कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Monday, March 26, 2018
अब गुरमीत राम रहीम की खबरें नहीं यौंन कुंठाएं बेची जा रही है। मुंबई की बारिश से ज्यादा अभी काम क्रीड़ाओं की कहानियां तैर रही है। अब रह रह कर डरना चाहिए कि जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में क्या-क्या सड़ रहा है और उसके लिए किस तरह की आड़ ली जा रही है।
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