Saturday, November 20, 2010

प्रधानमंत्री ईमानदार है ?

रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था। रोम साम्राज्य के खत्म होने के सैकड़ों साल बाद भी ये कहावत जिंदा है। यानि इतिहास उन सबका हिसाब रखता है जो इतिहास को भूल जाते है या पीठ दिखाते है। देश के बेबस ईमानदार प्रधानमंत्री इस समय नीरो को मात देने में लगे है। देश भर में लूट चल रही है। देश बिक रहा है। देश को राज्यों में बांटा गया था शासन चलाने के लिये लेकिन इस प्रधानमंत्री ने देश को बांट दिया लूट के लिेये। ये कैसे ईमानदार प्रधानमंत्री है भाई। इनको मालूम है इनके मंत्रिमंडल में शामिल लुटेरे देश का सौदा कर रहे है। लेकन बेचारे प्रधानमंत्री को अपनी कुर्सी बचानी है युवराज के लिये। युवराज कह रहा है कि प्रधानमंत्री को शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है। ये बात बिलकुल दुरूस्त है। देश को शर्मिंदा होना चाहिए ऐसे प्रधानमंत्री होने पर। क्या खडाऊं प्रधानमंत्री युवराज और राजमाता के आदेश पर देश चला रहे है। सोनिया गांधी का बयान आया कि देश को और जिम्मेदार सरकार चाहिए। कौन देगा सरकार। आपको बहुमत मिला और आपने ऐसे लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल कर दिया जो महमूद गजनवी और नादिरशाह जैसे लुटेरों को भी मात देने में जुटे है। ऐसे मंत्रियों पर लगे आरोपों में हजार दो हजार करोड़ के घपले का नहीं लाखों करोड़ के मामले शामिल है। लेकिन सोनिया को नहीं लगता कि कोई जवाबदेही का कानून बनाया जाए।
देश के तथाकथित नेशनल मीडिया की औकात कितनी है ये लगातार हम आपको बताते रहे है। देश में चल रही लूट पर पर्दा डालकर हमेशा एक सवाल को गायब करना ही इस नेशनल मीडिया की कोशिश रही है। सवाल है जवाबदेही का। संविधान में इस बात की गुंजाईश छोड दी गई कि अंग्रेजों से बेहतरीन अंग्रेजी बोलने वाले काले नौकरशाहों और राजनेताओं को दान में मिले देश को लूटने के बाद किसी तरह की जवाबदेही न हो। खानदान राज कर रहे है। राजवाड़े जिनके होते लगातार देश अपमानित होता रहा शर्मिंदा होता रहा उनकी औलादें शान के साथ देश की लूट में शामिल हो गई। हाल ही में जोधपुर के एक पूर्व महाराजा के बेटे की शादी का ऐसा वर्णन देश के तथाकथित मीडिया ने किया कि भाट और चारण भी शर्मा जाएं। 1857 की आजादी की लडाई में जिन घरानों का इतिहास अंग्रेजों के जूते चाटने और देश भक्तों को मारने में रहा वो आज जनतंत्र के नाम पर जीत कर संसद में बैठते है कानून बनाते है लेकिन किसी अखबार या चैनल को नहीं लगता कि उस दौरान की कहानी भी चला दी जाए।
देश की आजादी की ताकत को लुटेरों की हिफाजत में लगाने वाले तथाकथित राष्ट्रीय पत्रकारों के चेहरे बेनकाब हुए है। बरखा दत्त, वीर सांघवी जैसे नामचीन पत्रकारों की बातचीत की रिकार्ड़िंग ये बताती है कि सत्ता में कितने बौने लोग आ गए जो इनको दलाल की तरह से इस्तेमाल कर रहे है। बरखा दत्त जैसी पत्रकार उन लोगों को बेहद पंसद है जो लूट को वैधानिक बनाने के रास्ते तलाशते है। बरखा दत्त की कितनी कहानियां मीडियाकर्मी सुनाते है अगर उनको उसी तरह से लिख दिया जाएं जिस तरह मीडिया बेबस और आम आदमी की कहानी को दिखाता है तो क्या बात हो।
2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सत्ता में बैठी कांग्रेस किस तरह से गिरगिट की तरह से रंग बदल रही है। देश को नए-नए कानून बता कर देश को उल्लू बनाने में जुटी है
कांग्रेस। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के वक्त देश के तथाकथित मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया था कि जैसे सत्यवादी हरिश्चन्द्र का अवतार आ गया हो। ईमानदारी ने साक्षात इंसानी अवतार लिया हो और नाम रखा मनमोहन सिंह। ऐसा ही माहौल तैयार किया गया था वीर सांघवी और बरखा दत्त जैसे पत्रकारों ने। आज प्रधानमंत्री की ईमानदारी छवि के सारे पर्दे हट चुके है। लेकिन इस छवि के सहारे मलाई काटने वाले आज भी ये नारा लगा रहे है कि प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर दाग नहीं है। ये ऐसे ही है जैसे कोई आदमी लुटेरों को वकील मुहैय्या करा रहा हो और जब उसकी कलई खुले तो कहे कि भाई हमारा तो कोई दोष नहीं है हम तो महज मदद कर रहे थे।
लेकिन ये बातें तो वो जो आप देख सुन रहे है।लेकिन हम आपसे एक सवाल पूछना चाहते है कि देश में प्रधानमंत्री का काम क्या है। क्या है उसकी जिम्मेदारी। और यदि जिम्मेदारी नहीं निबाह पाया तो उसकी सजा क्या हो। ऐसा कोई भी सीधा जवाब संविधान में नहीं है। देश की संस्थाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है इस देश को लूटने वालों को बचाने में। देश का तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया नाटक कर रहा है। नूरा कुश्ती कर रहा है। वो दिखा रहा है कि जैसे बीजेपी इस मसले पर चिंतित है। समाजवादी पार्टी के एक महान चिंतक मोहन सिंह ने तो कमाल ही कर दिया। अगर अखबार में छपे उनके लेख पर देखे कि सुप्रीम कोर्ट को प्रधानमंत्री पर सवाल करने ही नहीं चाहिए। ये मोहनसिंह भी वहीं है जिनकी समाजवादी छवि के चर्चे देश के तथाकथित मीडिया वाले लगातार गाते रहे है। दरअसल पूरे देश की राजनीति सिर्फ परिवारवाद और जातिवाद के दम पर चल रही है। ये लोग सिर्फ जाति के कबीलों के सरदारों के जूते उठा कर राजनीति कर रहे है। और देश को लूट रहे है।
सबसे ज्यादा फायदे में है देश के नौकरशाह। आजादी के वक्त किसी को ये पूछने की परवाह नहीं थी कि जो नौकरशाह 14 अगस्त 1947 को यूनियन जैक के नाम पर देश चला रहा है वो 15 अगस्त 1947 को कैसे तिरंगे की शपथ लेगा। जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन देश को पड़ता था। आज कई जिलों में मैं जब ऐसे बोर्ड देखता हूं जिनमें आजादी से पहले एसपी और डीएम का नाम लगातार लिखा हुआ देखता हूं तो सिर्फ एक ही ख्याल जेहन में आता है कि रंग बदला है लुटेरे नहीं।

Monday, November 1, 2010

सेना के (खळ) नायक

शर्म की बात है तो ये कि पैसे के लिये बिकने वाले और अपना ईमान बेचने वालों में अब सेना के लोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे है। इस मामले में ये घोटाला तो आदर्श है कि जल सेना, थलसेना और वायु सेना तीनों सेनाओं के शीर्ष अधिकारियों ने लूट में सामूहिक हिस्सेदारी ली। ये वो लोग है जो अब मासूमियत का दिखावा करते हुए फ्लैट वापस करने की पेशकश कर रहे है। कितने बेवकूफ अधिकारी रहे होंगे अगर इनको इतना भी नहीं मालूम होगा कि 8 करोड़ का फ्लैट 80 लाख में मिल रहा है तो क्या कारण है। दरअसल इतनी मासूमियत से ये लोग ईमानदारी का गला घोंटते है कि इनके लिये गला भर आएं। इन लोगों की सेलरी का हिसाब निकाल लिया जाएं और इनके रहन-सहन का स्तर किसी स्वतंत्र तरीके से चैक करा लिया जाएं तो आसानी से पता चल जाएंगा कि किस तरह से देश की लूट में इन महानुभवों ने अपना योगदान दिया होगा।
करगिल युद्ध। 1971 के बाद पहली बार इतने जवान और अधिकारियों की शहादत हुई। आजतक भी उस वक्त सत्ता में बैठे लोगों या फिर बाद में सत्ता में आएं लोगों ने इस बात का जवाब नहीं दिया कि कैसे आतंकवादी इतनी तादाद में भारतीय सीमा के अंदर घुस आएँ। कैसे बंकर बने कैसे रणनीतिक कब्जा किया गया। लेकिन सेना के अधिकारियों को तो जवाब देना था कि कैसे हुआ ये सब। अब आदर्श घोटाले ने जरूर देश को ये यकीन दिलाया कि किस तरह से ये मासूम अफसर अपना दायित्व निबाह रहे होंगे। कारगिल के शहीदों के नाम पर किस तरह से लूट की। इन अफसरों के सैकड़ों फोटो सेनाओं के ऑफिसों में लगे होंगे जिनमें ये कारगिल के शहीदों के प्रति अपना सम्मान जता रहे होंगे।

आदर्श घोटाला....सत्ता बेनकाब

ये एक आदर्श घोटाला है। एक मौजूदा मुख्यमंत्री दो पूर्व मुख्यमंत्री जो अब केन्द्रीय मंत्री हैं रीयल स्टेट घोटाले की जांच में है। दो पूर्व थलसेनाध्यक्ष एक पूर्व नौसेनाध्यक्ष और पूर्व वायुसेनाध्यक्ष ये सब आदर्श सोसायटी स्कैम की जांच के दायरे में हैं। इतने पर बस नहीं है महाराष्ट्र सरकार के कई मौजूदा मंत्रियों सहित कई पूर्व मंत्री इस जांच के दायरे में हो सकते है। इसके अलावा राजस्व विभाग के नौकरशाह और नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट्स देने वाली सरकारी एजेंसियों के नौकरशाह अभी पर्दे के पीछे है लेकिन जल्दी ही उनके नाम का भी हल्ला मच सकता है। हैरानी की बात नहीं है। देश में लूट की आदर्श स्थिति चल रही है। संविधान में लुटेरों को रोकने का कोई खास प्रावधान नहीं है। लूट की छूट में कोई व्यावधान नहीं है। इस देश में घोटाले की जांच भी एक बेहद पसंदीदा खेल है और खेल है तो खेला जाना चाहिएं। इसीलिये खेल शुरू हो गया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जांच के आदेश दे दिये है। देश के रक्षामंत्री ए के एंटनी और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी जांच करेंगे। वित्त मंत्री कांग्रेस की इस सरकार के ट्रबल शूटर है। हर मामले की जांच में वही होते है। कांग्रेस के लगुवे
-भगुवे बहुत खुश हुएं। पार्टी इस जांच में दूध का दूध पानी का पानी कर देंगी। लेकिन क्या ऐसा हो सकता है। जांच कमेटियों की रिपोर्टें रद्दी की टोकरी में पड़ी पड़ी नष्ट हो जाती है। जांच करने वाले के खिलाफ भी कोई न कोई घोटाला सामने आ जाता है। और लोग भूल जाते है। नया कोई घोटाला पुराने की याद तो मंद कर देता है।
सबसे पहले देश की सबसे शक्तिशाली महिला सोनिया गांधी की बैठाई गई जांच पर बात की जा सकती है। इस घोटाले की जांच सीबीआई भी कर सकती है। इस घोटाले की जांच रक्षा मंत्रालय भी कर रहा है। कई सारे सवाल है। यदि कांग्रेस अध्यक्ष को जांच करानी थी तो सीबीआई को खुली छूट दी जा सकती थी। कानूनन तो पुलिस भी जांच कर सकती थी। लेकिन मुख्यमंत्री की जांच करेंगे केन्द्र के दो मंत्री। प्रणव मुखर्जी साहब को अभी कागज पढ़ने है। कागज तो साफ है मुख्यमंत्री के तीन -चार रिश्तेदारों के नाम फ्लैट है। इसके अलावा जांच के लिये पार्टी को कुछ करना नहीं है। क्योंकि वो तो जांच एजेंसियों का काम है। कांग्रेस पार्टी ये साबित करने में लगी रहती है कि उनके प्रधानमंत्री खड़ाऊं प्रधानमंत्री नहीं है और राज-काज के फैसले खुद लेते है। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष ने इस मामले में देश के प्रधानमंत्री के देश में वापस लौटने का इंतजार भी नहीं किया। बेबस से ईमानदार प्रधानमंत्री को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। यदि अखबारों में छपी खबरों पर यकीन किया जाएं तो प्रधानमंत्री ने एक सवाल के जवाब में ऐसा जवाब उन्होंने एक पत्रकार को जवाब दिया था। खैर प्रधानमंत्री की असली राजनीतिक ताकत की हकीकत राजनेता भी जानते है और आम जनता भी। लेकिन सवाल फिर घूम-फिर कर वही आ रहा है कि सरकार ने कॉमनवेल्थ की जांच के लिये भी एक कमेटी बना दी शुंगलू साहब की अध्यक्षता में। सीबीआई पर कुछ समय से ये आरोप ज्यादा चस्पा हो रहा है कि वो सत्ता में बैठे लोगों की धुन पर नाचती रहती है। इसके बावजूद सीधे सीबीआई को क्लियर कट जांच क्यों नहीं दी गई। ये सवाल सीधे जेहन में नहीं उतर रहा है। लेकिन लोग जो जांच पर भरोसा करते है वो इस ख्याल में खो सकते है कि इसका कोई मतलब है। चारा घोटाला, ताज कॉरी़डोर, गोमतीनगर विपुल खंड प्लॉट स्कैम, मधु कोड़ा की अकल्पनीय लूट, चौटाला का टीचर भर्ती घोटाला, या फिर ऐसी एक लंबी लाईन है जिसका कोई अंत नहीं है। आप की संसद और विधानसभा आजतक एक भी ऐसा कानून नहीं बना पाय़ी कि ऐसे मुख्यमंत्रियों को फौरन दंड मिल सके। इनके लिये कानून के एक होने की बात की जाती है। लेकिन क्या आप ऐसी छूट की उम्मीद किसी जेंबकतरें या फिर रहजन के लिये कर सकते है। नहीं जेबकतरों को पब्लिक सड़कों पर पीट-पीट कर मार देती है।

Saturday, October 30, 2010

अरूंधती रॉय के बहाने

अरूंधती रॉय के खिलाफ सबूत है, लेकिन सरकार मुकदमा दर्ज करके उसे हीरो बनने का मौका नहीं देना चाहती एक तथाकथित राष्ट्रीय अखबार ने सूत्रों के हवाले से छापा।कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारूख के पिता और केन्द्रीय मंत्री फारूख अब्दुल्ला साहब ने फरमाया अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक सीमा है। दिल्ली के तथाकथित नेशनल मीडिया की खबरों पर जाएं तो लगेगा कि देश लगभग उबल रहा है। मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ने अपना धर्म निबाहा। अखबारों और न्यूज चैनलों को इंटरव्यूज देकर। पार्टी के नेताओं ने एक दो नेशनल चैनल्स की बहस में शामिल होकर भी निंदा की अरूंधती रॉय की। कुछ लोगों को हैरानी हुई कि आखिर अरूंधती चाहती क्या है।
हमारा अरूंधती रॉय के बयान से कतई इत्तफाक नहीं है। क्योंकि कश्मीर पूरे तौर पर देश का हिस्सा है इसके बारे में हमें कोई संदेह नहीं है।
लेकिन ऐसा क्या कह दिया है अरूंधती रॉय ने कि देश के गृहमंत्री से लेकर कानून मंत्री और राष्ट्र के प्रति देशभक्ति का सारा ठेका अपने सर पर ढ़ोने वाली बीजेपी एक ही जबान बोल रहे है। अरूंधती रॉय का मंतव्य कश्मीर की आजादी के पक्ष में था। अरूंधति राय की इस राय से सहमति रखने वाले लोगों की संख्या उँगलियों पर ही होगी इस बारे में किसी को शक नहीं हो सकता। कश्मीर के चंद अलगाववादियों और आतंकवादियों के अलावा किसी की इस राय से सहमति नहीं हो सकती। लेकिन इस बात का ऐसा बंतगड़ बनाया गया कि जैसे दिल्ली में आसमान टूट गया और किसी की नजर इस पर नहीं है। और तथाकथित नेशनल मीडिया ने इसी बात को लेकर ऐसे तमाम लोगो को हीरो बना दिया जिनके कर्मों की वजह से कश्मीर की ये हालत हुई है। ऐसे तमाम लोग जो देश की सत्ता पर काबिज है और जिनका कश्मीर से इंच मात्र भी लेना-देना नहीं है सिर्फ बयानबाजी करके देशभक्ति दिखाते है, इन तमाम बयानवीरों को लगा कि हीरो बनने का इससे शानदार मौका नहीं मिलेगा। लेकिन कोई इनसे पूछेगा कि भाई देश का कानून यदि टूटा है तो क्या वो भी आपके आदेश से ही रिपोर्ट लिखेगा ये काम तो अदालतों का था लेकिन केन्द्रीय मंत्रियों को न्यायालय की ताकत भी अपने खीसे में खोंसने का शौक चर्रा गया है लिहाजा वो कह रहे है कि सबूत है लेकिन वो अरूंधति को हीरो बनने का मौका नहीं देना चाहते। उद्योगपतियों और बिल्डर माफियाओं के इशारों पर नाचने वाले तथाकथित नेशनल मीडिया को भी लगा कि जैसे बैठे-बैठे देशभक्ति दिखाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। आखिर राज्यों को लूटने में शामिल मुख्यमंत्रियों और कानून को ठेंगे पर रखने वाले उद्योगपतियों के खिलाफ इस खबर में कुछ नहीं है लिहाजा ऐडवर्टाईजमेंट छीनने का भी खतरा नहीं है और अरूंधती को कोसते हुए कार्टून तक इन अखबारों में दिखाईं देने लगे।
हमारा मानना है कि इस बारे में दिमाग साफ कर लिया जाएं कि तथाकथित नेशनल मीडिया का देश कितना है। चुनावों में पैसे लेकर खबरें लिखने वाले इस नेशनल मीडिया का देश वहीं तक है जहां तक मैकडोनाल्ड बर्गर या फिर पिज्जा हट्स है। दिल्ली के सत्तर हजार लोगों का देश जो कॉमनवेल्थ में कलमाडी के भाषण पर ताली बजाता है। वहीं देश जो लूट के उत्सव में शामिल होकर उस मीडिया को गरियाता है जो अपनी टीआरपी के लिये ही सही लेकिन कभी-कभी भ्रष्ट्राचार की खबरें दिखाता है।
देश का कश्मीर लेकर क्या रूख है वो तो साफ दिख सकता है। किसी नेशनल अखबार को नहीं दिखता जब तिरंगें के सम्मान की रक्षा करते हुए कश्मीर में मारे गये सुरक्षाकर्मियों की लाशें उनके गांव जाती है। अंदर के पन्नों में कुछ लाईनों में सिमटी खबर में उस शहीद का नाम तक नहीं होता फोटों छपने की बात तो दूर है। रही बात देश के उन नौजवानों की जिनकी अरूंधती के खिलाफ प्रतिक्रियाएं आपको ट्वीटर में फेस बुक या दूसरी सोशल साईट्स पर दिख रही है तो उनमें से ज्यादातर को कश्मीर में कितने जिले है ये बात तो दूर है कश्मीर लद्दाख और जम्मू में क्या अंतर ये भी मालूम नहीं है। ऐसे सभी नौजवानों की आंखों में विदेशी नौकरियों के सपने बसे रहते है। देश से भागने के लिेये भले ही फर्जी कागज तैयार करने हो या फिर किसी नंबर दो के रास्ते का सहारा लेना हो ये हर पल तैयार रहते है। ये लोग देश के खिलाफ अरूंधती के बयान पर सबसे ज्यादा उबल रहे है। देश की फैशन मॉडलों के मारे जाने में मोमबत्तियों के साथ गेटवे ऑफ इंडिया से लेकर इंडिया गेट तक प्रदर्शन करने वाले इन फैशनेबल नौजवानों ने क्या कभी कश्मीर में चल रही आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ आवाज निकाली है। देश भर में आईआईटी, मेडीकल या फिर दूसरी यूनिवर्सिटीस हो होठों से होठों पर लिपिस्टिक लगाने की होड़ लगी हैं लेकिन किसी छात्र यूनियन ने एक भी प्रस्ताव कश्मीर में लड़ रहे जवानों के हक में पास किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ा। जंतर-मंतर पर रोज धऱना प्रदर्शनों में कभी कश्मीर में लड़ने के नाम पर देश के इन तथाकथित नौजवानों ने धावा बोला हो ऐसा भी नहीं हुआ। तो इनको क्यों लगता है कि अरूंधती रॉय ने देश को तोड़ने का काम किया है। अपने को फिर से लगता है कि अरूंधती के बयान के बहाने देश की सत्ता में बैठे लोग, दोनों हाथों से देश को लूट रहे लोग, गरीबों के खून से अपने घर को सजाने में जुटे लोग अब अभिव्यक्ति पर भी ताला लगाना चाहते है। वो चाहते है कि कोई आदमी अब इस लूट के खिलाफ भी एक आवाज भी नहीं लगा सके। आज भले ही वो आवाज अरूंधती की दबाई जा रही है कल इस ताकत का इस्तेमाल गरीब के हकों में नारें लगाने वालों के गले दबाने में किया जाएंगा। देश के दलाल मीडिया की ताकत हमेशा से सत्ता के बौनों और दलालों को हासिल होती रही है लेकिन देश को शायद सोचना चाहिये कि एक ऐसी आवाज को भी जिसका कोई तलबगार नहीं है दबाने की ताकत इन बौनों को नहीं दी जानी चाहिये। आखिर में एक बात पूरे जोर से दोहराना चाहूंगा जो दुनिया भर में जनतंत्र की आत्मा मानी जाती है " मैं आपकी कही बात के हर एक शब्द से पूरी तरह से असहमत हूं लेकिन आपके कहने के अधिकार की रक्षा के लिये अपने खून की आखिरी बूंद तक बहा दूंगा "

Monday, October 25, 2010

ईश्वर अब इस देश में नहीं रहता

कॉमनवेल्थ गेम्स खत्म हो गये हैं। दुनिया ने भारत की ताकत को जान लिया है। उन लोगों के मुंह पर ताले लग गये जो भारत को पिछड़ा या कमजोर देश मानते हैं। देश ने भारत की तरक्की के बारे में जान लिया है

.................ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों की तादाद में समाचार पत्रों के हैडिंग्स आपकी निगाहों से गुजरें होंगे। देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया में ऐसी खबरों की आंधी चल रही है। इसके बाद इसकी जांच की खबरों पर भी लोगों की निगाहें टिकी हुई है। लेकिन तथाकथित नेशनल मीडिया की हाल की दो खबरों पढ़ने के बाद लगा कि देश को लेकर आम आदमी और तथाकथित मीडिया के बीच किस तरह की खाई उभर आई है।
देश के सबसे ज्यादा बिकने का दावा करने वाले इन अखबारों में खबरें छपीं कि दिल्ली के अनवांटेड़ लोग लौट आएं हैं। अनवांटेड़ की श्रेणी में शामिल किये गये दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगने वाले लाखों की तादाद में ट्रैफिक लाईटों पर सामान बेचकर अपना घर चलाने वाले या फिर ठेली और रोजमर्रा के काम करने वाले मजदूर। इन नेशनल अखबारों ने तो इस बारे में पुलिस को कोसते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस अब इन लोगों के आने पर न रोक लगा रही है न उन पर सख्ती दिखा रही है। दोनों खबरों को अलग

-अलग अखबारों ने छापा साथ में रिपोर्टर के नाम भी छापे गये। कॉमनवेल्थ खेल के दौरान कई सौ करोड़ के विज्ञापन भी तथाकथित नेशनल मीडिया को मिले।
ऐसे में तथाकथित नेशनल मीडिया ने बाकी देश से आंखें बंद कर ली। और मीडिया से सच जानने के आदी हो चुके आम आदमी को इस बात का जरा भी अंदेशा नहीं हुआ कि कैसे मीडिया उसको खबरों की दुनिया से अलग कर रहा है। एनसीआर के शहरों में डेंगू के मरीजों के चलते अस्पतालों में भारी भीड़ जमा थी। लेकिन दिल्ली में भी काफी मंहगें प्राईवेट हास्पीटल्स में बेड दिलवाने के लिये सिफारिशों की जरूरत पड़ रही थी। दिल्ली में हर अस्पताल में डेंगू बुखार से पीड़ित मरीजों की भीड़ दिखाईं पड़ रही थीं। लेकिन देश के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे मीडिया को इससे कोई लेना-देना नहीं था। और जहां मीडिया की नजर नहीं है वहां सत्ता में बैठे लोगों की नजर क्यूं कर जाएं। मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद और नौएड़ा के सरकारी अस्पतालों की तो दूर प्राईवेट वार्डस में जाकर देखियें किस तरह से डेंगू एक महामारी में तब्दील हो चुका है। आंकड़ों पर नजर रखने वाले चाहे तो चैक कर सकते है कि कैसे अलग-अलग प्राईवेट अस्पताल ने करोड़ रूपये कमायें। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की निगाहों में रतौंधी उतर आई थी। और तथाकथित नेशनल मीडिया एडवर्टाईजमेंट की मलाई काट रहा था लिहाजा इस खबर को ही खा गया। मुजफ्फरनगर में कुछ अखबारों में विज्ञापनों पर निगाह पड़ी तो हैरानी हुई कि बाकायदा डॉक्टरों ने एड दिया है कि मरीज अपने फोल्डिंग्स लेकर आएं। डाक्टरों ने मरीजों की भर्ती के लिए धर्मशाला ही बुक करा लीं। हर मरीज से बीस-बीस हजार रूपये पहले ही एडवांस के तौर पर जमा करा लिए गये। लेकिन किसी नेशनल चैनल और अखबार को दिल्ली में ये खबर नजर नहीं आई। कॉमनवेल्थ की विरूदावली गाने के बाद दिल्ली के अखबारों को खबर नजर कि किस तरह से भिखारी और दिहाड़ी मजदूर दिल्ली वापस आ रहे है।

किसी संपादक को ये नहीं लगा कि क्या ये लोग हिंदुस्तानी नहीं है। अगर ये लोग दिल्ली में अनवांटे़ड है तो लखनऊ, जयपुर या फिर इलाहाबाद में कैसे वांटे़ड़ हो सकते है। यदि इन लोगों को रोटी नहीं मिल पा रही है तो इसमें किसका दोष है। कौन सी व्यवस्था है जो लगातार अमीरों को अमीर बना रही है और ज्यादा से ज्यादा आबादी को भूखमरी और अकाल मौत की ओर धकेल रही है। लेकिन तथाकथित नेशनल मीडिया ने छाप दिया कि ये वापस लौट रहे है। क्या अखबार और उनके रिपोर्टर ये इशारा कर रहे है कि इन लोगों को पागलखाने या फिर गैस चैंबरों में भेज दिया जाएं। यदि अखबार और मीडिया ये कर रहा है तो मुझे और कुछ नहीं एक दूसरी चीज याद आ रही है।

बीसवी शताब्दी का नायक कौन है इस बारे में दुनिया सैकड़ों नाम नहीं तो दर्जनों नाम तो ले सकती है। लेकिन शताब्दी का खलनायक कौन है इस बारे में एक ही नाम सामने आयेगा। एडोल्फ हिटलर। जर्मनी के इस तानाशाह से भी दुनिया की नफरत की वजह युद्ध छेड़ना नहीं बल्कि दुनिया से यहूदियों की कौम का नामों
-निशान मिटा देने की कोशिश के चलते ज्यादा है। साठ लाख के करीब यहूदियों को नये बने गैस चैंबरों से लेकर फायरिंग स्क्वाड जैसे पारंपरिक तरीकों से मौत के घाट उतार दिया गया। ये बातें इतिहास का हिस्सा हैं। लेकिन जिस बात पर जर्मनी या फिर यूरोप के बाहर की आम जनता ने ध्यान नहीं दिया था वो बात थीं किस तरह से हिटलर इतना ताकतवर हो गया कि एक पूरी कौम या फिर पूरा राष्ट्र उसके पीछे आंखें मूंद कर चलने लगा था। अगर आप लोग उस वक्त के जर्मनी के तथाकथित नेशनल मीडिया को देंखें तो वो जर्मन कौम के अहम को मजबूत करने में लगे थे। हिटलर के कदमों का विरोध करने वालों के गायब होने की खबरें भी मीडिया से गायब हो चुकी थीं।
अब के हालात में ये ही कह सकते है कि हिंदुस्तान में अभी कोई हिटलर तो नहीं है लेकिन उसके चाहने वालों की कमी नहीं है। देश का तथाकथित मीडिया उसके निर्माण में जुट गया है। देश के मौजूदा हालात को देखकर कोई भी सिर्फ यहीं कह सकता है कि ईश्वर ने इस देश को छोड़ दिया है

Sunday, October 24, 2010

खेल खत्म पैसा हजम

खेल खत्म पैसा हजम। बचपन में मदारी के खेल देखें और मदारी जब अपना ताम-झाम समेटता था तो बच्चों को बहका कर हासिल किये गये पैसे अपने जेंब में रखतें हुए यही कहता था। कॉमनवेल्थ खेलों का समापन हुआ और लगा कि खेल खत्म पैसा हजम। लेकिन अच्छा नहीं लगा। बचपन में जो पैसा जेंब में होता था वो मेरी जेब खर्च का होता था लेकिन अब जो मेरी जेब में पैसा होता है वो मेरे परिवार के लिये जिंदगी के जीने के लिए के लिये जरूरी होता है। ऐसे में मेरी जेंब से चालाकी से हासिल पैसे को लेकर बेशर्मी से ये कहना कि खेल खत्म पैसा हजम अच्छा नहीं लगा।
लेकिन सत्ता में बैठे लोग इस बात को अपने माथे पर नहीं रखना चाहते है। देश के बेबस ईमानदार प्रधानमंत्री जी ने भारत के पदक विजेताओं के सम्मान में किये गये समारोह में माननीय कलमाड़ी साहब को नहीं बुलाया। और अगली खबर मीडिया को मिली कि शुंगलु साहब की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गयी है जो इस पूरे खेल में हुए खर्चे की जांच करेंगी। तीन महीने में कमेटी इस बारे में अपनी सिफारिश देंगी। देश का अनुभव इस बात का गवाह है कि ऐसी समितियों का ट्रैक रिकार्ड क्या रहा है। और इस बारे में ठेकेदारों के रिश्तें किस पार्टी से रहे है इस बात का असर भी जांच पड़ेगा।
नेहरू स्टेडियम भीड़ को देखने वाली बात ये थी कि किस तरह से साठ से सत्तर हजार आदमी देश के नाम पर नारा लगा सकते थे नाच सकते थे और हर बार भारत का नाम आने से तालियां बजा सकते थे। इन लोगों ने टिकट खरीदें थे चार हजार आठ हजार या इससे भी ज्यादा के टिकट। इस दौरान दिल्ली के अस्पतालों में डेंगूं के मरीजों की भीड़ बुरी तरह से जमा थी। हर अस्पताल में लंबी लाईनों में खड़े मरीज इस बात को दिखा रहे थे कि डेंगू इस वक्त एक महामारी के तौर पर राजधानी दिल्ली में पसर गयी है। लेकिन राज्य की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को गेम्स में ईज्जत की इतनी परवाह थी कि वो डेंगूं को लेकर बिलकुल बेपरवाह रही। देश के स्वास्थ्य मंत्री को इस वक्त कश्मीर में चल रही उठा-पठक से फुर्सत नहीं है। सरकारी अस्पतालों में वो मरीज पहुंच रहे है जो प्राईवेट अस्पतालों का खर्च उठाने की हैसियत में नहीं है। और प्राईवेट अस्पतालों में लूट का एक नया कीर्तिमान लिखा जा रहा है। दिल्ली के आस-पास के शहरों में हालात और बुरे है. गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, मेरठ, और मुजफ्फरनगर में हालात काबू से बाहर है। प्राईवेट लैब्स एक-एक दिन में पचास हजार से लेकर पांच लाख रूपये कमा रहे है। लेकिन दिल्ली में लोगों के हालात की किसी को परवाह नहीं है तो दिल्ली के बाहर तो उपर वाला ही उनका रखवाला है।

Tuesday, August 10, 2010

कलमाडी को सैल्यूट......

देश को किस-किस स्पर्धा में गोल्डमैडल मिलेगा, भारत का कौन सा खिलाड़ी अतंरराष्ट्रीय कीर्तिमान के करीब पहुंच सकता है। देश को कुल कितने मैडल हासिल होंगे। सवाल सिर्फ ये होने थे उस वक्त जब राष्ट्रमंडल खेलों के शुरू होने में महज 50 दिन हो गये हो। लेकिन आपके पास खबर आ रही है कि
चालीस रूपये का नैपकिन चार हजार रूपये में, चार सौ की कुर्सी छह हजार रूपये में जिस मशीन की कीमत ही बाजार में सत्तर हजार से लेकर चार लाख तक उसका 60 दिन का किराया साढ़े नौ लाख रूपये। हम आपको किसी ठग की कारीगरी नहीं बता रहे है बल्कि इस देश की इज्जत बचाने के नाम इतनी बेशर्मी के साथ लूटे गये हजारों करोड़ रूपये की खरीद का एक नमूना भर दे रहे है। ये ज्यादातर आंकड़े इस समय देश के मीडिया में तैर रहे है। लूट कहना भी लुटेरों का अपमान है। ये तो सरे-आम डकैती है। गिरोहबंद लूट का नया नमूना। मेहमानों को दी जाने वाली टाईयों का किस्सा भी अब खुलने वाला है जिसकी कीमत शायद पच्चासी लाख होगी। लगभग तेरह सौ टाईयां और कीमत 85 लाख रूपये। मीडिया ने इस समय अपने सर पर जैसे एक ही भूत बैठा लिया हो कि इस लूट के खलनायक सुरेश कलमाड़ी का सर चाहिये। सासंदों को इस वक्त एक ही बात दिख रही है कि देश के साथ मजाक हो रहा है। लेकिन ये सब एक पहलू है दूसरा पहलू है कि सब एक बात कह रहे है कि देश की इज्जत बचाने के लिये खेल हो जाने दीजिये। ये कौन सी इज्जत है जिसमें मां सरेआम नीलाम की जा रही है आप कह रहे है कि वचन दिया है इसीलिये नीलाम हो जाने दीजिये। देश में पैसे की कमी से कई खेल परियोजनाएं रोक दी गयी। देश में पैसे की कमी का रोना रोकर रोज टैक्स बढ़ाये गये लेकिन किसी ने उफ तक नहीं की। अब ये तमाम लोग देश की इज्जत की दुहाई दे रहे है। यानि आप से कह रहे है कि किसी मक्खी गिरी चाय को नहीं बल्कि मक्खियों से गिरी चाय को आप आंख बंद कर निगल ले। साफ दिख रहा है कि आम जनता के पैसों को एय्याशी और निजि सनक पर हनक के साथ खर्च किया गया। हजारों करोड़ लूटने के लिये देश भर से वांटेड कुख्यात ठग नटवरलाल भी इतना खूबसूरत प्लान तैयार न करता।
ये कहानी का एक पहलू है। हम दूसरे पहलू पर आते है। अभी जज की भूमिका में आ गया मीडिया पिछले सात सालों से क्या कर रहा था। संसद में बैठे ये गरीबनवाज क्या सोच रहे थे। अब विसिलब्लोअर की भूमिका निबाह रहे इस कमेटियों से जुड़़े लोगों को क्यों सांप सूंघा हुआ था। आप को सोचने की जरूरत नहीं है साफ तौर पर हम बता देते है कि लूट के खेल में सब शामिल थे। जब कोई लूट सार्वजनिक हो जाती है और उसमें एक पूरा समाज शामिल हो जाता है तो उसे आयोजन का नाम दिया जाता है। उसका महोत्सव होता है। ये भी लूट का महोत्सव है। सबने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। बात शुरू करते है 2002 से। दिल्ली के मयूर विहार, या आस-पास के किसी भी इलाके के प्रोपर्टी डीलर के पास आप गये होंगे तो याद होगा कि कैसे वो एक फ्लैट बेचने से पहले राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर फ्लैट के दाम बढ़ने की कहानी सुनाता होगा। मुझे याद है मयूर विहार के जिन फ्लेटों को लोगों ने 2004 में दस से बारह लाख के बीच में खरीदा है उनको राष्ट्रमंडल के नाम का हल्ला मीडिया में होते ही कीमतों को आसमान पर जाते देखा। यानि एक फ्लैट पचास लाख तक पहुंच गया। इस लूट में कौन शामिल था दिल्ली के आम नागरिक थे कि नहीं। अब बहुत आसान था ये कहना कि साहब हम को ज्यादा मिल रहा है तो क्यों न ले। ये वही आदमी होता है जो रिक्शा वाले के पांच रूपये ज्यादा मांगने पर उसकी मां-बहन और सरकार को गाली देने लगता है। लूट में हिस्सेदारी का खेल शुरू हो चुका था। डीडीए जिसको देश के सबसे भ्रष्ट्रतम डिपार्टमेंट की ख्याति हासिल है इस मामले में शामिल हो चुका था। इसके बाद पीडब्लूडी, और दिल्ली सरकार की वो तमाम एजेंसियां जिनको इसमें जरा सी भी भूमिका निबाहनी थी इस लूट में हिस्सा लेने जुट गये। एक के बाद एक टैंड़रर हुए कमीशन के तौर पर करोड़ों रूपये उगाहे गये। लेकिन किसी को कानो-कान खबर नहीं हुई। बीजेपी हो या कांग्रेस तमाम पार्टियों से जुड़े बड़े-बड़े ठेकेदारों ने लूट की इस गंगा में अपने हाथ नहीं बल्कि पूरा शरीर ही धो लिया।
उधर ऑर्गनाईजिंग कमेटी में इस लूट को वैधानिक करने के लिये बाकायदा एक भर्ती अभियान चला जिसकी कोर टीम इस देश के नये नटवरलाल सुरेश कलमाड़ी ने पुणे से तैयार की। इसके अलावा जनता की गाढ़ी कमाई को कलम के सहारे लूटने वाले लोगों की पूरी जमात तैयार की गयी। दरबारी बुलाये गये। अब इस ढ़ांचे को सत्ता में बैठे लोगों ने सारी ताकत हस्तांतरित कर दी। लूट में सबका हिस्सा जाने लगा।
अब बात नये राजनेताओं की और उनकी सत्ता मंडली में जुटे नौकरशाहों की तो उनके लिये भी लूट का हिस्सा हाजिर था। अक्षरधाम टैंपल आपकी आंखों को दिखेगा कि यमुना बैड पर यानि नदी के पाट पर बना है लेकिन पैसे से अदालत में साबित हो गया कि नहीं ये यमुना तट नहीं है। अगर किसी को उसका उद्घाटन याद है तो ये भी याद होगा कि देश के नंबर वन चैनल को इस मंदिर के एक ट्रस्ट्री ने मंदिर में टिकट लगने के सवाल पर जवाब दिया था कि ये मंदिर नहीं है। तीन साल बाद सत्ता के लगाये गये टैक्स से बचने के लिये वही ट्रस्ट्री मुझे टीवी पर दिखायी दिये ये कहते हुए कि ये मंदिर है इस पर टैक्स क्यों लगाया जा रहा है। इसी ख्यातिनाम अक्षरधाम टैंपल की बगल की जगह तय की गयी खेलगांव बनाने के लिये। खेलगांव यानि जहां दुनिया भर के एथलीट रुकेंगे। लिहाजा यहां बनने वाली सुविधायें दुनिया भर में सबसे बेहतरीन होनी चाहिये। लिहाजा ब्लू प्रिंट तैयार हुआ। और जैसे ही ये बना तो लूट के लिये सबसे नायाब चीज सामने थी। महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी,नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरे शर्मा जाये लूट की ऐसी साजिश देख कर। ना कोई तलवार उठी न कोई खून बहा और हजारों करोड़ रूपये के फ्लैट भ्रष्ट्र नौकरशाहों, राजनेताओं और देश का खून निचोड़ रहे उद्योगपतियों के लिये तैयार। नक्शे को देश समझने वाले किसी भी आदमी को ये समझ नहीं आ रहा है कि भाई जमीन डीडीए की बनाने वाले को पैसा डीडीए ने दिया और दूसरी तमाम सुविधा उनको सजाने का पैसा भी डीडीए देंगा सिर्फ बनाने के नाम पर हजारों करोड़ रूपये की लागत के ये फ्लैट एक निजि कंपनी को क्यों दिये जाये। इन फ्लेटों को खेल के बाद तुरंत बेचने की तैयारी हुई। लेकिन संसद में बढ-चढ़ कर बयानबाजी करने वाले नेता इस लूट पर चुप क्यों है कि भाई अगर आगे खेल होने वाले है तो फिर खेलगांव क्या फिर से बनेगा। दरअसल सारा खेल दस हजार करोड़ से उपर के इस खेल गांव में छिपा है जिसको लेकर कोई सवाल नहीं कर रहा है। कि क्यों इस खेल गांव को बेचा जा रहा है अगर आपको इस कंपनी से बनवाना था तो आप उसको बनाने की कीमत अदा करते और इस खेल गांव को आगे की खेल एक्टिविटी के लिये भी रखा जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस लूट के कई पहलू जो अभी देश के सामने नहीं आये है जिस कंपनी एम्माऱ-एमजीएफ ने ये फ्लेट तैयार किये है उस कंपनी पर छह हजार करो़ड़ रूपये की मनी लांड्रिंग के घोटाले में छापे पड़ चुके है। उस कंपनी ने इस के लिये जरूरी राशि भी विदेशी पैसे से नहीं बल्कि हिंदुस्तान से ही दी गयी है।
देश के सामने सबसे पहला सवाल है कि इस खेल के हजारों करोड़ रूपये के खर्च के बाद उसे हासिल क्या होंगा। पहले से मौजूद स्टेडियमों को तोड़ कर उन्हें दोबारा खड़ा कर दिया गया। इस तोड़-फोड़ की कीमत देश को चुकानी पड़ी इतनी कि नया स्टेडियम बन जाता एनसीआर की किसी भी जमीन में। अब खेल खत्म होने के बाद जब आप स्टेडियम गिनेंगे तो जितने खेल से पहले थे उतने ही बाद में मिलेगे। खेल गांव बिक चुका होगा। अमीरजादों औऱ भ्रष्ट्राचारियों की ऐय्याशियां उधर से गुजरने वाले हर हिंदुस्तानी का मुंह चिढ़ायेगी और उसका हिंदुस्तानी कानून से विश्वास गिराती रहेंगी। अगर कोई मजदूर उधर से गुजरेंगा तो वो ये सोच भी नहीं पायेगा कि उसके बच्चे के दूध पर टैक्स लगाकर तैयार की गयी है ये ऐशगाह।
दिल्ली की सड़कों पर फुटपाथ उखाड़ कर दूसरे लगाये गये। लेकिन पानी के नल नहीं। हजारों करोड़ रूपये टाईल्स उखड़ कर सामने पड़ी है वहीं उन पर बैठ कर भीख मांगते आदमी को देख कर भी किसी नेता को संसद में आवाज उठाने की जरूरत नहीं पड़ी। रोज गुजरते हुए पत्रकारों को नहीं लगा कि खेल हो रहा है। पेज भर-भर कर मिले एड्वरटाईजमेंट ने सबकी जुबां पर ताला डाल दिया था। हर चैनल्स इस बात को साबित करने में लगा था कि कैसे इस देश की शान साबित होने वाले है ये राष्ट्रमंडल खेल।
लेकिन बात अब ये है कि आपके पास क्या विकल्प है। एक भी नहीं। जिन लोगों ने ये पैसा लूटा है उन लोगों को सजा दिलाने का कोई कानून आपकी किताब में नहीं है। मीडिया के इस सारे हल्ले के पीछे का सच यही है कि सुरेश कलमाड़ी के सिर की बलि लेकर इस पूरे मामले की इतिश्री कर ली जाये। और पैसे को लूट कर अपनी जेबों पर भरने वाले पर्दे के पीछे के खिलाडियों को साफ बख्श दिया जाये। ये चल रहा है खेल और इस बात से मैं तो पूरी तरह से मुतमईन हूं कि भ्रष्ट्रमंडल के खेल पूरी तरह से सफल होंगे।

Monday, August 2, 2010

देश की आंखों का पानी मर गया है

कई बार लिखना इस लिये भी मुश्किल होता है कि आप के पास कहने के लिये बहुत कुछ होता है और आप को लिखना सिर्फ कुछ पर होता है। देश यदि नक्शे को आधार माना जाये तो उथल-पुथल के दौर में है। मणिपुर हमारे देश का राज्य है आतंकवादी समर्थित छात्र संगठनों ने साठ दिन तक उसकी नाकाबंदी की बाकि नक्शे के कानों पर जूं नहीं रेंगी। कश्मीर में साफ तौर पर पाकिस्तान का झंडा लहरा रहे लोगों और पैसे लेकर पथराव करती भीड़ दिख रही है लेकिन नक्शे को कुछ मालूम नहीं है। ट्रेनों के एक्सीडेंट हो रहे है, नक्शे में कोई हरारत नहीं है। झारखंड और छत्तीसगढ़ में खानों के अवैध खनन के लिये देश के उद्योगपति अगर उन्हें देश का कहा जा सके तो अपनी चालों से आम आदमी जिंदगी को नरक करने में जुटे है। गरीब लोगों का नाम लेकर नक्सली कत्लेआम करने में जुटे है। देश का नक्शा सिर्फ एक गृहमंत्री को बोलते-देखता रहता है। दक्षिण भारत में क्या चल रहा है कोई नहीं जानता।
देश को मालूम चल रहा है कि दिल्ली में कलमाड़ी एंड कंपनी ने खेल का आयोजन किया है। नक्शे का इस खेल से बस इतना लेना-देना है कि सत्ता को उसके लिये आम जनता पर टैक्स लगाने है।आयोजन में नुमाईशी प्रतियोगिताएं होनी है। हैंडबाल और टेनिसबॉल जैसे खेल खेले जायेंगे जिनके किसी खिलाड़ी के बारे में मुझे तो कोई जानकारी नहीं है आपको हो तो हो। कोई रिकार्ड देखने में दिलचस्पी रखता हो तो उसके लिये रिकार्ड बुक उपलब्ध है। किसी भी चश्में से देखने पर रिकार्ड बुक में ये नहीं दिखेगा कि कॉमनवेल्थ के किसी खेल का बना कोई वर्ल्ड रिकार्ड है। ऐसे में पूरे देश को भूलकर सत्ता इसमें क्यों मदहोश है। बात बिना लाग-लपेट के कहनी हो तो इस तरह कही जा सकती है कि ये लूट का महोत्सव है सबकी अपनी-अपनी हिस्सेदारी है। लोग देश की इज्जत नहीं बचा रहे है, इज्जत के नाम पर की गयी लूट बचाना चाहते है। देश की इज्जत भूख से मरते लोगों से खराब नहीं होती है, देश की इज्जत पर करोड़ों गरीब लोगों के तिल-तिल मरने से असर नहीं होता है और देश की इज्जत- लुटेरों को सरंक्षण देने से खराब नहीं होती है लेकिन इज्जत खराब होती है विदेशी मेहमानों को घटिया शराब परोसने से, वो खराब होती है दिल्ली की सड़कों पर विदेशी मेहमानों के सामने भिखारियों के नजर आने पर वो खराब होती है विदेशी और उनके यहां बैठे चमचों की अय्याशी में कमी रह जाने पर। गजब है कि किस कदर झूठ को जिंदा रख कर उसे सच में तब्दील कर दिया है।
कॉमनवेल्थ खेल का आयोजन हासिल करने से शुरू करे तो आपकी आंखें खुली रह सकती है। खेल के आयोजन के लिये हुए मुकाबले में भारत को कामयाबी उसकी खेल क्षमताओं की वजह से नहीं बल्कि भाग लेने वाले देशों को सबसे अधिक रकम ऑफर करने से मिली। ये आरोप उस समय बहुत शिद्दत से लगाया गया था। लेकिन कलमाड़ी एंड कंपनी इस खेल में काफी तेज है लिहाजा जीत गयी। आपको किसी को शायद याद नहीं होगा कि 1982 में हुए एशियाई खेलों के आयोजन के लिये एक खेल गांव बना था उस समय के तमाम ऐशो-आराम को ध्यान में रख कर। खेल खत्म हुए तो इस बेशकीमती प्रोपर्टी को भविष्य के लिये न रख कर कौडियों के मोल बेच दिया गया नेताओं-ठेकदारों और चंद राजनीतिक चमचे पत्रकारों को।किसी ने ये सवाल नहीं किया कि भाई आगे भी खेल होंगे और इनकी जरूरत होगी। ये जानते थे सत्ता के ठेकेदार की फिर से कमाई होंगी। पूरे दिन फावड़ा-कुदाल चलाकर एक गरीब औरत जो रोटी हासिल करती है वो भी कलमाड़ी जैसे नेताओं के ऐशोआराम के लिये टैक्स भरती है। आप सिर्फ इस बात को सोच कर देखें कि दूध पावडर के एक डब्बे पर आप कितना टैक्स देते है। वो भी उस टीम के लिये जिसको सुप्रीम कोर्ट में ये नेता है कहते है कि राष्ट्र की नहीं खेल संघों की निजी टीमें है।
करप्शन के इस हल्ले के पीछे किसी की भलमनसाहत नहीं है न ही किसी के खून में उबाल आया है बल्कि डीडीए ने जो खेलगांव बसाया है उसी की लूट से ध्यान हटाने की कोशिश है ये। क्या कोई 3 से लेकर 8 करोड़ के फ्लैट खरीदेगा। यदि आम आदमी नहीं खरीदेंगा तो डीडीए ने किस के लिये उस कंपनी से ये फ्लैट खरीदे जिसको कॉन्ट्रेक्ट की शर्तें पूरी न करने की वजह से सजा देनी चाहिये थी।लेकिन सत्ता में बैठे लोगों ने ऐसा नहीं किया बल्कि उस कंपनी को गरीब औरत की खून-पसीने की कमाई को सौंप दिया गया।
राजनीतिक पार्टियों की नूरा-कुश्ती काफी तैयारी से हुई है। कांग्रेस के नेताओं ने भी शोर इसलिये मचाना शुरू किया है कि वो जानते है कि कॉमनवेल्थ की नौटंकी के बाद जब तंबू उखडेगा तो बबाल मचेगा। पहले से शोर मचाने से ये होगा कि छोटे-मोटे ठेकेदार एक दो इंजीनियर के खिलाफ कार्रवाई हो जायेगी और हजारों करोड़ रूपये अंदर हो जायेंगे। मुख्य विपक्षी पार्टियों में बीजेपी की बात करते है क्योंकि यादव बंधुओं को जाति और धर्म की नंगी सियासत करते हुए हम रोज देखते है उनके एजेंडें सब को मालूम है। बीजेपी के नेताओं को आप रोज हल्ला करते हुए देख रहे है। लेकिन बीजेपी के प्रर्दशन में शामिल होने वाले नेताओं की कंपनियां कई टैंडरों में शामिल है। उनकी कंपनियों ने इस कॉमनवेल्थ की भ्रष्ट्राचारी गंगोत्री में अपने हाथ धो लिये है अब तर्पण की बारी है। विजय मल्होत्रा तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष है आजतक कितने तीर चलायें है उन्हें ईमानदारी से मालूम होगा।
बात तथाकथित न्यूज चैनलों और राष्ट्रीय अखबारों की। राहुल महाजन ने अपनी पत्नी डिंपी की पिटाई की गुरूवार की सुबह लगभग आठ बजे शुरू हुई ये खबर बिना नागा शनिवार तक चल रही है। चैनलों के बड़े-बड़े धुरंधर रिपोर्टर लगातार इस पर फोन इन करते रहे। एक चैनल के न्यूज रूम में बड़े पत्रकार साहब से बात हुई कि भाई ये क्या है तो उन्होंने कहा कि इसके अलावा आप बताओं देश में खबर क्या है। अब कुछ कहना-सुनना बेकार था। सीआरपीएफ के पांच जवानों को उड़ा दिया उल्फा के आतंकवादियों आज के दिन ये कह कर मैं उन पांच बदनसीब शहीदों की बेईज्जती नहीं कराना चाहता था। लेकिन ये तो दूर की बात है मैं तो उसको ये भी नहीं कह पाया कि भाई एक दिन अपने रिपोर्टर को दिल्ली के बदरपुर इलाके से लेकर शुरू कराओं और नरेला तक ले जा कर देखों कि सड़क पर सत्ता की ओर से कितने सार्वजनिक नल दिये है जिनसे आम आदमी पानी पी सके। मेरा अपना आकलन है एक भी नहीं । दिल्ली पानी मांग रही है और यहां देश के आंखों का ही पानी खत्म हो गया।....

Sunday, July 11, 2010

खाप पंचायतों के छिपे समर्थक देश के युवा राजनेता

बेगुनाह प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के आदेश देने वाली खाप पंचायतों के बारे में कानून बनाने की पहल हो गयी। केन्द्र सरकार ने मामले को मंत्रियों के समूह को सौंप दिया। मीडिया में हो रही सनसनीखेंज आलोचना को शांत करने का एक दांव। मामले को ठंडे बस्ते में डालने के लिये एक और दांव कि राज्यों से प्रस्तावित कानून में राय ली जायेगी। राज्य अभी पुलिस सुधार कानूनों पर सालों से अपनी राय नहीं दे पाये हैं। राज्य के नेता वोट की लोटा-डोरी रखने वाली खाप पंचायतों पर कानून बनाने की राय राजनीतिक चश्में से देखें बिना देंगे ये यकीन किसी को नहीं। क्योंकि मौजूदा राजनीति की बुनियाद जातिवाद यानि जातियों पर टिकी हैं ये खाप पंचायतें। यकीन के लिये किसी सबूत की जरूरत नहीं है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने बाकायदा खाप पंचायतों के समक्ष पेश होकर उनके समर्थन का भरोसा दिया। चौटाला को लेकर किसी को शक नहीं हो सकता। अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान अपने दोनों बेटों के साथ मिलकर हजारों करोड़ रूपये की अवैध संपत्ति बनाने के आरोपों के चलते सीबीआई दफ्तरों और अदालतों के चक्कर काट रहे इस नेता का वोट बैंक एक खास जाति को छोड़कर और कुछ नहीं है। लेकिन नवीन जिंदल को क्या हुआ। देशवासी को तिरंगा फहराने की लड़ाई अदालत में लड़कर नायक बनने वाले नवीन जिंदल को इस मामले में खाप पंचायतों का समर्थन करने की जरूरत को कैसे समझा जायेगा। सिर्फ इस बात के अलावा कि पैसे कमाने के लिये दुनिया भर में हवाई जहाज में घूमने वाले नवीन जिंदल वोट के लिये गांव में बस चलाने की बजाय बैलों की गाड़ी का समर्थन कर सकते है। अपने बिजनेस ग्रुप को राजनीतिक कवच देने के लिये कुछ भी करेंगे देश के युवा विजन के ये साहब। युवा जोड़ों को मौत मिल रही है। लेकिन युवा नेता(सांसद) कहां है। नये जमाने के नये नायक राहुल गांधी की आवाज कहां गयी। हर सभा में मंच पर नंगी तलवार लहराने वाले बीजेपी के युवा ह्रदय सम्राट वरूण गांधी की चुप्पी आवाज से ज्यादा बोली। इसके अलावा सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, अखिलेश यादव, जैसे युवाओं की जुबां तालू से क्यों चिपकी हुई है। आप इसके पक्ष में है कि विपक्ष ये तो साफ हो। देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया में इस समय ये बहस सबसे ज्यादा टीआरपी में है लेकिन ये युवा नेता बेचारे सीन से गायब है। कारण बूझों तो जाने की तर्ज पर नहीं है। हर किसी को मालूम है परिवारवाद के नाम पर जाति के दम पर चुने जाने वाले युवा किसी मुसीबत को न्यौता देकर अपना फायदा खत्म नहीं करना चाहते।वोटरों के सामने बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ये नेता खूब जानते है कि उनकी जान सिर्फ उनकी जातियों के वोटरों में बसी है। इन्हीं के दम पर चलेंगी देश की आने वाली राजनीति। एक और कड़वी हकीकत से रूबरू होना है तो इन लोगों की पढ़ाई-लिखायीं कहा हुई है ये और देख लेना चाहिये। विदेशों के स्कूल-कालिजों से अपनी शिक्षा हासिल करने वाले ये लोग देश के सबसे गरीब आदमी की बात करते है टीवी के कैमरों के सामने। मीडिया को कोसते है गरीब आदमी की खबरों को न दिखाने के लिये उसी मीडिया को जिसके कैमरों में आने के लिये पत्रकारों को उनके पीआरओ पैसा और गिफ्ट देते है।
मीडिया के लिये पहले ये खबर सिर्फ पिछड़े इलाकों की कहानी थी। ऐसे वर्गों की जिनके पास टीआरपी मीटर नहीं है लिहाजा वो दिखाने लायक कहानी नहीं थी। लेकिन एक के बाद एक होती घटनाओं ने दिखाया कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा की पंचायतें शहरों में लूट में लगे वर्ग के लिये मनोरंजन का साधन हो सकती है। इनको जंगली दिखाकर दिल्ली और मुंबई में लाखों रूपये के साथ खेल रहे लोगों का मनोरंजन किया जा सकता है। एकाएक हर रिपोर्टर तालीबानी-तालीबानी चिल्लाने लगा हर खूबसूरत एंकर को लगने लगा कि बेगुनाह नौजवानों को टुकड़े-टुकड़े कर रहे बूढ़े रावण और कंस जैसे मिथकीय विलेन से बड़े विलेन। ये सब मनोरंजन की चीख-पुकार थी। ऐसी चीख-पुकार जिस पर महानगरों में बैठे लोग चाय की चुस्कियों और दफ्तरों में घूसखोरी करते हुए अपना टाईम पास कर सकते है। ऐसा नहीं है कि मीडिया को इतनी समझ नहीं कि कैसे दोगले नेताओं की पोल खोली जाये लेकिन उसको मालूम है कि आज जो सत्ता में है उनकी बांटी गयी रेवड़ियां हाथ में तभी आयेगी जब उनके दुर्गुणों उनकी अदा बताया जाये। और जो आज विपक्ष में है वो कल सत्ता में होंगे तो कल की बटेर को भी ढ़ेला क्यों मारा जाये जब आज का कबूतर हाथ में हो तब भी।
मीडिया के दोहरे मानदंड़ों को दिमाग में ताजा करना हो तो इस बात के लिये आप देख सकते है कि कैसे राजनीति से परिवाद का मुद्दा गायब किया गया। चरणसिंह को अपने अमेरिका पलट बेटे अजीत सिंह में किसानों का नायक दिखा। अजीत सिंह को अब उनकी राजनीति का वाहक सिर्फ जयंत चौधरी में दिख रहा है किसानों का भविष्य। मुलायम सिंह यादव ने शायद कसम खायी है कि अपने परिवार के 21 साल से ऊपर के हर सदस्य को राजनेता बना कर दम लेंगे। बीजेपी के बुरी तरह से हारे जननायक राजनाथ सिंह को लगता है कि उनके बेटे में उनकी जाति का नायक छिपा हुआ है। हर आदमी को मालूम है कि इन नेताओं की राजनीतिक ताकत उनकी नीतियों में नहीं जातिवाद में छिपी हुई है। आकंड़ेबाज चाहे तो ये बात उनके मिले वोटों के आंकड़ों से चैक कर सकते है।
वैसे भी इस मामले में हिंदी भाषी राज्यों की जातियां कुछ ज्यादा ही मुखर है। ऐसी पंचायतों की मुख्य भूमि हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पंजाब और कुछ राजस्थान में है। ऐसे में इस इलाके के युवा नेताओं की आवाज सुनाईं नहीं देना कोई हैरत नहीं बल्कि मीडिया का इस पर ध्यान न देना कुछ ज्यादा हैरानी देता है.....

अजब लोग है,खौलते क्यों नहीं

जुबां है मुंह में
सवाल हैं जेहन में
फिर भी लब खामोश हैं
अजब लोग हैं बोलते क्यों नहीं...
आंखों में जूनूं भी
बदन में तपिश भी है
गुजरते है बिना जुंबिश के
अजब लोग है
जुल्म सहते है बेआवाज
अपने को तौलते क्यों नहीं
मौहब्बत भी दिल में
थिरकन भी बांहों में
खून देखते है सड़कों पर चुपचाप....
अजब लोग है
खौलते क्यों नहीं

Sunday, July 4, 2010

लुटेरों को छूट... मीडिया का छाता

कोई भी डिनर मुफ्त में नहीं होता। एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने देश की जनता को चेताते हुए कहा था। लेकिन हिंदुस्तान के मौजूदा हालात में हम लोग इतना ही संशोधन कर सकते है कि कोई भी डिनर मुफ्त में नहीं होता लेकिन हम डिनर का बिल किसी ओर से वसूल सकते है।
बुरा दौर गुजर गया। देश 8.50 की विकास दर हासिल कर लेगा। अब महंगाई रोकने के लिये ब्याज दर बढ़ानी पड़ेगी। मंहगाईं की दर को रोकना काफी मुश्किल है। थोक मूल्य का सूचंकाक बढ़ोत्तरी की ओऱ है। ये खबरें पिछले कुछ महीने में अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियों में रही। देश भर में मंहगाईं को लेकर सनसनी फैलाई गयीं। मुख्य विपक्षी दलों (अगर विपक्ष है तो) के बयानबीरों ने टीवी चैनलों में बयान दिया कि वो मंहगाईँ के खिळाफ धरना देंगे। किराये की भीड़ के दम पर जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक भीड़ इकठ्ठा हो जायेगी। देर नहीं हुई तो नेताजी बिना बेहोश हुए घर चले जायेंगे। पांच हजार करो़ड़ रूपये के ग्रुप का मालिक नेता प्रतिपक्ष। पांच सौ पैतालीस सांसदों में तीन सौ से ज्यादा करोड़पति हैसियत। देश का प्रधानमंत्री विश्व बैंक में पूर्व नौकरीशुदा। तीसरे मोर्चे की कमान संभालने वाले यादव बंधु दोनो आय से अधिक संपत्ति के मामलों में कोर्ट के चक्कर काट रहे है। गरीब और दलित लोगों के मसीहा पासवान हो या मायावती इन लोगो के वैभव देखकर देवलोक के देवराज इन्द्र को शर्म आ जाये।
इन लोगों की हैसियत से आप को लगता है कि इन लोगों को महंगाई छू कर भी गुजर सकती है। सबसे ज्यादा महंगाईं इऩ लोगों के दम पर आती है। इन लोगों का ऐश्वर्य जुटाने के लिये ही मंहगाईं हर बार बढ़ती है।
फिर से मंहगाईँ बढ़ गयी है। प्रधानमंत्री ने कहा कोई चारा नहीं था। पेट्रोल,डीजल, कैरोसीन और घरेलू गैस के दाम एक साथ बढ़ाये दिये गये। सरकार चाहती है कि वो लोगों की आखिरी सहनशक्ति की सीमा भी देख ले। सत्ता में बैठे हर राजनेता ने इसका सर्मथन किया और विपक्ष में बैठे देवताओं ने निंदा। समर्थन देने वाले राजनेताओँ ने इस अपनी औकात के मुताबिक इसका फायदा उठाने वाले बयान दिये। ये सब बाते आपने पढ़ी, देखी और सुनी होंगी।
महंगाईं को लेकर दो महीने पहले भी दिल्ली में भीड़ जुटी थी। हजारों की रैली में आये लोगों को देखकर दिल्ली के लोगों ने नाक-भौं सिकोड़ी। उन लोगों को ट्रैफिक जाम के लिये गालियां दी। मीडिया में बैठी सजी-धजी एंकरों ने गुस्सा जाहिर किया कि ये लोग दिल्ली क्यों आते है। तभी एक सवाल जेहन में आाया कि क्या मंहगाईं क्या सिर्फ उन लोगों के लिये उन लोगों के लिये है जो दिल्ली में सरकार से विरोध जताने आये थे। या दिल्ली में भी मंहगाईँ थी। मंहगाईँ तो दिल्ली में भी थी। फिर दिल्ली के लोग या फिर दूसरे महानगरों के लोग विरोध प्रर्दशन करने क्यों नहीं निकलते है। लेकिन जब इसका जवाब मिला तो लगा कि पैरों तले की जमीं ही खिसक गयी।
चंबल के बीहड़ों में खबरों को कवर करने के दौरान एक बात पता चली कि डाकूओं को रोटियों की कीमत एक दो दस गुना नहीं बल्कि पांच सौ गुना तक देनी होती थी। गांव-देहात में किसी अनजान को भी पानी पिलाना
पिलाने वाला का सम्मान माना जाता है लेकिन यहीं पानी जब किसी डाकू गिरोह को दिया जाता था तो उसकी भी कीमत वसूल की जा रही थी। ये अर्थशास्त्र समझ में नहीं आया। सालों बाद महानगरों में काम कर रहे माफिया गिरोहों की कार्यप्रणाली देखी तो समझा कि वो लोग भी अपने पैसों को पानी की तरह बहाते है। एक पुराने पुलिस वाले ने समझाया कि ये लूट के माल की सामाजिक हिस्सेदारी है। लूट में हिस्सेदारी इससे सुरक्षा मिलती है और साथ माफिया गतिविधियों को सामाजिक होने का जामा भी। आज जब मंहगाईं को चरम पर जाते देखा और दिल्ली या ऐसे ही किसी महानगर के लोगों को इस मंहगाईं पर चुप कर बैठते देखा तो वहीं ख्याल आया।
दो दशक पहले सरकार को डर लगता था कि पेट्रोल में एक रूपये की तेजी भी महानगरों में विरोध प्रदर्शनों को न्यौता देंगी। लेकिन नब्बे के दशक में एकाएक महानगरों में सरकारी काम-काज संभालने वाले बाबूओं की सेलरी में हजारों रूपये का रातो-रात इजाफा फिर प्राईवेट कंपनियों में लाखों लोगों की लाखों रूपये की सैलरी की आमद। कुछ ही रातों में ये लोग देश की 88 करोड़ की जनता से निकलकर विशिष्ट जनों में शामिल हो गये। इन लोगों ने अचानक ऐसा कोई काम नहीं किया था कि ये लाखों रूपये के फायदे के एक दम से हकदार हो जाये लेकिन फिर भी इऩकी जेंब में पैसा आ गया। अब ये पैसा लूट के पैसे के तौर लगा। ये बात इन लोगों को भी मालूम थी कि घोर गरीबी में डूबे गांवों में स्कूल, सड़के और बिजली भेजने का पैसा उनकी जेब में आ रहा है। और यहीं से शुरू हो गया लूट में हिस्सेदारी का फार्मूला। देश के महानगरों में रहने वाले लोगों की आम नौकरी का वेतन देश के बाकी हिस्सों से कही ज्यादा है। इसीलिेय जब पेट्रोल का दाम बढ़ता है तो महानगर के आदमी को सिर्फ एक खुजली होने से ज्यादा कोई परेशानी नहीं होती। जब एक किलो दाल का भाव किसी मजदूर की एक दिन की मजदूरी के बराबर हो जाता है तब भी दिल्ली में नौकरी कर रहे लोगों को परेशानी नहीं होती। वो जानते है कि लूट में हिस्सेदारी करनी होंगी। क्योंकि लूट के इस खेल में वो अपना हिस्सा ले रहे है तो इस को बांट कर सामाजिक मान्यता तो हासिल करनी होंगी। आटा, तेल , नमक,चीनी, साबुन और भी दूसरी जरूरी चीजों के दामों में बढ़ोत्तरी बस ऐसी ही लगती है जैसी एक वसूली में कुछ पैसों का बढ़ जाना। और शायद यही कारण है कि महानगरो की एंकर हो या फिर आम निवासी सबको लगता है कि भूखे-नंगें लोग आकर इस लूट के खिलाफ अगर आवाज उठाते है तो इससे पर्दाफाश हो सकता है।
ये सब अचानक नहीं हुआ। लाखों लोगों की एक ऐसी फौज तैयार की गयी जो देश के सत्तर करोड़़ गरीबों की रोटियों के दम पर अपनी जिंदगी को खुशनुमा बनाने में जुट गयी। और ये वर्ग ऐसा था जिसकी जिम्मेदारी थी कि वो राजनेताओं और सरकारों पर नियंत्रण रखें और नीचे वाले लोगों के साथ अपनी सद् भावना।
आखिर मंदी किसके लिये आयी थी। मंदी कहां से आयी थी। मंदी का फायदा किसे मिला। मंदी का नुकसान किसने झेला। इस सवाल को मीडिया ने काफी धुंधला कर दिया। इतना धुंधला कि कोई आदमी साफ देख ही न सके। मीडिया ने एक खास मकसद से पूरा खेल इस तरह से खेला कि जैसे मंदी से देश का व्यापारी वर्ग पूरी तरह से परेशान है। पहले लेबर ला में संशोधन किये गये। फायदा किसे मिला बड़े व्यापारियों को। हजारों करोड़ रूपये की देनदारी साफ कर दी गयी। ये देनदारी किस पर थी। बैंकों में जमा पैसे किसके थे। इस बात पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया।
कोई बड़ी कंपनी फेल नहीं हुई। छोटी ईकाईयां बंद हो गयी। किसी बड़ी ब्रांडेड कंपनी की सेल बेस सेल से नीचे नहीं गयी। लक्जरी कारों और आईटम की सेल का ग्राफ लगातार उपर उठता रहा। हजारों करोड़ रूपये की छूट दे दी गयी एक्सपोर्ट के व्यापारियों को। देश के करोड़ों लोग अपने खून की कीमत देकर देश के व्यापारियों, भ्रष्ट्र राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट का बिल तो चुका ही रहे थे लेकिन अब करोड़ों महानगरवासियों की अय्याशी का बिल भी उनके मत्थे पड़ गया है। यानि देश को महानगरों को सजाने-संवारने की कीमत गरीबों के खून से हासिल की जा सकती है।

Friday, July 2, 2010

ख्वाब हूं कि एक ख्वाब में हूं

एक ख्वाब हूं
कि
एक ख्वाब में हूं
झूठ बोलता हुआ
सच हूं
कि
सच बोलता हुआ
झूठ
दुनिया आँखों में है
कि
दुनिया की आंखों में हूं
रास्ते से गुजर रहा हूं
कि
रास्ता मुझ से गुजर रहा है
मै किसी को समझ रहा हूं
कि
मुझे समझा रहा है कोई

Friday, June 25, 2010

मेरे पास एक जनम था, चुनना था कई जनमों को

इसी जनम में मुझे जीना था
सच
कई जनमों का,
इसी जनम में मुझे
बोलना सुनना था
झूठ
सातों दुनिया का,
बनाने थे रिश्ते सात जनमों के
भोगने थे
पाप
कितने जनमों के
कमाना था
पुण्य
अगले जनमों का
इतना ही नहीं
जान लेना था
इस दुनिया को
भूल जाना था पुरानी दुनिया को
मेरे पास एक जनम था
उम्मीद थीं कई जनमों की
मुझे दोहराना था
शैतान से
हजारों जनमों की लड़ाई को
मुझे गाना था
अजनमा
ईश्वर की असीम बड़ाई को,
मेरे पास एक जनम था
चुनना था कई जनमों को
फिर
मैंने तुम को चुन लिया
बाकी
सब
छोड़ दिया
मैंने
अगले जनमों के लिये।

Sunday, June 20, 2010

बड़े बेशर्म हो नीतिश जी....सम्राट नहीं सेवक हो बिहार के

यूं तो किसी राजनेता पर लिखने का अब कोई मन नहीं होता है। जातिय गोलबंदी के नेता। उनके पास अपना कुछ नहीं है सिर्फ जाति के। ना कोई सपना ना कोई ईमानदारी का विकल्प। सबके पास है सिर्फ जातिय गणित के दम पर की गयी घेराबंदी। कभी एक कबीले का नेता दूसरे कबीले से मिलकर सामंजस्य बैठा लेता है। कभी किसी दूसरे को अपने मुताबिक कर लेता है। और लोकतंत्र और भीड़तंत्र में अंतर कर पाने में नाकाम रही जनता सिर्फ नेता की जाति को ही महत्व देती उसके चरित्र को नहीं। मीडिया हर सत्तारूढ़ नेता को महान साबित करने की होड़ में रहता है बस अनुपात इतना रखता है जितना वो टुकडे़ फेंकता है।
नीतिश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री है। खुद्दार मुख्यमंत्री। इतना खुद्दार कि उसने दो साल पहले बिहार में आयी बाढ़ के दौरान गुजरात राज्य की दी गयी सहायता के पांच करोड़ रूपये वापस कर दिये। इस खुद्दार नेता ने तर्क दिया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने राज्य की दी गयी सहायता का गुनगान कर बिहार को अपमानित किया है। एक और बात कि बीजेपी के पटना अधिवेशन में नरेन्द्र मोदी का नीतिश कुमार के साथ हाथ मिलाते हुए फोटों भी लगाया गया। इस बात पर भड़क गये है नीतिश कुमार।
गजब की खुद्दारी है। बीजेपी के समर्थन से सरकार चला रहे हो। उसकी सरकार में केन्द्र में मंत्री रहे हो। लेकिन हाथ मिलाने के फोटों से खफा। ऐसे ही है जैसे एक बाप घर में बैठ कर चोर बेटे की कमाई पर ऐश कर रहा हो। लेकिन बाहर उस पर नाराज होता रहे। ये कैसी खुद्दारी है। लेकिन नीतिश के जातिय बंधुओँ की निगाह में ये उनके नेता की महानता है। गुड़ खाये और गुलगुलों से परहेज। लेकिन नीतिश की जातिय समीकरण में राजनीतिक लाभ कमा रहे लोगों को अपने नेता की अदा दिखेंगी।
देश के तमाम लोगों की नजर में मोदी खलनायक हो सकते है। ऐसे खलनायक जिसने अल्पसंख्यकों के सफाये की कोशिश की। लेकिन लोकतंत्र की बुनियादी बात के मुताबिक गुजराती लोगों ने नरेन्द्र मोदी को उससे बेहतर तरीके से चुना है उसी तरह से जिस तरह से नीतिश कुमार को उनके राज्य के लोगों ने। अपन दोनों नेताओं के राजनीतिक विचारों से कोई ईत्तफाक नहीं रखते है। लेकिन लोकतंत्र की कसौटी वोट के दम पर दोनों चुने गये है। यहां तक तो ठीक है। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी ने पांच करो़ड़ रूपये अपनी जेंब से दिये थे। क्या पांच करोड़ रूपया मोदी का था। क्या हर गुजराती मोदी की तरह से नीतिश कुमार का दुश्मन है। ऐसा दुश्मन जिसकी रोटी से अपना पेट पाल रहे हो नीतिश कुमार। लेकिन ये बात मुझे नहीं झकझोरती। बात में हैरानी तब होती है जब आम जनता जिसके दम पर ये नेता जिन्हें नौकर होना चाहिये मालिक बन बैठते है। नीतिश कुमार अगर बिहार के स्वाभिमान की चिंता करते है तो दिल्ली में रोजगार से रोटी चला रहे लाखों बिहारियों को वापस बुला क्यों नहीं लेते। क्योंकि कई बार दिल्ली में उन लोगों को गाली देकर अपमानित किया जाता है।
पैसा मोदी का नहीं था। पैसा नीतिश कुमार को नहीं दिया गया था। पैसा हिंदुस्तान के एक राज्य के लोगों के टैक्स से जमा किया गया था। वो पैसा देश के ही एक राज्य बिहार के लोगों को संकट में मदद के तौर पर दिया गया था। लेकिन नीतिश का स्वाभिमान आहत हो गया। भीख के तौर पर मिली सत्ता की रोटियां तोड़ते वक्त नीतिश को शर्म नहीं आ रही है। लेकिन हाथ मिलते हुए देख कर तिलमिला उठा हूं। आखिर ये हो क्या रहा है संघीय ढ़ांचे की ऐसी की तैसी कर रहे है नेता। लेकिन संविधान में इस बात पर कोई रोकथाम नहीं कि भाई आप नेता है सम्राट नहीं कि आपकी सनक से शासन के नियम तय होंगे। जिस सनक और हनक के साथ नरेन्द्र मोदी जनता के वोटों से चुनकर आयी सोनिया गांधी को रोम की बेटी और जाने क्या क्या कहते है उसी तरह से नीतिश कुमार अपनी हनक और सनक से एक राज्य के लोगों की मदद को वापस कर उन करोडो़ं लोगों का अपमान करते है।
दरअसल इस संविधान को बनाते वक्त नहीं सोचा गया था कि बौने लोग ऊंची गद्दी पर बैठने के लिये हील के जूते नहीं बल्कि दूसरों की गर्दन काट लेंगे। इसी लिये नीतिश ने अपनी सनक में पैसे तो वापस कर दिये लेकिन बीजेपी के समर्थन को वापस नहीं किया। बेशर्मी देखिये बीजेपी की भी वो कह रही है कि वो नीतिश कुमार को समर्थऩ देती रहेंगी। सत्ता की मलाई खाने के लिये बेशर्म बनने में कोई बुराई नहीं है और नूरा कुश्ती से जातिय कबीलों को अपने नेताओँ के हक में बोलने की छूट मिलती है।

दिल्ली के भेडिये....

इस
खबर का क्या करूं। अखबार में छोटी सी छपी। दिमाग पर बड़े से हथौड़े की तरह से बज रही है। ध्यान हटाना चाहता हूं लेकिन हट नहीं रहा है। और भी अखबार है जिनमें चमकते हुए फोटो छपी हुईं हैं रगींन। लेकिन दिमाग है कि सौं शब्दों में समेटी गयी खबर से हटता ही नहीं। क्रूरता की मिसाल देने के लिये आप के दिमाग में बहुत सी मिसालें होंगीं। भोपाल छोड़ भी दें तो आपके दिमाग में बसी फिल्मों में फिल्माई गयी सारी निर्दयता भी इस खबर के सामने बौनी लग रही है। खबर..... दिल्ली की एक सड़क पर पुलिस को लाश के छोटे-छोटे टुकडे़ बीनने पड़े।....... एक्टीडेंट में घायल इस आदमी को कारो में गुजर रहे लोगों ने मदद नहीं दी बल्कि उसके उपर से कार के पहिये उतार दिये। कारों की रफ्तार इतनी तेज थी कि एक जिंदा इंसान पहले तो घायल फिर लाश और फिर टुकड़ों में तब्दील हो गया। सड़क पर इंसानी जिस्म के टुकड़े इधर से उधर फैल गये। खून सड़क से उठकर कारों के पहिये से लग कर कार वालों के साथ ही चला गया। खबर को सोच कर किसी भी इंसान के रोंगटें खड़े हो सकते है। अफसोस है कि ये पहला मामला नहीं है दिल्ली में कुछ दिन पहले ही अक्षर धाम टैंपल के सामने वाली सड़क पर इसी तरह से एक इंसान के टुकड़ें दिल्ली पुलिस ने उठाये थे। सवाल ये बचा ही नहीं कि किस गाड़ी की टक्कर से मरने वाला घायल हुआ। सवाल ये है कि हजारों कारें एक इंसान को रौंदते हुए गुजरती जा रही है बिना किसी अफसोस के। कारों में सवार ज्यादातर लोग घर वापस लौट रहे होंगे। घर जिसके अंदर उनके अपने इंतजार कर रहे होंगे। अक्सर आपने देखा होगा कई बार सड़क के बीच में किसी जानवर की लाश पड़ी होती है। पहले उस लाश के आस-पास मांस और खून का कीचड़ होता है। अगले दिन आपको सिर्फ उसकी खाल दिखाई देती है। इस तरह से जमीन से चिपकी हुई जैसे कि किसी ने सड़क पर तस्वीर बना दी हो। और फिर वो भी गायब हो जाती है। लेकिन इस तरह के आम दृश्यों में भी आप ऐसी किसी चीज की कल्पना नहीं कर सकते है कि कोई इंसान इस तरह से कुचल कर गायब होगा। ये देश की राजधानी दिल्ली है। देश के शंहशाहों का शहर। शहर जिसको खूबसूरत बनाने में हजारों करोड़ रूपये लगाये जा रहे है। ये शहर जिसमें कानून बनानी वाली संसद है। तब ये शहर इतना बेदर्द क्यों है। इसका जवाब भी दिल्ली के बाशिंदों में ही छिपा हुआ है। 15000 करोड़ रूपये खर्च कर विदेशी मेहमानों के लिये दुल्हन की तरह से सज रही है दिल्ली। लेकिन इसके लिये सबसे पहली बलि दी गयी उस गरीब आदमी और सड़क पर लेटे हुए आदमी जिसके नारों से दिल्ली की गद्दी सजती रही है। लेकिन हजारों करोड़ रूपये के इस नाजायज खर्च को राष्ट्रीय सम्मान का नाम दिया जा रहा है। इस शहर में पानी बिकता है। इस शहर में पेशाब करने का पैसा लगता है। इस शहर में भीड़-भरे इलाके में चाकूओं से गोद दिया जाता है इंसान को। इस शहर में पुलिस वाले दिन-दहाड़े रेप करने के आरोपों से घिर जाते है। लेकिन शहर है कि जागता ही नहीं।
कुछ दिन पहले देश की राजधानी मान कर हजारों लोग इस शहर में चले आये थे अपना विरोध जताने। दिल्ली शहर के मीडिया ने जिसे राष्ट्रीय मीडिया कहा जाता है पूरे अखबार के पन्ने और टीवी प्रोग्राम्स सिर्फ किसानों के खिलाफ गालियों से भरे थे। एक राष्ट्रीय अखबार में तो बाकायदा कुछ शराब की बोतलें एक साथ इकट्ठा कर खींचे गये फोटों को ये कह कर दिखाया गया कि शराब पी रैली में आने वाले किसानों ने। ठीक है शहर के शराब के ठेके का किसानों के दम पर चलते है। फाईव स्टार होटल्स और हाल ही में माल्स में दी गयी शराब परोसने की छूट का फायदा क्या किसानों को मिलता है। भालू-बंदरों सा दर्शाया था मीडिया ने उन किसानों को जो सिर्फ दिल्ली वालों को परेशान करने ही आये थे। ऐसा ही है ये शहर। ये अलग बात है कि इस शहर का दिल कहलाये जाने वाले कनॉट प्लेस की साज-सज्जा का खर्चा आम आदमी के पैसे से जा रहा है। उस आदमी के जो अपने खून पसीने को बेच कर इस दिल में बहने वाले खून का इंतजाम कर रहा है। लेकिन शहर है कि उन आदमियों को गंदगी कह रहा है। शहर में बहुत सारी बातें है जो राष्ट्रीय मीडिया के पहले पन्ने पर छपती है जैसे कि दरियागंज में एक बस में दो भाईयों को चाकूओं से मार कर गुंड़ों ने लूट लिया। वो चिल्लाते रहे लेकिन किसी ने उनको बचाने की कोशिश ही नहीं की। इसके बाद जब ड्राईवर बस को थाने में ले जाने लगा तो उन दिल्ली वालों ने ड्राईवर को गाली-गलौज कर बस को रुकवाया और उतर कर चलते बने। ये जाने क्यों इस शहर की फितरत है। कभी रोम के बारे में लिखते हुए विश्व कवि नाजिम हिकमत ने कहा था कि
" इस शहर को तो ऐसा ही होना था...क्योंकि इस शहर की नींव में भेडिये का दूध और भाई का खून......। लेकिन हमको इतिहास की किताबों में सिर्फ ये तलाशना है कि क्या किसी पीर, मुर्शीद , औलिया या साधुःसंत ने इस शहर को ऐसा होने का शाप दिया था क्या।

Thursday, June 17, 2010

जुबां का सच उतना दिलफरेब क्यूं नहीं

आंखों में कुछ जुबां से कुछ
दिल में जो वो कहता क्यूं नहीं
टूट-टूट कर बिखर रहा है अंदर
आंखों से बहता क्यूं नहीं
सफऱ दर सफर घूमता दर दर
जिसे मंजिल कहता है उन आंखों में रहता क्यूं नहीं
आंखों का फरेब है जितना दिलकश
जुंबा का सच उतना दिलफरेब क्यूं नहीं

...............................................................
राख है अभी, कुछ देर में बिखर जायेगी
एक जले हुए ख्वाब की तुमको याद तो आयेगी
देखा, रूकी, मुस्कुराई ,चली जायेगी
जिंदगी कहां देर तलक किसी को मनायेंगी
.....................................................
टूटी हुई ही सही आस रहनी रहनी चाहिये
भरे गले में भी एक प्यास रहनी चाहिये।

Monday, June 14, 2010

हे ईश्वर, यह सब बंद करो| :

अदालत का फैसला आ गया।
25 हजार इंसानों की हत्याओं के दोषियों को 2 साल की कैद और दस मिनट में जमानत मिल गयी। बाहर चींखतें हुए इंसानों की तस्वींरें टीवी चैनल्स पर दिखती रही। अगले दिन के अखबारों में छप गया वो फोटो एक बेहद मासूम सी बच्ची को दफनाते वक्त का। फैसला आया तो कुछ सूझा ही नहीं। दर्द और अपमान के अलावा कोई दूसरी भावना दिमाग में नहीं थीं। लिख नहीं पाया। पुराने सारे मंजर और तस्वीरें एक एक कर टीवी चैनल्स दिखा रहे थे। फैसले की बार-बार हवा में तैरती आवाज दिल को तोड़ रही थी। देश के कानून मंत्री ने कहा कि न्याय को दफन कर दिया गया। किसने ...। अदालत ने, देश के कानून ने, नेताओं ने या खुद जनता ने ये सवाल हवा में गूंज रहा है। लेकिन मुझे इसको लेकर कोई अफसोस नहीं कि ये सब झूठ बोल रहे है। पूरा देश पिछले साठ सालों से इसी तरह से चलाया जा रहा है। जातियों के दम पर टके के नेता चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुंच कर कानून बनाने में जुटे हैं। कौन सा कानून वहीं जो अमीरजादों और ताकतवर लोगों के हक में काम करता रहे। लेकिन ये मरे हुए मन का रूदन है। पुराना पाठ है।
जब हजारों लोग मारे गये। किसी ने तो लापरवाही की होंगी। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का फैसला रहा होंगा। लेकिन किसी को क्या फर्क पड़ता है। केन्द्र हो या राज्य दोनों में दूसरी पार्टियों की सरकारों ने भी राज किया है इस पच्चीस सालों के बीच। लेकिन किसी को को वास्ता नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में बैठे न्यायधीशों को इस बात का याद रहता है कि आरटीआई के माध्यम से सूचना देना सुप्रीम कोर्ट के विशेषाधिकारों का हनन है। बेस्ट बेकरी केस जहीरा शेख का मामला हो या फिर गुजरात में अहसान जाफरी गुलबर्गा सोसायटी का मामला हो सब में नयी परंपरा डाली जा सकती है लेकिन पच्चीस हजार लोगों की अकाल मौत पर नहीं। अगर आप देश को और करीब से समझना चाहते है तो सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सरकार की ओर से और कंपनी की ओर से खड़े वकीलों की फेहरिस्त देख लेंगे तो समझ लेंगें कि क्यों दोगलापन इस देश की रगो में दौड़ रहा है।
आज इस लिये कोई निराशा नहीं है कि ये सब चल रहा है। आज दिल मुठ्ठी में बंद सा लग रहा है तो इस लिये कि देश की जवानी के उपर इस फैसले का कोई फर्क नहीं पड़ा।
देश का भविष्य जो जेसिका लाल को इंसाफ न मिलने पर मोमबत्ती जलाता है तो कोई निरूपमा के कत्ल पर आंसू बहाता है। वो नौजवान चुप है। वो देश का मुस्तकबिल चुप है जिस पर देश की जिम्मेदारी आने वाली है। क्रिकेट के स्टेडियम में तिरंगे को लहराने वाला अपने सर औऱ चेहरे पर तिरंगा बनवाने वालों की जवानी है ये। मौका मिलते ही अमेरिका निकलने की छटपटाहट के साथ जिंदा इन देशभक्त नौजवानों पर देश निसार है। ये नये प्रतिमान गढ़ रहे है। बिना किसी इतिहास बोध के चलती हुई एक पूरी सदी। और आपके पास इस बात का कोई रास्ता नहीं कि अपना गुस्सा कैसे उतारे। ये लोग आसानी से तिरंगा लहरा सकते है दूसरे हाथ से अमेरिका या फिर किसी भी यूरोपिय देश में जाने के लिये रिश्वत दे सकते है। दरअसल देश के लिये नारा लगाने वाले इस जवानी के लिये अमेरिका माई -बाप है। उसकी कल्चर इसका सपना है उसके शहरों में खरीददारी करना सबसे बेहतर लाईफ स्टाईल। ये नौजवान उन रोटियों के लिये जूझते हिेंदुस्तान की लड़ाई लड़ेगे। ये वो नौजवान है जिनकी याद में आजादी की लड़ाई पुरानी बात है। जिनके लिये आउट्रम लेन,हडसन लेन और नील लेन में रहना तैयारी के लिहाज से अच्छा है। किसी को नहीं चुभता कि हडसन और नील ने हजारों हिंदुस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया था निर्दयता पूर्वक। औरतों के साथ बलात्कार हुए बच्चियों को कुचल दिया गया बच्चों को नेजों की नोंकों पर उछाल कर बींद दिया गया। लेकिन ये नाम किसी को नहीं चुभते। दिल्ली के पॉश इलाके में शुमार होते है ये इलाके।
विदेश जाने की चाहत कितनी है इसका अंदाज सिर्फ इस बात से लगा सकते है कि पंजाब में कई ऐसे मामले रिपोर्ट हुए है जिनमें बहन अपने सगे भाई के साथ या बाप अपनी बेटी के साथ मां बेटों के साथ शादी के फर्जी दस्तावेज तैयार कर कर बाहर निकले है। ऐसे ही लोगों के दम पर टिकी है इस देश की देशभक्ति।
लेकिन देशभक्ति से उलट एक बात पर इन लोगों को जरूर ध्यान देना चाहिये कि न्यूक्लियर प्लांट से हुई एक भी चूक हजारों इंसानों का नहीं बल्कि लाखों इंसानों को मौत के घाट उतार देंगी। और तब भी इसी तरह से होना है इस बार 800 करोड़ रूपये मिल गये है लेकिन अगली बार पांच सौ करोड़ रूपये मिलेंगे। हां एक बात और मौत के घाट उतरने वाले भी इस बार वहीं भूखें-नंगें होंगे जिनकी वोट के दम पर नाच रहे कबीलाई नेता संसद में बैठ कर कानून बना रहे है और अमेरिका के तलवे चाट रहे है।
बात खत्म नहीं हो रही है लेकिन मैं कुछ शब्द उधार लेकर खत्म करना चाहता हूं
" सिलेटी बुदबुदाते हुए चेहरों की कतारें, भय का नकाब ओढ़े खाई की गहराई से उठकर ऊपर तक आती हैं, उनकी कलाईयों पर व्यस्त समय अकारण टिक्-टिक् करता और उम्मीद, जलती हुई आँखों, कसमसाती मुट्ठियों के साथ कीचड़ में लोट पोट --हे ईश्वर, यह सब बंद करो|"

Friday, June 11, 2010

मैं पत्थर पर यकीं कर रहा हूं आदतन

मैं पत्थर पर यकीं कर रहा हूं आदतन
वो खुद को तेज कर रहा है इरादतन
मुझे यकीन हैं बदल दूंगा उसकी फितरत
वो मुत्मईन है तोड़ देगा मेरी हसरत
मेरा वजूद मेरे हौंसले में हैं
उसकी हस्ती तोड़ने में है
मेरे ईरादों की गर्मी से ये पिघल जायेगा
उसकी सोच का ठंडापन ये भी गुजर जायेगा
चाहता हूं कि कुछ देर वो सीने से लगे अपना हो ले
उसका इंतजार हो खत्म मुलाकात और ये भी रो ले

Wednesday, June 9, 2010

चेहरा बदलते हुए अंधा हो जाता हूं, मैं

एक चेहरे से पाया मैंने,
एक चेहरे से खो दिया,
यही दर्द है,
चेहरे बदलने का।
दर्प से उल्लसित,
विजयी चेहरे के साथ,
मिलता हूं दुनिया से,
मैं,
पराजित चेहरे में,
नितांत अकेला, निराश,
दर्पण के साथ,
इन्हीं में से किसी चेहरे से,
जुड़ गयी थी,
तुम
तु्म्हें याद है अब तक वो चेहरा,
मैं भूल भी गया वो चेहरा,
तुम रोज मुझ में तलाशती हो उसी आवाज को,
मैं गफलत में चेहरे बदलता हूं जल्दी जल्दी,
लेकिन खोज नहीं पा रहा उसी चेहरे को,
काम निकला और चेहरा गायब,
यहीं उसूल है ज्यादातर चेहरों को लगाने का,
तुम मेरे करीब आयी,
मेरे चेहरे ने पा लिया वो,
जिसके लिये बना था वो
फिर बदल गया दुनिया के लिये,
चेहरा बदलते हुए अंधा हो जाता हूं,
मैं,
केंचुली बदलते हुए,
सांप,
कैसे याद करूं,
मैं,
अपने खोये हुए चेहरे को,
लेकिन,
सोचना जरूर कभी,
कहां से सीखा
मैंने
चेहरे बदलना।

Monday, June 7, 2010

कैसा अर्थशास्त्र पढ़े हो प्रधानमंत्री जी

"देश के लिये आज का दिन सौभाग्य का दिन है, देश को एक बेहद ईमानदार और पढ़ा लिखा प्रधानमंत्री मिला है" कॉफी हाउस में बैठते हुए एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने मुझसे कहा था। देश की कमोबेश यही हालत थी। वर्ल्ड बैंक के लिये नौकरी कर चुके प्रधानमंत्री की ईमानदारी और अर्थशास्त्र की समझ पर कांग्रेसियों और बाकी पूरे देश को ऐतबार दिख रहा था।
वर्ल्ड बैंक की नौकरी यानि अमेरिकी और ताकतवर अमीर देशों के इशारों पर काम करने वाला बैंक। मैंने बस इतना सा ही जवाब दिया था। उन लोगों का मजा किरकिरा नहीं करना चाहता था। पत्रकार होने के नाते मेरे जेहन में ऐसे सवाल जरूर चुभ रहे थे। मैं चाहता तो भी मेरे दोस्त उनका जवाब नहीं दे पातें। हालांकि मैंने चलते-चलते पूछ लिया कि ये प्रधानमंत्री हिंदी में अच्छा बोलतें है कि पंजाबी में। जवाब में अटकते कांग्रेसी दोस्तों ने कहा कि नहीं वो इन दोनों भाषाओं में नहीं बल्कि अंग्रेजी में बहुत शानदार बोलते है। मुझे लगा कि देश के लिये ये प्रधानमंत्री कितने मुफीद होंगे साफ नहीं था लेकिन एक बात थी कि ये जनाब अर्थशास्त्र के भारी विद्धान है
बात आई-गई हो गयी। वो कांग्रेसी दोस्त भी मेरे साथ है। कभी-कभी मिलते है। देश के सामने भी प्रधानमंत्री का काम-काज है। चौबीस मई को छह साल के अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने दूसरी बार प्रेस कांफ्रेस की। यानि देश से दूसरी बार प्रधानमंत्री मुखातिब हुए। उनकी पहली बात थी कि देश तरक्की कर रहा है। पूरी प्रेस कांफ्रेस के फूटेज को बार-बार देखता हूं, उसको पढ़ता हूं एक बात समझ में आती है कि ये वर्ल्ड बैंक के अर्थशास्त्री है किसी गरीब जनता के प्रतिनिधि नहीं। गरीब देश की अमीर संसद के प्रधानमंत्री। तीन सौ से ज्यादा करोड़पति सांसद है इस बार की कुल पांच सौ पैतालिस की संसद में। ये कैसा अर्थशास्त्र है कि गरीब आदमी रोटी के लिये तड़प रहा है। गरीब आदमी आम आदमी नहीं है इस देश में। आम आदमी देश के मध्यमवर्ग को कहा जाता है। वो वर्ग भी मंहगाई से बिलबिला रहा है। देश की 38 फीसदी जनता को एक वक्त का खाना नहीं मिल रहा है। बच्चे मिट्टी की रोटियां खा रहे है। परिवार आत्महत्या कर रहे है। कुपोषण का कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन प्रधानमंत्री का चेहरा खुशी से दमक रहा था और उनके मुंह से देश को पता चल रहा था कि बढ़ती विकास दर से मंहगाईं बढ़ रही है। मुझे सिर्फ एक हिंदुस्तानी अर्थशास्त्री की बात याद आ रही थी कि वर्ल्ड बैंक गरीब आदमी के निवाले से अमीरों की थाली सजाता है।
ये सोचा जा सकता है कि गरीबी पर नियंत्रण तो प्रधानमंत्री के हाथ से बाहर की बात है। लेकिन मंत्रीमंडल में मक्कारों की फौज पर प्रधानमंत्री का कोई बस है कि नहीं। उनको कोई घोटाला समझ आता है कि नहीं। टेलीकॉम घोटाला 60,000 करोड़ रूपये की देश के साथ लूट। एक के बाद एक घोटाले लेकिन प्रधानमंत्री का कहना है कि जांच होंगी। लेकिन जांच किस बात की होंगी..सबूतों से तो साफ दिख रहा है कि इसमें देश के साथ लूट हुई लेकिन ये अर्थशास्त्री समझ नहीं पा रहे है।
शरद पवार का कुनबा लूट की छूट के साथ ही मंत्रीमंडल में शामिल हुआ। संसद के गलियारे में शरद पवार की सांसद बेटी देश के सामने सफेद झूठ बोलती है कि उसके परिवार का कोई लेना-देना इंडियन पैसा लूटो लीग से नहीं है माफ करना इंडियन प्रीमियर लीग मैं चाह कर भी नहीं कह पाता हूं।
पहले पता चलता है कि सुप्रिया सुले के पति के उस कंपनी में शामिल है जिसको प्रसारण अधिकार के हजारों करो़ड़ के ठेके मिले है। खुदा खैर करे ...लेकिन अब सामने आया कि पुणे टीम की खरीद में शामिल सिटी कॉर्प के पीछे शरद पवार का परिवार है। खुद शरद पवार उनकी पत्नी और बेटी की इस कंपनी में 16 फीसदी हिस्सेदारी है। कंपनी ने पुणे की टीम खरीदने की 1100 करोड़ की बोली लगाई थी। कोई बेवकूफ भी बता सकता है कि कैसे ये खेल हुआ होंगा। लूट में जुटे इस परिवार के करीबी और इंटेलीजेंट और ओनेस्ट प्रधानमंत्री के एक और मंत्री प्रफुल्ल पटेल की बेटी ललित मोदी के लिये काम कर रही है।
दाल घोटाले में हजारों करोड़ रूपये का खेल कैसे हुआ। चीनी घोटाला क्या है। लोग भूल जाते हैं। इस भूल की कीमत बैठती है पवार कुनबे के दम पर जम कर देश को लूट रहे बिजनेस समूहों के लिये हजारों करोड़ रूपये की छप्परफाड़ कमाईं। देश के सामने शरदपवार झूठ बोलते है कि चीनी का उत्पादन कम होने की उम्मीद है मंहगाईं बढ़ती है 14 रूपये किलो चीनी 50 रूपये किलो तक जाती है। और देश में चीनी का उत्पादन ज्यादा हो जाता है। कैसे... ज्योतिषी जानता है प्रधानमंत्री नहीं।
हैरानी और भी है। लेकिन किसी को मालूम नहीं कि प्रधानमंत्री देश से बात करते हुए किस बात पर ज्यादा खुश है कि छह साल तक गद्दी पर बैठे रहे या देश के युवराज की अभी गद्दी संभालने की इच्छा नहीं है।
लेकिन एक बात और देश के प्रधानमंत्री की सभा में मीडिया की दरियादिली देखिये कि पूछता है कि आप किसकी ज्यादा सुनते है अपनी पत्नी की या अपनी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी की। मुस्कुराते प्रधानमंत्री और अपने सवाल पर इतराता मीडिया गजब की नूरा कुश्ती है।
लेकिन सवाल है अर्थशास्त्री जी देश के गरीब आदमी को कितनी रोटी खानी चाहिये और आम आदमी के एक दिन की थाली का मैन्यू क्या हो।

Friday, June 4, 2010

लड़कियों, औरतों को सामान कहूं तो मां को क्या कहूं

कुछ और झूठ मेरे चेहरे पर लगा दो
कुछ और मेरा चेहरा सजा दो,
कहीं बचा हो अगर सीने में
दर्द
किसी का, उसे भी हटा दो
तैयार हो रहा हूं मैं
अब
दुनिया से मिलने के लिये।
बहुत मुश्किल है भूलना
सच
कोई याद है तो उसे भी जेहन से मिटा दो।
सीखा है जो मैंने
अब
एक बार फिर उसे दोहरा लूं
सम्मान में किसी के लिये
जब भी मैं झूंकू
इशारा है मेरा
इसका सर उड़ा दों
जब भी मैं खिलखिलाऊं
कुछ मासूमों का रक्त बहा दो.
मैं आंसूं बहाऊँ
तो निर्दोषों की जान से खेलों
मैं कहूं
इसे कुछ देना है
ये मेरा इशारा
उसकी आखिरी रोटी भी ले लो
मेरे सच का मतलब झूठ है
मेरे झूठ में फरेब में
मेरे इश्क में ऐब है
मेरे दोस्ती में दिल्लगी है
यहां तक तो सब ठीक-ठाक है
थोड़ा गड़बड़ आखिरी एक पाठ है
लड़कियों और औरतों को सामान कहूं
तो मां
को क्या कहूं।

Monday, May 31, 2010

महाभारत में मैं ही जला

अपने महाभारत में मैं ही जला
मैं ही लड़ा
मुझे कोई कृष्ण ना मिला
ना कोई बल था
ना कोई छल था
निपट अकेला, निहत्था
ना मैंने किसी से राज मांगा था
ना मेरे पास था मैं
फिर भी युद्ध में था
ना मुझे गीता मिली ना सारथी
ना धर्म था ना अधर्म था
ना वो जय थी ना पराक्रम था
ना युद्ध के नियम थे, ना कोई जयघोष था
मैं चलता, मैं जलता
मैं रूकता, मैं मरता

Saturday, May 29, 2010

अधिकारी घटिया बुलेट प्रूफ जैकेट खरीद रहे है।

पाकिस्तान के लिये जासूसी के आरोप में प्रमोटी आईएफएस माधुरी गुप्ता पर शिकंजा कसा। मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया। माधुरी गुप्ता इस्लामाबाद में भारतीय हाईकमीशन में सेकेंड सेक्रेट्री थी। और इस लेवल की अधिकारी की पहुंच महज कागज की क्लिपिंग्स और रोजाना मीटिंग्स के एजेंडें तक होती है।
लेकिन मीडिया ने बताया कि उसने काबुल में भारतीय अधिकारियों पर हुए हमले में जानकारी लीक की। उसने 26/11 के मुंबई हमले में देश के बड़े सीक्रेट्स लीक कर दिये।
एक दूसरा मामला सीबीआई ने गृह मंत्रालय के बड़े अधिकारी को रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया। डिजास्टर मैनेजमेंट में ज्वाईंट सेक्रेट्री ओ रवि सीनियर आईएएस है। उन्होंने सरकार को लगभग 350 करोड़ की चपत लगाई महज पचास लाख की रिश्वत के बदले।
इसी के साथ एक और अधिकारी पर सीबीआई की गाज गिरी। आर एस शर्मा पर देश के सुरक्षाकर्मियों के लिये बुलेट प्रूफ की क्वालिटी चैक करने की जिम्मेदारी थी वो पैसा लेकर घटिया क्वालिटी की बुलेट जैकेट खरीदने में जुटे थे।
मुंबई हमले के दौरान शहीद हुये हेमंत करकरे की मौत का कारण घटिया बुलेट प्रूफ जैकेट थी। ये आरोप उनकी पत्नी ने लगाया था। देश के जवान आतंकवाद से लड़ रहे है और उनके लिये दिल्ली में बैठे बड़े अधिकारी घटिया बुलेट प्रूफ जैकेट खरीद रहे है। लेकिन मीडिया के लिये माधुरी गुप्ता से छोटी खबर है।
उत्तर प्रदेश में पुलिस कर्मियों और पैरामिलिट्री फोर्स के एक ऐसे गिरोह का भांडा-फोड़ हुआ जो नक्सलियों को गोलियां सप्लाई कर रहा था। हर तरह के कारतूस इंसास राईफल से लेकर दुनाली बंदूकों तक।
नक्सली हिंसा को लेकर देश के प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री रोज बयान जारी करते है। देश इनसे निपटने के लिये हथियार खऱीद रहा है,हेलीकॉप्टर और अत्याधुनिक मशीनगन। सरकार में बहस है कि नक्सलियों के खिलाफ आर्मी और एअरफोर्स का इस्तेमाल किया जाये कि नहीं। लेकिन 76 जवानों को मौत की नींद सुलाने में कामयाब रहे नक्सलियों के लिये बढ़-चढ़ कर बोलने वाल सरकारें इस बात पर चुप है कि किस अधिकारी ने बिना तैयारी के नक्लियों पर हमला करने के आदेश दिये।
इससे भी बड़ी खबर जो दफन हो गयी बिना किसी कराहट के वो है 26/11 से जुड़ी हुई। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने 21 नवंबर 2008 को देश की खुफिया एजेंसी इंटेलीजेंस ब्यूरो को तीस ऐसे मोबाईल नंबर की लिस्ट भेजी थी जिन पर फौरन जांच करनी थी।
जम्मू पुलिस के पास ऐसे फोन टैप थे जिसमें आतंकवादी साफ तौर पर मुबंई या दिल्ली में जल्दी ही बड़ा फिदाईन अटैक करने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन देश के राजनेताओं की फोन टैपिंग में लगी आईबी के लिये आतंकवादियों के फोन टैप करना बहुत जरूरी नहीं था।
पांच दिन बाद ही देश में सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ। और हैरानी की बात थी कि जम्मू पुलिस के भेजे तीस फोन नंबर में से तीन नंबर इस हमले में इस्तेमाल हुये। इन नंबरों से फिदाईन आतंकवादी पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं से पल-पल संपर्क में थे। हमले के बाद देश पाकिस्तान पर हमला करने को तो तैयार था।
लेकिन उन लापरवाह अधिकारियों का बाल भी बांका नहीं करना चाहता जिनकी लापरवाही ने देश को इतना बड़ा हमला झेला। इसी बीच सरकार के खिलाफ विपक्ष का कट मोशन बुरी तरह घिर गया।
महंगाई के विरोध पर उत्तर प्रदेश और बिहार का चक्का जाम करने वाले मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने उसी कांग्रेस का समर्थन कर दिया जिसके खिलाफ लाखों की भीड़ लखनऊ में महज 30 दिन पहले इकट्ठा की थी। जेहन में बस इतनी बात जरूर कोंधती है कि मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ सबूत होने का दावा करने वाली सरकारी जांच एजेंसी सीबीआई ने एक हफ्ते में अपना रूख बदल लिया। और मुकदमें पर दोबारा विचार की बात की है।
मुलायम सिंह यादव और लालू यादव को भी याद है आय से अधिक संपत्ति के मामले। सबकी नकेल केंद्र् सरकार के हाथ में है। और मी़डिया भी सरकार की धुन पर नाच रहा है।
आम आदमी इस नूरा कुश्ती को सिर्फ देख सकता है, गर्दन हिला सकता है या फिर आंखें बंद कर सकता है। क्योंकि आईपीएल की आंच जैसे ही देश के केन्द्रीय मंत्रियों तक पहुंची तो मीडिया से मामला ही साफ हो गया। क्यों......

वो कल तक था, और आज नहीं है

मैं जब भी घर जाता हूं
मां
सवाल पूछती है।
बच्चे, बहू और मेरे बारे में
सब कुछ पूछने के बाद कहती है
मां
शहर में सब अच्छे तो है
सालो-साल तक शहर भोगने के बाद
सवाल से रिश्ता नहीं जोड़ पाता।
मां
शहर में कोई अच्छा या बुरा नहीं होता
शहर में लोग
होते है
या
नहीं होते।
हिसाब इतना ही है
कि वो है या नहीं है।
रिक्शावाला जिसे मैंने चाकू से गोदा हुआ देखा
मृत
अच्छा था कि बुरा नहीं जानता।
लेकिन एक बात साफ थी
वो कल तक था
और आज नहीं है
मेट्रो के रोज के सफर में देखता हूं
ढिढ़ाई के साथ बैठे नौजवानों को
कुढ़ते हुए खडे़ बूढों की सीटों पर
गर्भवती औरतों या नवजात शिशुओं को गोद में संभाले खडें हुऐ
इस उम्मीद पर कि कोई सीट दे।
न कोई सीट देता
और न कोई किसी को अच्छा या बुरा कहता है।
लोग सिर्फ देखते है, होने को उन नौजवान लोगों के
सुबह निकलते हजारों-लाखों लोगों में भी
शाम को घर लौटते कुछ लोग नहीं होते
जिनको अगले दिन के अखबार में सबसे पहले पढ़ता हूं
कि
ये..ये. नहीं रहे।
कहीं नहीं लिखा दिखता
अच्छे थे कि बुरे।

Sunday, May 23, 2010

ब्लाग में जन्में पोप

अभी हाल में ब्लॉग की दुनिया के बारे में नया कुछ जानने को मिला। कुछ ब्लॉग और ब्लॉगों से जन्मी वेबसाईट् जगह-जगह सेमीनार करा रहीं हैं। ब्लॉग्स की दुनिया के बारे में सेमीनार। उनमें देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवि अपनी जुबां की खराश मिटा रहे हैं। ये तमाम बुद्धजीवि तब किसी नये सुझाव के साथ कभी नजर नहीं आये जब तक देश के लाखों करोड़ों लोगों के पास इस तरह का कोई विकल्प नहीं था। लेकिन इन लोगों को आप तब भी देख और पढ़ सकते थे कभी ये न्यूज पेपर में छपते थे तो कभी ये किसी प्रकाशन से अपनी कृतियों के प्रकाशन के समय दिखायी देते थे। बाद में न्यूज चैनल्स आये तो इन बुद्धिजीवियों की दुकान वहां जम गयी। खूब चले अपनी विवादास्पद बातों के दम पर। खुद पूरे पहुंचें हुए दारू की दुकान जेंब में लेकर चलने वाले। और औरतों और लड़कियों को सामान बोलने वाले लोगों की इस जमात की किताबें आप को देश भर के बड़े प्रकाशनों से हजार की तादाद में छपी हुई मिल जायेंगी।
ये बयानवीर कभी किसी नये बदलाव के लिये चर्चित होते थे जब खुद आपस में जबानी जंग करते थे। वो भी लूट के लिये तैयार चकाचक।
इस बीच में आम आदमी के लिये कही मंच नहीं था। वो मीडिया के रहमोकरम पर था। पहले अखबार के संवाददाताओं की चिरौरी और बाद में टीवी के ग्लैमरस रिपोर्टरस की जमात के आगे अपने भीख मांगते से अपनी बात कहने की कोशिश करता था।
सालों तक देश में यही हालत रही। तभी तथाकथित विद्धानों के मुताबिक नैतिक तौर परभ्रष्ट्र पश्चिमी देशों से आयी एक नयी क्रांत्रि। ब्लाग्...।यानि आप को जो महसूस हो रहा है। दुनिया के बदलाव को आप जो समझ रहे है। दुनिया से आप को क्या उम्मीद है। बिना किसी लाग-लपेट के आप अपनी बात जब चाहे दुनिया तक पहुंचा सकते है। बिना किसी को परेशान किये। जिन को आप के विचारों में दिलचस्पी है वो उसको पढ़ लेंगे और जिनको नहीं है वो उस पर देखें बिना अपना वक्त गुजार लेंगे।
काफी दिन तक इस लोकतंत्रात्मक संचार पद्धति ने उन लोगों को चकित कर दिया जो तथाकथित बुद्धजीवियों के चेलों के तौर पर मीडिया में अपनी जगह बना रहे थे। लेकिन जितना उनके गुरू सफल रहे उतनी बाईट्स नहीं खा पा रहे थे। अब उन लोगों ने अचानक अपने-अपने ब्लॉग्स बनाये औऱ उतर पड़े मैदान में। जिसकों देखों अपने गुरू की अखाड़े की मिट्टी बदन पर लगाये नयी नयी कहानी सुना रहा है। यानि जितना विवादास्पद बयान दें उतनी ही टीआरपी। इसमें भी मीडिया के लोगों की भरमार। भाई लोग टीवी औऱ अखबार में अपनी जुबां और कलम के दम पर कुछ कर पाये हो एतो उसकी कमाई और नहीं कर पाये तो इसलिये रगड़ाई। आप को हैरानी हो सकती है अगर आप ये देंखें कि कितने पत्रकारों के ज्ञान की उल्टी रोज इस आम आदमी के मीडियम पर हो रही है। भाई लोगों को ओर कुछ नहीं सूझा तो उन लोगों ने शुरू कर दिया ब्लाग्स के लोगों की पंचायती करना।
मैं और तो कुछ नहीं कहना चाहता लेकिन मैं इन खुदाई खिजमतगारों से कहना चाहता हूं कि भाई जिन लोगों को ब्लॉग्स तो अपने आप चलने वाली दुनिया है। उसमें आपके शराबी कबाबी गुरूओं की पंचायत की जरूरत नहीं है। आप खां म खां नेता बनने पहुंच गये। आप को जितना भी ज्ञान बघारना हो अपने ब्लॉग्स पर बघारे जिसे जरूरत होंगी आप से ले लेगा। आप को पोप बनने की जरूरत नहीं है। ना ही आम जनता को किस्मत से हासिल इस अधिकार को गंदा करने की। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन ब्लाग्स के नाम पर चल रही इस दुकानदारी से सब लोग परिचित होंगे।

आवारा अशरार

न कहूं तो खुद से,
कहूं तो तुझ से डर लगता है।
मोम के लोग,
राख की जन्नत है
उगे न सूरज उगे,
चले न हवा
इस दौर ए शहंशाह की मन्नत है।

.........................................

खुद से खडा हुआं तो तन्हा हूं
झुकता था तो लोग आवाजें देते थे मुझे
नजर नीची रखीं तो बाअदब था
नजरें उठीं तो बेअदब जमाने ने कहा मुझे।

......................................
दर्द दो , मुस्कुरा दो..
ये हुनर मुझको न सिखा
जब्त है मुझमें बहुत
तू बस अपना जलवा दिखा।
...........................
मुझे रह-रह कर तेरी रहबरी पर शक होता है
तू जिसे मंजिल कहता है मुझे मौत का घर दिखायी देता है
.....................................
तू चाहता है कि गिर कर खुदा से मांगूं तूझे
मेरी फितरत है कि गिर कर खुदा भी नहीं चाहिये मुझे

Sunday, April 25, 2010

अब तुम रूठते नहीं

अब तुम रूठते नहीं हो
मैं मनाता नहीं,
तुम तोड़ते नहीं
मैं भी अब रेत के घरोंदें बनाता नहीं।
वक्त था गुजर गया
एक भी लम्हा वापस आता नहीं।
इस रात से उस रात तक
लड़ने की बातें
जाग-जाग कर चांद के सहारे
छोटी सी मुलाकातें
रात भी आती है
चांद भी दिखता है
आवारा सा
अब वो मुस्कुराता नहीं हैं।
आग थी सो बुझ गयी
राख से कोई दिया जलाता नहीं।

Monday, March 15, 2010

डर आत्मा से खुरचता ही नहीं :

अलार्म रोज बजता है,
चौंक कर आंखें खुलती है,
पसीने से भींगें जिस्म के साथ मैं सबसे पहले टटोलता हूं
जल को
हाथ जब तक उसको छूता है
तब तक आंखें भी देख लेती है उसको मुस्कुराकट के साथ सोए हुये
कई बार मिल जाती है बीबी भी बगल में लेटी हुयी
और कई बार खाली दिखता है उसका बिस्तर
चीखता हूं
.... रश्मि
हाथ में चाकू लिये
या फिर आटे से सने हुए हाथों में
तेजी घुसती है बेडरूम में
और पूछती है
क्या हुआ
कुछ नहीं
,
तुम ठीक हो ना
चप्पलें पैरों में डालता हुआ
संयत होने की कोशिश करता हूं
रात बीत गयी
डर
है कि खत्म नहीं होता।
कुछ न कुछ हो जायेगा
रात भर सड़कों पर घूमते रहे है लुटेरे
पुलिस वालों की जीप में बैठकर
....
मेरा घर बच गया है
आज रात

कतर को मकबूल, हुसैन फिदा कतर पर

मकबूल फिदा हुसैन अब हिंदुस्तानी नहीं रहे। देश के कला जगत से लेकर मीडिया से जुडे हुये हर आदमी को ये खबर एक बड़े सदमें से कम नहीं लगी। और उससे भी बड़ा सदमा तब लगा कि हुसैन ने ये फैसला अपने खिलाफ देश भर में दायर मुकदमों के चलते लिया है। आखिर हिंदुस्तानी नहीं रहे हुसैन। अपने ब्रश के दम पर दुनिया को जीतने का दमखम रखने वाले हुसैन पर फिदा होकर देश ने उन्हें सबसे बड़े कलाकार का सम्मान नवाजा। मकबूल ने कई कलाकारियां की। पेंट और ब्रश से दुनिया के कुछ खूबसूरत चित्र बनाये तो मीडिया और इंटेलीजेंसिया के साथ मिलकर एक खूबसूरत सा कैनवास बनाया और उस पर उकेरे विवादों के रंग। उन्होंने सैकड़ों या हजारों की तादाद में पैंटिग्स बनायी। लेकिन कला दीर्घाओँ से दूर आम आदमी ने पहचाना उन्हें माधुरी दीक्षित पर की गयी उनकी कलाकारी से। मकबूल को मालूम था कि उनकी तमाम कला उनको आम आदमी में मकबूल नहीं करा पा रही है तो उसके लिये जरूरी है तड़क-झाम की। और उन्होंने शुरू कर दिया अपने नाच के जरिये देश फिल्म प्रेमियों के दिलों की धड़कन और सिल्वर स्क्रीन की महारानी बन चुकी माधुरी दीक्षित का का दीवाना बनना। एक और काम था जिस पर मकबूल बहुत फिदा थे वो था हिंदु देवी-देवताओँ पर पेटिंग्स बनाना। और अपने इस काम में इतने मशगूल हुये कि वो ये भी भूल गये कि करोड़ों लोगों के दम पर सेक्यूलर रहे इस देश में एक मर्यादा है। कि मां को नंगा नहीं दिखाया जाता। एक उम्र के बाद बच्चा भी मां के सामने नंगा नहीं जाता और मां भी उसको दूध पिलाने वाले स्तन नहीं दिखाती। लेकिन मकबूल को मालूम था, कि ये धर्म हल्ला नहीं करता। ये हमला नहीं करता। ये धर्म अपनी दुनिया में मस्त रहते हुये दूसरों को उनकी दुनिया में जिंदा रहने देता है। लेकिन इस धर्म में शिवसेना, और भी जाने कितनी सेनाओं के तौर पर ऐसे लोग मौजूद है जो फिदा का काम आसान कर सकते थे। और उन्होंने ऐसा ही किया। चंद लोगों ने जाकर उसकी कुछ पेंटिग्स को आग लगा दी या पोस्टर सड़क पर जला दिये। बस मकबूल को कला प्रेमियों और बुद्धिवादियों ने कबूल कर लिया। किसी ने सवाल नहीं किया कि इन सेनाओं से पहले भी हिंदु लोग जिंदा थे और अपने ढंग से बदलाव को मानते और जीते चले आ रहे थे जिसे हम लोग कायरता कहे दब्बूपन कहे जा जो भी। इसका बहाना मिला हुसैन को और वो विदेशी गैलिरियों का चहेता हो गया। बेचारा एक ऐसा कलाकार जिसकी कला के प्रति दीवानगी के चलते देशवासी उसकी इज्जत कर रहे थे। ऐसा मकबूल हुआ कि हर फाईव स्टार में दिखने वाला मकबूल नंगे पैर चल कर भी नोटों के ढेर लगाने में जुटा रहा और उसके समर्थक देश को गाली देते रहे कि नाशुक्रा देश हुसैन को परेशान कर रहा है।
हिंदुस्तानी अदालतों के तरीकों पर आप सवाल खड़ा करे तो करे लेकिन उसकी मंशा पर किसी ने शक नहीं किया। और इन्हीं अदालतों ने मकबूल के खिलाफ दायर सभी मुकदमों से उन्हें बरी कर दिया। लेकिन बेचारा मकबूल चाहता था कि तिरंगा उसके कदमों में नाक रगड़ कर कसम खाये कि उससे गलती हुयी और कितनी भी नंगी तस्वीरे बनाये किसी को कोई दर्द नहीं होगा।
एक बात और कि मकबूल को जगह मिली मिडिल ईस्ट के इस्लामी राज्य में किसी ऐसे देश में नहीं जिसका कला की स्वतंत्रता से कोई नाता हो। बल्कि ऐसे इलाके में जहां इस्लाम के नाम पर दुनिया भर में जेहाद छेड़ने वालों को पैसा मुहैया कराने वाले लोगों की जमात हो।

Sunday, February 21, 2010

फरेब में कट गयी जिंदगी....

सच कहूं कि चुप रहूं
हूं जो वही दिखूं, या कुछ ओर लगूं
सोचता रहा हूं दिन रात
...और फरेब में कट गयी जिंदगी
खूबसूरत बनने की तलाश करूं
या
खूबसूरत लोगों के साथ रहूं
उलझा रहा इसी उलझन में रात-दिन
..और फऱेब में कट गयी जिंदगी

हत्यारे रिक्शावाले ?

दिल्ली में टैफिक पुलिस एक कांस्टेबल की 20 फरवरी 2010 को रिक्शावालों ने हत्या कर दी। खबर अखबार के पहले पन्ने पर थी। भजनपुरा इलाके में एक टैफिक पुलिस के सिपाही की कुछ रिक्शावालों ने बर्फ तोड़ने वाले सुए को घोंप कर हत्या कर दी। खबर अखबारों के नजरियें से अलग-अलग देखी गयी । लेकिन सार यहीं था कि टैफिक ठीक करने के लिये पुलिस वालों को रोजाना ऐसे लोगों से जूझना पड़ता है। खबर में अहम बात थी कि सुआ कोई रिक्शा वाला लेकर नहीं आया था बल्कि वो सुआ पुलिसकर्मी का था और उससे वो रिक्शा वालों के टायर बस्ट कर रहा था। इसी वजह से उसकी कई रिक्शा वालों से तकरार हुई और मां-बहन की गालियों से चिढ़े रिक्शावालों में से एक ने उससे सुआ छीना और उसी को घोंप दिया।
ये एक रिपोर्ट है। अब इसके बयान और एफआईआऱ पुलिसवालों के मुताबिक होगी। हत्या किसी की भी हो दर्दनाक होती है। औऱ हत्यारा कोई भी हो हत्यारा ही होता है। लेकिन सरसरी निगाह से कु्छ और आगे बढ़कर देंखे तो पानी के नीचे कुछ और भी नजर आयेगा। दिल्ली के उन सभी चौराहों पर जहां रिक्शावालों की आवा-जाही है,आप को ऐसे पुलिस वाले दिखायी दे जाएंगे जो सुए से रिक्शावालों का टायर फाड़ते मिलते है। ऐसे पुलिसवाले किसी ने दिल्ली में रहने के दौरान न देंखे हो तो ये कहा जा सकता है कि वो या तो संत है या फिर उसकी नजर में रेल, गाड़ी आदमी या फिक ऐसी किसी चीज का कोई मतलब नहीं है जो उसके और ऑफिस के बीच आती हो। रिक्शावालों को मां-बहन की गाली से नवाजतें औऱ थप्पड़ से बात करने वाले पुलिस वालों की दिल्ली पुलिस में बहुतायत है।
अब जरा एक रिक्शेवाले की कमाई का गणित देख ले। एक रिक्शा वाला 12 घंटे के लिये रिक्शा किराये पर लेता है चालीस से पचास रूपये में। कही ये रेट और भी ज्यादा है। इसके बाद उसको रिक्शा चलाना है दिल्ली के उन इलाकों में जहां अभी भष्ट्राचारी बाबूओं की जमात उनकी आवा-जाही पर रोक नहीं लगा सकी है। अब 12 घंटे में से आठ घंटे का वर्कग टाईम है और उसमें सवारी मिलने के उपर है। रोज की कमाई हुई सौ से डेढ़ सौ रूपया। एक टायर की कीमत है 275 रूपये से लेकर तीन सौ रूपये। इसके अलावा उसकी ट्यूब की कीमत है 135 से 145 तक रूपये। इसके बाद पुलिस वालों के हाथ में सुआ रिक्शावाले के बच्चों की तीन दिन की रोटी छीन लेता है। उसी ट्रैफिक पुलिस वाले की जो रोजाना आम जनता की आंखों के सामने ट्रक वाले हो या फिर दूसरे वाहन वालों से सैकड़ों रूपया वसूली करता है। और टैफिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिेये उसको मिलते है रिक्शावाले जिनके टायर वो सुए से फा़ड़ सकता है जिनके वो थप्पड़ लगा सकता है उनकी मां-बहनों के साथ आसानी से अपना रिश्ता जोड़ सकता है।
लेकिन यही ट्रैफिक पुलिसवाला कार वालों को देखने के बाद उसके आगे पचास बार झुकता है और पैसे की तमन्ना पर झूठे-सच्चे चालान बनाने की धाराएं बताने लगता है। लेकिन किसी भी कार वाले का टायर मैंने आज तक सुएं से फाड़ते हुए नहीं देखा। रोज के सत्तर किलोमीटर के अपने सफर में मैं जो देखता हूं वहीं हर आदमी देखता है जो उस रास्ते से गुजरता है इसके अलावा दिल्ली के हर इलाके में देख सकता है। बाजारों में दुकानदार अपने फुटपाथ पर सामान रख कर उस पर कब्जा कर लेते है उसके बाद उनकी कार दुकान के बाहर पार्क होती है और फिर सामान उतारता है ट्रक या तिपहिया। पूरे लक्ष्मीनगर, शकरपुर औऱ पहाड़गंज के पूरे बाजार में आप की आंखों को ये बेशर्मी खुलेआम दिखती है। खुलेआम रोजाना घंटों जाम में जूझते लाखों आम आदमी कानून को कोसते हुये रोज का सफर पूरा करते है लेकिन वही टैफिक पुलिसवाले को यहां कोई कानून नहीं टूटता हुआ दिखता। यहां कभी उसका सुआ नहीं चलता।
आप देख सकते है कि दिल्ली में भ्रष्ट्राचारी अफसर और राजनेताओं टैफिक बदलाव के नाम पर गरीब रिक्शावालों की गर्दन दबोच लेते है। लेकिन किसी ने आजतक दुकानों के बाहर सड़क को अपने बाप की जायदाद मानने वाले दुकानदारों की नकेल कसने की कोशिश नहीं की। क्योंकि वो उनके रिश्तेदारों या जानने वालों की है
यहीं सच है। एक दो दिन के बाद आप ये पढ़ ही लेंगे कि रिक्शावाला गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन कभी पहाड़गज के दुकानदारों के खिलाफ किसी कार्रवाई की खबर किसी अखबार में नहीं छपेंगी क्योंकि चांदी का जूता इस देश में बाप को नौकर में बदल देता है।

Wednesday, January 13, 2010

क्रिकेट मंत्री कृषि से खेल मत कर

शरद पवार के बारे में अगर देश में किसी भी आम आदमी से जानकारी लेंगें तो पता चलेगा कि वो देश के अरबपति राजनतेा है। वो क्रिकेट मंत्री है। खेल से खेल करते है। लेकिन उऩके बारे में एक जानकारी और है वो देश के कृषि मंत्री है। कृषि से खेल करते है। आप उन्हें दिल्ली में कभी-कभी किसानों की समस्याओं पर बोलते सुन सकते है। एक खास बात है कि वो जब-जब बोलते है हजारों व्यापारियों की तिजोरियों में अरबों रूपये भर जाते है औऱ आम आदमी की जेब पर महंगाई की मार पड़ जाती है। शरद पवार को आप मुंबई में समारोह में आते-जाते देख सकते है। लेकिन देश के सबसे बड़े कृषि राज्यों के किसानों के लिये वो सिर्फ टीवी पर नजर आते है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और मध्यप्रदेश के किसानों पिछली सरकार के पांच साल के कार्यकाल में सिर्फ एक बार अपने राज्य में देखा। यहां तक की उत्तर प्रदेश जो बुंदेलखंड में अकाल के चलते बेहद चर्चाओं में रहा। वहां भी कृषि मंत्री शरद पवार एक ही बार गये है 20-21 जुलाई 2005 को लखनऊ गये थे शरद पवार।
उत्तर प्रदेश की तरह से ही मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसानों को पांच साल में अपने कृषि मंत्री के एक एक बार ही दर्शन हुए है। कृषि मंत्री शरद पवार के मंत्रालय से हासिल जानकारी के मुताबिक शरद पवार ने पिछले पांच साल के कार्यकाल में मध्य प्रदेश का भी एक ही बार दौरा किया।
शरद पवार ने मध्य प्रदेश में 30 अप्रैल 2006 में इंदौर का दौरा किया था।
राजस्थान भी शरद पवार के निगाहों में जा चढ़ नहीं पाया और केन्द्रीय कृषि मंत्री 2004-2009 के कार्यकाल में सिर्फ एक बार 23-24 2006 फरवरी को उदयपुर कर आये थे।
इसके अलावा शरद पवार 2006 में चार बार उत्तराखंड में आये। केन्द्र में क्रांगेस और उसके सहयोगियों की सरकार को आये भी इतने दिन हो गये। लेकिन यूपी, मध्यप्रदेश, बिहार को अभी भी मंत्री जी के दर्शन नहीं हुये है। इस दौरान गन्ना किसानों ने अपना गन्ना खेतों में जलाया।
लेकिन इस पूरे सीन में में पूरे एपिसोड़ का नायक कहां रहा। देश के कृषि मंत्री शरदपवार। जिनकी जिम्मेदारी देश में कृषि और उसके किसानों का ख्याल रखने की वो आखिर कहां हैं। कृषि मंत्री शरद पवार बयान देते है और मंहगाई बढ़ जाती है।
देश के कृषि उत्पादन में उत्तर भारत के राज्यों का कितना बड़ा हिस्सा है। इस बारे में जानने के लिये आपको किसी किताब की जरूरत नहीं होंगी। लेकिन देश के कृषि मंत्री शरद पवार की नजर में इन राज्यों में कृषि चकाचक है।
लेकिन इस दौरान कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी ने कई बार राज्य का दौरा किया। इतना ही नहीं राहुल गांधी ने बुंदेलखंड में सूखे को लेकर कई बार ऐसे बयान भी दिये कि राज्य सरकार ने उन पर विवाद खड़ा कर दिया। लेकिन इस बारे में भी जो चीज सीन से गायब थी वो थी कृषि मंत्री शरद पवार की उपस्थिति।

Monday, January 11, 2010

अरे हबीब की गर्दन बच गयी...मुरादाबाद के सैकड़ों सर कटे सऊदी अरब में...

हबीब वापस चला आया। अपने घर से हजारों मील दूर पैसे कमाने की आस में गया हबीब किसी तरह एक प्लेन में छिपकर अपनी जान बचा कर लौट आया। लेकिन ये सालों दर साल से चल रही गल्फ कंट्रीज में हिंदुस्तानी लोगों के साथ हो रहे शोषण की किताब का एक बरखा भर है। मैं शोषण की ऐसी किताब का एक पन्ना आपके सामने खोलता हूं जो आज भी आपके रोंगटें खड़े कर सकता है।
मुरादाबाद जिले के सदर डाकखानें में जब एक साथ 52 पैकेट आये तो ये कोई नयी बात नहीं थी। इस इलाके के लोग हजारों की तादाद में रोजी-रोटी कमाने गल्फ कंट्रीज गये थे। और महीने दर महीने अपने घर वालों के लिये सामान भेजते रहते थे। लेकिन इस बार इन पैकेटों का वजन कुछ कम था। क्योंकि आम तौर आने वाले सामानों में टेपरिकार्ड, परफ्यूम और दूसरे ऐसे आईटम होते थे जिसकी इस इलाके में पूछ थी। खैर डाकखाने से आस-पास के गांवों के डाकिये जब इन पैकेटों को लेकर घर पहुंचे तो घरवालों ने उत्सुकता से पैकेटों को खोला। लेकिन पैकेट के अंदर के सामान ने उन्हें कुछ उलझा दिया। पैकेट के अंदर सऊदी अरब गये उनके पिता- चाचा – या भाई का पासपोर्ट और पहने गये कपड़े थे। और साथ में था एक कागज जिस पर अंग्रेजी और अरबी में कुछ लिखा था। गांव में उपलब्ध किसी पढ़े लिखे आदमी से उस खत को सुना तो घर पहले तो सन्नाटे और फिर रोने की आवाजों से भर गया। खत में लिखा था कि पासपोर्टधारी आदमी को नशीली दवाओं की तस्करी में लिप्त पाये जाने के कारण सऊदी कानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गयी। सऊदी में मौत की सजा शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद शहर के व्यस्ततम चौराहे पर गर्दन उड़ा कर दी जाती है। मातम घर से निकल कर गांव की चौपाल पर पहुंचा वहां से लोगों की जुबां में तैरता हुआ कस्बे के बाजारों तक पहुंच गया। तब पता चला कि 52 से ज्यादा लोगों की गर्दन उड़ा दी गयी। खबर आयी थी बरास्ते दिल्ली और पहुंच गयी दिल्ली वापस। खबर कवर करने मैं पहुंचा अमरोहा(ज्योतिबाबा फूले नगर)। एक के बाद एक घरों में पहुंचा। तो पता चला कि ज्यादातर लोग उमरा करने गये थे। रमजान के दिनों में हज के अलावा दूसरे दिनों में मक्का-मदीना की यात्रा करने ये लोग गये थे। लेकिन एक बात जो चौंकाने वाली थी कि इन लोगों की यात्रा का इंतजाम किया गया था। यानि इन लोगों ने खुद के पैसे पर यात्रा नहीं थी इनके उमरे का ज्यादातर खर्च इलाके के कुछ ऐसे लोगों ने उठाया था जो रातों-रात अमीर बने थे और अब असरदार आदमी में तब्दील हो चुके थे। ज्यादातर लोगों के घर वालों ने मुंह खोलने से परहेज किया लेकिन ये बता भी दिया कि उनको इस यात्रा के लिये पैसे भी दिये गये थे। और जब ये लोग यात्रा पर जाने लगे तो उन्हें बैंगों में रखने के लिये खास कंबल या फिर कोई पैकेट दिये गये जिसकों उन्हें जेद्दा में किसी आदमी को सौंपना था । यहां से सब लोग पार कर गये और जब जेद्दा एअरपोर्ट पर उनके बैंगों की सख्ती से तलाशी ली गयी तो पता चला कि ये सब नशीले पदार्थ थे जिसकी उनसे तस्करी करायी जा रही थी। उन लोगों ने अपनी बेगुनाही का सबूत देने की कोशिश की लेकिन सऊदी एजेंसियों ने इस बात पर कोई तवज्जों नहीं दी कि ये शख्स तो पैगंबर साहेब की जमीन पर सजदा करने आये हैं। और हिंदुस्तानी अधिकारियों की निगाह में इन लोगों की हैसियत ही क्या थीं। इस तरह से सिर्फ मुरादाबाद जिले के ही सैकड़ों लोगों ने विदेशी सरजमीं पर अपनी जिंदगी गवां दी। लेकिन हिंदुस्तानी एजेंसियों ने इस धंधें की तह में जाने की कोशिश नहीं की। मुरादाबाद पुलिस को अफवाहों में ही ये खबर मिली। और उऩ्होंने जांच की या नहीं भगवान जाने.....। मुरादाबाद रोड़ पर बने अमरोहा थाने के सामने एक मेडीकल स्टोर है उसके मालिक की पीठ पर बने कोड़ों के निशान आज भी आप की रूह को कंपा सकते है। लेकिन जब दो-दो रिपोर्टर ने एक-एक साल के अंतर पर थानेदार से जानकारी चाही तो उनका जवाब था कि ऐसा तो कुछ की जानकारी में नहीं है। खैर गांव दर गांव..मुंह दर मुंह ये बात इलाके में फैल गयी और लोगों ने शिकारियों के जाल में फंसना बंद कर दिया। लेकिन इस धंधें के असली लोग कभी सामने नहीं आये.....। और अब हबीब की कहानी में जहां देश की सुरक्षा एजेंसियां हैरत में है वही उसका एजेंट दूसरे शिकार की तलाश कर चुका होंगा। वो जानता है कि नशीले सौदागरों की तरह उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा...आखिर चांदी का जूता ही सब पर राज करता है।

Saturday, January 9, 2010

पत्रकारों को जूतियाने का सही समय...

अलग-अलग अखबारों में मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को लेकर खबरें थीं। सभी खबरों का मजमूनं एक सा था लेकिन आप एक खबर की शुरूआत देख लीजिये
"जो दशा देश में बाघों की उसी दशा में मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी पहुंच गये है। सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आज या तो जेल में है अथवा नौकरी से निलंबित -निष्कासित है।"
खबर का मतलब है कि बाघ और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दोनों पूरी तरह से नहीं तो ज्यादातर एक जैसे है। लेकिन पिछले दस सालों के पत्रकारिता के कैरियर में मैंने कभी नहीं सुना कि किसी बाघ को फर्जी एनकाउंटर के चलते जेल भेजा गया हो या किसी नौकरी से निलंबित कर दिया गया हो। बाघ बेचारे जंगल में रहते है। देश में रहने वाले शिकारियों ने इस खूबसूरत जानवर का बेदर्दी से शिकार किया और दुनिया भर में बाघों का अस्तित्व खतरे में आ गया। हिंदुस्तान के जंगलों में 1900 की शुरूआती दशक में पचास हजार की तादाद में बाघ थे लेकिन अब उनकी संख्या दो हजार से भी कम रह गयी है। खैर बाघों की कहानी तो फिर कभी सही लेकिन पत्रकारों की एक फौज के कारनामें पर आज बात की जा सकती है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ये शब्द ऐसे पत्रकारों की देन है जो नौकरी की तलाश में कही भी कुछ भी कर सकते थे लेकिन उनको पत्रकारिता में जगह मिल गयी और उन्होंने हाथ धो लिये। किसी को मालूम नहीं कि एनकाउंटर स्पेशलिस्ट होने की परीक्षा कब पास की गयी थी और कौन सी मिनिस्ट्री ने इस एक्जाम को लिया था। चलिये आपने शुरू भी कर दिया लिखना तो ठीक है लेकिन इन एनकाउंटर करने वालों को देश का हीरो बना कर रख दिया। एक ऐसा हीरों जो जिसकी हर गलती आपने उसकी अदा में बदल दी। मुंबई के इन हीरों ही नहीं देश के दूसरे वर्दी में छिपे हत्यारों से लंबी मुलाकात और बातें हुयी है। कही से नहीं लगा कि ये एनकाउंटर उन्होंने देश के प्रति अपने जज्बे के चलते किये है। हर बात का निचोड़ था कि मीडिया के एक खास वर्ग की तारीफ और अपने लिये मैडल प्रसिद्धी हासिल करने के लिये ज्यादातर एनकाउंटर किये गये। एनकाउंटर करने वाले पुलिसवालों को सबसे पहले ये कहा गया कि ये अपनी जान को दांव पर लगाते है औऱ फिर कहा गया कि इन लोगों ने अपराधियों से आम आदमी को निजात दिलाने के लिये अपने कंधों पर ये जिम्मेदारी ली है।
अगर किसी भी पुलिस वाले के एनकाउंटर को सही मायने पर किसी न्यूट्रल एजेंसी से जांच करा ली जाये तो शायद किसी को भी हैरानी नहीं होंगी कि ज्यादातर एनकाउंटर उठा कर किये गये। हमेशा एनकाउंटर के लिये अपराधियों का एक साथी मारा जाता है और दुसरे या दूसरा अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। लेकिन आज एनकाउंटर पर नहीं उऩ पत्रकारों पर बात कर रहे है जिनकी मदद से ये क्रिमीनल दिमाग के पुलिस वाले देश के लिये नासूर में तब्दील हो गये। शुरू में तो बड़े अपराधी के मारे जाने पर पुलिस पर निगाह रखने की जिम्मेदारी संभालने वाले पत्रकारों ने तारीफ के बंडल बांध दिये और इस बात को नजरअंदाज किया कि कैसे उस अपराधी उठा कर मारा गया। इसके लिये देश के उसी संविधान और उसकी मान्यताओं को ताक पर रख दिया गया जिसने इन पुलिस वालों को वर्दी दी थी। फिर एक दो साल में ही इऩ पुलिस वालों के रिश्ते अंडरवर्ल्ड और अपराधियों से सुर्खियों में आने लगे तो फिर पत्रकारों की उसी जमात ने इस बात का हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बदमाशों या फिर अंडरवर्ल्ड की हरकतों पर नजर रखने के लिये इनके साथ मिलना-जुलना जरूरी है। और उनका वो दोष भी ढांप दिया गया। लेकिन आदमखोर के मुंह तो खून लग चुका था। और पुलिस वर्दी में छिपे बैठे इन अपराधियों ने शुरू कर दी वसूली और अवैध कब्जें तो फिर पत्रकारों ने कहना शुरू किया कि सरकार से मिलने वाले पैसे से तो इऩ सुपरस्टार पुलिसवालों का घर का खर्चा नहीं चलता तो मुखबिरों का नेटवर्क कैसे काम करेंगा। यानि पुलिस के अपराधी दिमाग ताकत पाते रहे और देश के कानून के दम पर वर्दी की शान रखने वाले पुलिसवाले बेबस और चुपचाप अपराधियों औऱ पुलिस का अंतर खत्म होते देखते रहे। लेकिन इस पूरे वाकये में सबसे गंदा और घटिया रोल था तो इन लोगों को हीरो बनाने वाले पत्रकारों का। मैं ऐसे पत्रकारों का नाम लूं उससे बेहतर है आप खुद खबरों को देख कर अंदाज लगा सकते है कि कौन-कौन पत्रकार किस भावना से खबर लिख रहा है। अंडरवर्ल्ड के बारे में मिलने वाली छोटी-छोटी खबर के लिये इन पुलिस वालों को महान बनाने वाले पत्रकारों की एक लंबी सूची है। दरअसल फर्जी मुठभेड़ एक ऐसी घटना होती है जो सबके लिये फायदे का सौदा होती है, किसी दूसरे गैंग से पैसे लेकर बदमाश को उड़ा देने वाले पुलिस वाले के लिये हीरो गर्दी का लाईसेंस औऱ पैसे दोनों का फायदा। इस घटना से आला अधिकारियों को आम जनता से पड़ने वाले दबाव में कमी और इस गठजोड़ में शामिल होने वाले पत्रकारों के लिये सबसे पहले मिलने वाली ब्रेकिंग न्यूज से मिली वाहवाही का फायदा। और पत्रकारों के इसी लालच ने देश की पुलिस में ऐसे सैकड़ों तथाकथित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट खड़े कर दिये जिनके लिये देश के कानून का मतलब कायरों की प्रार्थना में तब्दील हो गया। इस बात का सबूत मिल सकता है अगर देश के सभी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाने वाले पुलिसवालों की संपत्ति की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से करा ली जाये तो दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।
जाने वो कैसी सरकारी जांच है जो हजारों करोड़ के मालिक में तब्दील हो चुके दया नायक के खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाती और वो फिल्मों में नायक के तौर पर पूजा जाता है। प्रदीप शर्मा जो देश के सबसे बड़े दुश्मन दाउद इब्राहिम के टुच्चे से गुंडे में तब्दील हो जाता है। ऐसे ही सैकड़ों पुलिसवाले सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिये काम करते है। और पत्रकार सिर्फ उसकी तारीफ करते है।

अरे ये लोग प्रधानमंत्री को नहीं पहचानते, दिल्ली में रहकर भी

सेवन रेसकोर्स रोड़ और कनॉट प्लेस के बीच कितनी दूरी है। सवाल दिल्ली से बाहर रहने वाले लोगों के लिये अटपटा जरूर हो सकता है।लेकिन जो दिल्ली में रहते है वो जानते है कि पत्थर फेंक दे तो इन दोनों के बीच की दूरी पार की जा सकती है। लेकिन इस दूरी को पार करने में देश के प्रधानमंत्री को शायद इतना अंतर लग रहा है जितना अर्सा हमारे वैज्ञानिकों को चांद पर जाने में नहीं लगता। कैसे ....ये मैं आप को सुझा सकता हूं। देश के प्रधानमंत्री का आवास है सात रेसकोर्स रोड़। प्रधानमंत्री के आवास के सामने यानि रेसकोर्स रोड़ के आप-पास से भी आप गुजरते हो तो आप को मालूम होता है कि ये देश के सबसे ताकतवर आदमी का आवास है औऱ तब आप और भी सजग हो जायेंगे जब ये पता चलेगा कि आपके प्रधानमंत्री वर्ल्ड बैंक की नौकरी के दौरान विदेश में रह चुके है। अब प्रधानमंत्री विदेश में पढ़े लिखे और नौकरीशुदा है तो जीनियस तो होंगे ही आम फहम बात है हमारे देश के लिये क्योंकि विदेशी अपना नौकर पढ़े लिखे औऱ समझदार काले हिंदुस्तानियों को ही रखते है।
अब आप कनॉट प्लेस के चमचमाते गोल चक्करों पर नजर दौड़ाये सरकार के खर्चे पर आजकल पूरा कनॉट प्लेस को चमकाया जा रहा है यानि दुकाने और उनका फायदा दुकानदारों और उनकी चमकदमक का इंतजाम देश का। आखिरकार दुनिया में देश की इज्जत का मामला है। लेकिन इसी कनॉट प्लेस के गलियारों में खुली सड़कों पर एक दो. दस या सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की तादाद में नशे में डूबे. जिंदगी से चिपटे हुये लोगों के पॉलीथीन या दूसरे कूडे़ को बीनते हुये लोग दिखायी देंगे। इन लोगों को सरे-राह आप हाथ में रूमाल लेकर मुंह में सांस खींचतें या फिर एक चमकीली सी फॉयल को जला कर पीते हुये देख सकते है। इनके साथ औरते-बच्चे सभी होते है। और ये झुंड के झुंड कभी कूड़ा बीनते है और कभी-कभी किसी गाड़ी के सामने हाथ फैलाते हुये दिखायी दे जाते है।
ये तादाद लगातार बढ़ती दिख रही हैजाते है। सड़क से गुजरने वाला हर आदमी इन लोगों से नफरत करता है और शायद ही मैंने कभी भीख देते हुये देखा है।
लेकिन बात प्रधानमंत्री की हो रही है। देश के बाहर भी मनमोहन सिंह को इतने लोग इज्जत देते है औऱ मानते है देश की तरक्की का एक बड़ा कारण मनमोहन सिंह की मनमोहनी आर्थिक नीतियां है। और इन्हीं नीतियों के दम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में बताया कि देश में गरीबी कम हुई है। और प्रधानमंत्री की बात की अहमियत इस लिये भी बढ़ जाती है क्योंकि देश के कई अर्थशास्त्रियों के मुताबिक देश में गरीबों की तादाद काफी हद तक बढ़ गयी है। इसके साथ ही देश में पर व्यक्ति दाल की खपत कम हुयी है। लेकिन प्रधानमंत्री के इस बयान के इऩ अर्थशास्त्रियों के विचार में क्या बदलाव आया नहीं जानता। लेकिन मैंने सोचा कि कनॉट प्लेस में घूमने वाले इन लोगों से जानकारी करूं कि इन लोगों ने मनमोहन सिंह साहब के बयान पर कितना गौर किया। दो घंटे की कवायद में मुझ से कोई बात करने के लिये तैयार नहीं हुआ और एक दो ने पैसे के लिये बात की तो ये जानकर मुझे बहुत निराशा हुयी कि वो ये ही नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कौन है। और दूसरी तरफ मेरी हैसियत नहीं है कि मैं मनमोहन सिंह जी से जाकर पूछूं कि क्या आप कनॉट प्लेस में रहने वाले उन लोगों को जानते है। मुझे उम्मीद है कि बेचारे प्रधानमंत्री नहीं जानते होंगे नहीं तो दिल्ली से इतनी दूर जाकर ये बताने की जरूरत नहीं थी कि देश में गरीबी कम हो गयी है वो भाषण इन्हीं लोगों के बीच दे दिये होते।

Friday, January 8, 2010

हॉट सिटी ..और,,, मासूम कलियों को कुचलने वालों का रिश्ता

हालीवुड की एक चर्चित फिल्म ब्लड डायमंड में दस बारह साल के बच्चों को खूंखार हत्यारों में तब्दील करने का एक सीन है। विलेन नशे में डूबे बच्चों को उपनाम देना शुरू करता है तो एक को बोलता है कि तुम्हारा नाम है मासूम कलियों को कुचलने वाला, दूसरे को बोलता है तुम्हारा नाम बच्चों का कातिल,और तीसरे से बोलता है आज से तुम जाना जायेगा औरतों का बलात्कारी। इसके बाद फिल्म में जब ये बच्चे किसी गांव को लूटते है या हत्याएं करते है तो अपना नाम लेकर उन्माद से चिल्लाते है।
मैं एनसीआर के अखबारों में अक्सर शहरों के नाम पढ़ता हूं जो उनके मुताबिक उन्हें दुनिया की किसी मैगजीन ने उन्हें दिये है। और फिर रह-रहकर उसका जिक्र करते हुये पत्रकारों को देखता हूं तो अक्सर जुगुप्सा पैदा करने वाला ये सीन याद आता है।
गाजियाबाद है हॉट सिटी। गुडगांव है मिलेनियम सिटी। ऐसे ही कई सिटी और है देश में जिनके बारे में जब भी अखबार लिखता है तो शुरू करता है दुनिया के किसी हिस्से में छपने वाली किताब से दिया गया कोई उपनाम। मसलन गाजियाबाद की खबर देखें तो किसी भी अखबार में छपी हो शुरू होती है हॉट सिटी में ऐसा। अब कोई इन पत्रकारों से पूछे भाई ये कोई सरकारी टाईटल है जिसे वो धारण किये हुये है। या फिर देश की संसद में पारित हुआ कोई प्रस्ताव जिसे बार-बार वो दिखाता घूम रहा। लेकिन अंधों के गांव में फूलों का रंग पूछ रहे हो।
गाजियाबाद से दिल्ली आते वक्त आप को दिख जायेगा कि किस सिटी को वो हॉट सिटी लिख रहे है। बिल्डरों औऱ भ्रष्ट्राचारी नेताओं के गठजोड़ के इशारे में बनाये गये इन उपनामों के सहारे हजारों लोगों को रोज मूर्ख बनाया जाता है।
मोहन नगर तिराहे से शुरू हुआ दर्शन आनंद विहार तक आपको यकीन दिला देता है कि आंखों की लाज और कानून का लिहाज कही और के लिये लिखे गये शब्द है इस शहर के लिये नहीं। एसएसपी जो अब डीआईजी अखिल कुमार साहब है से बातचीत हो रही थी। उनके साथ उनके एसपीसिटी साहब भी बैठे थे। बातचीत में उनको बताया गया कि आपके यहां एक साहिबाबाद मंडी है जहां रोज सामने सड़क पर दूसरे तरफ ऑटो और ट्रक वाले खड़ा कर देते है और 11 बजे तक कोई उनको पूछने वाला नहीं होता। सड़क के दोनों ओर दुकान वालों ने अपने वाहन खड़े किये हुए है। लाईटे सिर्फ बच्चों को ये बताने के लिये लगी हुई है कि हरा रंग कौन सा होता है और लाल कौन सा। तो एसएसपी साहब ने तुरंत अपने एसपीसिटी को आदेशदिया कि कल से ये सब नहीं होना चाहिये। ये काम बेहद आसानी से हो सकता था क्योंकि उस कट से दो कदम गिन कर ही काफी जगह खाली है। लेकिन आप आज भी उधर से आते है तो दिख जायेगा कि एसपी सिटी के लिये उस आदेश की कितनी अहमियत थी। जाम में फंसे-फंसे आप खुद को ही कोसने लगते है। आनंद विहार पर ठगों के गिरोह पुलिस चौकी के सामने धडल्ले से ठगी का धंधा चलाते है। ऐसा नहीं है कि पुलिस को पता नहीं है। एक बार घर लौट रहा था तो ठीक चौकी के सामने एक दो आदमियों ने घेर लिया। एक ने बताना शुरू किया साहब सोने के डायल की घडी है। बहुत मजबूरी है बेच रहा हूं। दूसरे ने कहा कितने की है। 2000 रूपये की है। साहब ले लो। ओरिजनल है। मैंने कहा भाई जाओं किसी और को पकड़ों लेकिन वो मेरे पीछे पड़े थे। ऐसे में मैंने चौकी में जाकर एक सिपाही को कहा भाई ये लोग ठगी कर रहे है इनसे जरा मिल लो। कोई त्यागी साहब थे उनके साथ गया और एक आदमी को पकड़ लाये। इसके बाद मैंने ये बात तत्कालीन एसपीसिटी विजय कुमार को बता दी। मैं घर चला गया और दो दिन बाद ही मैंने उसी आदमी को उसी तरह से घड़ी के साथ लोगों को ठगते हुये देखा। वो आपको आज भी तथाकथित हॉट सिटी के दरवाजे यानि आनंद विहार में मिल सकता है। आप शाम के सात बजे के बाद आसानी से देख सकते है कई सौ ऐसे ऑटो वाले जिनका कोई नंबर नहीं है। ऐसी बसें जो किसी से रजिस्टर्ड नहीं है। लेकिन जाने क्यों अखबार वाले रिपोर्टर्स को जब भी खबर लिखनी होती है वो शुरू करते है देश के हॉट सिटी से।.......गुडगांव पर भी आगे .....

Thursday, January 7, 2010

आओं अपनी बहुएं जलाये, मीडिया से दहेज विरोधी कानून बदलवाये

सर मेरी बहन को जिंदा जला दिया। पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया। कह रही है पहले जांच करेंगे।
लेकिन हम ये खबर नहीं कर सकते।
क्यों सर क्यों कवर नहीं कर सकते।
क्योंकि हमारे चैनल में दहेज हत्या की खबरें अब कवर नहीं होती। उनमें दहेज विरोधी कानूनों का कई बार बेजा इस्तेमाल होता है।
जीं हां ये आम जवाब है जो पिछले तीन-चार सालों में दहेज की बलि पर जिंदा जला दी गयी लड़कियों के भाईयों-पिताओं या फिर रिश्तेदारों को देश के मीडिया चैनल्स के रिपोर्टर ने दिया। आपको अपने दिमाग पर जोर देने की जरूरत है ताकि आप ये याद कर सके कि विज्यूअल मीडियम पर आपने आखिरी बार दहेज के लिये जलाई गयी लड़की की खबर कब देखी थी। कब देखा था कि ससुराल की दरिंदगी ने एक मासूम की जान ली। आप को ये भी याद नहीं होगा कि देश के तथाकथित नेशनल अखबारों की सुर्खियों में आखिरी बार दहेज हत्या की खबर कब आयी थी।
लेकिन आपको ये जरूर याद होगा कि टीवी चैनलों में दयनीय दिखते कुछ लडके वाले बता रहे है कि उनकी मां-बहन को भी दहेज हत्या में लपेट लिया गया। उनके खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी गयी। पुलिस उन्हें बेजा परेशान कर रही है। और अखबारों ने तो इस बात की मुहिम ही छेड दी है कि दहेज कानूनों नें बदलाव लाया जाये। देश में इन कानूनों का गलत इस्तेमाल हो रहा है। जीं हां देश में दहेज हत्या पर बात करना फैशन से बाहर हो गया। सबको लगने लगा कि हां यार लडकी वाले अपनी लड़की की बदचलनी छिपाने के लिये दहेज मांगने का आरोप लगा देते है।
दरअसल इस देश को झूठ में रहने की आदत है। इसी लिये किसी रिपोर्टर ने इस बात को कवर करने की जरूरत महसूस नहीं की कि वो चैक करे कि हाल में रिलीज हुए दहेज हत्या के आंकड़ों में कमी नहीं बल्कि बढ़ोत्तरी का ही ट्रैंड दिखायी दे रहा है। और ये सरकारी आंकडें है जो ये साबित करते है कि दहेज के लिये इस देश में हर साल हजारों की तादाद में महिलाओं की बलि चढा़यी जा रही है।
ये वो मामले है जिनकी रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज करने में मेहरबानी की है। इससे बड़ी तादाद है उन मामलों की जिन में लड़की वालों की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गयी। और उससे भी बड़ी तादाद है उनकी जिनकी मौत को चांदी के जूते के दम पर ससुराल वालों ने आत्महत्या में तब्दील करा दिया। ऐसे मामले भी कम नहीं जिनकों पंचायतों में निबटा दिया गया। जिनके लिये पैसे देकर समझौता करा दिया गया।
ये देश दुनिया की ताकत कहलाने का बड़ा शौकीन है। हर बात में अमेरिका के जूते चांटने के लिये तत्पर। अमेरिका के बाप को अपना बाप बताने की कोशिश में जुटे लोगों का देश। लेकिन हजारों की तादाद में जलाई जा रही लडकियों के लिये कोई रहम नहीं कोई संवेदना नहीं। चांद पर यान उतारना है। आस्कर जीतना है दुश्मन देश की मिसाईल नष्ट करनी है सेटेलाईट दूर से जला देने है। इतनी तरक्की के बाद भी जिन लोगों को याद है कि लड़कियां जिंदा जलाई जाती वो वाहियात लोग है। देश के गद्दार है। एक रिपोर्टर होते है नासीरुद्दीन साहब तीन या शायद चार साल पहले उन्होंने बांदा में आत्महत्या करने वाली औरतों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर एक खबर की थी। और उसमें ये पता चला था कि मरने वाली औरते के जबड़े तक टूटे हुये थे उनके शरीर पर चोट के निशान थे। लेकिन मौत का कारण आत्महत्या थी। दो साल में ऐसे मामलों की तादाद सैकड़ो में थी।
अब ऐसे में दहेज विरोधी कानून को बदलने की दलील देने वालों लोगों से मेरा एक निवेदन है कि दर्द महसूस करना है तो कम से कम अपनी एक उंगुली ही आग में थोड़ी देर झुलसा कर देख ले।
मुझे याद आ रही है मंजर साहब की दो पक्तियां। पता नहीं सही से लिख पा रहा हूं कि नहीं क्योंकि ये भी उस वक्त कि है जब मैं आठ साल का लड़का होता था और किसी भी लड़की के जलने की किसी खबर पर घर की औरतों और अपने पिताजी को बात करते हुये देखता था।
जिन्हें शौक है बहुएं जलाने का
वो पहले अपने घर में बेटियां जला ले।