Monday, March 26, 2018

मक्कारी मुझ से सीखों, झूठ को सच में बदलना मैं सिखाता हूं। आखिर दिल्ली में बैठता हूं मैं। जो मैं कहूं उसको मान लो ना।

मक्कारी मुझ से सीखों, झूठ को सच में बदलना मैं सिखाता हूं। आखिर दिल्ली में बैठता हूं मैं। जो मैं कहूं उसको मान लो ना।
मार्क्स एंगेल्स सरनी यानि मार्क्स एंगेल्स रोड़। ये सड़क अगरतला की सबसे सुरक्षित सड़क मानी जाती है। अगरतला एक छोटा शहर है और आप होटल से निकल कर यहां तक पैदल घूमते हुए भी आ सकते है। मैं अपने माईक के साथ इस रोड़ पर जा रहा था। लेकिन रोड़ के मुहाने पर ही बैरियर के साथ खड़े हुए आधा दर्जन पुलिसवालों ने रोक लिया। मीडिया का कार्ड देखा। तहकीकात की और फिर पूछा कि क्या काम है। मैंने कहा कि मैं मुख्यमंत्री आवास के सामने से एक वॉक थ्रू करना है। और आवास में जाकर उनका चुनाव का प्रोगाम पूछना है। इस पर उन्होंने कहा कि आप अंदर नहीं जा सकते है। मैंने कहा कि भाई मैं सबसे सादगी पसंद मुख्यमंत्री से मिलने जा रहा हूं मेरे पास पीआईबी कार्ड है जो भारत सरकार सिक्योरिटी वेरिफिकेशन के बाद देती है। लेकिन पुलिस वालों ने कहा कि यहां किसी को कोई कैमरा करने की इजाजत नहीं है। मेरे लिए कई मुख्यमंत्री की गली के बाहर ऐसा हुआ कि मुख्यमंत्री के घर के बाहर कोई इस तरह की इजाजत नहीं दे रहा हो। लेकिन यहां बात दिल को चुभ रही थी क्योंकि ये मानिक सरकार का सरकारी आवास है।
मानिक सरकार ये एक ऐसा नाम है कि उसके साथ सादगी जुड़ जाती है। दिल्ली से त्रिपुरा के लिए निकला था तो स्टोरी पर चर्चा हो रही थी। और आमफहम बात के आधार पर लगा कि एक आधा घंटा तो ऐसे मुख्यमंत्री के ऊपर ही हो जाएंगा जो किराए के घर में रहता है, कोई अपना घर नहीं है, और फिर सब्जी लेने खुद बाजार जाता है या फिर साईकिल से चलता है। आखिर ऐसा होना आज के वक्त में मुमकिन नहीं लगता। फिर मैं त्रिपुरा चला आया। खबर कवर करता रहा। कई पार्टियों के नेताओं से बात की, इंटरव्यू लिए और सादगी की चर्चा की। सबने कहा कि यार किराएं के घर में तो नहीं रहता मुख्यमंत्री ऐसे ही रहता है जैसे तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री रहते है। कभी किसी ने साईकिल पर चल कर बाजार जाते हुए भी नहीं देखा। किसी को सब्जी खरीदते हुए भी नहीं दिखा। मैं पार्टी के सेक्रेट्री से मिला। विजयेन धर। पार्टी के ऑफिस के अंदर के बरामदे में दशरथ देव की प्रतिमा लगी थी। उसको पार कर जीने से ऊपर पहुंचा और फिर विजयेन धर के कमरे में। त्रिपुरा में चुनाव की इस गहमागहमी से पहले हर रोज सरकार के मंत्री पहले पार्टी दफ्तर जाते है और फिर वहां अपने अपने कार्यायल। पार्टी दफ्तर में उनको काम दिया जाता है और काम का हिसाब लिया जाता है शाम के वक्त। ये बात मुझे पार्टी दफ्तर में पता चली और इस बात की ताईद की प्रदीप चक्रवर्ती जी ने। प्रदीप चक्रवर्ती सीनियर जर्नलिस्ट है और त्रिपुरा में गांव गांव की रिपोर्टिंग कर चुके है। उनकी एक किताब जिसमें उन्होंने आदिवासी इलाकों में गरीबी, भूखमरी का उस वक्त का वर्णन है जब ये देश के मुख्य अखबारों के अंदर आखिरी पन्ने के छोटे से कॉलम में भी जगह नहीं पा सकता था। खैर मैंने विजयेन साहब से पूछा कि मुख्यमंत्री का क्या प्रोग्राम है। इस पर थोड़ा नाराजगी के साथ विजयेन ने कहा कि आप मीडिया वालों को कोई काम नहीं है दिल्ली में बैठकर कुछ भी छापने से। क्या साईकिल से चलता है और किराएं के घर में रहता है जैसी कहानियां छापते रहते है। बात हिंदी में कर रहे थे। हिंदी समझ आ रही थी। खैर मैंने कहा कि मुझे आपका एक इंटरव्यू करना है। इंटरव्यू शुरू हुआ और मैंने हिंदी में सवाल किया तो उन्होंने कहा कि वो हिंदी में जवाब नहीं दे सकते है अंग्रेजी में ही जवाब देंगे। मैंने कहा कि आप तो ठीक हिंदी बोल रहे है लेकिन उन्होंने कहा नहीं मेरी हिंदी इतनी साफ नहीं है। खैर इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि शांति वापस लाया था लेफ्ट फ्रंट और देश भऱ में जिस तरह कॉरपोरेट साजिश कर रहा है उससे त्रिपुरा में भी संकट है। खैर बातचीत में दायरा घूमता रहा कि किस तरह से इस वक्त देश में कॉरपोरेट वामपंथी सरकारों के पीछे पड़ा हुआ है। मैं सोच रहा था कि क्या जनता के वोट पर इनको कभी यकीन होगा कि नहीं। खैर मैंने बहुत सी बाते समझने की कोशिश की। जिसमें ज्यादातर बातों का रिश्ता इसी बात से था कि कैसे त्रिपुरा में वाम मोर्चे को इतना समय बदलाव के लिए मिला और उसने किस तरह इस समय का इस्तेमाल आम जनता की जिंदगी को बेहतर करने के लिए किया। प्रदीप चक्रवर्ती जी मेरे साथ थे। उन्होंने आखिर में हंसते हुए कहा कि दिल्ली में बैठकर एसी रूम से तय कर लेते हो क्या कि मुख्यमंत्री कहां रहेगा और किस पर चलेगा। हर चीज की एक्सट्रीम वही से तय करते हो क्या। मेरे लिए ये उलझन का समय था। मैं जिस मुख्यमंत्री की सादगी का फैन था क्या मैं अपने ही हमपेशा लोगों की अतिउत्साह का शिकार था। या मैं किसी ऐसे षड़यंत्र का हिस्सा था जिसकी पूरी कोशिश इस देश को ऐसा झूठ परोशने की कोशिश है जो सच हो जाएं। आखिर दिल्ली से निकलने वाले पत्रकारों को किस तरह से पता चलेगा कि शांति को अपने 15 साल के अनवरत शासन की उपलब्धि मानने और बताने वाली सरकार के सादगी पूर्ण मुख्यमंत्री के घर के सामने खड़े होना तो दूर की बात है, उसके सामने की सड़क से गुजरना भी मुश्किल है। और सुरक्षा अधिकारी का कहना है कि सुरक्षा के लिए ये जरूरी है।

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