श्मशान की लकड़ियां भर दी है इस कमरे में। जालों और लकड़ियों के बीच एक पत्थर भी लगा है जिस पर लिखा है, गांधी जी ने दांडी यात्रा के दौरान यहां रात्रि विश्राम किया था। सरकार तो और भी आगे है, उसने मातर में यादों को ही जला दिया। .........दांडी यात्रा ...9
जगह बदली, कमरा बदला, ताला बदला लेकिन महात्मा गांधी के स्मृति शेषों की किस्मत नहीं बदली वो अब ताले में ही कैद हो गई है। इस कमरे की हालत के बारे में लिखने से पहले सोचना चाहिए। एक बंद दरवाजा। हैंकों कंपनी का ताला, उस पर संत जालाराम का नाम, खिडकियों पर लगे हुए जाले, और जालों के अंदर लकड़ियां ही लकड़िया। कमरे के एक और बोर्ड पर लिखा था पूजनीय महात्मा गांधी दांडी यात्रा के दौरान यही रात्रि विश्राम किए थे। इसी दरवाजे के दूसरी ओर एक और बोर्ड लगा था जिसपर लिखा था कि अंतिम संस्कार के लिए बिना मूल्य की लकड़ी यहां से मिलती है। कोई भी आदमी यहां से लकड़ी ले जा सकता है। और खिड़की के अंदर झांकने पर जालों से भरी हुई लकड़िया और धुंधलाता हुआ पत्थर। उस पत्थऱ पर ही लिखा था कि पूजनीय महात्मा ने यहां रात गुजारी थी दांडी यात्रा के बीच। ये मातर है। जहां होलिका दहन की रात महात्मा ने आम जनता के संवाद किया था। ये यादों की चिता के लिए सामान जुटाती हुई यात्रा है या फिर देश के बदलाव के लिए एक मानव के महामानव बनने की यात्रा का पीछा कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। लेकिन इससे पहले रास्ते की बात करता हूं।
“आधुनिक पीढ़ी कमजोर है और लाड़ प्यार से बिगड़ी हुई।“ महात्मा गांधी दांडी की महायात्रा में अपने से पीछे छूट जाने वाले जवानों से अक्सर मजाक किया करते थे। लेकिन वो भी शायद ये यकीन नहीं करते कि ये पीढ़ी सिर्फ बिगड़ी नहीं है बल्कि इतिहास से कटी हुई है। इतिहास की हर चीज उसको कहानी लगती है। और वो भी परियों की जिनके न होने का यकीन उसको साईंस ने दिला दिया है। दांडी यात्रा में जितने कदम आप चलते है उतने कदम महात्मा और अपने बीच की दूरी को अहसास करते हुए चलते है। नेशनल हाईवे के तौर पर अब दिखने लगा था कि सरकार की आंख-नाक और कान बने हुई ब्यूरोक्रेसी ने यहां तक आते-आते गांधी को महात्मा मान लिया है। इसीलिए एक मार्ग को भी राष्ट्रीय राजमार्ग बना दिया है। एन एच 238 दांडी का ये राजमार्ग है। ऐसा राजमार्ग जिस पर शायद गांधी चले थे। नौगाम से बाहर निकलते हुए लग रहा था कि जैसे पांव उठ नहीं रहे है। एक ऐसा गांव जिसको महात्मा अपने दिल से जुड़ा हुआ मानते थे वहां अब वो एक बिल्डिंग से ज्यादा कुछ नहीं रह गए थे। गांव में गांधी का क्या मतलब है इसको बहुत पहले भूला बैठे हुए गांव वाले अपनी चुनी हुई सरकार पर सफाई न करने का ठीकरा फोड़ते हुए चुनावों की चर्चा में मशगूल थे। राष्ट्रीय राजमार्ग भी ठीक जगह पर साफ दिख रहा था। बोर्ड के ऊपर गांधी जी का स्केच भी दिख रहा था और दांडी की दूरी भी। लेकिन इस तरह के बोर्ड से गांधी को कितना दिलासा मिलता ये भी उनके अगले ही पड़ाव पर साफ हो गया था।
नवागाम से निकल कर सत्याग्रही अगले स्थल की ओर रवाना हो गए। गांधी जी का अगला पडाव था वासन। गांव वाले आधे रास्ते में ही पहुंच कर गांधी जी का स्वागत करने पहुंच गए थे। गांव में एक धर्मशाला में रूकने का प्रोग्राम था लेकिन गांधी जी को गांव के कुछ बाहर ही रोक कर एक पेड़ के नीचे फूस से तैयार की गई एक कुटिया में ठहराया गया। बाकि सब सहयात्रियों के लिए भी खादी के साथ तैयार की स्थल पर ठहराया गया। इंतजाम बेहद करीने से किया गया था। यानि इस तरह की इस यात्रा में सत्याग्राहियों को ये बेहतर इंतजाम दिखा। सब आदमियों को ऐसा ही दिख रहा था। लेकिन गांधी जी सब आदमियों में नहीं थे। गांधी जी महात्मा तक का सफर तय कर चुके थे। उनकी आंखें हिंदुस्तानी समाज के कोढ़ और खाज दोनों को देख रही थी। गांव वालों के एक खास मकसद को गांधी जी की आंखों ने पहचान लिया था। और तिलिस्म को तोड़ने के लिए गांधी जी ने अपने संबोधन का इंतजार किया।
“आधुनिक पीढ़ी कमजोर है और लाड़ प्यार से बिगड़ी हुई।“ महात्मा गांधी दांडी की महायात्रा में अपने से पीछे छूट जाने वाले जवानों से अक्सर मजाक किया करते थे। लेकिन वो भी शायद ये यकीन नहीं करते कि ये पीढ़ी सिर्फ बिगड़ी नहीं है बल्कि इतिहास से कटी हुई है। इतिहास की हर चीज उसको कहानी लगती है। और वो भी परियों की जिनके न होने का यकीन उसको साईंस ने दिला दिया है। दांडी यात्रा में जितने कदम आप चलते है उतने कदम महात्मा और अपने बीच की दूरी को अहसास करते हुए चलते है। नेशनल हाईवे के तौर पर अब दिखने लगा था कि सरकार की आंख-नाक और कान बने हुई ब्यूरोक्रेसी ने यहां तक आते-आते गांधी को महात्मा मान लिया है। इसीलिए एक मार्ग को भी राष्ट्रीय राजमार्ग बना दिया है। एन एच 238 दांडी का ये राजमार्ग है। ऐसा राजमार्ग जिस पर शायद गांधी चले थे। नौगाम से बाहर निकलते हुए लग रहा था कि जैसे पांव उठ नहीं रहे है। एक ऐसा गांव जिसको महात्मा अपने दिल से जुड़ा हुआ मानते थे वहां अब वो एक बिल्डिंग से ज्यादा कुछ नहीं रह गए थे। गांव में गांधी का क्या मतलब है इसको बहुत पहले भूला बैठे हुए गांव वाले अपनी चुनी हुई सरकार पर सफाई न करने का ठीकरा फोड़ते हुए चुनावों की चर्चा में मशगूल थे। राष्ट्रीय राजमार्ग भी ठीक जगह पर साफ दिख रहा था। बोर्ड के ऊपर गांधी जी का स्केच भी दिख रहा था और दांडी की दूरी भी। लेकिन इस तरह के बोर्ड से गांधी को कितना दिलासा मिलता ये भी उनके अगले ही पड़ाव पर साफ हो गया था।
नवागाम से निकल कर सत्याग्रही अगले स्थल की ओर रवाना हो गए। गांधी जी का अगला पडाव था वासन। गांव वाले आधे रास्ते में ही पहुंच कर गांधी जी का स्वागत करने पहुंच गए थे। गांव में एक धर्मशाला में रूकने का प्रोग्राम था लेकिन गांधी जी को गांव के कुछ बाहर ही रोक कर एक पेड़ के नीचे फूस से तैयार की गई एक कुटिया में ठहराया गया। बाकि सब सहयात्रियों के लिए भी खादी के साथ तैयार की स्थल पर ठहराया गया। इंतजाम बेहद करीने से किया गया था। यानि इस तरह की इस यात्रा में सत्याग्राहियों को ये बेहतर इंतजाम दिखा। सब आदमियों को ऐसा ही दिख रहा था। लेकिन गांधी जी सब आदमियों में नहीं थे। गांधी जी महात्मा तक का सफर तय कर चुके थे। उनकी आंखें हिंदुस्तानी समाज के कोढ़ और खाज दोनों को देख रही थी। गांव वालों के एक खास मकसद को गांधी जी की आंखों ने पहचान लिया था। और तिलिस्म को तोड़ने के लिए गांधी जी ने अपने संबोधन का इंतजार किया।
भोजन के बाद गांधी जी गांव वालों को बोलना शुरू किया। गांव वालों जिनमें एक बड़ी तादाद महिलाओं की भी थी, गांधी जी का शानदार स्वागत किया और 325 रूपये की एक मोटी रकम भी भेट की। गांधी जी ने बोलना शुरू किया,
क्या गांव के बाहर इतने खूबसूरत इंतजाम इसी लिये किया है कि गांधी गांव के अंदर न जा सके, क्योंकि गांधी जी के सहयात्रियों में दलित और मुसलमान दोनों शामिल है और इसीलिए किसी दुविधा से बचने के लिए गांव से बाहर ही स्वागत किया गया। यदि आप लोगों ने धर्मशाला में उन लोगों के प्रवेश से बचने के लिए अगर ये किया है तो मुझे दुख है। क्योंकि मैं खेड़ा में काफी लंबे समय तक रहा और छूआछूत दूर करने के लिए काफी बात भी की थी। अगर आप वाकई मुझे इस लड़ाई में साथ देना चाहते थे इस तरह का कार्य आप नहीं कर सकते है। गांधी जी की आवाज के गुस्से को उनके अनुयायी महसूस कर रहे थे। लेकिन फिर गांधी ने उन तमाम लोगों को बधाई दी जिन्होंने सरकारी सेवा से इस्तीफा दिया।
हम लोग भी नवागाम से निकल कर मातर की ओर चले थे। रास्तें में बोर्ड को देखते हुए और कुछ कुछ आशंकाओं से घिरे हुए नवागाम की ओर जा रहे थे। अब ये सब गांव हाईवे से अंदर की ओर जाने पर ही सामने आते है। हाईवे की चमक से अब आप अंदर का अंदाजा नहीं लगा सकते। ये देश कुछ दिनों से इसी तरह से एक बेहतर पैकेजिंग करने में माहिर हो चुका है। पूरा का पूरा देश जैसे एक खाल पहने हुए घूम रहा है जैसे ही मौका मिलता है अपनी खाल से बाहर निकल कर असली रूप में आ खड़ा होता है। और कोढ़ में खाज इस बार दिखी जब राजनेताओं को फोटो खींचवाने केलिए साबरमति मिल ही गया है तो फिर लूट के लिए खुली छूट नौकरशाहों को दांडी यात्रा के लिए दे दी। पूरे रास्ते में एक भी ऐसा इंतजाम नहीं दिख रहा था जिससे गांधी को देश की जनता के साथ जोड़ने का प्रयास दिखे बल्कि इस तरह से रास्ता तैयार किया जा रहा है कि वो विस्मृति के गर्भ में समा जाएं।
मातर पहुंचने के लिए हमने हाईवे से आगे की ओर अपनी कार मोड़ ली। अब गांव के बाहर एक बड़ा सा गेट बना हुआ था। गेट को पार करते ही दो तीन लोग दिखे उनसे पूछा कि हमको महात्मा के दांडी विश्राम गृह तक जाना है। लेकिन उन लोगों ने कहा कि साहब हम लोग बाहर से आएँ है आप आगे पूछ लीजिए। आगे एक गैराज था। गैराज से लोग बाहर आएँ और हम लोगों की मदद करने की कोशिश की। लेकिन वो गांधी के दांडी यात्रा के बारे मे ज्यादा नहीं जानते थे उन्होंने बताया कि आप आगे जाकर कांग्रेस के चुनाव कार्यालय से पता कर सकते है। हम लोग फिर आगे की ओर बढ़ गए। कांग्रेस दफ्तर के बाहर भी दो युवा निकले लेकिन वो भी बता नहीं पाएं लेकिन मदद के तौर पर उन्होंने एक बुजर्ग को बुला दिया। बुजुर्ग ने हमारी बात का जवाब दिया कि आगे एक पंचायत का दफ्तर है वहां से हमको सही से पता चल जाएंगा। आखिर हम लोग दफ्तर जा पहुंचे। और वहां विंडों से अंदर बैठे हुए अफसर से पूछा कि क्या वो हमको बता सकता है कि दांडी विश्रामगृह कहा है। इस पर उन्होंने कहा कि आप अंदर आ जाएं। हम लोग पीछे के रास्ते से अंदर कमरे में चले गए।
कमरे पर बैठने पर पता चला कि वो अधिकारी अभी आएं है। उन्होंने एक पुराने कर्मचारी को बुलाया। वो सही से बोल नहीं सकता था। गले में ऑपरेशन हुआ था तो सिर्फ बहुत धीमी धीमी आवाज से ही बोल पा रहा था। तहकीकात की तो पता चला कि यहां दांडी से रिश्ता रखने वाली दो बिल्डिंग है। एक बाहर है जो सरकार ने बनाई है। जिसमें रूकने का इंतजाम है और दूसरी जिसमें गांधी रूके थे। ये नई बात थी। अभी तक सरकार उन्हीं चीजों को ऐतिहासिक दांडी यात्रा के नाम पर लिख रही थी जहां गांधी जी रूके थे लेकिन नवागाम में भी उस कमरे को बदल कर बाहर गांधी मंदिर बना दिया तो यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ है। ये क्या इतिहास बदलने की कवायद है या फिर इतिहास से खिलवाड़ करने की इस पर फिर कभी बात की जा सकती है। फिलहाल बात गांधी जी यात्रा पर ही करते है। मैंने कहा कि मैं सिर्फ वही जगह देखना चाहता हूं, खैर वो मुझे लेकर बाहर की ओर चल दिए। गली के अंदर ही आगे बढ़ गए। लेकिन ये क्या मुड़ते ही गंदगी से भऱी हुई गली।दोनों तरफ कूडा ढोने वाली बेकार गाड़ियां खड़ी थी। उनमें जंग लग चुका था। उसके बाद बेहद गंदगी से भऱा हुआ रास्ता और फिर एक ताला लगा हुआ दरवाजा। वो एक कमरा भर था। धर्मशाला का बाहरी कमरा। कमरे में पहले एक खिड़की दिखी जो जालों से अटी हुई थी। उसके अंदर लकड़ियां भरी दिख रही थी। उन लकड़ियों पर भी जाले लगे थे। दरवाजे की पहली दीवार पर सफेदी से पुती हुई एक छोटी जगह पर नीले और लाल रंगों से लिखा हुआ था कि पूजनीय महात्मा गांधी ने दांडी मार्च के दौरान इसी कमरे में रात्रि विश्राम किया था। लेकिन कमरे में जाने दरवाजे पर ताला जड़ा था। उससे आगे की खिड़की पर लोहे के तार के सहारे एक बोर्ड लटका हुआ था। ये दरवाजे की दूसरी तरफ की दीवार है। इस पर लिखा था कि बिना मूल्य की श्मशान की लकड़ी यहां मिलती है। उस पर ओर भी लिखा था और दो नंबर लिखे थे। अब फिर वही सवाल ताले की चाबी किसके पास है। वापस दफ्तर में लेकिन पता चला जिसके पास चाबी है वो तो शहर गया है। अब और कोई रास्ता नहीं और मैं कमरे को अंदर से देखना चाहता था। लेकिन अफसर के पास कोई रास्ता नहीं था क्योंकि उसको इससे कुछ फर्क भी नहीं पड़ रहा था। लिहाजा चपरासी को हमारी मदद करने को कहकर वो निकल गया। और मैं फिर अपने से उस बोर्ड पर पहुंचा, गुजराती ड्राईवर की मदद से नंबर लिया और उसको फोन किया। फोन करने पर उन सज्जन ने बताया कि वो अभी खाना खाने बैठे है लिहाजा थोडी देर बाद बात करे। मैंने फिर थोडी देर बाद फोन किया तो वो आ ही गए। दरवाजा खुला तो देखा कि ये दांडी की याद नहीं दांड़ी की दुर्दशा की कहानी ज्यादा सुना रहा है। इसके बाद मैंने छबीलदास धर्मशाला के उन प्रबंधक रामगोपाल बेझा जी से पूछा कि आखिर आपने इस कमरे में ये क्यों भर दिया तो उन्होंने कहा कि हमने सरकार को कहा था कि वो चाहे तो इस कमरे को ले सकती है लेकिन सरकार को लगा कि ये छोटी जगह है लिहाजा उन्होंने इस कमरे को लेने से इंकार कर दिया और सड़क के दूसरी तरफ दांडी यात्रा का विश्राम गृह बना दिया है और फिर खाली पड़े इस कमरे में आवारा लोग रहने लगे थे। दारू और दूसरे कामों का अड़्डा बना दिया था लिहाजा धर्मशाला के प्रबंधकों ने उनसे ये खाली करा लिया और जब कुछ और इस्तेमाल नहीं दिखा तो उन्होंने इसमें शवों के दहन के लिए फ्री में लकड़ियां देना शुरू कर इसको लकड़ी का स्टोर बना दिया। कमरे के बीच में लगा हुआ बोर्ड जैसे सिर्फ मुंह चिढ़ा रहा था कि ऐसे पीढ़ी कल्पना कौन कर सकता है और ऐसा आदमी तो कतई नही जो सदियों से जंजीरों में बंद लोगों को आजाद करने की लडाई अपने कंधों पर लेकर चल रहा हो। मातर गांव में गांधी जी का भव्य स्वागत हुआ था, भारी भीड़ वहां मौजूद थी। गांधी ने कहा था कि मुझे स्वयंसेवक चाहिए क्योंकि इस लड़ाई को ल़ड़ने के लिए हर आदमी समर्थ है और सरकार सेवा से इस्तीफे देने वाले लोग। गांव से गांधी जी को जो दिया गया था उस पीढ़ी के बाद आने वाले लोगों ने उसको जरूर जला दिया क्योंकि इस कमरे को सरकार की नहीं लोगों की जरूरत थी।
हम निकल रहे थे तो हमने नई दांडी यात्रा की ईबारत भी पढ़नी चाही। कुछ दूर जाकर ताला लगा गेट था। उसके अंदर आधुनिक तरीके से बना हुआ भवन दिखा। कमरे थे। गार्ड थे। लेकिन बाकि कुछ नहीं। खाली आलमारियों जैसे इंतजार कर रही हो कुछ रखे जाने थे। पता चला कि 2013 से इस भवन का निर्माण कार्य हुआ था लेकिन अभी तक ऐसे ही है। बन चुका है लेकिन किस लिए किसी को मालूम नहीं। सरकारी फाईलों में ये हैरिटेज भवन है। दांडी की ऐतिहासिक यात्रा करने वाले यात्रियों को विश्राम के लिए बने इस भवन में अभी तक कई विदेशी तो ठहरे लेकिन देसी लोगों को इंतजार करता ये भवन न तो इतिहास का कोई रास्ता सुझाता है और न ही इसमें भविष्य की कोई उम्मीद देखते हुए लोग मिलते है। मातर से अब आगे की ओर सफर करते है। क्योंकि ये यात्रा तो दुख देती जा रही है।इस नये बने भवन को सही से चलाने की लड़ाई लड रहे संजय भाई से मैंने पूछा कि आखिर सब कुछ सरकार ही करे आप की कोई जिम्मेदारी नहीं है कि कमरे के बाहर से कूड़ा ही उठा दे तो संजय भाई ने कहा बात तो आपकी सही लेकिन पैसा तो सारा सरकार ने इकटठा किया है तो वही साफ करे। दुख इस बात का कि महात्मा गांधी को याद करो न करो महात्मा गांधी की याद को अपमानित तो न करो। ....
क्या गांव के बाहर इतने खूबसूरत इंतजाम इसी लिये किया है कि गांधी गांव के अंदर न जा सके, क्योंकि गांधी जी के सहयात्रियों में दलित और मुसलमान दोनों शामिल है और इसीलिए किसी दुविधा से बचने के लिए गांव से बाहर ही स्वागत किया गया। यदि आप लोगों ने धर्मशाला में उन लोगों के प्रवेश से बचने के लिए अगर ये किया है तो मुझे दुख है। क्योंकि मैं खेड़ा में काफी लंबे समय तक रहा और छूआछूत दूर करने के लिए काफी बात भी की थी। अगर आप वाकई मुझे इस लड़ाई में साथ देना चाहते थे इस तरह का कार्य आप नहीं कर सकते है। गांधी जी की आवाज के गुस्से को उनके अनुयायी महसूस कर रहे थे। लेकिन फिर गांधी ने उन तमाम लोगों को बधाई दी जिन्होंने सरकारी सेवा से इस्तीफा दिया।
हम लोग भी नवागाम से निकल कर मातर की ओर चले थे। रास्तें में बोर्ड को देखते हुए और कुछ कुछ आशंकाओं से घिरे हुए नवागाम की ओर जा रहे थे। अब ये सब गांव हाईवे से अंदर की ओर जाने पर ही सामने आते है। हाईवे की चमक से अब आप अंदर का अंदाजा नहीं लगा सकते। ये देश कुछ दिनों से इसी तरह से एक बेहतर पैकेजिंग करने में माहिर हो चुका है। पूरा का पूरा देश जैसे एक खाल पहने हुए घूम रहा है जैसे ही मौका मिलता है अपनी खाल से बाहर निकल कर असली रूप में आ खड़ा होता है। और कोढ़ में खाज इस बार दिखी जब राजनेताओं को फोटो खींचवाने केलिए साबरमति मिल ही गया है तो फिर लूट के लिए खुली छूट नौकरशाहों को दांडी यात्रा के लिए दे दी। पूरे रास्ते में एक भी ऐसा इंतजाम नहीं दिख रहा था जिससे गांधी को देश की जनता के साथ जोड़ने का प्रयास दिखे बल्कि इस तरह से रास्ता तैयार किया जा रहा है कि वो विस्मृति के गर्भ में समा जाएं।
मातर पहुंचने के लिए हमने हाईवे से आगे की ओर अपनी कार मोड़ ली। अब गांव के बाहर एक बड़ा सा गेट बना हुआ था। गेट को पार करते ही दो तीन लोग दिखे उनसे पूछा कि हमको महात्मा के दांडी विश्राम गृह तक जाना है। लेकिन उन लोगों ने कहा कि साहब हम लोग बाहर से आएँ है आप आगे पूछ लीजिए। आगे एक गैराज था। गैराज से लोग बाहर आएँ और हम लोगों की मदद करने की कोशिश की। लेकिन वो गांधी के दांडी यात्रा के बारे मे ज्यादा नहीं जानते थे उन्होंने बताया कि आप आगे जाकर कांग्रेस के चुनाव कार्यालय से पता कर सकते है। हम लोग फिर आगे की ओर बढ़ गए। कांग्रेस दफ्तर के बाहर भी दो युवा निकले लेकिन वो भी बता नहीं पाएं लेकिन मदद के तौर पर उन्होंने एक बुजर्ग को बुला दिया। बुजुर्ग ने हमारी बात का जवाब दिया कि आगे एक पंचायत का दफ्तर है वहां से हमको सही से पता चल जाएंगा। आखिर हम लोग दफ्तर जा पहुंचे। और वहां विंडों से अंदर बैठे हुए अफसर से पूछा कि क्या वो हमको बता सकता है कि दांडी विश्रामगृह कहा है। इस पर उन्होंने कहा कि आप अंदर आ जाएं। हम लोग पीछे के रास्ते से अंदर कमरे में चले गए।
कमरे पर बैठने पर पता चला कि वो अधिकारी अभी आएं है। उन्होंने एक पुराने कर्मचारी को बुलाया। वो सही से बोल नहीं सकता था। गले में ऑपरेशन हुआ था तो सिर्फ बहुत धीमी धीमी आवाज से ही बोल पा रहा था। तहकीकात की तो पता चला कि यहां दांडी से रिश्ता रखने वाली दो बिल्डिंग है। एक बाहर है जो सरकार ने बनाई है। जिसमें रूकने का इंतजाम है और दूसरी जिसमें गांधी रूके थे। ये नई बात थी। अभी तक सरकार उन्हीं चीजों को ऐतिहासिक दांडी यात्रा के नाम पर लिख रही थी जहां गांधी जी रूके थे लेकिन नवागाम में भी उस कमरे को बदल कर बाहर गांधी मंदिर बना दिया तो यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ है। ये क्या इतिहास बदलने की कवायद है या फिर इतिहास से खिलवाड़ करने की इस पर फिर कभी बात की जा सकती है। फिलहाल बात गांधी जी यात्रा पर ही करते है। मैंने कहा कि मैं सिर्फ वही जगह देखना चाहता हूं, खैर वो मुझे लेकर बाहर की ओर चल दिए। गली के अंदर ही आगे बढ़ गए। लेकिन ये क्या मुड़ते ही गंदगी से भऱी हुई गली।दोनों तरफ कूडा ढोने वाली बेकार गाड़ियां खड़ी थी। उनमें जंग लग चुका था। उसके बाद बेहद गंदगी से भऱा हुआ रास्ता और फिर एक ताला लगा हुआ दरवाजा। वो एक कमरा भर था। धर्मशाला का बाहरी कमरा। कमरे में पहले एक खिड़की दिखी जो जालों से अटी हुई थी। उसके अंदर लकड़ियां भरी दिख रही थी। उन लकड़ियों पर भी जाले लगे थे। दरवाजे की पहली दीवार पर सफेदी से पुती हुई एक छोटी जगह पर नीले और लाल रंगों से लिखा हुआ था कि पूजनीय महात्मा गांधी ने दांडी मार्च के दौरान इसी कमरे में रात्रि विश्राम किया था। लेकिन कमरे में जाने दरवाजे पर ताला जड़ा था। उससे आगे की खिड़की पर लोहे के तार के सहारे एक बोर्ड लटका हुआ था। ये दरवाजे की दूसरी तरफ की दीवार है। इस पर लिखा था कि बिना मूल्य की श्मशान की लकड़ी यहां मिलती है। उस पर ओर भी लिखा था और दो नंबर लिखे थे। अब फिर वही सवाल ताले की चाबी किसके पास है। वापस दफ्तर में लेकिन पता चला जिसके पास चाबी है वो तो शहर गया है। अब और कोई रास्ता नहीं और मैं कमरे को अंदर से देखना चाहता था। लेकिन अफसर के पास कोई रास्ता नहीं था क्योंकि उसको इससे कुछ फर्क भी नहीं पड़ रहा था। लिहाजा चपरासी को हमारी मदद करने को कहकर वो निकल गया। और मैं फिर अपने से उस बोर्ड पर पहुंचा, गुजराती ड्राईवर की मदद से नंबर लिया और उसको फोन किया। फोन करने पर उन सज्जन ने बताया कि वो अभी खाना खाने बैठे है लिहाजा थोडी देर बाद बात करे। मैंने फिर थोडी देर बाद फोन किया तो वो आ ही गए। दरवाजा खुला तो देखा कि ये दांडी की याद नहीं दांड़ी की दुर्दशा की कहानी ज्यादा सुना रहा है। इसके बाद मैंने छबीलदास धर्मशाला के उन प्रबंधक रामगोपाल बेझा जी से पूछा कि आखिर आपने इस कमरे में ये क्यों भर दिया तो उन्होंने कहा कि हमने सरकार को कहा था कि वो चाहे तो इस कमरे को ले सकती है लेकिन सरकार को लगा कि ये छोटी जगह है लिहाजा उन्होंने इस कमरे को लेने से इंकार कर दिया और सड़क के दूसरी तरफ दांडी यात्रा का विश्राम गृह बना दिया है और फिर खाली पड़े इस कमरे में आवारा लोग रहने लगे थे। दारू और दूसरे कामों का अड़्डा बना दिया था लिहाजा धर्मशाला के प्रबंधकों ने उनसे ये खाली करा लिया और जब कुछ और इस्तेमाल नहीं दिखा तो उन्होंने इसमें शवों के दहन के लिए फ्री में लकड़ियां देना शुरू कर इसको लकड़ी का स्टोर बना दिया। कमरे के बीच में लगा हुआ बोर्ड जैसे सिर्फ मुंह चिढ़ा रहा था कि ऐसे पीढ़ी कल्पना कौन कर सकता है और ऐसा आदमी तो कतई नही जो सदियों से जंजीरों में बंद लोगों को आजाद करने की लडाई अपने कंधों पर लेकर चल रहा हो। मातर गांव में गांधी जी का भव्य स्वागत हुआ था, भारी भीड़ वहां मौजूद थी। गांधी ने कहा था कि मुझे स्वयंसेवक चाहिए क्योंकि इस लड़ाई को ल़ड़ने के लिए हर आदमी समर्थ है और सरकार सेवा से इस्तीफे देने वाले लोग। गांव से गांधी जी को जो दिया गया था उस पीढ़ी के बाद आने वाले लोगों ने उसको जरूर जला दिया क्योंकि इस कमरे को सरकार की नहीं लोगों की जरूरत थी।
हम निकल रहे थे तो हमने नई दांडी यात्रा की ईबारत भी पढ़नी चाही। कुछ दूर जाकर ताला लगा गेट था। उसके अंदर आधुनिक तरीके से बना हुआ भवन दिखा। कमरे थे। गार्ड थे। लेकिन बाकि कुछ नहीं। खाली आलमारियों जैसे इंतजार कर रही हो कुछ रखे जाने थे। पता चला कि 2013 से इस भवन का निर्माण कार्य हुआ था लेकिन अभी तक ऐसे ही है। बन चुका है लेकिन किस लिए किसी को मालूम नहीं। सरकारी फाईलों में ये हैरिटेज भवन है। दांडी की ऐतिहासिक यात्रा करने वाले यात्रियों को विश्राम के लिए बने इस भवन में अभी तक कई विदेशी तो ठहरे लेकिन देसी लोगों को इंतजार करता ये भवन न तो इतिहास का कोई रास्ता सुझाता है और न ही इसमें भविष्य की कोई उम्मीद देखते हुए लोग मिलते है। मातर से अब आगे की ओर सफर करते है। क्योंकि ये यात्रा तो दुख देती जा रही है।इस नये बने भवन को सही से चलाने की लड़ाई लड रहे संजय भाई से मैंने पूछा कि आखिर सब कुछ सरकार ही करे आप की कोई जिम्मेदारी नहीं है कि कमरे के बाहर से कूड़ा ही उठा दे तो संजय भाई ने कहा बात तो आपकी सही लेकिन पैसा तो सारा सरकार ने इकटठा किया है तो वही साफ करे। दुख इस बात का कि महात्मा गांधी को याद करो न करो महात्मा गांधी की याद को अपमानित तो न करो। ....
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