Monday, December 31, 2012

गुलामों की चींख


आंखों को बंद -
- खोल कर देखा
मसला कानों को कई बार

खुद को च्यूंटियों से काट कर जानना चाहा

कही ये सपना तो नहीं

इंसानियत को दीवारों के नीचे दबाएँ

इन दफ्तरों में

बैठे कानों को आदत है

पिन गिरने भर से चौंक जाने की

विदेशी हत्यारों के बनवाये

महल में

नकल करते

सत्ता के पत्तों में उलझें

इन लोगों के कानों तक पहुंची ये चींखें किसकी है

किसकी है इतनी हिम्मत चीख सके अपनी मर्जी से यहां

महल में बैठे बाबूओं की आंखों में

रोशनी भी उनकी मर्जी से आती है

इन गलियारों में कोई चेहरा

तयशुदा माप से अलग नहीं

लाखों मासूम लोगों के खून पर

खडी इस ईमारत के गलियारे कभी चुभे नहीं

काले साहबों की आंखों को

ताकत का साईरन बजाते

लाल बत्ती की कारों में बैठ कर आते

जेब में खोंसी विदेशी कलमें

कागजों में तैयार करते है

देश की गर्दन का माप
,

फाईलों में दर्ज करते कुछ ऐसे

ताकि दलालों के जूतों में दबी रहे ये गर्दन

लच्छेदार शब्दों से
, खूबसूरत फाईलो में

करोडो़ं लोगों की जिंदगी को और नरक करते

चंद लोगों के जूतों को सिर पर रखे

ये बाबू
, ये नेता

चौंक गये बेलगाम आवाजों से

कभी सुनी नहीं इन गलियारों में

हैरत में डूबे गुस्से में भरे

बाबूओं ने पूछा एक
- दूसरे से

राख में बदल गये लोगों में

बारूद कहां से आ गयी

उम्मीद को बर्फ के पैरों में दबा कर

बे आवाज काम पर जाते पुतलों में

ये हौंसला कहां से आया

मोबाईल पर विदेशी कंपनियों में

नौकर बनने का ख्वाब पाले हुई पुतलियों में

तिरंगा कहां से लहराया

कैसे सुलझा पाये वो

इन गलियारों तक पहुंचने का तिलिस्म

सौ साल की महल की जिंदगी में

सर झुकाये आये है गुलाम

सिर्फ गुलाम
,

भूल से भी कभी

दरवाजे के लोहे को भी नहीं लगी खरोंच

दरवाजे पर ठोंकरे मारते कौन है ये लोग

हैरत में है जाल बुनने वाले

नारे लगाते लोगों की शक्ल सूरत

गुलामों से

अलग नहीं कुछ भी

फिर तौर तरीका इंसानों का कहां आया

कौन है वो जो इन गुलामों को

बादशाह सलामत और उसके वजीरों तक ले आया

तेईस साल की एक जिंदगी

गुमनाम सी जिंदगी

जिसके दर्द से

उधर गई गुलामों के होठों की सीवन

एक गले में घुट गयी चीख से

टूट गई पैरों की जंजीरे

चेहरे और बदन के जख्मों ने

बदल कर रख दिया

गुलामों का गला

अब ये चीख

इन बाबूओं के कानों को फाड कर

दिल तक पहुंच रही है

खौंफ में डूबे

ताकत के दलालों को बस हैरत है

कैसे एक जिंदगी की डोर टूटने से

टूट सकते है कई सपने

सपनों के टूटने से

टूट सकती है गुलामी की जंजीरें

पत्थर की आंखों में हो सकती है हरकत

कुत्तों के भौंकने से निडर होकर

घुस सकते है वो महलो में

हो सकता है बदल जाये ये तस्वीर

खुद कुत्तों की तादाद बढ़ाकर

फिर से लौटा ली जाएं शांति

हड्डियों को मुंह में डाले

खुद के खून से प्यास बुझाते

कुत्तों की भीड़

गुलामों को चीथ दे

लौटा दे उनको

गुमनामी के अंधकार में वापस

लेकिन

ये बाबू याद रखेंगे

एक ख्बाव टूटने से

टूट सकते है तिलिस्म

ढह सकती है

झूठ की ईमारत़

और सबसे बड़ी

बात

उग सकते है हजारो लाखों ख्वाब

पथराई आंखों में भी

Sunday, December 16, 2012

सीबीआई लाई एफडीआई ।

गिरीश मलिक को जानते है । क्या आपने नाम नहीं सुना। नहीं वो कोई अरबपति नहीं है। फिल्म स्टार भी नहीं है। राजनेता भी नहीं है। मीडिया के पंसदीदा अंडर वर्ल्ड का कोई डॉन भी नहीं है,गिरीश मलिक। कैसे जानेगा ये देश गिरीश मलिक को। आपकी बात सही है । कोई नहीं जान पायेगा कि गिरीश मलिक कौन है। यहां तक कि वो भी नहीं जिन पर आरोप है कि उन्होने गिरीश मलिक का इस्तेमाल कर देश के करोड़ों लोगों के रोजगार को विदेशियों को बेच दिया। गिरीश मलिक लखनऊ में एक छोटे से लाईजनर है। यानि देशी भाषा में कहे तो पैसे का काम पैसे से कराते है और अपना कमीशन खाते है। लेकिन वो अमरसिंह तो नहीं है। फिर क्या है। हैरान न हो हम आप को बताते है कि ये गिरीश मलिक कौन है। गिरीश मलिक वो शख्स है जिसके कुछ बोल इस देश में एफडीआई को लाने में कामयाब हो गये। अब आपसे ज्यादा पहेलियां न बुझाते हुए बात साफ करता हूं। गिरीश मलिक यूपी के एनआरएचएम घोटाले में एक ऐसी कुंजी है जिससे यूपीए सरकार ने मायावती के समर्थन का ताला खोला। गिरीश मलिक सीबीआई की पहली एफआईआर में आरोपी बनाया गया। लखनऊ में काम करने वाले गिरीश मलिक ने बाद में जाने कैसे सीबीआई के एप्रूवर बनने का जुगाड किया और वो सीबीआई के गवाह के तौर पर आजकल गाजियाबाद की अदालत में आते है। एफडीआई के मुद्दे पर वोटिंग से पहले मायवती ने दिल्ली के प्रेस क्लब में एक प्रेस कांफ्रैस की और साफ तौर पर कहा कि एफडीआई देश के खिलाफ है। लेकिन मायावती अपने स्टैंड को साफ नहीं कर पायी कि वो एफडीआई के पक्ष में वोट करेंगी कि विपक्ष में। लोगो को उम्मीद थी कि फायदे के लिये कुछ भी कर देने वाली मायावती शायद इस बार अपने स्टैंड पर कायम रहेगी। हालांकि रिपोर्टर का आकलन था कि ये आखिरी क्षणों में वॉक आउट कर सरकार को मदद कर देंगी। और हैरानी की बात नहीं है हर आदमी की नजर में सीबीआई एक मात्र वजह थी मायावती के सरकार को मदद करने की। खैर ये प्रेस कांफ्रैंस हुई। खबरे छपी भी और इलेक्ट्रानिक मीडिया में चली भी। और चैनल्स को चलना होता है और अखबार को छपना था न्यूज ऐसे ही छपी कि सरकार को पशोपेश में रखा माया और मुलायम ने। ये अलग बात है कि मीडिया तब तक कमलनाथ का विश्वास भरा बयान दिखा चुका था जिसमें कमलनाथ ने कहा था कि नंबर हमारे पास है।

प्रेस कांफ्रैस के अगले ही दिन अखबार में छोटी सी खबर छपी। खबर का मजमून कुछ यूं था। एनआरएचएम घोटाले में जिरह के दौरान एक गवाह गिरीश मलिक ने अदालत में बताया कि उसने ठेका हासिल करने के लिये कई लोगों को मोटी मोटी रिश्वतें दीं। इनमें से सबसे बड़ा नाम था नवनीत सहगल का। मलिक के बयान के मुताबिक उसने
42 लाख रूपये की रकम पी के जैन नाम के शख्स के साथ 13 मॉल एवेन्यू के मकान पर जाकर नवनीत सहगल को सौंपी। गिरीश के मुताबिक ये पैसे बसपा के मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को देने के लिये था। खबर बेहद छोटी थी। किसी ने ध्यान नहीं दिया। संसद में एफडीआई पर वोट हुआ। मायावती ने उम्मीद के मुताबिक लोकसभा से बाहिष्कार किया। मुलायम ने भी किया। सरकार को नंबर मिल गये। अब मुकाबला था राज्य सभा में। राज्य सभा में सरकार इतने अल्पमत में थी कि या तो मुलायम या फिर मायावती एक को मतदान करना ही था नहीं तो सरकार ये बिल पास नहीं करा सकती थी। अब नजर माया और मुलायम पर थी। लोगो का फिर से आकलन था कि सीबीआई का शिकंजा जिस पर कड़ा होगा उसको अपने बयान के पूरे उलट करना होगा। राज्यसभा में वोटिंग हुआ और मायावती ने सरकार के पक्ष में वोट किया। मुख्य विपक्षी पार्टी को गालियां देते हुये। मायावती ये बाजीगरी कई बार कर चुकी है कि बीजे पी को गाली देते हुए उसकी मदद से मुख्यमंत्री बनना। लेकिन इस बार बात समझ में नहीं आ रही थी।

ऐसे ही बैठे बैठे सोचा गया कि क्या हुआ ऐसा कि माया ने किया। तभी याद आया कि अरे गिरीश मलिक का बयान क्या था। 13 मॉल एवेन्यू का मकान जिस पर नवनीत सहगल को पैसा दिया गया किसका था। बस कागज निकाले गये और हैरानी छू मंतर हुई। मायावती को वोट करना पड़ा सीबीआई के दबाव के कारण ये कागजों में साफ लिखा हुआ है।
मामला साफ साफ समझते है। मामले में आरोपी कम गवाह गिरीश मलिक ने सीबीआई को बयान दिया।
सीआरपीसी 161के तहत जांच अधिकारी के सामने गिरीश मलिक ने बयान दिया कि वो खुद 42 लाख रूपया लेकर मामले के एक अन्य आरोपी पी के जैन के साथ 13 मॉल एवेन्यू गया था। अब जान ले कि 13 मॉल एवेन्यू मायावती का सरकारी बंगला था। गिरीश ने वहां मायावती के सबसे करीबी अफसर नवनीत सहगल को वहां 42 लाख रूपये दिये। नवनीत सहगल मायावती सरकार चलाते थे। बयान में एक सावधानी बरती गई कि वो पैसा बाबूसिंह कुशवाहा को देना था और इसी के लिये नवनीत सहगल को दिया गया।लेकिन ये बचाव कानून की निगाह में बेकार इस लिये है क्योंकि गिरीश मलिक अपने बयान के पहले हिस्से में कह चुका था कि उसने नवनीत सहगल का तय पैसा नवनीत के दलाल डी के सिंह को दे दिया था। और पैसा लेने के बाद डीके सिंह ने फोन पर गवाह की बातचीत नवनीत सहगल से कराई। लखनऊ में सत्ता के गलियारों में या फिर छोटे से छोटे ठेकों की दलाली करने वाला मामूली आदमी भी ये जानता है कि नवनीत सहगल का सारा नंबर दो काम कौन संभालता था। डी के सिंह नवनीत सहगल का सबसे करीबी आदमी था। उसको नवनीत के पैसे दिये गये। और नवनीत सहगल को बाबूसिंह कुशवाहा का पैसा दिया गया। लखनऊ में कोई भी आपको ये आसानी से बता देगा कि बाबूसिंह कुशवाहा की और नवनीत सहगल में किसकी औकात माया के दरबार में क्या थी. नवनीत सहगल के सामन खड़े रहने वाले बाबूसिंह कुशवाहा को देने के लिये पैसा पकड़ेगे नवनीत सहगल ये सिर्फ देश की सबसे महान जांच एजेंसी ही विश्वास कर सकती थी लखनऊ का आम आदमी नहीं। और यही वो पेंच है जिसने सरकार के सारे समीकरण साध दिये। कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने एनआरएचएम घोटाले की जांच शुरू की थी। ये जांच बेहद बे मन से शुरू हुई थी। सीबीआई जांच करना ही नहीं चाहती थी। दरअसल एनआरएचएम उन योजनाओं में से एक है जो केन्द्र सरकार ने जोर शोर के साथ शुरू की लेकिन सारी दलालों के हाथो में चली गयी। ज्यादातर राज्यों में हजारों करोड़ के फंड की लूट हुई। सरकार ने न कोई विशेष प्रावधान लगाये ना भ्रष्ट्राचारियों के खिलाफ कोई कठोर नियम। लूट की छूट। लिहाजा माया राज में लूट का खुला खेल खेला गया। ऐसी लूट जो पिंडारियों को भी शर्मा कर रख दे। करोड़ों लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले मध्यकालीन ठगों को नीचा दिखा दे। लूट में राजनीति थी, मर्डर थे ब्यूरोक्रेट थे, दलाल थे, मंत्री थे और संत्री थे। सब कोई शामिल था उपर से नीचे तक। सीबीआई ने जांच शुरू की। परते खुली। निशाना था मुख्यमंत्री मायावती और उनके सबसे करीबी नवनीत सहगल। पूरे राज्य की नौकरशाही नतमस्तक थी नवनीत सहगल के सामने। जांच जैसे जैसे आगे बढ़ रही थी निशाना साफ होता जा रहा था। बस यही से शुरू हुआ केन्द्र का खेल। सीबीआई के डायरेक्टर की रीढ़ की तलाश करना मतलब लखनऊ के इमामबाड़े में पहली बार घुस कर बिना किसी मदद के बाहर आना है।

गिरीश मलिक ने सीबीआई के अधिकारी के सामने साफ तौर पर बयान दिया कि उसने मायावती के सरकारी आवास पर पैसे दिये नवनीत सहगल को। कानून की जरा सी भी समझ रखने वाले आम आदमी को भी ये मालूम है कि इसमें नवनीत सहगल को संदिग्धों की सूची में रखने के पर्याप्त कारण है। मायावती के बंगले का इस्तेमाल और रिश्वत भी सबसे करीबी अफसर को माया पर भी पहली नजर में गवाह या आरोपी बनाने या फिर पूछताछ करने का आग्रह पहली ही नजर में बनता है। ये ही वो कागज है जो मायावती को एफडीआई पर बाहिष्कार तो दूर की बात बेशर्मी से उसके पक्ष में वोट करने का कारण बना। मायावती जानती है कि सीबीआई का शिकंजा कसा तो बात एनआरएचएम तक ही नहीं रह पायेगी। उस वक्त भी राजनीतिक हल्कों में चर्चा थी कि मायावती ने नवनीत सहगल को बचाने के लिये केन्द्र सरकार से डील करके उन्हें ज्यादातर मुद्दों पर समर्थन देने का वायदा किया है। बात अफवाह थी। लेकिन एफडीआई में दो चीजें चीख चीख कर कह रही है एक तो गिरीश मलिक का बयान और ऊपर से अपने सार्वजनिक तौर पर झूठा बनकर भी सरकार के पक्ष में मतदान। कानून की व्याख्या करने वाले विद्धान बहुत है इस देश में। लाखों रूपये लेकर कुछ साबित कर सकते है। इसी लिये इस मामले में आखिरी क्या होगा ये तो शायद सालों बाद सामने आयेगा। लेकिन कुछ कागज हमेशा के लिये इतिहास की अंधी गलियों में दफन हो जायेंगे जिसमें से एक गिरीश मलिक का बयान भी होगा। अमेरिका हर अहसान का बदला देता है अपने पालतूओं को शायद गिरीश को भी कुछ दे दे वॉल मार्ट। ये अलग बात है कि एफडीआई के लिए प्रधानमंत्री से भी ज्यादा मददगार साबित हुये ए पी सिंह यानि अमर प्रताप सिंह को एनएचआरसी में एक सीट का दिलाने का सरकार का वादा शायद विपक्ष के चलते पूरा न हो। हम तो कह सकते है कि एफडीआई का प्रस्ताव को कांग्रेस लाई लेकिन उसको देश में लायी अमर प्रताप सिंह की सीबीआई।

Saturday, December 15, 2012

महान लेखक सत्ता के मंच पर

फूलमालाओं से लदे गले

खूबसूरत सच के चेहरे

मंच से आती आवाज

कानों तक पहुंचतें पहुचतें

झूठ क्यों हो जाती है

आंखों से जो दिख रहा

वो कानों तक पहुंचता क्यों नहीं

मैंने देखा है कई बार इस चेहरे को

किताबों के सहारे

गले में अटके गीतों को,

गम से गूंगे, दर्द से बहरे हुए

जिंदगी की काठी में

दम लेने भर के लिए फंसे लोगों की आवाज को

अपनी लेखनी से सांस देते हुए

शब्द जैसे दर्द से दहक रहे हो

लाईनों में बह रहा हो अपमान का अंगार

लाईनों को पढ़ा और नमन किया कई बार

मंच पर ये क्या कह रहे है

मेरी आंखों में दिमाग के सहारे दिखी लाईने

धुधंली क्यों दिख रही है

आवाज उन लाईनों से मिल क्यों नहीं रही है

जो इनके नाम से किताबों में लिखी गयी है

मंच पर बैठी सत्ता का गुणगान

झूठ का अभिवादन सीना तान

इसी के लिये हासिल किया था

क्या

इतना यश इतना मान

ये बेबसी कौन सी है

चेहरे पर ये हंसी कौन सी है

दिखता है ये कौन सा

चरित्र सत्ता के सामने

सच के आईनों मे शक्ल बदलते

तुम भी वही निकले

केंचुलियों से घिरे

पद के मोह में

सत्ता के चरण चुंबन के लिये

गरीब के दर्द को अपना हथियार बनाते

मंच को गालियां दे कर

वहां तक पहुंचने के लिये

सीढियों का रास्ता बनाते

मैं लाईने फाड़ नहीं सकता

तुम्हारे लिखे को मिटा नहीं सकता

मान लेता हूं

तुम कोई और हो

वो लाईनें जिसकी थी

वो कोई और था

कोई ख्वाब नहीं है

कोई ख्वाब नहीं है। रात में सोने के बाद जब भी उठता हूं। तो याद नहीं आता कि मैंने कोई ख्वाब देखा है कि नहीं। बच्चों पर निगाह डालता हूं तो सोते हुए भी उनकी पलकों के नीचे हलचल दिखती है। लगता है उनकी आंखों में जरूर कोई ख्बाव पल रहा है। मैं अपनी उलझन कैसे सुलझाउं। पत्नी से पूछता हूं। वो हाथ देखती है और फिर जीभ दिखानें को कहती है। शहर में कोई भी दोस्त नहीं है। ऐसी बात किसी से कर भी नहीं सकता। मुझे ख्वाब नहीं आते। घड़ी की सुईयां मुझे सोचने का वक्त नहीं देती। ऑफिस के लिए भागना है। तेजी से नहाना है। खाना मेज पर लगा है। नौकरानी के पास चाबी है घर की। बच्चों को स्कूल क्रैच भेजना है। खाया, भागा ताला लगाया। सड़क पर आया। निशाने पर ऱखने वाली कारों से बचा। मोटरसाईकिल वालों से टकराया। टैंपू में चढ़ा। तेज आवाज से महबूबा को कोस रहे बेसुरे को सुना। ड्राईवर की बीड़ी से निकले धुएं को पिया। मेट्रो स्टेशन। सीढि़यों पर भागते हुए फ्री का अखबार लेना भूल गया। कोई बात नहीं मांग लूगा। गेट पर लगी भीड़ में सबसे आगे वाले तक कैसे पहुंचना है। कोई बात नहीं दूसरी लाईन बना लेता हूं। कोई बोलता नहीं है बस थोड़े सा बेशर्म बनना है। दरवाजा खुलता है । दीवानावार भागता हूं। चलो सीट तो मिल गई। बूढी औरत खड़ी है। खड़ी रहे मुझे क्या। वो साला जो सामने बैठा है बुढिया का रिश्तेदार है जो बैठा रहेगा। आंखे बंद कर लेता हूं। कुछ देर में जानवरों का आलम दिखने लगेगा। स्टेशन पर बाहर खड़े भीतर धक्का देंगे। भीतर वाले उनको दरवाजों पर रोकेंगे। रोज की तरह से तीन बार दरवाजा बंद खुलेगा। सीटी की आवाज आएंगी। बाहर खड़े को दरवाजे से घकिया देगा गार्ड। गाड़ी चल देंगी। फिर से अगला स्टेशन। कुछ देर बात मेरा स्टेशन। उतरने से पहले एकबार अहसान। आप बैठ जाईंये माता जी। चालीस मिनट से खड़ी बुढ़िया अब मां दिखती है। मुझे तो उतरना ही है। पहले क्यों सीट नहीं दी हरिश्चन्द्र महाजारा कर्ण की औलाद। कोई बात नहीं। दरवाजा बंद हो चुका है। भौंकने वालों से चिढता नहीं। बु़ढिया तो अब तक दुआ कर चुकी होगी मेरे लिये। वैसे भी तेज भागना है नहीं तो एक्जिट गेट पर भीड़ जमा हो चुकी होगी। तेजी से भागते हुऐ एक्जिट गेट पर करता हूं। घ़ड़ी साथ नहीं देती। दस मिनट लेट हो चुका हूं। तेजी से दौड़ता हूं। अर रूको ये लडकी तो ठीक है। इस पर इम्प्रैशन जमाना हूं। अरे इसका तो कोई प्रेमी है। चलों तेजी से दौडो। सीढियां पार करो। लो इन कर दिया। दफ्तर में बास की निगाहों से बचो। यही बैठा रहता है। पता नहीं घर है नहीं है। बॉस को पसंद है तुम्हारी खुशबू। बैठते ही आवाज। आओँ । क्लास शुरू क्लास खतम। ये तय है कि काम नहीं करता हूं कभी बॉस की निगाह में। मैं कई बार आवारा निगाहों से देखता हूं आफिस में काम करने वालों को। लगता है कि काम ही काम में डूबे है। काम कहां है दिखता नहीं। मैं वो सब करने में अब नाकाम हो रहा हूं। रोज रात की परिक्रमा दिन में आते हू बदल जाती है। सोचता हूं कि कल सब ठीक कर लूंगा लेकिन नया दिन भी पिछले दिन की मिरर इमेज ही निकलता है। चलो जल्दी चलो। यूनिट लो फील्ड में चलो। फील्ड में सब लोग अपनी दुनिया में मस्त। फलां नेता के यहां चलना है। फोन करो। सर कैसे है। सर एक छोटी सी मुलाकात। अऱे नहीं भाई समय नहीं है। सर प्लीज जरूरी मामला है। आ जाओं फिर दो घंटे बाद। जानता हूं कि दो घंटे तक बतिया रहा होगा। फलां आदमी। जाते ही पैर छूना होता है तब वो उसी वक्त बुला लेते है। सुईयां सी चुभी देखकर किसी को पैर छूते हुये। लेकिन ये दर्द तो झेलना ही होता है। काम के वक्त मशीन में डूबा वो आदमी पैर नहीं अपनी नौकरी और नावां देखता रहता है। मैं सोचता रहता हूं कि अगर मैंने पैर छुए और मेरे बेटे ने देखा तो क्या वो ये बात समझेंगा कि मैं नौकरी के लिये पैर छू रहा हूं। इसीलिये रीढ़ का दर्द कुछ और बढ़ जाता है लगातार सीधे खड़े खड़े। उलट बात है। दर्द झुकने वालों के होना चाहिये था लेकिन वो तो हंसते हुए दिख रहे है। और मेरा हाल पूछ रहे है कि अरे आपकी मुलाकात नहीं हुई अभी तक हम तो दो घंटे पहले ही हो आये। इसी बीच बॉस के कई फोन आ चुके है । क्या हुआ फलां ने मुलाकात कर ली है। फलां ने ये कर लिया है। आप क्या कर रहे हो। बॉस नौकरी छोड दो। खैर किसी तरह से नमस्कार कर मुलाकात। अब ये मुलाकात ऑफिस में भेजने की मशक्कत। कोई किसी काम में कोई किसी काम में बिजी है। आप जिसको बोलो वही बिजी है। मेल किया। और छोड़ दिया। घंटों तक खूबसूरत सड़कों पर बदसूरत से दिखते हुए निरर्थक मुलाकातों का जाल। अधूरी हंसी या फिर झूठ के कंबल में लिपटी हुई हंसी के साथ थक गये जबड़ों को समेटता हूं। जल्दी चलो। सहकर्मी की भुनभुनाती हुई आवाज। यार तुम्हारी वजह से मेरी शिफ्ट ओवर हो जाती है। उसको समझाना बेकार है। उसकी घड़ी ठीक चलती है। क्या करूं। चलो आजका काम हो गया। भागों जल्दी वापस ऑफिस। बॉस न देख ले। कल की शिफ्ट पूछेगा नहीं लगा देगा। मेरी आदत के विपरीत। मैं अल सुबह उठकर काम करता हूं। और रात में जल्दी बिस्तर तक पहुंचना चाहता हूं। लेकिन कल तुमको आना है दोपहर से रात के बारह बजे। हे भगवान। सुबह पांच बजे उठकर रात के दो बजे तक का काम है कल। क्योंकि दिन में सोता नहीं हूं। मां कहती थी कि दिन में सोने से काहिल बन जाता है आदमी। ऑफिस में तब तक हल्ला मचता हैं। अरे फलां से मुलाकात किसने की है। मैं बोलता हूं। तब आपने बताया क्यों नहीं। अरे आपको मेल किया था। मेल किया था। अरे ये क्या लापरवाही से काम कर रहे हो। मीटिंग्स में हंगामा हुआ है। आपका नाम लेकर बाकायदा पूछा गया है कि आप क्या करते हो।आपका मामला खराब है। ऐसे नहीं चल सकता है। लेकिन मेल तो तमाम लोगों को गया था। उससे क्या होता है आपको फोन करना चाहिये था। हम को देखों हम मेल भेज कर भी कितने फोन करते है ताकि हमारा काम दिख जाये। यार आप करते क्या है। मैं आपको कब तक संभाल पाऊंगा। मुझे माफ करो यार। अपने आप भी कुछ काम कर लिया करो। बॉस का राग सम पर था। खैर एक दो घंटे बाद वापसी की वही साफ कवायद। सीढियां चढ़ते वक्त घर की। वापस सारा दिन अपनी पैंट की जेब में रख लेता हूं। बच्चों को चेहरे पर चढ़ आये दिन के फोटो नहीं दिखाने है। शायद डर जायेगे। मासूम है अभी। पुराना हंसता हुआ चेहरा लगाओं जल्दी जल्दी। पत्नी सात पर्दों के पीछे छिपे चेहरे को भी पहचानती है। फिर वही हुआ होगा। हाथों से सामान पकड़ती है। खाना गर्म करने चलती है कि नहीं यार ऐसे ही दे दो। फिर भी गर्म खाना हाथ तक पंहुच जाता है। धीमे से कमरों को देखता हूं। बिस्तर बिछाता हूं। और रात की नदी में सपनों के सीप खोजना शुरू कर देता हूं।

Saturday, December 8, 2012

प्रधानमंत्री गुजराल की शवयात्रा

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हो गयी। देश के बड़े घरानों के बडे वकील, सरकारों के प्यारे वकील और पीआईएल में भी सुप्रीम कोर्ट मे दहाड़ते इन वकील साहब को वीआईपी लोगों के ट्रैफिक मूवमेट के दौरान आम आदमी को होने वाली दिक्कतों से परेशानी है। लेकिन याचिका दाखिल हई गुजराल साहब के अंतिम समय पर रूके ट्रैफिक जाम के समय। वकील साहब सुप्रीम कोर्ट से चाहते है कि वो इसका जवाब तलब करे। लगा कि ये क्या है। कोई इस तरह से कर सकता है। वो भी देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री की शवयात्रा पर जो महज एक घंटे में सिमट गयी। इतना ही समय लगा पूरे राजकीय सम्मान से हुई इस अत्येंष्टि में। बात मुख्तसर में इतनी है,इंद्र कुमार गुजराल नहीं रहे। पूर्व प्रधानमंत्री थे। यही दिल्ली में रहते थे। काफी लोगों को याद नहीं था, इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे। टीवी चैनलों ने देश को काफी कुछ नहीं बताया। इंद्र कुमार गुजराल के निधन पर टीवी चैनल्स बौराये भी नहीं। अखबारों को याद था। इसीलिये पहले पन्ने पर उतनी ही जगह थी जितनी बाजार ने इंद्र कुमार गुजराल के लिये नियत की थी। एफएम रेडियों पर बदस्तूर गाने बज रहे थे। ऐसा भी नहीं है कि वो चुपचाप चल बसे हो। और किसी को उनका पता भी न चला हो। वो कई दिन से मेदांता अस्पताल में भर्ती थे। रात में एक बार अस्पताल गया। न कोई ओबी वैन न कोई कैमरामेन। डॉक्टरों से हाल चाल जानने के लिये दौडते रिपोर्टर भी नहीं दिखे। पूछने पर पता चला कि हां भर्ती तो है। क्या कोई रिपोर्टर आया था। नहीं बस फोन पर दरियाफ्त की थी। उसके बाद किसी टीवी चैनल्स न लाईव दिखाया न किसी डॉक्टर का लाईव बुलेटिन दिया। और जब मौत हुई तो उस दिन किसी भी चैनल के धुरंधर रिपोर्टर फील्ड रिपोर्टिंग में नहीं थे। उनका ऑफ था। किसी का ऑफ कैंसिल नहीं हुआ। 5 जनपथ। ये ही पता था इंद्र कुमार गुजराल का। लेकिन ये ताकत का पता नहीं था। उस दिन यहां कैमरे लगे थे। लेकिन रिपोर्टर जूनियर थे। दिल्ली ने प्रधानमंत्रियों की मौत देखी है। भारी भीड़, रोते बिलखते समर्थक। टीवी पर श्रदांजलि देते नेता। लगभग रो देने के अंदाज में रिपोर्टिंग करते महारथी और पहले से पहले बोलती ऐंकरें। लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था। टाईम दो बजे बताया था शवयात्रा का। लेकिन आधा घंटे पहले ही निकल गयी। आम आदमी की तलाश की लेकिन नहीं दिखा। कुछ सरकारी अफसर जो अब रिटार्यड थे। कुछ केन्द्रीय मंत्री कुछ विपक्षी नेता। रस्म अदायगी थी। अंदर से बाहर आकर कैमरों की तरफ उम्मीद से झांकते नेताओं की बेचैनी पर हंसते रिपोर्टर। किसी को कोई बाईट की जल्दी नहीं। ऑफिस से कोई डिमांड नहीं थी। डिमांड नहीं तो पीटीसी नहीं लाईव नहीं और वॉक थ्रू भी नहीं जो रिपोर्टर को रिपोर्टर बनाते है बॉस लोगों की निगाह में। कुछ देर में एक रिपोर्टर को होश आया कि एक दो बाईट ले लो भाई। शाम को पैकेज तैयार करना है। काम आयेगी। इसके बाद आनंद शर्मा दिखायी दिये। उनको कहा गया वो तैयार हो गये। उन्होंने कुछ ऐसे भाव में कहा कि देश ने अपना सपूत खोया है। बेहद सज्जन आदमी थे। और भी इस तरह की बातें। एक नया रिपोर्टर था। विकी पीडिया पढ़ कर आया था। सवाल करना जरूरी था। क्या गुजराल डाक्ट्रीन अभी भी रिलीवेंस है। क्या कांग्रेस उस पर अमल करेगी। आनंद शर्मा ने जवाब दिया। भारत की नीति है कि अब वो सब देशो के साथ मित्रता रखना चाहता है। भारत ने कभी भी इस बात का समर्थन नहीं किया है कि किसी देश के साथ किसी भी किस्म की दुश्मनी की जाये। कोई सवाल करे उससे पहले ही रिपोर्टर की आवाज आयी हो गया हो गया। फिर नबंर आया कपिल सिब्बल साहब का। कपिल सिब्बल साहब ने भी वहीं बात की। इसके बीच में ही शरद यादव जी आ टपके। उनको किसी रिपोर्टर ने आवाजनहीं दी थी। लेकिन उन्होंने भी बताया गुजराल साहब बड़े ही अच्छे आदमी थे। इसके बाद उनकी शवयात्रा शुरू हो गयी। कुल मिलाकर ट्रक के पीछे लगभग चालीस आदमी थे। जिसमें से नरेश गुजराल को हम लोग पहचान सकते थे। सांसद है। अकाली दल से है। लेकिन और कोई इस तरह का आदमी ट्रक के पीछे पैदल नहीं था। किसी रिपोर्टर ने कहा कि क्या मॉरिशस के पूर्व प्रधानमंत्री की मौत हुई है जो दिल्ली में निर्वासित जीवन जी रहे थे। भारत के लोग बेखबर क्यों है। घरों से झांकने वाले चेहरे कहां है। बाते बहुत सारी है। लेकिन अभी नहीं पहले बात करते है दो हफ्ते पहले हुई बाल ठाकरे की मृत्यु को।

शोक को त्यौहार में बदल देने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने पूरे रौ में था। किसी ने सेनापति कहा। किसी ने शेर कहा। और भी जितने पूजा के तरीके हो सकते है वो कहे गये। टीवी चैनल्स के ऐंकर पागलों की तरह से बर्ताव कर रहे थे। दिल्ली से भेजे गये ऐंकर कम रिपोर्टर, धुरंधर रिपोर्टर और भी जाने कितने लोग चर्चा कर रहे थे। स्टूडियों में बैठकर विरोध करने वाले भी इस बात को कह रहे थे कि आप उनकी राजनीति से सहमत या असहमत हो सकते है लेकिन उनके जीवट की तारीफ करेंगे। हैरानी हो सकती थी। ये वहीं हिंदी चैनल्स थे जो कुछ दिन पहले हिंदीभाषियों पर हुए हमले से हलकान थे। जो भी कह सकते थे वो कह रहे थे। लेकिन आज वही रिपोर्टर बाल ठाकरे की तारीफ में आसमान में छेद कर दे रहे थे।

बाल ठाकरे किसी पद पर नहीं थे। लेकिन उनका पूरा सम्मान किया गया। यहां तक कि राजकीय सम्मान। यात्रा में आठ से दस घंटे लगे। मुंबई का सबसे बड़ा अंहकार कि ये शहर थमता नहीं, गायब था। हर तरफ सब रूका हुआ था। किसी को नहीं चुभा। एक लड़की ने अपने मन की बात फेस बुक पर लिख दी। उसकी दोस्त ने उसको पंसद करने का निशान लगा दिया। बस हर दूसरे राज्य की पुलिस को हमेशा छोटा, और कम समझ का साबित करने वाली महाराष्ट्र पुलिस अपने पूरे शबाब पर आ गयी। उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। शिवसेना के वो लोग जिनकी तारीफ के कशीदें पढ़ते रहे चैनल्स पूरे दिन अपनी औकात में आ गये। लड़की के चाचा के हॉस्पीटल पर हमला कर दिया। अगले दिन जब एक अंग्रेजी चैनल्स ने टीआरपी के सम्मोहन से जाग कर इस खबर को चलाया तो जैसे तिलिस्म टूटा। अचानक इलेक्ट्रानिक मीडिया को ये गुनाहे अजीम दिखा। और सबने बहस को ले गये सबसे नये कानून पर। आईटी एक्ट पर। किसी को नहीं दिखा कि पुलिस का बर्बर चेहरा हमेशा ऐसा ही होता है। किसी भी लड़की को शाम को किसी पुलिस स्टेशन नहीं बुलाया जा सकता। महिला के परिजन साथ में हो। ऐसा आईटी एक्ट में नहीं बल्कि सामान्य कानून में दर्ज है। उसको ताक पर रख दिया। लेकिन किसी पुलिस वाले के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं दर्ज किया गया।
लेकिन हमारा उस एपिसोड से कोई मोह नहीं है। देश में इस वक्त जो चल रहा वो क्या है इस पर बात करना है। क्या मीडिया इस देश में ये तय कर रहा है कि किसके मरने पर देश को रोना चाहिये और किसके पर नहीं। अगर कोई अराजक भीड़ नहीं और कोई राजनीतिक फसल भी नहीं जिसको बाद में राजनेता काट सके तब कोई भी उस आदमी पर मुकदमा दर्ज कर सकता है। सवाल कई है। क्या राजनेताओं के लिये जातिवाती राजनीति करनी जरूरी है। क्या ऐसे समर्थकों की भीड़ जुटानी जरूरी है जो आपके इशारे पर देश के कानून की ऐसी की तैसी कर दे। या फिर ऐसे लोग जो सत्ता में बैठी जमात को फायदे और नुकसान के बारे में सोचने पर मजबूर कर दे। लेकिन इससे अलग एक ऐसा रास्ता भी है। लालबहादुर शास्त्री और वल्लभ भाई पटेल का। लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर वोटों की फसल नहीं काटी जा सकती है। उनके बेटों ने भी राजनीतिक पार्टियों के कंधों पर चढ़कर पिता की विरासत को चार कंधें दे दिये. लेकिन देश की जनता आज भी लाल बहादुर शास्त्री का नाम गाहे बगाहे बिना सरकार के याद कराये लेती है। लेकिन ये डगर थोडा मुश्किल है। लेकिन गुजराल हो सकते है आसानी से।

इस जन्म के ईश्वर

रास्ते पैरो से चिपक कर घर चले आते है

बाते जिंदगी की कमीज के बटन

उम्मीद घर में रखी एक झाडूं

रात ऐसा जंगल जिसमें खो जाते है रास्ते

सुबह जिंदगी का नया कपड़ा

उम्मीद की झाडू से

बुहारता हूं नाउम्मीदियों की गर्द

रास्तों के जूते पहन

निकलता हूं सूरज के सौंवे घोड़े के रास्ते पर

दोस्तों की क्षमा

दुश्मनों की बोलियां

जेब में पड़ें सिक्कों की तरह

गिनता हूं और वापस डालता हूं

ना सिक्के ज्यादा है न

दोस्त और दुश्मन।

मुझसे

दोस्ती के फायदे नहीं है

दुश्मनी के मायने नहीं है

लिहाजा भूला दिया गया

सिगरेट के खींचे गये हजारों कश की तरह

हालात मंगल पर बने हुए बादल

मैं तभी देख पाता हूं जब अखबार में छपते है

मां की आवाजें
, पिता की निगाहें

बहनों का स्नेह, भाई की दुआ

जिंदगी के आसमान में चमकीले तारे

महीनों में उपर देख पाता हूं

जब भी देखता हूं

सुंदर दिखते है

भूल से भी देखों तो

मुझे रोशनी मिलती है

रास्तों का पता मिलता है

और कुछ भी नहीं

तो ये सलाह

रात है

संभल कर चलना

लेकिन मुझसे तारों को

क्या मिलता है

घर में एक धुव्र तारा है

रास्ते में जूते हो

या

जूते रास्तें हो

दिखाता रहता है राह

झूठी प्रार्थना

सच्चें अनुग्रहों के सहारे

जी लिया मैंने

अरबों प्रकाश वर्ष का जीवन

हे इस जन्म के ईश्वर

मुझे माफ कर

उतार मेरी आत्मा से

इस बदन का कपड़ा

Friday, November 30, 2012

एक कप चाय के दूध की कीमत ?

एक कप चाय के दूध की कीमत कितनी हो सकती है। या यूं कहे कि एक कप चाय में कितना दूध इस्तेमाल होता है। कोई कह सकता है एक रूपया, कोई दो रूपया या फिर तीन रूपया। क्या एक कप दूध की कीमत बाईस साल की जिंदगी हो सकती है। क्या एक मां- बाप के बाईस साल के सपने की कीमत एक कप चाय का दूध हो सकती है। क्या एक पति-पत्नि के दो साल के साथ की कीमत से बड़ी हो सकती है। और भी जाने कितने रूपक हो सकते है एक लेखक के पास इस घटना को लिखने के लिये। खबर इतनी सी है - एक पति ने घर वापस लौट कर एक कप चाय मांगी। पत्नि ने कहा आज घर में कोई पैसा नहीं था तो दूध नहीं ला पाई। पति ने कहा कोई बात नहीं हम आज ब्लैक टी ही पी लेते है। पत्नी चाय बनाने गयी। कुछ देर बाद पति ने देखा कि अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही है। वो अंदर गया तो देखा पत्नी गले में फंदा कस कर मौत को गले लगा चुकी थी। बैंक में कलेक्शन एजेंट के तौर पर काम कर रहे लडके की नौकरी कुछ दिन पहले चली गयी थी। घर में पैसे का संकट था। शादी को दो साल ही हुए थे। खबर अखबार के लोकल पेज पर छपी है।
अखबार खोल कर पढ़ना शुरू किया था। संसद में चल रहा घमासान थम गया है। सरकार वोटिंग के साथ एफडीआई पर बहस के लिये तैयार हो गयी है। संसद पिछले दो सत्रों से ठप थी। अरबो रूपया स्वाहा हो गया। ये आंकडों की बात है। अरबो रूपये कितने होते है नहीं जानता। मास्टर जी ने बचपन में गिनना सिखाया था। एकाई-दहाई-सैकडा-हजार-दस हजार -लाख - दस लाख। ये वो संख्या थी जो जीवन में जिंदा हो गयी। इकाई से लेकर हजार तक की संख्या से पिता ने परिचय करा दिया था। जेब खर्च से शुरू कर स्कूल में एडमिशन फीस तक। लाख रूपये में तनख्वाह। दस लाख की संख्या तब हकीकत बन गयी जब बैंक ने मकान के लिये लोन दिया। इससे ज्यादा की संख्या मेरे लिये बस एक संख्या ही है। एक के आगे जीरो लगाते जाईये और बोलते जाईये। दस लाख-करोड़-दस करोड़-अरब-दस अरब-खरब-दस खरब। शायद इससे भी आगे पदम -और शंख तक। लेकिन ये सिर्फ जीरो है। इनमें कभी जीवन नहीं दिखा। हां मीडिया अब कोई बात करोड़ों से लेकर खरबों में करता है। इसी अखबार के अंदर के पेज में बडी खबर के तौर पर दर्ज है सेंसेक्स ने पार किया 19000 का आंकड़ा। एक दिन में 80,000 करोड़ रूपये बढ़े निवेशकों के। इसी अखबार के लोकल पेज पर कुछ और भी खबरे है। बी टेक के स्ट्डैंट ने आत्म हत्या की। मां-बहन नौकरी कर रही थी। उनकी उम्मीद ने दम तोड़ने से पहले स्यूसाईड नोट छोडा था। किसी को पचास हजार देने है। कहां से दूं। एक नजर कॉलम में लिखा है दो बेटियों संग मां ने आत्महत्या की। एक युवा ने जहरीला पदार्थ खा कर आत्महत्या की। ये एक लोकल अखबार की शहर की एक दिन की घटनाएं है। शहर देश के राजधानी क्षेत्र में है। राज्य का मुख्यमंत्री विदेश में पढ़े है। युवा है। युवाओं की तरक्की के नये नये रास्ते तलाश रहे है। कल एक ऑफीसर के पास बैठा था। एक प्रभावशाली बिजनेस ग्रुप के हेड भी बगल में थे। बातचीत चल रही थी। बिजनेस मेन के फोन पर फोन आया। फोन पर एक दो मिनट बात हुई। और फिर फोन काट कर वो हंसने लगे। देश में क्या चल रहा इस बात पर। उनके किसी दोस्त ने किसी रेसिंग ट्रैक पर पार्टी करने के लिये एक उद्योगपति से ट्रैक किराये पर लिया। पार्टी थी तो शराब भी होंगी। इसके लिये उसको एक्साईज और इंटरटेनमेंट के अधिकारी से एनओसी लेनी थी। अधिकारी बतौर अधिकारी उस जगह था। एनओसी के लिये सुविधा शुल्क चाहिये था। मछली बड़ी थी। साईन की कीमत थी पांच लाख रूपये। पार्टी आयोजित करने वाले बड़े लोग थे। बड़े लोग ताकतवर लोगों से बात कर सकते है। बात की गयी। मंत्री जी ने फोन किया। उसके बाद प्रार्थना पत्र लेकर वापस गये कारिंदें। अफसर तैयार थे। उन्होंने कहा रेट तो तो पांच लाख ही था। लेकिन आपने ऊपर से फोन कराया है इसीलिये चलिये आपको दो लाख की छूट। ये ही बात बताने के लिये फोन आया था। हमारे साथ बैठे ग्रुप हैड हंस रहे थे कि बताईंये इस तरह से चल रही है सरकार। इसी बीच चाय आ गयी। उन लोगों ने चाय में दूध नहीं लिया। वो ब्लैक टी पीते थे। हालांकि चाहते तो घर में हजार भैंस बांध सकते है। लेकिन ब्लैक टी फायदा करती है।
काश ये बात वो आत्महत्या करने वाली युवती जान पाती कि काली चाय पीना कोई खराब बात नहीं है। और इतनी बड़ी बात भी नहीं कि उसके लिये जान दे दी जाएं। ये अलग बात है उस घर में चाय की पत्ती भी नहीं थी।

" बात करना आसान है
लेकिन शब्द खाये नहीं जा सकते

सो रोटी पकाओ

रोटी पकाना मुश्किल है

सो नानबाई बन जाओ

लेकिन रोटी में रहा नहीं जा सकता

सो घर बनाओ

घर बनाना मुश्किल है

सो राज
-मिस्त्री बन जाओ
लेकिन घर पहाड़ पर नहीं बनाया जा सकता

सो पहाड़ खिसकाओ
bh
पहाड खिसकाना मुश्किल है

सो पैंगबर बन जाओ

लेकिन विचार को तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते

सो बात करो

बात करना मुश्किल है

सो वह हो जाओ जो हो

और अपने आप में कुड़बुड़ाते रहो
"
एंत्सेंसबर्गर

Monday, November 26, 2012

रीढ़ में लगा कलफ उतर गया

आदमी सड़कों पर ।
चूहे घरों में।
सवाल जेहन में,
बच्चियां पेट में
इंसानियत मर रही है सरेआम
नक्शों में दम तोड़ रहा
देशहर चेहरे पर खुशी है कि मातम
कुछ देर में हंसते हुए रो रहा है
या
रोते हुए हंस रहा है।
कदम दर कदम आगे चलते हुए
दिख रहा है पीछे जाते हुए
पीछे से हंस रहा है कोई
मैं लगातार रास्ते देखता हूं
कभी चमकते हुए, कभी अंधेरे में डूबे हुये
गिनता आता हूं
जेब में पड़े हुए सिक्के
बिक गये जमीर के सहारे
रीढ में लगा कलफ रोज उतर जाता है
चेहरे पढ़ते पढ़ते भूल जाता हूं
छुप बैठी अंतर्मन की आवाज का गीत
पूछता हूं रास्ता अपने घर का रोज शाम को
बीत गये दिन से
सुबह जिसको साथ लेकर चला था
वो कहां गया सांझ होते ही
रात में तलाश करनी होगी
फिर कल के लिये अपने चेहरे की
थक गये जबडों के सहारे
पर्स में छुपा कर रखी हुई
हंसी में देखता हूं
बच्चों को पार्क में झूलते हुये
बीबी के कंधों में खोजता हूं
सुनहरे पर्दों के सपने
कुछ देर में पत्थर में बदल गयी
आंखों के सहारे कदम रखता हूं
रात के आंगन में
खिले हुए फूल छोड़ कर
कल निकला था मैं कक
ये क्या है
मैं रात से पूछता हूं
नींद की नाव को चलाकर
फिर से उतारना होगा
कर्ज एक बार फिर से तेरा
मुझे डर की सुंरगों में भटक कर
सुबह की किरणों से चमत्कार की उम्मीद करनी है
झकझोर कर उठा दिये रास्तें पर
अपनी दिन की कहानी को
एक दिन ओर आगे
एक दिन और पीछे
गिनती कहां से शुरू करूं
आखिर से या शुरू से

यादों मे रह गयी शाम

उन पवित्र शामों में
कुछ भी याद रखने लायक नहीं था
सिवा
उस रोशनी के
जो तारों की झिलमिलाहटों को ढंक देती थी
तुम्हारी आंखों से निकलती थी
ऐसा कुछ भी नहीं था
जो रख लिया जाता
जिंदगी की जैकेट में
अज्ञात रास्तों के नक्शों की तरह
तह करके
सिवा
तेरे चेहरें पर उमड़ती हंसी के
कोई भी चीज नहीं थी
उन धुंधलकों में
जो गीला कर पाती अंदर से
जैसे रेत सींझ रही हो समुद्र तल में
सिवा
तेरी आवाज के झरनों से
मेरे अंदर जमीं सीलन के
ऐसा कुछ भी रखा गया
हवा के सीने पर जो
लहरा कर गुजरे
नयी पत्तियों की टहनियों की तरह
सिवा
रूक रूक कर रखे गये कुछ कदमों के
मुझे क्यों याद रहे
वो
पवित्र शामें
ऐसा क्या था
जो मैं याद रखूं

Sunday, November 11, 2012

भेडियों का लोकतंत्र

डर सिर्फ भेड़ों को ही नहीं लगता है।
भेडिये को भी दर्द होता है।
डरते है वो भी खत्म होने से
उन्हें भी मालूम होते है मौत के मायने
इसी लिये वो भी इकट्ठा होते है
भेड़ों के बा़ड़े के बाहर
अपने दर्द के बयान लिए
कई बार भेड़ियों को बोलते हुए सुनना
भय की बातों को दोहराना होता है
मंच पर चिल्लाते हुए भेडियों को सुनना
दर्द से बिलखते हुए आंतक का अपने लिये रहम की उम्मीद रखना
भेड़ों को लग सकता है किस तरह से खतरे में उनके रहनुमाओं की पीढ़ी
र मैदान में प के मंच से
हैरानी देखने वालों को हो सकती है
भेड़ों के लिए रोते बिलखते हुए भेडिये
भेडियों के बच्चों को दर्द हो रहा है
सूखी घास से जिंदा है मेमने भेडो़ं के
हजारों एकड़ के विशाल जंगलों पर काबिज भेडों को
हरी घास के लिये चलना पड़ रहा है भेड़ों को
ये साजिश है किसी दूसरे भेडियों की
दांत में कई बार हड्डियों के फंसने से भी नुकसान होता है
गले में भेड़ों की हड्डियों से सांस हो गयी बंद
इतनी सी बात से खत्म नहीं हो सकते है भेडिये
किस तरह से संभालना है जंगल
किस तरह से रखना है अपना रेवड़ सही सलामत
खाने के तरीके को बदलना होगा
हर भेडियों को ईजाद करनी होगी खुद की तरकीब
मंच पर चिल्ला रहे भेडियों को गुस्सा है
उस झुंड पर
जो बिना बाडें पर कब्जा जमाये खा जाना चाहते है
मेमने
, भेड़ इसी लिए इस क को चाहिये ताकत भेड़ों की
भेडें चिल्ला रही है रहनुमाओं के लिये
उनको सिखाया गया है अगर खून से नहीं धुले दांत भेडियों के
बढ़ जायेगी पैदावार भेड़ों की
खत्म हो जायेगी घास जंगल की
भेड़ों को बचाने की जद्दोंजहद में भेडियों भिडे है
देसी भेडियों चाहते है विदेशी भेडियों की तकनीक
दूसरे जंगल से आने वाले भेडियों के पास है
ऐसे कई तरीके जिससे खत्म कर सकते है वो रेवड़ के रेवड
एक झटके में
और इन्हीं तरीकों देश में लाने के लिए भेड़ों के दिमाग में छाया डर दूर कर रहे है
देशी भेडिये
घास तेजी से बढ़ेगी
, पानी की कमी में भी घास उग सकती हैऔर भी कई तकनीके है
, बेकार नहीं जाएगा कूड़ासूख गयी घास से भी निकल आयेगा रस
लेकिन ये आसान नहीं है देसी भेडिये के लिये
खतरा है दूसरे के झुंड से
जिसको अभी मांस में हिस्सेदारी नहीं मिल रही है
जंगल के कई हिस्सों में जरूर उनको भेडों
ने चुना है।
लेकन उनकी नजर है पूरे जंगल पर
वो रोक रहे है विदेशी तकनीक
भेड़ों को डराकर
शायद बहक न जाएं
भेड़े ऐसे देशी भेडियों से
यही डर है जो इस वक्त
सत्ता में बैठे झुंड को डरा रहा है
कुछ भेड़ों के जेहन में उठने लगे है सवाल
कुछ भेडें पूछ रही है सवाल
भेडियों का डर यही है
दिमाग में लगाएं हुए ताले कही खुल न जाए
भेडियों के मुंह पर लग न जाए लगाम
इसको लेकर रो रहे है भेडिये
सालों से दादा भेडिया
,नाना भेडिया,मां भेडिया, या बाप भेडिया के सहारे चल रही भेडियों की नयी पीढी है बेहद शातिर है
उसने सब कुछ सीखा है विदेशी भेडियों के ट्रैनिंग स्कूलों में
स्कूल जहां गलती करना नहीं सिखाया जाता
तकनीक के सहारे नुक्स दूर किया जाता है
गुस्से को मुस्कुराहट की जरूरत नहीं
अपने खून में सने दांतों को छुपाना है
बेहद खुशबूदार माउथ वाश से
नफासत दिखे बात चीत के अंदाज में
समझ हो दुनिया के जंगलों की
बाप के नाम पर चुन लेगी भेड़े इनको
भेड़ों को डर है भेडियों के खत्म होने का
वो जानती है पीढियों से इन भेडियों को
खाने का सलीका
. बच्चों को उठाने का सलीकाकिस कदर ये नोंचते है जिस्म
काली भेड हो या फिर सफेद
नोंचने से पहले नारा लगाते है ..........................क्रमश

Sunday, November 4, 2012

एक दिन तुम से मिलूंगा मैं

एक दिन मैं तुमसे मिलूंगा,
एक बार मिलना है मैंने सोच रखा है
आंखों में आंखें डालकर
वो सब बताऊंगा जो तुम जानना चाहोगें,
इतने सारे चेहरों को हटाकर
सारे झूठ को पार कर
मैं आऊंगा, एक रोज तुमसे मिलने.
मेरी मजबूरियां, मेरी जरूरतें ,
उस दिन रोक न सकेंगी मेरे पैर
मेरी हंसी, मेरी आवाज में
कोई पर्दा नहीं होगा उस दिन
मेरी उदासियों में शामिल नहीं होगा कोई झूठ
मेरी बातें किसी अंधें कुएं से आती हुई आवाज नहीं
जबां से कोई छल नहीं
दिन भर मेरे आस-पास मैं रहूंगा
सिर्फ मैं
वक्त के रंग, चलन से दूर
वो लड़का जिसके लिए
आसमान में लड़ी पतंगों की लड़ाईं
की
कीमत दिल्ली की गद्दी से ज्यादा होती थी।
दुनिया के किसी भी आतिशबाजी से दिलचस्प
नालियों मे लड़ते पिल्लों की लडाईं।
मां से खूबसूरत कोई चीज बनी थी दुनिया में
बाप से ज्यादा ताकतवर इंसान
दिन के रथ पर चढ़कर
मिट्टी के महाभारत से निकल कर
पहुंच गया इस शहर में
तब से अब तक मुलाकात नहीं हुई़
इस वादे के साथ मिलूंगा मैं तुमसे
एक रोज, यूहीं बस एक सच के साथ
देख लो मुझे
मैं वही हूं
मैं वही हूं ।

सलीका सीख गया हूं रहने का

इन दिनों
सलीके से रहना आ गया।
कौन से हाथ में पकड़ना है
चाकू और कांटा
कहां से काटना है
और कहां से लगाना है कांटा
वाईन के साथ उठाना है
पहले कौन सा चिप्स
भूने हुए आलू के साथ कौन सी वाईन बेहतर है।
कितने एंगल पर झुकना है,
झुकते हुए आंखें कहा रखनी है
एक लड़की, एक महिला और बूढ़ी औरत के लिए
दायें से रास्ता दे कर आगे निकलना है,
बाएं पर रूकना है.
मेरी मुस्कुराहट का पैमाना भी
लगभग सही हो गया है
मैंने मेहनत से सीखा है
कितने दांतों को खोलना चाहिए
ताकतवर के सामने हंसते हुए
किनती घृणा से डूब जाना चाहिए चेहरा
कमजोर को साथ बिठाकर
मेरी बातों में भी
नपा-तुला अंदाज है
मेरे मजाक में छिपे हुए राज है
आप मुझ पर हंस रहे हो
मुझे जवाब देना है
तुम्हारी पहुंच देखकर
मेरे से गलती नहीं होती है
कार का मेक बताने में
एंटीक की कीमत आंकने में
अक्सर दुनिया के किस शहर की
क्या चीज बेहतर है.
क्यों ऑफिस में
सुंदर सेक्रेट्री हो
शाम के वक्त रखने वाली लड़की की उम्र क्या हो
किस अंदाज में उस लड़की का इस्तेमाल करना है
चारे और प्यार दोनों की तरह
ताकतवर की निगाह में चढ़ जाएं तो
किस खूबसूरती से लड़की को छोड़ देना है उसकी बाहों में
फिर हिसाब रखना है फायदे का
ये सलीका, ये अदब,
ये तरीका मेरी सालों की मेहनत का नतीजा है।
मेहनत इस अदब को सीखने में नहीं
मेरे दोस्त पहले का सीखा हुएं को भूलने में लगी
जिंदा होने में तकलीफ नहीं
मारे हुए को दफनाने में हुई।

Saturday, May 5, 2012

जवानों का लाशों और सांसदों का रिश्ता

महाराष्ट्र में गढ़ चिरौली में एक बारूदी सुरंग के विस्फोट से लगभग एक दर्जन जवान शहीद हो गये है। फिर से नक्सलियों का एक घातक हमला। मंगलवार को ये खबर दोपहर तक सब समाचार माध्यमों से संसद तक पहुंच चुकी होगी। देश की संसद। हर हाल में देश का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाला सांसदों की संसद। क्लिप पर एक कहावत पढ़ देने का दुस्साहस करने पर दो दिन तक बहस होती रही संसद में। मुझे नहीं दिखा या मैने नहीं पढा अगले दिन के अखबार में कि किसी सांसद ने संसद में अपने उन बदनसीब जवानों की मौत पर एक मिनट का मौन रखना गवारा किया हो। क्या गजब की बात है कि जिन पिछड़ों दलितो अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनीति करने वाले जातियों के ठेकेदार संसद में अपमान का मुद्दा उठा रहे है उन्हीं दलितों-पिछड़ों या गरीब सवर्ण परिवारों से ताल्लुक रखते होंगे मारे जाने वाले जवान। लेकिन सांसदों को लग रहा है कि पहले एक सांसद पर की गई एक मजाकिया टिप्पणी पर हिसाब साफ कर लिया जाएं। देश को दिखा जाएं कि मर्दाना ताकत किसकों कहते है। हमारी तरफ एक ऊंगली उठाआोंगे तो हम तुम्हारी भुजा ही काट लेंगे, हमारी निंदा करोंगे तो जबान पर ताले डाल देंगे।
अभी 76 शहीद जवानों के परिजनों के घरों के जख्म सूखे नहीं होंगे जिनकी शहादत अधिकारियों के गलत फैसलों के चलते हुई। जवानों को अपनी जान महज कुछ तुगलकी फरमान के चलते देने पड़ी थी।
बात तो लंबी हो सकती है। जिन नन्हें बच्चों को अपने पिता के चेहरों पर हंसी देखने की आदत पड़ गयी होगी वो उस पिता को मुखाग्नि दे चुके होंगे। लेकिन हमेशा की तरह से आपको किसी सांसद के रिश्तेदार का चेहरा इन शहीदों में नहीं मिलेगा। अर्से से देश के साथ अपना रिश्ता सिर्फ लूट का बना चुके नौकरशाहों पर भी नक्सलियों का सीधा कहर नही टूटता। इस पर आगे कितना लिखे लेकिन मायकोव्स्की की एक कविता आपको शायद ये बात साफ कर दे।..
रंगरेलियों से रंगरेलियों तक गुलछर्रे उड़ाते तुम,
एक गुसलखाने और गर्म आरामदेह पाखाने के मालिक,
तुम्हारी ये मजाल कि सेंट ज्यार्जी के तमगों के बाबत,
अपनी चापलूस मिचमिचाती आखों से अखबार में पढ़ों,
क्या तुम्हें है अहसास है कि ढेर तमाम छुटभैये ,
सोच रहे है, कैसे ठूंस कर भरा जा सकता है तुम्हारा पेट,
जबकि अभी-अभी ही शायद लेफ्टीनेंट पेत्रोव, बम से अपनी दोनों टांगे गवा चुका है,
फर्ज करो वह लाया जाय वध के लिए,
अचानक देखे, अपनी लहूलुहान हालत में तुम्हें,
तुम्हारे मुंह से अब भी सोड़ावाटर और वोदका
की लार टपक रही है गुनगुनाते हुए सेवरयानिन के गीत,

तुम जैसों के लिए अपनी जान हलाक करू
औरतों के गोश्त,दावतों और कारों के मरभूक्खों
बेहतर है मैं चला जाऊं मास्कों के शराबखानों में,

Thursday, March 29, 2012

कत्ल की कारीगिरी

सैंकड़ों बार हुआ है
आंख के सामने
दड़बें से निकाले गये मुर्गे को
बचे पंखों से पकड़ कर
हाथों में तौला गया
और फिर फेंक दिया गया वापस दड़बें में
दड़बें में मचे तूफान में
कोई दूसरा बाहर चला गया हाथों में जकड़ कर
बाएं हाथ में सधे हुए तरीके से पत्थर पर गर्दन
एक ऊंचाईं तक उठा दाएं हाथ में चमकदार चाकू
एक वार और गर्दन गिर गई टोकरी में
फिर बचे कुछे पंखों की सफाईं
सब कुछ इतना साफ और सधा हुआ
आप तारीफ कर सकते है,
मशीन को मात देती कारीगरी की
सफाई से बिछाया गया एल्यूमीनियम का पतरा
खून के धब्बों से बचाने के लिए पन्नी का मोटा कवर
दडबे में फेंके गए
मुर्गें को मिले पल, घंटे या दिन
इसका फैसला फिर से किसी एक उंगली पर है
उस निगाह पर है जो आकर देखती है
और तय करती है अपने पेट के नाप से उसकी गर्दन का नाप
जिस्म को नापती-तौलती उंगलियां
पहरन के पर्दों को बेपरदा करती निगाहें
जिस्म का नाप और अपनी भूख के बीच
दूरी तय करती है कीमत
दड़बे की सलाखों और मकान की खूबसूरती
दुकान का पत्थर और कमरे का बिस्तर
साफ सुथरे रखने की कवायद
मशीन को मात करती कारीगिरी
निगाह और उंगलियों दूसरों की
जिंदगी की मोहलत मुर्गों की
काश कभी जबां सीख लेता
पूछता उन पलों के बारे में
जो पल जिएं दडबे से कसाई के हाथों तक
और हाथों से वापस दड़बें में
और फिर
पत्थर तक वापस आने में।

संसद बड़ी या देश ?

हत्या का आरोप हो धुल सकता है। लूट का आरोप धुल सकता है। पूरे देश को लूटने की कोशिश भी धुल सकती है। भले ही स्कूटर खऱीदने का पैसा न हो एक दशक पहले बेटों को मर्सिडीज में घुमाने का दम आ सकता है। आय से अधिक संपत्ति के आरोपों से घिरे हो तो भी आपका बाल बांका नहीं हो सकता है। आप पर यदि से सब आरोप हो तब भी आपको माननीय ही कहा जायेगा। दुनिया के तख्ते पर किसी को भी ये बेपर की उड़ान लग सकती है। शाय़द ऐसा पारस पत्थर कहां होगा जो ये सब आपके लिए ला दे। लेकिन आपको हम एक पता देते है भारत की संसद। 162 सांसदों के खिलाफ मुकदमें दर्ज है हिंदुस्तान की अदालतों में। ऊपर लिखे सभी आरोपों से घिरे है भारत की संसद के ये वीर। लेकिन ये सांसद है। ये कानून बनाते हैं। आप पर ये आयद है कि आप संसद का सम्मान करे। लूट के आरोपी सांसद हो तब भी, कत्ल के आरोप में हो तब भी, आय से अधिक संपत्ति का आरोप तो आपके लिए हीरे का हार है। आपकी पूछ बढ़ सकती है। और अगर आपने सवाल पूछने की जुर्रत की तो आपको सदन में बुलाकर दंडित किया जा सकता है। आपके खिलाफ प्रस्ताव पास किया जा सकता है। या फिर आपको सरे आम गिरफ्तार कराने की धमकी दी जा सकती है।
ये संसद है। हिंदुस्तान की संसद। विधि द्वारा स्थापित संसद। आपको अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन संसद से बचकर। इन सांसदों को अगर कोई बात नापंसद आ गयी तो आपको बुलाकर गिरफ्तार करा सकते है। जेल में सड़ा सकते है। महिला आरक्षण पर बिल फाड़ने वाले, गला फाड कर चिल्लाने वाले, पार्टी लाईन पर इधर से उधर जाने वाले, मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए सवाल पूछने वाले, पैसा लेकर सवाल पूछने वाले, सत्ता के लिए कभी किसी दल में तो कभी किसी दल में घूमने वाले ये लोग आपको विदेशी एजेंट घोषित कर सकते है।
शायद बात ज्यादा इधर से उधर हो गयी है। इसी ब्ला़ग में कुछ दिन पहले लिखा था कि टीम अन्ना के प्रचार के भूखे लोग जल्दी ही जनता की नजर से उतर जाएंगे। जनता का दबाव कम होगा तो ये राजनेता अपनी औकात में उतर आएंगे। मीडिया के दलाल अचानक मर्यादा-मर्यादा चिल्लाने लगेगे। नाम नहीं बताने की आदत है लेकिन फिर भी विनोद शर्मा जैसे लोग पत्रकारिता करते है। टीवी चैनलों पर बहस करते हुए अगर इन सज्जन को कोई देख ले और ये न जानता हो कि इनके साथ पत्रकारिता का पूछल्ला लगा है तो टके की योग्यता वाले कांग्रेसी प्रवक्ता समझ लेगा कोई भी अनजान आदमी इनको।
अन्ना के जंतर-मंतर के हालिया प्रदर्शन में मनीष सिसौदिया का एक मुहावरा चोर की दाढ़ी में तिनका पूरी संसद के अंतस को हिला गया। अंतस था कि छुई-मुई का पे़ड़। किसी ने छुआ और मुर्झा गया।
बात शरद यादव की। उस क्लिप को जो सबके सामने दिखाई गयी। उसमें शरद यादव संसद को ललकार रहे है कि वो लोकपाल का विऱोध करे। ऐसे बिल को कतई पास न होने दे जो अफसरों पर शिकंजा कस दे जो उनके मुताबिक काम कर रहे है। बात व्यक्तिगत नहीं है लेकिन शरद यादव वो है जो कभी देवीलाल का साथ देते है कभी वी पी सिंह के वफादार होते है, कभी लालू के सहयोगी तो कभी विरोधी। गजब घनचक्कर है। पहले बीजेपी के सहयोग से बनी सरकार के मंत्री। फिर बीजेपी के विरोधी और संसद सदस्य। ये जनाब उस क्लिप में सरकार की भर्त्सना कर रहे है कि उसने आरटीआई पास क्या किया है सरकार पूरी की पूरी पंगु हो गयी है। यानि आरटीआई की ताकत भी आम जनता को गलत मिली है। ये बेचारे जातिय वोटों के सहारे राजनीति करने वाले शरद साहब अपने किसी ऐसी सीट से जीत कर बता दे जहां उनकी जाति के वोट न हो। लेकिन संसद में इनका आदर बहुत है। संसद में पहुंचे है पिछड़ों , गरीबों के और अल्पसंख्यकों के नाम की राजनीति करके। लेकिन इनको दर्द है कि आरटीआई जैसे बिेल सरकार से ताकत लेकर उसी गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के हाथ में दे रहे है। हवाला की डायरी में लाखों रूपये लेने वाले में नाम था इनका। सरकार और नौकरशाही के लिए ऐसे नेता बहुत काम के होते है जो जिन लोगों के वोटों से जीत कर आते है उन्हीं का सर कलम करके सरकार के कदमों में रख दे।
लेकिन बात है संसद की ताकत पर। संसद को चुनता कौन है। वोटों से चुनी जाती है संसद। वोट आम आदमी करता है। लेकिन ये उल्टी बात कर रहे है। ये ऐसे बेटे के तौर पर पेश आ रहे है जो बाप को कह रहा है कि भले ही तुमने मुझे पैदा किया है लेकिन कोई बात नहीं अब तुम मुझे बाप कहो।
एक इंग्लिश कहावत है कि पहले कुत्ते को पागल घोषित कर दो और फिर उस पर गोलियां बरसा दो कोई विरोध नहीं होता। जनता के लिए किए जा रहे आंदोलनों को पहले तो किसी का नाम दे दो फिर उस आदमी को बदनाम कर दो तो पूरा आंदोलन बदनाम हो जाएंगा। दरअसल टीम अन्ना के सदस्यों की प्रचार की भूख का फायदा उठाकर पहले तो इस आंदोलन को ठीक किया सरकार ने फिर इन्हीं बौंने नायकों की लंबाईं से फायदा उठाकर पूरी जनता के मौलिक अधिकार को निपटाने में लग गयी है सरकार। संजय निरूपम जैसे सांसद जिनको आम जनता में कोई ईज्जत नहीं होगी। पहले शिवसेना में जाकर दम माल कूटते रहे। और फिर चमत्कारिक तौर पर धर्मनिरपेक्षता के लंबरदार बन गये। गांव में ऐसे आदमी को क्या कहते है ये लिख दे तो ये हमको हिटलर के खानदान से साबित कर देंगे। सोमवार को संसद में जनतंत्र के लिए लगा रो ही देंगे। गजब का समर्पण है जनतंत्र के लिए इनका।
लेकिन इस वक्त सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अभिव्यक्ति के लिए अब लाईसेंस लेना होगा। यदि संसद में डेढ़ सौ से ज्यादा सांसदों पर आपराधिकर मुकदमें चल रहे है और इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर हुई है तो ये बात कहने वाले को फांसी की ताईद करेंगे।
उन सब सांसद साहब को भी देख लीजिये जो हाल में यूपी के चुनाव जीतकर पहुंचे है। आय से अधिक संपत्ति के चलते कभी कांग्रेस के रहमो-करम पर रहने वाले जनाब को मालूम है जाति और धर्म की राजनीति के अलावा उनकी कोई थाती नहीं है। कभी अंग्रेजी स्कूलों में आलू के गोदाम बना देने की घोषणा करने वाले जनाब ने मौका मिलते ही अपने बेटे को अंग्रेजी बोलने वाले देश में पढ़ने भेजा। कम्प्यूटर से दुश्मनी करते रहे लेकिन फ्री में कम्प्यूटर देने की घोषणा करने में परहेज नहीं किया।
दरअसल देश में सबसे ज्यादा लूट का माहौल तैयार किया हुआ है अमेरिका पलट अधिकारियों और नेताओं की टीम ने। एक तरफ आप बाईस रूपया और अट्ठाईस रूपये को अमीरी मान रहे है दूसरी तरफ मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे लोग पांच लाख करोड़ रूपये की सब्सिडी उद्योगपतियों को दे रहे है। और नजर मनरेगा पर मिलने वाली मजदूरी पर है।
बात बहुत साफ है कि विरोध की आवाज भी अब संसद में बैठे जाति के नाम पर राजनीति करने वाले लोगों को बर्दाश्त नहीं है। थोड़े दिन बाद वो किसी की लंबाई पर नाप तय कर देंगे। और हो सकता है कि संसद से एक डिक्शनरी पास हो जो आपको ये बताएं कि क्या संसदीय है और क्या नहीं।
मुझे लगता है कि नवनीता देवसेन के शब्द माननीयों की भावना को ज्यादा साफ करते है
....शूद्र वंश में जनमा था,फिर भी देखों सीमाहीन है दुस्साहस,
राजराज्य में जगह पाकर भी संतुष्टि नहीं, स्वर्ग की मांग करता है
उसने सोचा था बाहुबल कुछ नहीं होता,
तपोबल से जीत लेगा वो न्यायसंगत अधिकार,
पल भर में सुधार दिया उसकी गलती को इस्पात ने,
शंबूक का शिरच्छेदन, इस ग्रह पर, अब तक नहीं रूका है।

Monday, March 26, 2012

रास्ते का आंखों देखा हाल

शब्द खोजना, काफी मुश्किल काम है,
कायदे से कुछ नहीं मिलता।
अंधेरों में भी जुगनू दिख जाते है
मर्यादा तोडते हुए
रोशनी में चेहरों पर दिखता है अंधेरा।
अजब सा घालमेल हो गया
हंसने की कोशिश में रोते हुए लोग
भद्दे दिखने लगते है बेहद खूबसूरत चेहरे पास आते ही
दूर से हाथ देकर ग्राहक रोकता वो काला दागदार चेहरा
खूबसूरत हो जाता है अचानक
ताकतवर दिखते इंसान
कमजोरियों की परतों में गिड़गिड़ाते हुए
रोटियां को तडपने वाले
वक्त पर गुर्रा रहे है
एकांत में खिले चेहरे
भीड़ में अजनबी में बदल रहे है
बात सिर्फ शब्द खोजने की है
मैं रिश्ते में कहा घुस जाता हूं
अभी जिसे मैंने कहा था नेता
वो टके का चोर निकला
नशे में चूर आदमी के
हाथ से गिरे रूपये को लेकर झूम रही है बुढिया
बुझी उम्र के साथ
गरजती आवाज नारे लगा रही है
भीड़ आईसक्रीम का रेट पूछ रही है
झूठ का ठेका लिए
सच की सीढ़ी पर चढें चेहरे
ना सच बोल रहे है ना झूठ
बस डर से भीगे शब्दों में
रोटियां तोल रहे है
मैं खोज रहा हूं शब्द
सही शब्द
बता सकूं
रास्ते का आंखों देखा हाल।