Monday, March 26, 2018

सुप्रीम कोर्ट वाकई सुप्रीम है।

 देश की 98 परसेंट आबादी से राब्ता है न सरोकार है। बस अंग्रेजी के अलावा कुछ भी अस्वीकार है। लिहाजा देस और देश का अंतर उसके फैसलों में साफ दिखता है।
हो सकता है बहुत से लोगों को ये बात नागवार गुजरे और कुछ को ये बात सुप्रीम कोर्ट की अवमानना सी लगे । लेकिन ऐसा नहीं है मै सिर्फ अपने उस अधिकार का इस्तेमाल कर रहा हूं जो मुझे संविधान मिला है यानि सम्यक आलोचना का अधिकार। मुझे लगता है कि कोर्ट अंग्रेजी मीडिया से बायस दिखता है। मैं सोचता था कि कोर्ट अगर स्वंत संज्ञान लेता है अगर किसी खबरों पर तो वो खबरे किस भाषा के अखबारों या मीडिया से मिलती है। क्या सुप्रीम कोर्ट को बाकि भाषाओं के बीच मीडिया में क्या चल रहा है उसकी भी जानकारी है या सिर्फ उसकी भाषा की ताकत 2 परसेंट लोगों की भाषा की ताकत पर ही टिकी है। मेरी समझ से ये बात बाहर है कि 98 परसेंट लोगों को सुप्रीम कोर्ट किस चश्मे से देखता है। उसका चश्मा अगर अंग्रेजी भाषा से ईतर है तो वो किस भाषा से झांकता है। क्योंकि भाषा ही अपना एक साम्राज्य भी रचती है। लिहाजा अंग्रेजी से रचा गया साम्राज्य आपको कम से कम सुप्रीम अदालत की देहलीज से लेकर उनके ऊंची छत वाले कमरों तक में दिखता है। ऐसे में कोर्ट की सेक्युलरिज्म और देश की परिभाषा भी अंग्रेजी से ही निकली है। क्योंकि जो विरोध न करे या फिर जिसका एक मत होना मुश्किल हो उसके खिलाफ बड़े लंबे चौड़े फैसले लिख दो और उन फैसलों का अधिकार ऐसे लोगों की खबरों की छाया भी दिख सकती है जो बेचारे विदेशी स्कॉलरशिप के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए जुटे रहते है। ऐसी दुनिया जो लुटियंस दिल्ली के आस-पास की ईमारतों, दफ्तरों और क्लबों के बीच ही घूमताी है।

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