Monday, March 26, 2018

डरे हुए बौंनों का देश ( विदेशी दारू से महकते हुए क्लब से आगे कुछ नहीं) अब इनके क्रोध की आग से जल जाएंगा। भगवान रहम करे। चलो बौंनों धमकी की बात करते है। कत्ल की बात करते है डर की बात करते है

दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर बहरामपुर के उस घर में बैठ कर मैं उठ नहीं पा रहा था। फोटो मांगा तो एक बेहद खूबसूरत महिला जो अपनी चमकती आंखों से उस फोटों में से भी बोलती हुई दिख रही थी। मैं आंखों की आवाज नहीं पहचान सकता था क्योंकि मेरे तो स्कूल जाने के दिनों में ही वो कत्ल की जा चुकी थी। मैं उसकी भाषा से भी अनजान था। और उसकी दुनिया से भी। ऐसे में उसकी आंखों से उठने वाली कोई भी शिकायत मेरी इस अनजबीपन की दीवार से टकरा का वापस लौट रही थी। लेकिन मेरा एक रिश्ता उस फोटो से था और वही रिश्ता मेरे बॉस के अनिच्छा जाहिर करने के बावजूद मुझे यहां तक खींच लाया था। दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर एक बेबस और मासूम पत्रकार के साथ हुए अन्याय की कहानी का एक सच दिखाने के लिए। 
एक महिला पत्रकार जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उसके बाद उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गए। ये सिर्फ खबर लिखने की सजा थी। ये सजा थी उसके सर उठाने की। ये सजा थी सच दिखाने की। और ये सजा थी सरकार बन बैठी पार्टी के गुंडों को अपनी कलम में लिख कर सबके सामने लाने की। ये छविरानी की बची हुई कहानी का एक सिरा था। बाकि सिरे तो मिल नहीं पाएं थे। मैं उडीसा के उन ईलाकों में घूम रहा था जहां वो 20-22 साल की एक लड़की और और उसका पति नबकिशोर पत्रकारिता कर रहे थे। अदालत के कठघरे में पति ही अपराधी के तौर पर खड़ा कर दिया गया। अदालत के जज को लगा कि कोई पति नहीं हो सकता जो पत्नी के साथ हो रहे बलात्कार और कत्ल को देखकर छिप सके। ये बात उस जज को जरूर हिंदी फिल्मों ने सिखाई होगी कि दस से बीस हथियारबंद गुंड़ों से हिंदी फिल्मों का पति एक साल के नन्हे बच्चे को पीठ पर बांध कर न केवल लड़ सकता है बल्कि उनको धूल चटा सकता है। इसीलिए हाईकोर्ट ने उनको इंसाफ दिया था कि बाईज्जत बरी कर दिया था। उन गुंडों को बरी कर दिया था जिनको सजा देने के लिए कोर्ट बनी थी। लेकिन सालों बाद नबकिशोर की लड़ाई कम नहीं हुई थी।
पुलिस से एफआईआर लिखवाने के लिए जो घुटने रगड़े थे उससे भी ज्यादा दर्दनाक था टुकड़ो में पड़ी लाश को पोस्टमार्टम हाउस तक ले जाने के लिए पुलिस वालों के पैर पकड़ कर 48 घंटों में उस लाश को क्राईम सीन से हटाना। ये कहानी दर्द की ऐसी कहानी थी जिसने उडीसा में एक तूफान ला दिया था। 1980 में कांग्रेस की सरकार के तले उसके पार्टी के पदाधिकारियों के खिलाफ लेख लिखने की बड़ी कीमत चुकाई थी उस जिंदगी ने।
वो बच्चा जाने कहां चला गया। जिस बच्चे को बचाने के लिए बिलुआखोई नदी के लंबे फाट पर अपने पति को बच्चा और अपनी कसम देकर पास के गांव मदद लेने भेजा था वो बच्चा सही से विकसित नहीं हो पाया था। मैं उस घर में बैठी दूसरी महिला से और कुछ ज्यादा पूछ नहीं पा रहा था। नबकिशोर को उस वक्त के विपक्षी नेता बीजू पटनायक ने सत्ता में आने के बाद एक नौकरी दे दी थी। क्योंकि उस घटना के बाद नबकिशोर ने पत्रकारिता की कलम को कचरे के डब्बे में फेंक दिया था। कहानी तो बहुत लंबी और दर्द से भरी हुई है लेकिन इस कहानी तक मेरी पहुंच 2003-4 में हुई थी जब मैं सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला देख रहा था कि कैसे 22-23 साल की एक लंबी लड़ाई के बाद छबिरानी को इँसाफ मिला। हालांकि कांग्रेस के वो नेता जिनके खिलाफ इस लड़ाई की शुरूआत हुई थी वो बरी हो गया था, नंदू मोहंती या फिर ऐसा ही कुछ नाम था मैंने उसकी भी तलाश की थी तो पता चला कि उस को लकवा मार चुका था और अब वो किसी से बात करने की स्थिति में नहीं था। नबकिशोर जगतसिंहपुर में पोस्टेड था और मैं उस तक पहुंचने के लिए कोशिश कर रहा था लेकिन वो आउट ऑफ रीच था लिहाजा मैं उस कहानी में कुछ किरदारों से मिल कर लौट आया। मैं देख रहा था कि फोटो को भी दर्द महसूस हो रहा होगा क्योंकि नबकिशोर ने बाद में शादी कर ली थी और उसके दूसरे बच्चों को मैं बहुत ज्यादा सवाल पूछ कर परेशान नहीं करना चाहता था ( मैं आज भी इतना पत्रकार नहीं हो पाया हूं कि किसी से ऐसा सवाल कर उसके आंसू के लिए कैमरामेन को आंखों पर फोकस करने के लिए कहूं हालांकि लोग कहते है इससे भी आम आदमी को किसी दर्द का अहसास होता है)
वो डर भुवनेश्नवर से भी 300 किलोमीटर दूर आगे जाकर किस तरह से फैला हुआ होगा इस बात को सिर्फ आप काले अक्षरों से लिखी हुई एक कहानी मान सकते है। लेकिन उन घने जंगलों में बसे हुए एक गांव में एक पति-पत्नी ने इंसाफ की लड़ाई के लिए कलम को हथियार बनाया था और उस हथियार को भोथरा साबित कर दिया था नौकरशाहों और नेताओं ने।
मैं उस कहानी को आज क्यों कह रहा हूं। क्या लंकेश के मर्डर से इसको जोड रहा हूं नही। ऐसा मेरा कोई ईरादा नहीं है। लंकेश का मर्डर अपनी जगह और छबिरानी को उस मर्डर से मिलाकर मैं छबिरानी को वहां तक नहीं लाना चाहता। क्योकि छबिरानी ने पत्रकारिता इंसाफ के लिए की थी वो किसी की एक्टिविस्ट नहीं थी। उसकी नजर में बीफ खाना किसी कारा को तोड़ना नहीं था, उसका काम किसी को उकसाना नहीं था। वो सिर्फ एक गांव में बैठे हुए लोगों के अधिकारों के लिए कुछ ताकतवर लोगों के खिलाफ खबर लिख रही थी। खबर कर रही थी। लेख नहीं लिख रही थी। वो टीवी पर रोज शाम को बैठकर टाई कोट के साथ ज्ञान बघारते हुए उस ऐँकर की प्रतिभा को शायद इंच भर भी न छू पाएं जिसको एक डॉक्टर के सोशल मीडिया पर लिखे हुए कुछ शब्दों से मौत की धमकी का डर लग जाएं। मैं भांड़ों को बचपन में बहुत देखा है लेकिन साहब उसके इशारे पर नाचते हुए बहुत से बौद्धिक ( सेक्युलर ) लोगों को इस नाम पर हल्ला करते हुए देखता हूूं। अक्सर बेहद शरीफ लोग इन लोगों के तर्क से सहमत होते दिखते है क्योंकि ये लोग ऐसे रैंफरेंस देंगे जो आम आदमी की भागदौड़ में उसके पास नहीं आते। ये विद्वान बनने के लिए इंसान के हक की लड़ाई की बात करते है। ये साबित करने की कोशिश करते है कि इस देश में बदलाव की आंधी लाने के लिए ये रात दिन तेल फूंक रहे है।
इसी साल लंकेश और पत्रकारिता के एक स्वघोषित मुख्यालय जिसमें वामपंथ की आंधी बहती है और दारू कितनी बहती है मालूम नहीं । क्योंकि रिकॉर्ड उनको पब्लिक करना चाहिए कि वो कितनी दारू में सब्सिडी लेते है और कितनी बाकि सब चीजों में। खैर बात दारू की हो रही है तो मेरा अनुमान है वहां दलितों-गरीबों अल्पसंख्यकों, और किसानों के लिए रोने वाले इन महान दाताओं के लिए देसी दारू तो नहीं होगी। क्योंकि गरीब आदमी की दारू से गरीब आदमी की बात कैसे हो सकती है।
अंग्रेजी की खासियत मेरे दोस्त बताते है कि धीरे-धीरे चढ़ती है तो ऐसे में इस क्लब के नए अध्यक्ष को बाद में याद आया कि बौंनों के क्लब में बाहर की लड़की ने एक बौंनों को धमका दिया तो माफी मांग ली। गजब है भाई माफी की क्या बात है तुम लोगों को पत्रकार बना दिया छबिरानी जैसी अनजान और अनाम जुझारू पत्रकारों के बलिदान ने और तुम यहां गाना गा रहे हो।
चलिए बात कुछ ज्यादा लंबी हो रही है। मैं इसलिए लिख रहा हूं कि काफी पत्रकार वहां डरे हुए इकट्ठा हुए या हुई। एक महान पत्रकार महोदया ने कहा कि वो आजकल काफी डरी हुई है। मुझे भी डर लगने लगा कि जब ये हौंसले से थी तो कई सैनिक मर गए थे और अब ये डरी हुई है तो क्या हो सकता है। मुझे लगता है कि कई पत्रकार अब डर के मारे घऱ नहीं सो रहे है वो थानों में सो रहे है रात में । या फौंजी बैरकों में रह रहे है क्योंकि लंकेश के कत्ल ने उनको निशाने पर ला दिया है।
शाहंजहांपुर का जगेन्द्र सिंह भी एक पत्रकार था सब्सिड़ी की दारू नहीं पीता था और अंग्रेजी में देश के लिए रो नहीं सकता था। विदेशी किताबों के रैंफरेंस नहीं दे सकता था लेकिन उसने ताकतवर और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता के खिलाफ खबर लिखी जला दिया गया। इस महान क्लब को डर नहीं लगा। नशा गहरा था। 1 जून 2015 सरकार किसकी थी इस पर वामपंथ को डर लगता है। अपराध से नहीं।
1 अगस्त 2015 देवेन्द्र चतुर्वेदी को कन्नौज में उसके घर के सामने गोली मार दी गई।
कुछ दिन बाद बरेली के फरीदपुर में संजय पाठक को बेरहमी से मार दिया गया।
5 अक्तूबर 2015 चंदौली में हेमंत यादव को गोलियों से मार दिया गया।
29 सिंतबर 2015 को अजय विद्रोही को सीतामढ़ी में गोली मार दी गई।
कुछ ही दिन बाद मिथिलेश पांडेय ( दैनिक जागरण ) को गया जिले के गांव में गोली मार दी गई।
संदीप कोठारी को बालाघाट में खनन माफिया ने अपहरण कर मार कर जला दिया।
सीवान में राजदेव रंजन की हत्या।
सासाराम में धर्मेंद्र सिंह की हत्या
ये लिस्ट और भी लंबी है लेकिन इनमें से किसी के लिए वो क्लब की हवा से महकते हुए बौंनों ने सड़कों पर लंबा मार्च निकाला था। क्योंकि इन्होंने सब्सिड़ी से मिली हुई दारू अंग्रेजी में देश ( अगर कोई व्याख्या हो तो) के खिलाफ कोई नारेबाजी नहीं की थी।
और तो और एक बार भी इन लोगों ने देश के लोगों को गालियां नहीं नवाजीं जिन्होंने अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर एक सरकार चुनी थी। जनतांत्रिक तरीकों से एक सरकार चुनी थी और अगली बार के लिए वो मूर्ख घोषित कर दिए गए।
ये तमाम पत्रकार नाम के बौंने सिर्फ उसी को सरकार कहते है जो इनकी बात सुने। ये उन्हीं को नागरिक मानते हैै जो इनके मुताबिक वोट करे। और जो दूसरा काम करता है वो लंपट है मूर्ख है हत्यारे है। और भी जाने क्या है

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