। घर के अंदर आवाज सिर्फ हवाओं की है। तालों को खोलते हुए देखना और फिर बंद होते हुए देखना जैसे एक जिंदगी के पन्नों का पूरी तरह खुलना और फिर बंद होने जैसा था। लगा कि ताले के खुलने और बंद होने के बीच एक जिंदगी खुलती और बंद होती है। इतना बड़़ा घर और घेर ( अपने गांव के हिसाब से )। बचपन में छुट्टियों में गांव एक अनिवार्य सवाल था जिसको हर साल की गर्मियों में हल करना होता था। उसी दौरान कुटुंब के बच्चों से दोस्ती हुई। और बचपन की रवायतों के मुताबिक बनती और बिगड़ती रही। एक बार की छुट्टियों की दोस्ती अगली छुट्टी में विवाद से शुरू हो सकती थी या फिर विवाद में खत्म हुई छुट्टियों की शुरूआत दोस्ती से हो सकती थी।
सालों बाद दिल्ली आने के बाद जैसे गांव किस्सों का गांव हो गया। आज का किस्सा ऐसे ही बहुत से किस्से। लेकिन गांव तो गांव है। मेरे पुरखों की मिट्टी का गांव। उनके पसीने की बूंदों को अपने में समेटे हुए गांव। इसीलिए जब भी शहर पहुंचता हूं और पिताजी देखते है कि एक दिन रूक सकता हूं तो कहते है चलो गांव में घूम आते है। इसीलिए पिताजी को लेकर गांव चला गया। बागों से होते हुए गांव में अपने घर में घूम कर पुराने घर की ओर चल पड़ा। सुमित को लेकर चला फिर घेर से निकल कर सालों बाद उन रास्तों की ओर चल पड़ा जहां कभी बचपन में जाता था। गांव की चौहद्दी या फिर गांव की सीम। लेकिन रास्तें में अपना ही गांव अब मुझे अजनबी लग रहा था। ज्यादातर गांवों के घरों में रहने वाले बदल चुके थे। कुछ घरों में ताले लग चुके थे और दरवाजों को देखकर लगता है कि अब इनका इंतजार काफी लंबा होता है। कुछ घरों में लैटे हुए लोगों देखकर जानकारी चाही तो पता चला कि ज्यादातर के बच्चों ने अब शहर को मुकाम बना लिया है। गांवों में बैठे हुए उन हमउम्र या फिर बुजुर्गों के चेहरे पर अजनबीपन ज्यादा दिख रहा था आत्मीयता कम। लगा कि ये अजनबीपन कितने सालों में यहां पसर गया आत्मीतया की जड़ों को वक्त और बदलती जिंदगी ने सूखा दिया है। मैं खुद पर झुंझला भी रहा था कि क्या यहां सबकुछ वैसा ही होना चाहिए था जैसा मेरी सोच के मुताबिक होता। या फिर ये गांव आज भी मेरा इंतजार करता उसी तरह से जैसे पहले करता था। फिर से गौर करता हूं। गांव में अब सीमेंट की बनी हुई सड़के है। काफी नए बने हुए घरों में ऐसी तमाम सुविधाएं है जो शहरों में मिलती है। लेकिन लोग नहीं बचे। घर में बैठे हुए बूढ़ों के लिए भी एक दूसरे का घेर दो देशों की सीमाओं में दिखने लगा जहां तक की दूरी तय करने में जाने कितने वीजे और पासपोर्ट की जरूरत पड़ने लगी। गांव में बैठे हुए बुजुर्ग बस बेटों के पैसो की कहानी के सहारे वक्त की सीढि़यां चढ़ने में जुटे है। कई लोग आखिर में कहते है कि बस अब राम अपने पास बुला ले।
ये कौन सा गांव है। ये कौन लोग यहां बस गए। वो लोग कहां चले गए। जिनके सहारे बचपन से जवानी का सफर तय किया था। जिनसे बहुत सी कहानियां लेकर अपनी मर्यादाओं की नींव रखी। जिन लोगों के उसूलों की रोशनी से शहर के अंधेरों में भी सफर तय किया। और वो सीधे लोग जिन्होंने अपने मुंह से कुछ कहा नहीं कि जिंदगी को कैसे जीना है बस अपनी कहानी सुना दी थी। इस दोपहर में मुझे ऐसा लगा कि वो कहानियां मेरे कंधों से अब कौन उतारना चाहेंगा। मैं किसको कहूं कि सुनों ये गांव कैसे बना था। सुनों उन लोगों ने क्या कहा था। क्योंकि खुद मैं इस गांव से चला गया हुआ तन्हा सफर हूं। और शायद गांव की कहानी वो सिरा भी जहां से कई सौ साल से बसे हुए गांव का संवाद आने वाली पीढ़ियों से अलहदा हो जाएंगा। क्या मैं गुनाहगार हूं गांव के गूंगे होने का या फिर ये वक्त है जो इस रथ को इस रास्ते पर ले आया।
विनोद शुक्ल की एक कविता शायद मुझे इस वक्त बेहद याद आ रही थी। क्योंकि मेरे बचपन के कुएँ की जगह अब एक घर खड़ा था और मैं जानता हूं कि वहां घर के तले एक कुआँ था।
सूखा कुआँ तो मृत है
..............................
सूखा कुऑं तो मृत है
बहुत मरा हुआ
कि आत्महत्या करता है
अपनी टूटी हुई मुंडेर से
अपनी गहराई भरता हुआ
कुएं के खोदने से निकले हुए
पत्थरों से
जो मुंडेर बनी थी
कुएं के तल की कुँआसी इच्छा
उसकी अंदरूनी गहरी
बारूद से तड़कने की
परंतु अपने ही निकले हुए पत्थरों और मिट्टी से
भरता हुआ कुआँ
कुआँ न होने की तरफ लौट रहा है,
अब ये पलायन था कुएँ का
गांव तो पहले उजाड़ हो चुका था।

डरे हुए बौंनों का देश ( विदेशी दारू से महकते हुए क्लब से आगे कुछ नहीं) अब इनके क्रोध की आग से जल जाएंगा। भगवान रहम करे। चलो बौंनों धमकी की बात करते है। कत्ल की बात करते है डर की बात करते है

दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर बहरामपुर के उस घर में बैठ कर मैं उठ नहीं पा रहा था। फोटो मांगा तो एक बेहद खूबसूरत महिला जो अपनी चमकती आंखों से उस फोटों में से भी बोलती हुई दिख रही थी। मैं आंखों की आवाज नहीं पहचान सकता था क्योंकि मेरे तो स्कूल जाने के दिनों में ही वो कत्ल की जा चुकी थी। मैं उसकी भाषा से भी अनजान था। और उसकी दुनिया से भी। ऐसे में उसकी आंखों से उठने वाली कोई भी शिकायत मेरी इस अनजबीपन की दीवार से टकरा का वापस लौट रही थी। लेकिन मेरा एक रिश्ता उस फोटो से था और वही रिश्ता मेरे बॉस के अनिच्छा जाहिर करने के बावजूद मुझे यहां तक खींच लाया था। दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर एक बेबस और मासूम पत्रकार के साथ हुए अन्याय की कहानी का एक सच दिखाने के लिए। 
एक महिला पत्रकार जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उसके बाद उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गए। ये सिर्फ खबर लिखने की सजा थी। ये सजा थी उसके सर उठाने की। ये सजा थी सच दिखाने की। और ये सजा थी सरकार बन बैठी पार्टी के गुंडों को अपनी कलम में लिख कर सबके सामने लाने की। ये छविरानी की बची हुई कहानी का एक सिरा था। बाकि सिरे तो मिल नहीं पाएं थे। मैं उडीसा के उन ईलाकों में घूम रहा था जहां वो 20-22 साल की एक लड़की और और उसका पति नबकिशोर पत्रकारिता कर रहे थे। अदालत के कठघरे में पति ही अपराधी के तौर पर खड़ा कर दिया गया। अदालत के जज को लगा कि कोई पति नहीं हो सकता जो पत्नी के साथ हो रहे बलात्कार और कत्ल को देखकर छिप सके। ये बात उस जज को जरूर हिंदी फिल्मों ने सिखाई होगी कि दस से बीस हथियारबंद गुंड़ों से हिंदी फिल्मों का पति एक साल के नन्हे बच्चे को पीठ पर बांध कर न केवल लड़ सकता है बल्कि उनको धूल चटा सकता है। इसीलिए हाईकोर्ट ने उनको इंसाफ दिया था कि बाईज्जत बरी कर दिया था। उन गुंडों को बरी कर दिया था जिनको सजा देने के लिए कोर्ट बनी थी। लेकिन सालों बाद नबकिशोर की लड़ाई कम नहीं हुई थी।
पुलिस से एफआईआर लिखवाने के लिए जो घुटने रगड़े थे उससे भी ज्यादा दर्दनाक था टुकड़ो में पड़ी लाश को पोस्टमार्टम हाउस तक ले जाने के लिए पुलिस वालों के पैर पकड़ कर 48 घंटों में उस लाश को क्राईम सीन से हटाना। ये कहानी दर्द की ऐसी कहानी थी जिसने उडीसा में एक तूफान ला दिया था। 1980 में कांग्रेस की सरकार के तले उसके पार्टी के पदाधिकारियों के खिलाफ लेख लिखने की बड़ी कीमत चुकाई थी उस जिंदगी ने।
वो बच्चा जाने कहां चला गया। जिस बच्चे को बचाने के लिए बिलुआखोई नदी के लंबे फाट पर अपने पति को बच्चा और अपनी कसम देकर पास के गांव मदद लेने भेजा था वो बच्चा सही से विकसित नहीं हो पाया था। मैं उस घर में बैठी दूसरी महिला से और कुछ ज्यादा पूछ नहीं पा रहा था। नबकिशोर को उस वक्त के विपक्षी नेता बीजू पटनायक ने सत्ता में आने के बाद एक नौकरी दे दी थी। क्योंकि उस घटना के बाद नबकिशोर ने पत्रकारिता की कलम को कचरे के डब्बे में फेंक दिया था। कहानी तो बहुत लंबी और दर्द से भरी हुई है लेकिन इस कहानी तक मेरी पहुंच 2003-4 में हुई थी जब मैं सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला देख रहा था कि कैसे 22-23 साल की एक लंबी लड़ाई के बाद छबिरानी को इँसाफ मिला। हालांकि कांग्रेस के वो नेता जिनके खिलाफ इस लड़ाई की शुरूआत हुई थी वो बरी हो गया था, नंदू मोहंती या फिर ऐसा ही कुछ नाम था मैंने उसकी भी तलाश की थी तो पता चला कि उस को लकवा मार चुका था और अब वो किसी से बात करने की स्थिति में नहीं था। नबकिशोर जगतसिंहपुर में पोस्टेड था और मैं उस तक पहुंचने के लिए कोशिश कर रहा था लेकिन वो आउट ऑफ रीच था लिहाजा मैं उस कहानी में कुछ किरदारों से मिल कर लौट आया। मैं देख रहा था कि फोटो को भी दर्द महसूस हो रहा होगा क्योंकि नबकिशोर ने बाद में शादी कर ली थी और उसके दूसरे बच्चों को मैं बहुत ज्यादा सवाल पूछ कर परेशान नहीं करना चाहता था ( मैं आज भी इतना पत्रकार नहीं हो पाया हूं कि किसी से ऐसा सवाल कर उसके आंसू के लिए कैमरामेन को आंखों पर फोकस करने के लिए कहूं हालांकि लोग कहते है इससे भी आम आदमी को किसी दर्द का अहसास होता है)
वो डर भुवनेश्नवर से भी 300 किलोमीटर दूर आगे जाकर किस तरह से फैला हुआ होगा इस बात को सिर्फ आप काले अक्षरों से लिखी हुई एक कहानी मान सकते है। लेकिन उन घने जंगलों में बसे हुए एक गांव में एक पति-पत्नी ने इंसाफ की लड़ाई के लिए कलम को हथियार बनाया था और उस हथियार को भोथरा साबित कर दिया था नौकरशाहों और नेताओं ने।
मैं उस कहानी को आज क्यों कह रहा हूं। क्या लंकेश के मर्डर से इसको जोड रहा हूं नही। ऐसा मेरा कोई ईरादा नहीं है। लंकेश का मर्डर अपनी जगह और छबिरानी को उस मर्डर से मिलाकर मैं छबिरानी को वहां तक नहीं लाना चाहता। क्योकि छबिरानी ने पत्रकारिता इंसाफ के लिए की थी वो किसी की एक्टिविस्ट नहीं थी। उसकी नजर में बीफ खाना किसी कारा को तोड़ना नहीं था, उसका काम किसी को उकसाना नहीं था। वो सिर्फ एक गांव में बैठे हुए लोगों के अधिकारों के लिए कुछ ताकतवर लोगों के खिलाफ खबर लिख रही थी। खबर कर रही थी। लेख नहीं लिख रही थी। वो टीवी पर रोज शाम को बैठकर टाई कोट के साथ ज्ञान बघारते हुए उस ऐँकर की प्रतिभा को शायद इंच भर भी न छू पाएं जिसको एक डॉक्टर के सोशल मीडिया पर लिखे हुए कुछ शब्दों से मौत की धमकी का डर लग जाएं। मैं भांड़ों को बचपन में बहुत देखा है लेकिन साहब उसके इशारे पर नाचते हुए बहुत से बौद्धिक ( सेक्युलर ) लोगों को इस नाम पर हल्ला करते हुए देखता हूूं। अक्सर बेहद शरीफ लोग इन लोगों के तर्क से सहमत होते दिखते है क्योंकि ये लोग ऐसे रैंफरेंस देंगे जो आम आदमी की भागदौड़ में उसके पास नहीं आते। ये विद्वान बनने के लिए इंसान के हक की लड़ाई की बात करते है। ये साबित करने की कोशिश करते है कि इस देश में बदलाव की आंधी लाने के लिए ये रात दिन तेल फूंक रहे है।
इसी साल लंकेश और पत्रकारिता के एक स्वघोषित मुख्यालय जिसमें वामपंथ की आंधी बहती है और दारू कितनी बहती है मालूम नहीं । क्योंकि रिकॉर्ड उनको पब्लिक करना चाहिए कि वो कितनी दारू में सब्सिडी लेते है और कितनी बाकि सब चीजों में। खैर बात दारू की हो रही है तो मेरा अनुमान है वहां दलितों-गरीबों अल्पसंख्यकों, और किसानों के लिए रोने वाले इन महान दाताओं के लिए देसी दारू तो नहीं होगी। क्योंकि गरीब आदमी की दारू से गरीब आदमी की बात कैसे हो सकती है।
अंग्रेजी की खासियत मेरे दोस्त बताते है कि धीरे-धीरे चढ़ती है तो ऐसे में इस क्लब के नए अध्यक्ष को बाद में याद आया कि बौंनों के क्लब में बाहर की लड़की ने एक बौंनों को धमका दिया तो माफी मांग ली। गजब है भाई माफी की क्या बात है तुम लोगों को पत्रकार बना दिया छबिरानी जैसी अनजान और अनाम जुझारू पत्रकारों के बलिदान ने और तुम यहां गाना गा रहे हो।
चलिए बात कुछ ज्यादा लंबी हो रही है। मैं इसलिए लिख रहा हूं कि काफी पत्रकार वहां डरे हुए इकट्ठा हुए या हुई। एक महान पत्रकार महोदया ने कहा कि वो आजकल काफी डरी हुई है। मुझे भी डर लगने लगा कि जब ये हौंसले से थी तो कई सैनिक मर गए थे और अब ये डरी हुई है तो क्या हो सकता है। मुझे लगता है कि कई पत्रकार अब डर के मारे घऱ नहीं सो रहे है वो थानों में सो रहे है रात में । या फौंजी बैरकों में रह रहे है क्योंकि लंकेश के कत्ल ने उनको निशाने पर ला दिया है।
शाहंजहांपुर का जगेन्द्र सिंह भी एक पत्रकार था सब्सिड़ी की दारू नहीं पीता था और अंग्रेजी में देश के लिए रो नहीं सकता था। विदेशी किताबों के रैंफरेंस नहीं दे सकता था लेकिन उसने ताकतवर और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता के खिलाफ खबर लिखी जला दिया गया। इस महान क्लब को डर नहीं लगा। नशा गहरा था। 1 जून 2015 सरकार किसकी थी इस पर वामपंथ को डर लगता है। अपराध से नहीं।
1 अगस्त 2015 देवेन्द्र चतुर्वेदी को कन्नौज में उसके घर के सामने गोली मार दी गई।
कुछ दिन बाद बरेली के फरीदपुर में संजय पाठक को बेरहमी से मार दिया गया।
5 अक्तूबर 2015 चंदौली में हेमंत यादव को गोलियों से मार दिया गया।
29 सिंतबर 2015 को अजय विद्रोही को सीतामढ़ी में गोली मार दी गई।
कुछ ही दिन बाद मिथिलेश पांडेय ( दैनिक जागरण ) को गया जिले के गांव में गोली मार दी गई।
संदीप कोठारी को बालाघाट में खनन माफिया ने अपहरण कर मार कर जला दिया।
सीवान में राजदेव रंजन की हत्या।
सासाराम में धर्मेंद्र सिंह की हत्या
ये लिस्ट और भी लंबी है लेकिन इनमें से किसी के लिए वो क्लब की हवा से महकते हुए बौंनों ने सड़कों पर लंबा मार्च निकाला था। क्योंकि इन्होंने सब्सिड़ी से मिली हुई दारू अंग्रेजी में देश ( अगर कोई व्याख्या हो तो) के खिलाफ कोई नारेबाजी नहीं की थी।
और तो और एक बार भी इन लोगों ने देश के लोगों को गालियां नहीं नवाजीं जिन्होंने अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर एक सरकार चुनी थी। जनतांत्रिक तरीकों से एक सरकार चुनी थी और अगली बार के लिए वो मूर्ख घोषित कर दिए गए।
ये तमाम पत्रकार नाम के बौंने सिर्फ उसी को सरकार कहते है जो इनकी बात सुने। ये उन्हीं को नागरिक मानते हैै जो इनके मुताबिक वोट करे। और जो दूसरा काम करता है वो लंपट है मूर्ख है हत्यारे है। और भी जाने क्या है

सत्ता के किले मेंं दरारेंं दिख रही है लेकिन उन पर निशाना साधने के लिए विपक्ष को जो सेनापति चाहिए वो मिल नहीं रहा है। और लंपट बौंने (पत्रकार) जनता को गाली दे रहे है।


मनोहर लाल खट्टर हरियाणा में क्या कर रहे है सबको स्पष्ट है, बाबा से राजनीतिक फायदा उठाने वालों की कतार में शायद सबसे आखिर ख़ड़े हुए मनोहर को ये समझ में नहीं आ रहा है कि जनता को वो अब खट्टे लग रहे है। पंचकूला में उस भीड़ के बाद मारे गए लोगों को लेकर खट्टर की प्रतिक्रिया समझ से परे है। लेकिन खट्टर एक के बाद एक मौके पर ये साबित कर चुके है कि वो खांटी है जिसको खूंट पर टंगी हुई सत्ता मिल गई है। और वो ये साबित करने में जुटे है कि जनता का अपना महती प्रयोग फिर से विफल हो गया। जनता ने प्रोपर्टी डीलर में बदल चुकी सरकार को बदला था लेकिन ये किस तरह के चूके हुए लोगों को सत्ता में लाकर बैठा दिया।
बाबा गुरमीत सिंह के खिलाफ कार्रवाही करने में जिस तरह की हीलाहवाली की और फिर उसे ढ़कने के लिए जिस तरह से कार्रवाही हुई उसमें 38 जानें चली गई। आज भले ही किसी की अदालत में बैठकर हवा हवाई सफाई देते रहो लेकिन जिन लोगों को देखने की आदत है वो देख चुके है कि क्या हुआ। भीड़ में पत्थर फेंकती हुई जनता को गोलियों से ही भून दिया। लोगों के डर को और हाईकोर्ट के ऑर्डर को मौत के वारंट में बदल डाला सरकार ने। इसके बाद स्कूल वाले हादसे में जिस तरह से मंत्रियों की बयानबाजी है और उसके बाद जिस तरह से कार्रवाही है वो जनता को डरा रही है किस के हाथ में अपना मुस्तकबिल दिया है। उम्मीद है रास्ता खोज रही होगी।
इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा विफल प्रयोग उत्तरप्रदेश में होने जा रहा है। योगी के चुने जाने पर मैंने सिर्फ एक पत्रकार के तौर पर जनता के मत के आधार पर पार्टी की अपनी प्रक्रिया के तौर पर देखा था। लेकिन दस दिन बाद ही सड़क पर अपने अनुभवों से यह महसूस किया था कि ये योगी भी बीजेपी पार्टी को वोट देने वाले लाखों-करोड़ों लोगों को अपमानित करा कर ही सांस लेंगे। नौकरशाहों के गैंग से संचालित योगी सिर्फ एक चीज में बाकि सबसे आगे है और वो है भाषण देने की इच्छा। इसमें वो मोदी को टक्कर देने में जुटे है। कभी सालों बाद जब किसी को रिकॉर्ड चैक करने की बारी आएंगी तो मोदी से बहुत कम मार्जिन से पीछे रहेगे योगी जी और वो भी इसलिए क्योंकि उनको शायद बीच में ही सत्ता से हटाना पड़े।
मैं कल ही घर से लौटा हूं, गांव में उन युवाओं से भी मिला जिनके उत्साही समर्थन को मैंने चुनाव के दौरान देखा था। सड़कों की हालत तो रास्ते में ही दिख रही थी। जिन गडढ़ों को भरने का दावा किया था वो दावे के साथ ही उखड़ गए थे।
मैंने रीवा तक जाने के लिए जिस मिर्जापुर से रास्ता लिया था, वो पूरा रास्ता मेरे लिए एक कभी न भूलने वाला एक दर्दनाक अनुभव है। इतने लंबा रास्ता किस तरह से बिना सड़क के है और योगी जी ये दावा कर बैठे कि सड़कों की हालत ठीक है।
फिर बच्चों के मरने की खबर। एक के बाद एक गलतियों के साथ अपने आप को पाक साफ दिखाने की कोशिश विनम्रता से ज्यादा धृष्टता में ज्यादा बदलती दिख रही है। मंत्रियों की बयान बाजी जो पहले किसी और
पार्टी से आयात किये हुए है। एक के बाद एक ऐसे मसले है जिस पर ये सरकार लगातार कठघरे में दिख रही है।
लेकिन सबसे ज्यादा निराशा सड़कों पर जाते ही हो जाती है। अपने घर से निकलते ही ऑटो स्टैंड पर वसूली करने वाले जिस लड़के को ऑटो वालों से पैसा वसूलते देखता था वो बदस्तूर जारी है। जिस तरह से आटो स्टैंड वाले पूरी सड़क कोक
लेकिन निराशा तो सबसे ज्यादा आपको भ्रष्ट्राचार के मोर्चे पर दिख रही है। जो लोग पैसा वसूलते थे वो आपको अभी सड़कों पर निकलते ही दिख जाएंगे। कम से कम तरीका तो बदल जाना चाहिए था वो भी नहीं बदला। लोग तो कह रहे है कि पहले से ज्यादा पैसा देना पड़ रहा है। एक युवा ठेकेदार ने हंसते हुए बताया कि आप मंडी और पीडब्लूडी के पेंमेंट और ऑर्डर रिलीज का डाटा देख लीजिए और खुद से समझ लीजिए । साहब को पांच परसेंट पहले ही चाहिए। मैं जानता हूं इस तरह की खबर में कभी भी साहब तक तो पहुंच ही नहीं पाएंगे क्योंकि साहब तक बहुत सी सीढ़ियों को पार करके जाना है। ऐसे दरवाजे जिनसे कोई भी अनजान आदमी जा ही नहीं सकता है।
ऐसे बहुत से उदाहरण आपको दिल्ली में दिख सकते है। जनता को मंहगाईं से निजात नहीं मिलती दिख रही है। पेट्रोल और डीजल पर रोज भाषण देने वाले विपक्षी और अब सत्ता के कर्णधार दोनो को देख कर पब्लिक बस माथा ठोंक रही है। लेकिन सवाल खड़ा हो रहा है कि इसके बावजूद भी राज्यों में बीजेपी को चुनौती मिलती नहीं दिख रही है ऐसा क्यों हो रहा है। क्या कारण है तो इसके लिए आपको विपक्षियों की ओर देखने की जरूरत है। पूरा विपक्ष बस जनता के ऊब जाने का इंतजार कर रहा है। अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठाना चाहता। उसको इतिहास पर पूरा यकीन है कि जैसे ही जनता इन लोगों से ऊब जाएंगी तो वो उनको गद्दी दे देंगी। ल
ऐसे बहुत से उदाहरण आपको दिल्ली में दिख सकते है। जनता को मंहगाईं से निजात नहीं मिलती दिख रही है। पेट्रोल और डीजल पर रोज भाष्ण देने वाले विपक्षी और अब सत्ता के कर्णधार दोनो को देख कर पब्लिक बस माथा ठोंक रही है। लेकिन सवाल खड़ा हो रहा है कि इसके बावजूद भी राज्यों में बीजेपी को चुनौती मिलती नहीं दिख रही हैर ऐसा क्यों हो रहा है। क्या कारण है तो इसके लिए आपको विपक्षियों की ओर देखने की जरूरत है। पूरा विपक्ष बस जनता के ऊब जाने का इंतजार कर रहा है। अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठाना चाहता। उसको इतिहास पर पूरा यकीन है कि जैसे ही जनता इन लोगों से ऊब जाएंगी तो वो उनको गद्दी दे देंगी।
लेकिन विपक्ष से ज्यादा एक्टिव आजकल बौंने हो गए। ये सही है कि बौंनों का काम सरकार की पॉलिसियों को परखना और उनमें खामियां है तो सवाल उठाना है लेकिन यहां ये पॉलिसी नहीं जनता से निबट रहे है। जिस जनता ने वोट दिया उस जनता को गाली दे रहे है। खबर नहीं कर रहे है बल्कि खबर न होने देने का रोना रो रहे है।
खबर क्या हो रही है वो जनता खुद से देख रही है। खासतौर से मोदी सरकार ने जिस तरह से तुर्रम खां बौंनों की हालत कर दी है कि वो जो भी बोलते है उससे उलट होता है इस बात से खार खाएं हुए बौंने नया घायल विपक्ष बन गया है। पत्रकारिता गई तेल लेने पहले इनसे निबटे।
मोदी का मंत्रिमंडल हर बार इन तुर्रम खां पत्रकारों की पैंट उतार देता है पब्लिक में। हर मौके पर सूत्रों के सहारे एक ऐसा मंत्रिमंडल बना देते है जो बाद में शपथ लेते वक्त नहीं दिखाई देता।
पूरी सरकार के खिलाफ गालियां बांटते हुए कोई घोटाला नहीं दिखाते बस वामपंथी कदमों के सहारे कदमताल करते दिखते है। वामपंथ का उजला इतिहास नहीं है इस देश में भी नहीं और दुुनिया में भी नहीं। किसी को हअभिव्यक्ति की आाजादी आजतक नहीं दी है। साईबेरिया से लेकर पोलपॉट की कहानी कोई भी देख सुन सकता है लेकिन इस देश में बौंनों ने ऐसी हवा बनाई हुई है कि जैसे मानवीय अधिकारों के लिए ये बलिदानी दिवस मनाते है। इसी कारण से जनता से इन लोगों की बातचीत उतनी देर भी नहीं हो पाती जितनी देर कोई वार्ड का नेता कर लेता है।
और सारी जड़ यही है। जनता को हमेशा सत्ता के मंदाधों को उतारने के लिए नेता चाहिए होते है इस तरह के जोकर नहीं जो क्लब की सड़कों से बाहर निकल देश बदलने का का प्लॉन फिर से क्लब में घुसकर बनाते है।
आप सिर्फ खबरों में सरकारों की पोल खोलिए नेताओं को जनता खोज लेंगी। लेकिन अपनी कमी छिपाने के लिए जनता को गाली मत दीजिए लेकिन शायद ये आपकी नहीं वामपंथी साथ की गलती है जो जनता को ही बदल देते है।