"हम हत्यारोें और बलात्कारियों की संतान है लेकिन हमारे पूर्वजों को हम पर गर्व होगा कि हमने सभ्य दुनिया में अपना स्थान बनाया।"
आस्ट्रेलिया की खोज ( श्वेत लोगों के कब्जें के आधार पर) के दो सौ साल बाद हुए एक समारोह में लोग अलग अलग बैनर के साथ थे लेकिन एक बैनर पर लिखे हुए उक्त वाक्य ने सबका ध्यान खींचा था। आज सालों बाद बचपन के एक अखबार की खबर आज पद्मावति प्रकरण में बहुत याद आ रही है। कुछ लोगों को ये राजपूतों की रानी का मसला लग रहा है, कुछ लोगों को ये एक काल्पनिक कहानी लग रहा है, और कुछ लोगों का कहना है ये अभिव्यक्ति का मसला है तो याद आ रहा है वो पोस्टर पर लिखा हुआ और साथ ही यह भी कि उस वाक्यको हिंदुस्तानियों ने इस तरह से याद किया है
"हम वहशियों और हत्यारों की संताने है और ऊपर बैठे हुए उन वहशियों, बलात्कारियों और हत्यारों को गर्व होगा कि हम उस वहशियत, और हत्यारी मानसिकता की पूजा कर रहे है और उसको दोहराने की कोशिश कर रहे है।"
मध्यकालीन इतिहासकारों ने इस देश के साथ किस तरह की गद्दारी और मक्कारी की है उसको आसानी से देखा जा सकता है और उसके लिए किसी और की नहीं बल्कि मुस्लिम बादशाहों का साथ आएं हुए इतिहासकारों के उन अनुवादों की मदद ली जा सकती है जिनको अनुवाद भी मुस्लिम या फिर अंग्रेजों ने किया किसी हिंदु ने नहीं। ( हिंदु इसी लिए लिख रहा हूं कि अभिव्यक्ति के दीवाने हिंदु शब्द को आतंकवादी साबित करने में लगे हुए है) आज एक राजेश प्रियदर्शी का लेख था कि गोडसे की मूर्ति लगने पर किसी हिंदु ने विरोध नहीं किया बीबीसी ने छापा था। अजब किस्म का जेहादी पत्रकार है जो झूठ को इस तरह से लिख सकता है, मन किया कि बात करके पूछूं कि मूर्ख आदमी अगर कांग्रेस के नेता विरोध कर रहे है तो क्या वो हिंदु नहीं है।
बात हिंदु और मुसलमान की नहीं है बल्कि मानसिकता की है। अलाउद्दीन को पीर मानने वाले कौन है। कुछ पत्रकारों ने बेचारों ने पूरी लड़ाई राजपूत और गैर राजपूत में मोड़ दी। इतिहास से उनकी उतनी ही दूरी है जितनी बिल्ली की कुत्ते से। लेकिन वो ज्ञान छांट रहे है कि राजपूतों ने कितनी लड़की अकबर को दी। लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन बस एक सवाल कि बाकि का कोई जिक्र हुआ है या उनको छोड़ दिया गया था। क्यों आखिर चित्तौड़ आंख में चुभा, क्यों राजाओं की लड़कियों को जीत कर दासी बनाने की कहानी लिखी हुई है बाकि की लडकियों का कोई जिक्र नहीं किया। क्या ये दुश्मनी राजपूतों से थी बहुत से वशिष्ठ सीधे मींबर पर बैठ कर बादशाहों के यहां खाना पीना कर वापस आते थे।
मैं देखता हूं कुछ विद्वानों ने अलाउद्दीन जैसे शैतान को अशोक के बराबर बैठा दिया। उनके पास कोई इतिहास का लेख नहीं है। कुछ मुस्लिम इतिहासकारों को भी मैंने रैफरेस के तौर पर आज देखा एक ने बेचारे ने बताया कि कितने टैक्स रिफॉर्म किये थे अलाउद्दीन नाम के हत्यारे ने। मैं जानता हूं कि ये बेचारा इतिहासकार अब भी ये ही समझ रहा होगा कि वो जो बोल देगा लोग उसको बिना पढ़े मान लेगे। मध्ययुग के इतिहास में ज्यादातर मुस्लिम इतिहासकारों का बाहुल्य आज भी इस लिए है क्योंकि अरैबिक और पर्सियन का अनुवाद करने या पढ़ने की जरूरत है। आज उन्ही मुस्लिम इतिहासकारों में से एक ने बताया कि गाय बैल के रेट तय किए थे और टैक्स रिफार्म किया था। मैं उसका रैफरेस जानता हूं जियाउद्दीन बर्नी से लेकर अमीर खुसरो जैसे जेहादी लोगों ने जो इतिहास लिखा है उसमें हिंदु औरतों और लडकियों के रेट भी लिखे है वो उसने सफाई से हटा दिया। प्रजा का जिक्र करते हुए ये हटा दिया कि प्रजा में हिंदु शामिल नहीं थे और टैक्स रेट इसलिए बढ़ाए गए थे कि ताकि हिंदुओं को जमीन में मिला दिया जाएं और वो घोड़े पर चढ़ने की सोच भी नहीं पाएं। खिराज अदा करने के लिए अपनी औरते और बच्चे तक बेच दे। ऐसे वहशी के लिए प्रबुद्ध लिखने वाले पत्रकार की मानसिकता और बगदादी की मानसिकता मे कोई अंतर नहीं। इस तरह के लोग जो अलाउद्दीन को खुदा का बंदा बताने में जुटे है वो हरम का मतलब अच्छे से समझते है। वो हरम से पैदा होने का भी।
उस अनुवाद में कुछ अनुवादकों ने बेहद ईमानदारी से स्वीकार किया है कि वो अतिश्योक्तियों का अनुवाद नहीं कर रहे है, जानते है उन अतिश्योंक्तियों में क्या है इस देश के निवासियों यानि हिंदुओं के साथ किए गये अत्याचार और वहशियत और दरिंदगी का वर्णन। लेकिन मुझे उऩ अल्पसंख्यकों के बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं जिनको इस देश को पाकिस्तान में बदलने के शबाब का सहारा लेना है। आज बहुत से पत्रकारों को राहुल सरदाना पर उबलते हुए देख रहा हूं लेकिन कभी उन्हे बाकि बातों पर उबलते हुए नहीं देखा। ये सब मेरे नहीं उनके सवाल है जिनसे मैं रोज मिलता हू।
रही बात शीशे की तो कुछ विद्दवान मित्र मूर्खों की तरह नहीं बल्कि बगुलों की तरह से सवाल उठा रहे है कि शीशे की खोज नहीं हुई थी या ऐसी ही तमाम बाते। मुझे अपने बॉस की एक बात याद आती है कि रोटी को तोती कहने का काम कर रहे है उन को मालूम छठी और सातवी शताब्दी के मंदिरों से लेकर 11 शताब्दी के मंदिरों में शीशे को हाथ में देखती हुई नायिका की मूर्तियां दर्जनों मंदिरों में है।
"हम वहशियों और हत्यारों की संताने है और ऊपर बैठे हुए उन वहशियों, बलात्कारियों और हत्यारों को गर्व होगा कि हम उस वहशियत, और हत्यारी मानसिकता की पूजा कर रहे है और उसको दोहराने की कोशिश कर रहे है।"
मध्यकालीन इतिहासकारों ने इस देश के साथ किस तरह की गद्दारी और मक्कारी की है उसको आसानी से देखा जा सकता है और उसके लिए किसी और की नहीं बल्कि मुस्लिम बादशाहों का साथ आएं हुए इतिहासकारों के उन अनुवादों की मदद ली जा सकती है जिनको अनुवाद भी मुस्लिम या फिर अंग्रेजों ने किया किसी हिंदु ने नहीं। ( हिंदु इसी लिए लिख रहा हूं कि अभिव्यक्ति के दीवाने हिंदु शब्द को आतंकवादी साबित करने में लगे हुए है) आज एक राजेश प्रियदर्शी का लेख था कि गोडसे की मूर्ति लगने पर किसी हिंदु ने विरोध नहीं किया बीबीसी ने छापा था। अजब किस्म का जेहादी पत्रकार है जो झूठ को इस तरह से लिख सकता है, मन किया कि बात करके पूछूं कि मूर्ख आदमी अगर कांग्रेस के नेता विरोध कर रहे है तो क्या वो हिंदु नहीं है।
बात हिंदु और मुसलमान की नहीं है बल्कि मानसिकता की है। अलाउद्दीन को पीर मानने वाले कौन है। कुछ पत्रकारों ने बेचारों ने पूरी लड़ाई राजपूत और गैर राजपूत में मोड़ दी। इतिहास से उनकी उतनी ही दूरी है जितनी बिल्ली की कुत्ते से। लेकिन वो ज्ञान छांट रहे है कि राजपूतों ने कितनी लड़की अकबर को दी। लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन बस एक सवाल कि बाकि का कोई जिक्र हुआ है या उनको छोड़ दिया गया था। क्यों आखिर चित्तौड़ आंख में चुभा, क्यों राजाओं की लड़कियों को जीत कर दासी बनाने की कहानी लिखी हुई है बाकि की लडकियों का कोई जिक्र नहीं किया। क्या ये दुश्मनी राजपूतों से थी बहुत से वशिष्ठ सीधे मींबर पर बैठ कर बादशाहों के यहां खाना पीना कर वापस आते थे।
मैं देखता हूं कुछ विद्वानों ने अलाउद्दीन जैसे शैतान को अशोक के बराबर बैठा दिया। उनके पास कोई इतिहास का लेख नहीं है। कुछ मुस्लिम इतिहासकारों को भी मैंने रैफरेस के तौर पर आज देखा एक ने बेचारे ने बताया कि कितने टैक्स रिफॉर्म किये थे अलाउद्दीन नाम के हत्यारे ने। मैं जानता हूं कि ये बेचारा इतिहासकार अब भी ये ही समझ रहा होगा कि वो जो बोल देगा लोग उसको बिना पढ़े मान लेगे। मध्ययुग के इतिहास में ज्यादातर मुस्लिम इतिहासकारों का बाहुल्य आज भी इस लिए है क्योंकि अरैबिक और पर्सियन का अनुवाद करने या पढ़ने की जरूरत है। आज उन्ही मुस्लिम इतिहासकारों में से एक ने बताया कि गाय बैल के रेट तय किए थे और टैक्स रिफार्म किया था। मैं उसका रैफरेस जानता हूं जियाउद्दीन बर्नी से लेकर अमीर खुसरो जैसे जेहादी लोगों ने जो इतिहास लिखा है उसमें हिंदु औरतों और लडकियों के रेट भी लिखे है वो उसने सफाई से हटा दिया। प्रजा का जिक्र करते हुए ये हटा दिया कि प्रजा में हिंदु शामिल नहीं थे और टैक्स रेट इसलिए बढ़ाए गए थे कि ताकि हिंदुओं को जमीन में मिला दिया जाएं और वो घोड़े पर चढ़ने की सोच भी नहीं पाएं। खिराज अदा करने के लिए अपनी औरते और बच्चे तक बेच दे। ऐसे वहशी के लिए प्रबुद्ध लिखने वाले पत्रकार की मानसिकता और बगदादी की मानसिकता मे कोई अंतर नहीं। इस तरह के लोग जो अलाउद्दीन को खुदा का बंदा बताने में जुटे है वो हरम का मतलब अच्छे से समझते है। वो हरम से पैदा होने का भी।
उस अनुवाद में कुछ अनुवादकों ने बेहद ईमानदारी से स्वीकार किया है कि वो अतिश्योक्तियों का अनुवाद नहीं कर रहे है, जानते है उन अतिश्योंक्तियों में क्या है इस देश के निवासियों यानि हिंदुओं के साथ किए गये अत्याचार और वहशियत और दरिंदगी का वर्णन। लेकिन मुझे उऩ अल्पसंख्यकों के बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं जिनको इस देश को पाकिस्तान में बदलने के शबाब का सहारा लेना है। आज बहुत से पत्रकारों को राहुल सरदाना पर उबलते हुए देख रहा हूं लेकिन कभी उन्हे बाकि बातों पर उबलते हुए नहीं देखा। ये सब मेरे नहीं उनके सवाल है जिनसे मैं रोज मिलता हू।
रही बात शीशे की तो कुछ विद्दवान मित्र मूर्खों की तरह नहीं बल्कि बगुलों की तरह से सवाल उठा रहे है कि शीशे की खोज नहीं हुई थी या ऐसी ही तमाम बाते। मुझे अपने बॉस की एक बात याद आती है कि रोटी को तोती कहने का काम कर रहे है उन को मालूम छठी और सातवी शताब्दी के मंदिरों से लेकर 11 शताब्दी के मंदिरों में शीशे को हाथ में देखती हुई नायिका की मूर्तियां दर्जनों मंदिरों में है।
ये जलालुद्दीन खिलजी के बारे में है।
"उस राज्यकाल में अधर्मियों, बदमहजबों, दार्शनिक तथा नास्तिकों को किसी स्थान में प्रवेश करने की आज्ञा न थी।"
"झायन पहुंच कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। वहां के मंदिरों को कलुषित कर डाला। वहां की मूर्तियां तुडवां डाली और उन्हें जलवा दिया। झायन तथा मालवा की विलायत तहस नहस कर दी। अत्याधिक धन हाथ लगा।"
( तारीख फीरोजशाही अनुवाद सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी)
खिराज कम हो जाने से हिंदु धन धान्य संपन्न तथा मालदार हो गए। अन्हें अपने हाथ पैर की भी सुध बुध भी नहीं रही। हिंदु जो कि अत्य़ंत अपमानित थे ( पुस्तक में खोशा बकून मीचीदन्द है, जिसका अर्थ है कि वे अपनी गुदा से (मलद्वार) से अनाज की बाली चुनते थे। ) तथा रोटियों के मुहताज थे और जिनके पास पहनने को वस्त्र तक नहीं थे और जिन्हें मार और डंडे के भय से सर खुजाने का भी अवकाश नहीं था और उन्होंने बारिक वस्त्र पहनना और घोड़ों पर सवार होना शुरू कर दिया था। धनुष वाण का प्रयोग करने लगे थे। समस्त कुतुबी राज्यकाल में एक भी अलाई नियम तथा कायदा अपने स्थान पर नहीं रहा। ( कुछ समय के लिए ये हुआ जब शैतान अलाउद्दीन की मौत के बाद उसका गुलाम हिजड़ा जिसके साथ अलाउद्दीन के नाजायज रिश्ते थे गद्दी को संभाल रहा था उसके नाबालिग बेटे की आड़ में) तारीख ए फिरोजशाही।
"उस राज्यकाल में अधर्मियों, बदमहजबों, दार्शनिक तथा नास्तिकों को किसी स्थान में प्रवेश करने की आज्ञा न थी।"
"झायन पहुंच कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। वहां के मंदिरों को कलुषित कर डाला। वहां की मूर्तियां तुडवां डाली और उन्हें जलवा दिया। झायन तथा मालवा की विलायत तहस नहस कर दी। अत्याधिक धन हाथ लगा।"
( तारीख फीरोजशाही अनुवाद सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी)
खिराज कम हो जाने से हिंदु धन धान्य संपन्न तथा मालदार हो गए। अन्हें अपने हाथ पैर की भी सुध बुध भी नहीं रही। हिंदु जो कि अत्य़ंत अपमानित थे ( पुस्तक में खोशा बकून मीचीदन्द है, जिसका अर्थ है कि वे अपनी गुदा से (मलद्वार) से अनाज की बाली चुनते थे। ) तथा रोटियों के मुहताज थे और जिनके पास पहनने को वस्त्र तक नहीं थे और जिन्हें मार और डंडे के भय से सर खुजाने का भी अवकाश नहीं था और उन्होंने बारिक वस्त्र पहनना और घोड़ों पर सवार होना शुरू कर दिया था। धनुष वाण का प्रयोग करने लगे थे। समस्त कुतुबी राज्यकाल में एक भी अलाई नियम तथा कायदा अपने स्थान पर नहीं रहा। ( कुछ समय के लिए ये हुआ जब शैतान अलाउद्दीन की मौत के बाद उसका गुलाम हिजड़ा जिसके साथ अलाउद्दीन के नाजायज रिश्ते थे गद्दी को संभाल रहा था उसके नाबालिग बेटे की आड़ में) तारीख ए फिरोजशाही।
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