Monday, March 26, 2018

कभी कभी मुड़ कर देख देना दीवानों, हमने किस लिए चूमे फंदें और सीने पर खाईं गोलियां। राजपरिवारों को चुनने वाली जनता। (आजादी के दीवाने ---1)

देश भर की यात्रा से लौटा तो अगस्त महीना सामने आ खड़ा हुआ। अगस्त में धर्म के त्यौहार तो कई होते है लेकिन अगस्त का त्यौहार तो देश का त्यौहार होता है। ऐसे में देश भर में घूमते हुए राजाओं की कहानी देखी कई राजाओं ने बदलाव के रास्ते को चुना लेकिन ज्यादातर राजाओं को देखा, जो अंग्रेजों के टुकड़ों पर पले पूर्वजों से हासिल महलों और किलों को अपने कब्जें में रखकर उनको होटलों में बदल कर पैसे कमाने मेें लगे हुए है और बहुत से चुनाव जीत कर जनता की नुमाईंदगी कर रहे है उसी जनता की जिसकी आजादी की पहली जंग में ये लोग अंग्रेजों के पालतू कुत्तों की तरह जनता पर ही झपट रहे थे। 
ऐसे में लगा कि इतिहास के इस पहलू को भी देखा जाना चाहिए। ऐसे में कुछ लोकगीतों और युद्द के वक्त के गवाहों की नजर से इस को देखने की कोशिश करता हूं और कुछ आपके साथ शेयर करता हूं। आपको भी लगे तो आप भी शेयर कर सकते है।
"प्राचीन वंशक्रम और महान युद्ध परंपराओं का दावा करने वाले राजस्थानी राजाओं ने राष्ट्रीय विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेंजों को अपनी सेनाओं का उपभोग करने दिया। इस तरह से उन्होंने अपनी और शेष भारत की जनता की इस आशा को झुठला दिया कि वो अंग्रेज विरोधी धर्म युद्द में शामिल होंगे। अगर राजपूताना ने विद्रोह किया होता तो आगरा कैसे बचा रह पाताऔर दिल्ली में हमारी फौंजें कैसे रह सकती थी।" (मेलसन)
"मध्य भारत में ग्वालियर का स्थान महत्वपूर्ण था। सिंधिया पर जनता का बहुत दबाव था, किंतु उसने इसे झेल लिया।
....अगर उसने (सिंधिया ने) उनका (अपने विद्रोह उत्सुक सैनिकों का ) नेतृत्व किया होता और उसके भरोसेमंद मराठों की तरह युद्ध के मोर्चों पर पहुंचा होता तो परिणाम हमारे लिये बहुत विनाशक होते। वह हमारे कमजोर मोर्चों पर कम से कम बीस हजार टुकड़ियां लेकर आया होता। आगरा और लखनऊ का उसी समय पतन हो गया होता। हेवलॉक को इलाहाबाद में बंद कर दिया गया होता और या तो उसे घरे लिया गया होता या उसके सहारे विद्रोहियों ने बनारस से कलकत्ता तक मार्च किया होता। उन्हें रोकने के लिए न तो कोई सैन्यदल होता और न कोई किलेबंदी।" (रेड पैंफ्लेट का अनाम लेखक)
"सिंधिया की वफादारी ने भारत को अँग्रेजों के लिए बचा लिया।" (इन्स)
पटियाला और जींद के सिख राजाओं और करनाल के नवाब ने अपने सारे संसाधन अंग्रेजों को उपलब्ध करा दिए और सेना में भरती द्वारा अंग्रेजों के प्रमुख आधार स्थल अंबाला से दिल्ली तक सड़क खुली रखने का जिम्मा लिया, जिससे विद्रोहियों को राजधानी में घेर हुए अंग्रेजों तक कुमुक पहुंच सकी।
समाचार -पत्रों की किपोर्ट पढ़ने के बाद अपनी घटनावार टिप्पणियों में मार्क्स ने लिखा ;
"अंग्रेजी कुत्तों का वफादार सिॆंधिया वैसे ही उसके सैन्य दल, पटियाला का राजा, अँग्रेजों की मदद के लिए सैनिकों की कमान भेज रहा है। शर्म हैं"
विद्रोहरत उत्तर और भारत में अंग्रेजों के पहले ठिकाने मुंबई को जोड़ने वाला क्षेत्र था राजपूताना। सिर्फ राजपूताना ही नहीं , बल्कि सारे देश के लोगों को आशा थी किि राजपूत राजा अंग्रेजों को समुद्र पार खदेड़ने में मदद करेंगे, किंतु ये सामंती राजा अंग्रेजी सत्ता से चिपरके रहे और अपना राष्ट्रीय कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएं। बुंदी के प्रसिद्द दरबारी कवि सूरजमल ने राजपूताना राजाओं को राष्ट्रीय विद्रोह में शामिल करवाने की पुरजोर कोशिश की, पर वह असफल रहा था उसने अपने तीव्र मोह भंग और रोष को सशक्त कविता में उतारा है। कुछ दोहे आप पढ़ सकते है।
" सुअर उजाड़ रहे हरियाली
हाथी बिगाड़ रहे तालाब
शेर डूबा शेरनी के प्यार में
भूला अपना दांव
अपने को कहोगे कैसे सिंह तुम ठाकुर
तुमने परदेसियों से दया की भीख मांगी
जो अपने पंजों से हाथी को गिरा दे
वही है काबिल इस नाम का , न कि बुजदिल
अपने पुरखों के गुण भूल
विदेशियों की तुम करते चापलूसी
और आलस-विलास में करते
अपने कीमती दिन बरबाद
सारे वैभव से टूटे फूटे झोंपड़ों
की कच्ची दीवारों के तिनके तक
छि ; छि; ऊंचें उऊंचे राजमहलों
के राज करने वालों पर
महलों के लुटेरों के लिए
झोंपड़ियां तो बस अभिशाप हैं
झोंपड़ियों को लूटने चलेंगे तो
बस मौत ही दे पाएंगे।
जब सामंत कवि ही विद्रोह से इस तरह से प्रभावित हो तो लोक कवि तो और भी बेफिक्र हो कर लिख रहे थे। जोधपुर में सिंहासनारूढ़ महाराजा के बाद दूसरे सबसे प्रभावित व्यक्ति अउवा के ठाकुर ने अपने स्वामी-महाराज- और अपने अधिराज के अधिराज-अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उसने आसपास के कृषकों और कुछ देशभक्त सामंती मुखियाओं को एकत्रित ककर जोधपुर की शाही सेना को हरा दिया। अंग्रेजों के राजनीतिक एजेंट मांक मासन को युद्ध में मार दिया। और राजपूताना में गवर्नर जनरल के अंग्रेज एजेंटों को महीनों तक चुनौती दी। अउवा के उस संघर्ष को लोकगीतों में अर्से तक गाया गया। होली पर गाएँ जाने वाला एक लोकगीत आप पढ़ सकते है।
अरे, हमारे काले लोगों ने
बनियों की हरी-भरी जमीन पर
गाड़ दिये है अपने झंडे
हमारा राजा तो दे रहा है अंग्रेजों का साथ
उसने लाद दिया हम पर युद्ध
गोरे फिरंगियों के सिर पर काली टोपी
काली टोपी वाले गोरे
हकाल रहे हैं हमें
विदेशियों की बंदूकों की गोली
कर रही है मिट्टी को ही घायल
और हमारी बंदूकें
उड़ा रही है उनके शिविर
यह तुम्हारा प्रताप है अउआ
हे प्रतापी अउवा -
इस धऱती को धारण करने वाले
तुम्ही हो , अउवा
जब गरजती हैं हमारी बंदूकें
दहल जाता है अरावली पहाड़
अउवा का मालिक करे प्रार्थना
देवी सुगाली से
और लो, लड़ाई शुरू...
अउवा है भूमि लड़ाकू लाड़लों की
हो लड़ाई शुरू
अरे राजा की घुड़सवार सेना
कर रही पीछा अपने ही काले देशवासियों का
अगर अउवा के घोड़े उन्हें
मार रहे दुलत्ती पीछे
लड़ाई चलने दो
युद्द करते रहो
विजय होगी तुम्हारी ही
अरे लड़ाई चलने दो
युद्ध करते रहो।
....... पार्ट --1

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