Monday, March 26, 2018

बलात्कारी और राजनेताओं की जुगलबंदी में मारा जाना किसके खाते में आयेगा। हाईकोर्ट के ऑर्डर को किस तरह मौत के वारंट में बदल दिया राजनेताओं और रीढ़विहीन नौकरशाही ने।। तुम्हारा डेटा गया किसी का बेटा गया।

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25 अगस्त को फैसले के कुछ ही देर बाद जहां लाईव चल रहा था, उससे कुछ दूर ही धुआं ही धुआं नजर आऩे लगा। अचानक भीड़ ने आगे बढ़ना शुरू कर दिया। और पार्क के पास खड़ी हुई मी़डिया की गाड़ियों में आग लगाना शुरू कर दिया। और शुरू में अपने बचाव के लिए भागे रिपोर्टर कुछ ही देर में वापस घटनास्थल पर पहुंच गए। आग ही आग दिख रही थी। हांफते-भागते ( जैसे भी टीवी में उत्तेजना पैदा की जा सकती है) आग के चारों और चक्कर काटते हुए उस पार्क के आसपास ठहरी हुई भीड़ को हत्यारों की भीड़ में तब्दील कर दिया। हर शब्द से आग निकल रही थी। लग रहा था कि कारों और बाईक को जलाने वाली आग को लील जाएंगी हम बौंनों के मुंह से निकली आग। सेक्टर पांच के चौराहे के पास सरकारी बिल्डिंग के शीशे सामने पड़े थे। सुरक्षा बलों की गाड़ियों की तादाद बढ़ती जा रही थी। और फिर उनके साथ आगे- आगे दंगाईंयों का पीछा शुरू हो गया। कुछ दूर चलने पर पेट्रोल पंप के पीछे छिपे हुए कुछ लोग दिखे।तब तक कैमरा संभालते कि मुंह ढ़के एक अफसर की गुस्से भरी आवाज निकली कोई शूट नहीं । आपने देखा है ना क्या किया इन लोगों ने। पीछे जलती हुई ओबी वैन और गाड़ियों को कवर करने के बाद कुछ सौ मीटर दूर भागते हुए बुजुर्गों, औरतों और बच्चों को एक जैसा मान रहा था लेकिन उससे भी ज्यादा कानून के रखवालों की लाठियों की मार को जानता था। 16 दिसंबर के प्रर्दशनों के दौरान राजपथ से लेकर जंतर-मंतर तक स्वाद मालूम था। ( ये संयोग हो सकता है कि तेजेन्द्र लूथरा उस वक्त जंतर मंतर पर भी मौजूद थे और इसबार चंडीगढ़ के आला अफसर। हालांकि वो इस वक्त यहां मौजूद नहीं थे। जैसा मुझे याद आता है)
और कैमरा खुद ब खुद आगे बढ़ गया। सामने गोल पार्क से बदहवास भागते हुए उन लोगों को करीब से जाकर देखने की इच्छा थी लेकिन ऐसा होना मुमकिन नहीं था।
खैर रात भर वो जलती हुई गाड़ियों ने जैसे पूरे देश का मन जला कर राख कर दिया। कुछ पता नहीं चल रहा था कि कितने लोग घायल हुए और मरने वालों की तादाद कितनी थी। इसी बीच अपनी बौंनी योग्यता दिखाना जरूरी था जिसकी मारकाट चल रही थी। जिस बौंने को बैग दिख रहा था वो उसको उठाकर कैमरे के सामने नाच रहा था। कुछ ने शीशे हाथों में उठाएं हुए थे। मेरे सामने भी एक बैग था जिसमें कुछ पत्थर भरे थे और कुछ रोटियां। मेरे लिए जैसे सबकुछ उगलदेने का वक्त था। फिर दूसरे पार्क में गया। पार्क में बैग ही बैग बिखरे थे। पन्नियां जिन पर रात बिताई गई थी। सामने टूटी हुई दीवार। खिड़कियों के शीशे टूटे हुए थे। पार्क में बिखरे हुए बैंगों को देखा, छूकर देखा लेकिन किसी में पत्थर नहीं निकला। हल्के-फुलके कपड़ो से भरे हुए बैग। अचानक सामने इंसानी खून और मांस का मिला-जुला धब्बा। खून इधर उधर नहीं फैला था और देखने भर से समझा जा सकता था कि गोली लगने के बाद जहां था वहीं ढेर हो गया था। एंबुलेंस की आवाज ने कानों के पर्दों तक पहुंच की हुई थी। और अस्पताल में पहुंचा था तो हर तरफ खून से भीगे कपड़ों से भीगे डेरे के अनुयायी थी। और रात बीत गई। रात भर दिमाग में जली हुई गाड़ियां गूंजती रही। अस्पताल में बिन किसी तीमारदारों के पड़े हुए कराहते हुए लोगों के बीच एक पुलिस वाला भी अपने बिस्तर पर बैठा हुआ था। उसको भी शायद पैर में चोट लगी थी।
अगले दिन सुबह उठा। और उन तमाम जगहों पर पहुंच गया जहां एक घंटे तक दंगे के हालात दिख रहे थे। और फिर जैसे सड़कों से आवाज आनी शुरू हुई। पत्थर कहां थे। वो हथियार कहां थे, वो आग लगाने वाली कैने कहां थी। वो दंगा करने आएँ हुए लोगों की तैयारी कहां थी।
इतने सालों में कई दंगें कवर किए। अगले दिन सड़कों पर फैले पत्थरों और ईंटों के ढेर अगले दिन के अखबारों के पहले पन्नों पर छपते है। लेकिन यहां तो सड़कों पर पत्थर दिखे नहीं। फिर याद आया कि कल भी नहीं दिखे थे सिर्फ इक्का-दुक्का पत्थरों के अलावा। फिर याद आया कि सिर्फ तीन सौ मीटर के आसपास के दायरे में खड़ी हुई गाडियों में आग लगी थी। और उन आसपास की बिल्डिंगों में तोड़फोड़ हुई थी और कही नहीं। फिर सेक्टर सोलह में पहुंच कर देखा तो एक एचडीएफसी बैंक और एक रैस्टोंरेंट को जलाया हुआ था। लेकिन उसतक के रास्तें में किसी भी टूट-फूट या फिर किसी मकान पर हमले के कोई सबूत नहीं दिख रहे थे। भागते भागते जिस तरह से पार्क में रखे पत्थरों को भी नहीं छुआ गया। रास्तें में कई मकानों के सामने चिनाई के लिए रखे हुए ईंट के चट्टों को भी नहीं छुआगया था।
यहां तक कुछ ड़डें दिखे थे तो वो पार्क के पेड़ों से तोड़े गए थे।
ऐसे में लगा कि ये कैसी भीड़ थी जो पूरे शहर को फूंक देने पर आमादा थी। और औंरतों, लड़कियों, बुजुर्गों और बच्चों से भरी हुई।

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