"क्यों तू क्या मीडिया से अलग है। तेरे पास नहीं गएं थे क्या हम मदद मांगने।
बाबा की करतूत बताने। तब का याद है क्या नहीं।"
मैं समझ ही नहीं पाया कि इस लड़के की आंखों में उठा हुआ गुस्सा मेरे पर क्यों उबल रहा है। मैंने तो सिर्फ उन लोगों से ये ही पूछा था कि क्या मीडिया ने कभी कोई मदद नहीं की थी क्या।
और जवाब इतना तीखा और वो भी सीधा मुझपर।
और तब उस लड़के ने जो मुझे चाय पकड़ा रहा था कहा कि याद नहीं आ रहा है आपको। जब हम आपके ऑफिस आएं थे। और जैसे किसी ने मेरे दिमाग में फिल्म की रील की तरह वो दिन याद दिला दिया।
2003-2004 के किसी दिन आजतक के रिसेप्शन से फोन आया। धीरेन्द्र जी दो लोग आपसे मिलना चाहते है। मैं सीधा उतर कर 6 फ्लोर पर आया और देखा दो कुर्ता-पाजामा पहने हुए लोग बेहद शांत से बैठे हुए थे। मैं रोज इस तरह के आदमियों से मिलता था लिहाजा अंदाजा हुआ था कि ये लोग डरे हुए है लेकिन कुछ खबर है। टीवी की पैदाईश के साथ ही ये भी पैदा हो गई थी कि गांव वाले सिर्फ आपदा के वक्त खबर होते है। इसके अलावा टीवी में गांव का कोई मतलब नहीं है। वो लोग किसी दूसरी दुुनिया के लोग है उनसे ऐसे ही बर्ताव करना है। लेकिन मैं ये कभी याद नहीं कर पाया लिहाजा इस तरह के गांव से आने वाले लोगों को मोनिका याद कर के मुझे ही मिलने के लिए भेज देती थी। इन लोगों से मिलने के लिए बॉस ने किसी और को कहा था ( नाम नहीं दे रहा हूं ) लेकिन उसके पास दिल्ली के क्राईम की काफी बड़ी खबरें थी( मसलन एक आदमी का कत्ल हो गया या फिर जिस्मफरोंशों का गैंग पकड़ा गया) मैंरी उनसे बातचीत शुरू हुई।
एक ने कहा कि हमारे भाई का कत्ल हो गया है और पुलिस कुछ मदद नहीं कर रही है। हमारे परिवार के लोगों पर भी मौत का खतरा मंडरा रहा है। मैंने कहा कि वजह क्या है और कौन है जिसके लिए पुलिस इतना लाड़ दिखा रही है। क्या कोई नेता है या उसका बेटा।
नहीं एक बाबा है।
कौन बाबा
गुरमीत राम रहीम सिंह
मेरे लिए ये नाम बिलकुल अजनबी था। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में डेरों की कोई परंपरा नहीं थी और उस समय तक शायद ये नाम बहुत ज्यादा चर्चा में भी नहीं था दिल्ली में न्यूज की दुनिया में उसका मुझे कोई वजूद नहीं दिखा।
मैंने पूूछा कि आखिर वो आपके परिवार को कत्ल क्यों करना चाहता है। इस पर उन में से एक ने एक पर्चा निकाला और दे दिया। मैंने पढ़ना शुरू किया देश के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को लिखा हुआ खत। और कहानी इस तरह की झकझोर देने वाली की उस पर एक बारगी यकीन नहीं होता था। मैंने अंत में देखा कि भेजने वाला का कोई नाम नहीं था। खत गुमनाम साध्वी की ओर से आया था। पहला सवाल यही था कि ये कैसे तय हो कि इसमें लिखी बातें सच है। इस पर उन दोनों लोगों ने जिस विश्वास के कहा कि इसमें लिखी हुई एक एक बात सच है बस आपको इसके पीछे लगना होगा और हम आपकी थोड़ी बहुत मदद कर सकते है लेकिन बहुत पोशीदा तौर पर।
मुझे उनकी बातों में सच नजर आया और वो खत लेकर मैं अपने तत्कालीन बॉस के पास पहुुंचा। बॉस ने उस खत को देखा और मुझे देखा और फिर कहा कि गुरू गजब करते हो। गुरमीत राम रहीम को जानते हो। मैंने जवाब में न में गर्दन हिला दी । कहने लगे उसके चेले चपाटे आकर यही दफ्तर को जाम कर देंगे। और इस खत की कहानी को पता कैसे लगाओंगे।
मैंने कहा कि सर इस स्टोरी पर काम किया जा सकता है अगर आप कहो तो।
कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा कि छोड़ो यार इतनी एनर्जी किसी और खबर पर लगाओं। मैं बुझे हुए कदमों से बाहर आया और मैंने उन दोनों से साफ साफ तो नहीं लेकिन इस तरह से कह दिया कि उनकी उम्मीद बुझ जाएं। वो लोग चले गए और मैं बहुत सी बातों की तरह इस बात को भी आसानी से भूल गया।
लेकिन सालों बाद इस बार सीबीआई की चार्जशीट का समय सामने आया तो चैनल ने उस रिपोर्टर को पहले भेजा जिसने उन लोगों से मिलने से मना कर दिया था और फिर मुझे स्पेशल स्टोरी करने भेजा। मैं तलाश करता हुआ इधर से उधऱ घूम रहा था। मुझे तलाश थी कि वो खत किसका लिखा हुआ था। वो लड़की कौन थी जो चैनल पर अपना चेहरा दिखाकर चैनल की टीआरपी बढ़ा दे और अपने परिवार के लिए मौत खरीद ले। मौत के एक सौदागर की तरह मैं शिकार तलाश कर रहा था।( ऐसा आज मुझे लग रहा है)
खैर पहली मुलाकात सिरसा में वहां से लोगों से हुई। अंशुल मिला। एक दम युवा बेहद शांत और ऐसा जिसके सिर से बाप का साया उठा दिया उस बाबा के गुंडों ने। कुछ किलोमीटर दूर हजारों -लाखों ऐसे अंध भक्तों के साथ बैठा हुआ वो बाबा जो उसे भगवान से नीचे कुछ मानने को तैयार ही नहीं। उसके इशारे पर लोगों को मौत के घाट उतारने वाले स्क्वायड के तौर पर तैयार ये लोग हर रोज अंशुल और उसके घर के आसपास से ऐसे गुजरते थे जैसे उसको ये बता रहे हो कि तुम हर पल हमारी नजर में हो। जब भी हमारे भगवान का आदेश होगा हम तुम्हें दूसरी दुनिया में पहुंचा देंगे। लेकिन इन तमाम डर के बीच वो युवा जिसकी मूूंछ और दाढ़ी भी अभी सही से नहीं उग पायी थी। उस बाबा की करतूतों पर से पर्दा उठा रहा था। पूरा सच नाम के उस अखबार का नाम ही पूरा सच नहीं था उस वक्त वो पूरा सच ही लिख रहा था। रामचन्द्र छत्रपति का एक बड़ा फोटो सामने लगा हुआ था। फोटों में हंसते हुए छत्रपति जैसे हर आदमी से कह रहा हो कि सच बताया जाना जिंदगी से भी कीमती है। और खास तौर से उन पत्रकारों से ज्यादा जो उस दफ्तर में अपने लिए कहानी खोजने जा रहे थे क्योंकि उनके चैनल को अब इस खबर में टीआरपी दिख रही थी। इसलिए नहीं कि वो खबर थी क्योंकि खबर तो वो 2002 से ही थी। तब से किसी ने इस तरफ अपनी मेहरबानी भरी नजर नहीं डाली थी। मैं अंशुल की आंखों में उम्मीद देख रहा था कि शायद उसके पिता जिस धंधें की पवित्रता के लिए अपनी जिंदगी भी कुर्बान कर चले थे अब जाग रहा है। खैर मैंने अंशुल से सारे पेपर लिए। उस पेपर का शाट्स भी जिसमें वो खत छपा था जो मुझे भी सालों पहले मिल चुका था और मैं उसको खो चुका था।
तब तक खट्टा सिंह नाम का ड्राईवर भी सामने आ चुका था। मैंने अपनी आदत के अनुसार तमाम कागजातों की कॉपी कराई और फिर पूछा कि क्या मैं उस साध्वी को खोज सकता हूं।
अब ये कहना मुझे लगता है कि किसी को चोट पहुंचाना या फिर उस विक्टिम की पहचान बताना नहीं कि उस वक्त भी सिरसा के हर आदमी को मालूम था। खैर उन्होंने कहा कि आप रणजीत के घर जा कर उसके परिवार वालों से मिल सकते हो।
और फिर मुझे रणजीत की कहानी का पता चला। वो जो एक्जीक्युटिव कमेटी का मेंबर था। उसका कत्ल इस खत से जुड़ा था। और यही खत रामचन्द्र छत्रपति के कत्ल का कारण भी था। ऐसे में मैंने उसका पता पूछा तो सिर्फ गांव का नाम पता चला कि खानपुर कोलियां। और फिर अगले दिन सुबह से ही गांव की तलाश शुरू की। कुरूक्षेत्र के सड़क के किनारे सटे हुए मंदिर के सामने एक सड़क और उस सड़क से गांव में घुसते ही बाएं हाथ पर एक खूबसूरत सा घर। गांव के हिसाब से भी खूबसूरत और अपनी और खींचता हुआ घर। मैं रणजीत का नाम लेकर पूछ रहा था कि एक बेहद साफ कपड़ों में गुजर रहे बुजुर्ग ने मुझे पूछा कि आपको क्या काम है। मैंने अपना परिचय दिया और कहा कि मैं मिलना चाहता हूं। उस पर उन्होंने कहा कि मैं मरहूम रणजीत सिंह का पिता हूं। आओ आप क्या पूछना चाहते हो। लेकिन पहले आप दूर से आएं हो चाय पी लो। मैं गांव का था तो गांव के रीतिरिवाज भी जानता था। घर में आया हुआ अनजान भी मेहमान और मेहमान तो पहले चाय पानी भले ही गमी में आया हुआ मेहमान क्यों न हो। और इसी औपचारिक बातचीत में चाय लेकर आएँ हुए लड़के ने मेरे सवाल का जवाब इस अंदाज में दिया था।
कमरे में इतनी खामोशी थी कि कुछ कह पाना एक बेबसी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा था। ...............
मैं समझ ही नहीं पाया कि इस लड़के की आंखों में उठा हुआ गुस्सा मेरे पर क्यों उबल रहा है। मैंने तो सिर्फ उन लोगों से ये ही पूछा था कि क्या मीडिया ने कभी कोई मदद नहीं की थी क्या।
और जवाब इतना तीखा और वो भी सीधा मुझपर।
और तब उस लड़के ने जो मुझे चाय पकड़ा रहा था कहा कि याद नहीं आ रहा है आपको। जब हम आपके ऑफिस आएं थे। और जैसे किसी ने मेरे दिमाग में फिल्म की रील की तरह वो दिन याद दिला दिया।
2003-2004 के किसी दिन आजतक के रिसेप्शन से फोन आया। धीरेन्द्र जी दो लोग आपसे मिलना चाहते है। मैं सीधा उतर कर 6 फ्लोर पर आया और देखा दो कुर्ता-पाजामा पहने हुए लोग बेहद शांत से बैठे हुए थे। मैं रोज इस तरह के आदमियों से मिलता था लिहाजा अंदाजा हुआ था कि ये लोग डरे हुए है लेकिन कुछ खबर है। टीवी की पैदाईश के साथ ही ये भी पैदा हो गई थी कि गांव वाले सिर्फ आपदा के वक्त खबर होते है। इसके अलावा टीवी में गांव का कोई मतलब नहीं है। वो लोग किसी दूसरी दुुनिया के लोग है उनसे ऐसे ही बर्ताव करना है। लेकिन मैं ये कभी याद नहीं कर पाया लिहाजा इस तरह के गांव से आने वाले लोगों को मोनिका याद कर के मुझे ही मिलने के लिए भेज देती थी। इन लोगों से मिलने के लिए बॉस ने किसी और को कहा था ( नाम नहीं दे रहा हूं ) लेकिन उसके पास दिल्ली के क्राईम की काफी बड़ी खबरें थी( मसलन एक आदमी का कत्ल हो गया या फिर जिस्मफरोंशों का गैंग पकड़ा गया) मैंरी उनसे बातचीत शुरू हुई।
एक ने कहा कि हमारे भाई का कत्ल हो गया है और पुलिस कुछ मदद नहीं कर रही है। हमारे परिवार के लोगों पर भी मौत का खतरा मंडरा रहा है। मैंने कहा कि वजह क्या है और कौन है जिसके लिए पुलिस इतना लाड़ दिखा रही है। क्या कोई नेता है या उसका बेटा।
नहीं एक बाबा है।
कौन बाबा
गुरमीत राम रहीम सिंह
मेरे लिए ये नाम बिलकुल अजनबी था। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में डेरों की कोई परंपरा नहीं थी और उस समय तक शायद ये नाम बहुत ज्यादा चर्चा में भी नहीं था दिल्ली में न्यूज की दुनिया में उसका मुझे कोई वजूद नहीं दिखा।
मैंने पूूछा कि आखिर वो आपके परिवार को कत्ल क्यों करना चाहता है। इस पर उन में से एक ने एक पर्चा निकाला और दे दिया। मैंने पढ़ना शुरू किया देश के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को लिखा हुआ खत। और कहानी इस तरह की झकझोर देने वाली की उस पर एक बारगी यकीन नहीं होता था। मैंने अंत में देखा कि भेजने वाला का कोई नाम नहीं था। खत गुमनाम साध्वी की ओर से आया था। पहला सवाल यही था कि ये कैसे तय हो कि इसमें लिखी बातें सच है। इस पर उन दोनों लोगों ने जिस विश्वास के कहा कि इसमें लिखी हुई एक एक बात सच है बस आपको इसके पीछे लगना होगा और हम आपकी थोड़ी बहुत मदद कर सकते है लेकिन बहुत पोशीदा तौर पर।
मुझे उनकी बातों में सच नजर आया और वो खत लेकर मैं अपने तत्कालीन बॉस के पास पहुुंचा। बॉस ने उस खत को देखा और मुझे देखा और फिर कहा कि गुरू गजब करते हो। गुरमीत राम रहीम को जानते हो। मैंने जवाब में न में गर्दन हिला दी । कहने लगे उसके चेले चपाटे आकर यही दफ्तर को जाम कर देंगे। और इस खत की कहानी को पता कैसे लगाओंगे।
मैंने कहा कि सर इस स्टोरी पर काम किया जा सकता है अगर आप कहो तो।
कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा कि छोड़ो यार इतनी एनर्जी किसी और खबर पर लगाओं। मैं बुझे हुए कदमों से बाहर आया और मैंने उन दोनों से साफ साफ तो नहीं लेकिन इस तरह से कह दिया कि उनकी उम्मीद बुझ जाएं। वो लोग चले गए और मैं बहुत सी बातों की तरह इस बात को भी आसानी से भूल गया।
लेकिन सालों बाद इस बार सीबीआई की चार्जशीट का समय सामने आया तो चैनल ने उस रिपोर्टर को पहले भेजा जिसने उन लोगों से मिलने से मना कर दिया था और फिर मुझे स्पेशल स्टोरी करने भेजा। मैं तलाश करता हुआ इधर से उधऱ घूम रहा था। मुझे तलाश थी कि वो खत किसका लिखा हुआ था। वो लड़की कौन थी जो चैनल पर अपना चेहरा दिखाकर चैनल की टीआरपी बढ़ा दे और अपने परिवार के लिए मौत खरीद ले। मौत के एक सौदागर की तरह मैं शिकार तलाश कर रहा था।( ऐसा आज मुझे लग रहा है)
खैर पहली मुलाकात सिरसा में वहां से लोगों से हुई। अंशुल मिला। एक दम युवा बेहद शांत और ऐसा जिसके सिर से बाप का साया उठा दिया उस बाबा के गुंडों ने। कुछ किलोमीटर दूर हजारों -लाखों ऐसे अंध भक्तों के साथ बैठा हुआ वो बाबा जो उसे भगवान से नीचे कुछ मानने को तैयार ही नहीं। उसके इशारे पर लोगों को मौत के घाट उतारने वाले स्क्वायड के तौर पर तैयार ये लोग हर रोज अंशुल और उसके घर के आसपास से ऐसे गुजरते थे जैसे उसको ये बता रहे हो कि तुम हर पल हमारी नजर में हो। जब भी हमारे भगवान का आदेश होगा हम तुम्हें दूसरी दुनिया में पहुंचा देंगे। लेकिन इन तमाम डर के बीच वो युवा जिसकी मूूंछ और दाढ़ी भी अभी सही से नहीं उग पायी थी। उस बाबा की करतूतों पर से पर्दा उठा रहा था। पूरा सच नाम के उस अखबार का नाम ही पूरा सच नहीं था उस वक्त वो पूरा सच ही लिख रहा था। रामचन्द्र छत्रपति का एक बड़ा फोटो सामने लगा हुआ था। फोटों में हंसते हुए छत्रपति जैसे हर आदमी से कह रहा हो कि सच बताया जाना जिंदगी से भी कीमती है। और खास तौर से उन पत्रकारों से ज्यादा जो उस दफ्तर में अपने लिए कहानी खोजने जा रहे थे क्योंकि उनके चैनल को अब इस खबर में टीआरपी दिख रही थी। इसलिए नहीं कि वो खबर थी क्योंकि खबर तो वो 2002 से ही थी। तब से किसी ने इस तरफ अपनी मेहरबानी भरी नजर नहीं डाली थी। मैं अंशुल की आंखों में उम्मीद देख रहा था कि शायद उसके पिता जिस धंधें की पवित्रता के लिए अपनी जिंदगी भी कुर्बान कर चले थे अब जाग रहा है। खैर मैंने अंशुल से सारे पेपर लिए। उस पेपर का शाट्स भी जिसमें वो खत छपा था जो मुझे भी सालों पहले मिल चुका था और मैं उसको खो चुका था।
तब तक खट्टा सिंह नाम का ड्राईवर भी सामने आ चुका था। मैंने अपनी आदत के अनुसार तमाम कागजातों की कॉपी कराई और फिर पूछा कि क्या मैं उस साध्वी को खोज सकता हूं।
अब ये कहना मुझे लगता है कि किसी को चोट पहुंचाना या फिर उस विक्टिम की पहचान बताना नहीं कि उस वक्त भी सिरसा के हर आदमी को मालूम था। खैर उन्होंने कहा कि आप रणजीत के घर जा कर उसके परिवार वालों से मिल सकते हो।
और फिर मुझे रणजीत की कहानी का पता चला। वो जो एक्जीक्युटिव कमेटी का मेंबर था। उसका कत्ल इस खत से जुड़ा था। और यही खत रामचन्द्र छत्रपति के कत्ल का कारण भी था। ऐसे में मैंने उसका पता पूछा तो सिर्फ गांव का नाम पता चला कि खानपुर कोलियां। और फिर अगले दिन सुबह से ही गांव की तलाश शुरू की। कुरूक्षेत्र के सड़क के किनारे सटे हुए मंदिर के सामने एक सड़क और उस सड़क से गांव में घुसते ही बाएं हाथ पर एक खूबसूरत सा घर। गांव के हिसाब से भी खूबसूरत और अपनी और खींचता हुआ घर। मैं रणजीत का नाम लेकर पूछ रहा था कि एक बेहद साफ कपड़ों में गुजर रहे बुजुर्ग ने मुझे पूछा कि आपको क्या काम है। मैंने अपना परिचय दिया और कहा कि मैं मिलना चाहता हूं। उस पर उन्होंने कहा कि मैं मरहूम रणजीत सिंह का पिता हूं। आओ आप क्या पूछना चाहते हो। लेकिन पहले आप दूर से आएं हो चाय पी लो। मैं गांव का था तो गांव के रीतिरिवाज भी जानता था। घर में आया हुआ अनजान भी मेहमान और मेहमान तो पहले चाय पानी भले ही गमी में आया हुआ मेहमान क्यों न हो। और इसी औपचारिक बातचीत में चाय लेकर आएँ हुए लड़के ने मेरे सवाल का जवाब इस अंदाज में दिया था।
कमरे में इतनी खामोशी थी कि कुछ कह पाना एक बेबसी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा था। ...............
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