कमरे में हर तरफ सपने तैर रहे थे। ये नन्हें से खूबसूरत से सपने थे। अपनी उम्र की खुशनुमा शरारतों से कमरे को भरते हुए। मैंने सौमित्र को इशारा किया। तीन साल से भी ज्यादा समय से सौमित्र के साथ काम कर रहा हूं तो उसको ऐसे इशारे का मतलब मालूम है कि अगले शूट के लिए कह रहा हूं, और जल्दी से समेटना है। सौमित्र ने इशारे में ही कहा कि समझ गया। लेकिन इस बार गलत समझा था सौमित्र। और जैसे ही उसने कहा कि मेरे शाट्स पूरे हुए चलो तभी सुधा जोशी जी ने माईक में चैनल का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि अब रिपोर्टर आप से कुछ बातें करेंगे। और मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही माईक मेरे हाथ में आ गया। अब माईक मेरे हाथ में था, मेरे सामने बैठे श्रोता उत्सुकता से सुनना चाहते थे और मैं बेआवाज था। पहली बार जिंदगी में मेरे पास शब्द नहीं थे। ( जिंदगी में दर्द भरे हुए हादसे, आपदाएं ,आतंकी वारदात सभी कुछ कवर किया, पीटीसी किए, वॉकथ्रू किए, और लाईव भी दिए लेकिन बेआवाज नहीं हुआ) लेकिन आज मेरे गले से आवाज निकल ही नहीं रही थी। सामने मन की आँखों से मुझ पर नजर गड़ाएं बैठे कई दर्जन बच्चों को मैं अपनी शारीरिक आंखों से देख रहा था। मेरी आंखों से कुछ छलक रहा था और मैं रोकने की कोशिश में था, और सुधा जी ने देख लिया और कमरे में जो कुछ आंखे मौजूद थी उन्हीं में से एक सुधा जी ने मुझसे माईक ले लिया और खुद से बोला कि रिपोर्टर आपको धन्यवाद कह रहे है। भावुक हो गए है फिर कभी आपसे बात करेंगे। ये मेरा संवाद था एक बौंने का दृष्टिविहीन दिव्यांगों के साथ। लगभग चालीस मिनट के इस संवाद में मैं तो वही पूछ रहा था जो अक्सर पूछता रहा लेकिन जो सुन रहा था वो सीधा दिल में उतरता जा रहा था। लग रहा था कि बर्फ की एक लहर शरीर को खौला रही है। उनके पास मेरी जैसी आंखें नहीं थी या शायद मेरे पास उनके जैसी आंखें नहीं थी और मैं उनके सपने नहीं देख पा रहा था। वो सपने सीधे सपने थे। ऐसे सीधे की हम आंखों वालों की टेढ़ी-मेढ़ी जिंदगी उनको समझ ही नहीं पाती थी। और इसीलिए जब एक बेहद मासूम से लड़के ने जिसकी आंखों ने कभी रोशनी और अँधेरा का फर्क ही नहीं किया बडे सधे हुए स्वर में कहा कि हम तो दुनिया से बस यही चाहते है कि वो हमको बराबरी का साथी समझे और बस हम पर दया न करे। और मैं अपनी दुनियावी समझ से बस इतना ही समझ कर इस कमरे में घुसा था कि इन बच्चों पर बस दया की जाती है और मेरी समझ और उनकी बातों के दर्द और सच्चाईं के अहसास से टकरा कर गले के अंदर कुछ रूंध सा गया था जो किसी भी आवाज को बाहर नहीं आने दे रहा था। ये गुजरात चुनाव के एक ऐसे रंग की कहानी थी जो मुझे अंदर तक रंग गया।
गुजरात चुनाव कवर कर चुका था। दुनिया में हीरों के सरताज बने हजारों करोड़ के बिजनेस एम्पायर को संभालने वाले व्यापारियों से लेकर गंदे गटर से निकलने वाले पानी में मिट्टी को धोकर रोटी कमाने वाली उज्जवल मुस्कान की मालकिन लड़कियों तक को कवर किया। ( इस पानी से निकलनी वाली बदबू से आप नाक पर रूमाल रख कर निकलते है और एक छींट भी कपड़े पर पड़ जाएं तो कपडे़ फौरन उतार कर नहाने पहुंच जाते है) इसके अलावा मुझ बौंने के लिए अहम किसानों और शहरी मध्यमवर्ग की कवरेज तो शामिल थीं ही। ऐसे में अहमदाबाद में बस घूम रहा था, आईआईएम की दीवार से सटे हुए फुटपाथ पर घर बनाएं हुए परिवारों को देखता हुआ गुजर रहा था। खाली मैदान पर तिरपाल या रंगबिरंगी पन्नियों के नीचे अपनी दुनिया में मगन मजदूरों की दुनिया या फिर सुबह सुबह सीद्धी सईद मस्जिद से अगले चौक पर सुबह से मजदूरी इंतजार करते हुए मजदूरों की भीड़ इन सबके बीच गुजरता हुआ जा रहा था। एकाएक एक ब्रिज को पार करते हुए बोर्ड पर नजर पडी। पटेल ब्लाईंड स्कूल। बस लगा कि क्या हमने कभी इन दृष्टिविहीन लोगों से पूछा है कि उनको भी सरकार चाहिए की नहीं, सरकार से पूछने की जरूरत ही नहीं क्योंकि उसने अभी बड़े बड़े वादे करने शुरू नहीं किये है और नहीं वोट पाने के लिए आंखों पर पट्टी बांध कर उन जैसा दिखने की नौटंकी शुरू नहीं की है तो इसका मतलब साफ है कि वो इनकी वोट इतनी नहीं मानते है। और मैं इस स्कूल में अंदर चला गया। किसी ने रोका नहीं बल्कि कॉर्डिनेटर साहब के पास पंहुचा दिया। बेहद सज्जन व्यक्ति। और जैसे ही मैंने कहा कि मैं एक न्यूज चैनल से हूं और दिव्यांगों से इस चुनाव को लेकर उनकी राय जानना चाहता हूं तो उनके चेहरे पर एक सुखद आश्चर्य उभर आया। और उन्होंने कहा कि आप क्या क्या मदद चाहते है वो हम कर देंगे। इस पर मैंने कहा कि मुझे कुछ बच्चों से बात करनी है जिनकी वोट बनी हुई हो। उन्होंने फौरन अपने फैकल्टी को बात किया और कहा कि बच्चों को प्रेयर रूम्स में मिलवा दीजिए ताकि ये प्रेयर हॉल के दौरान की उनकी कुछ एक्टिीविटी भी देख सके। और फिर उस तरफ सुधा जोशी जी से मुलाकात हुई। सुधा जी ने कहा कि ये उनका पहला मौका है कि कोई चैनल या रिपोर्टर इस लिए राय जानने आया हो अभी तक तो कोई उनके पास नहीं पहुंचा। फिर मैं उनके साथ प्रेयर रूम में पहुंच गया। फर्स्ट फ्लोर तक बच्चों को बिना किसी मदद के एक दूसरे से हंसी-ठिठौली करते हुए रैम्प वाले जीने से ऊपर नीचे आते जाते देख रहा ता। जैसे ही कमरे में बच्चों को आते हुए देखा तो उनकी मुस्कुराहटों से घिर गया। एक दूसरे को शरारतों से ठेलते उसी तरह से जैसे अपने बचपन को जी कर आया था ठीक उसी तरह से उनको करते हुए देख रहा था। पहली बार इतने बच्चों को एक साथ देख रहा था जो मुझे देख नहीं सकते थे। उनकी मुस्कुराहटों ने शरारतों के साथ मिलकर एक सम्मोहन का भंवर बना दिया था और मैं उसमें निकलने की कोशिश करना बेकार समझ कर उसी में डूब रहा था। खैर बच्चों को सुधा मेम ने बताया कि आज एक चैनल वाला आपसे बात करने आया है। कितने बच्चों के वोटिंग कार्ड बने हुए है। बच्चों के बीच एक दम से शोर उभर आया ये उत्सुकता की उत्तेजना थी। वो किसी रिपोर्टर को देखना चाहते थे अपने मन की आंखों से। उसको सुनना चाहते थे कानों से। और बिना किसी तैयारी के कही भी पहुंचने की आदत के मुताबिक मैं बौंना शुरू हो गया। बच्चों के चेहरों पर माईक लगा रहा था और वो बिना किसी माईक को देखे बात कर रहे थे। मैं भीग रहा था उनकी इ्चछाओं के आगे। उनका दर्द था कि कभी कोई उनसे मिलने तो आए। वही फैकल्टी भी थी, वो भी ज्यादातर दिव्यांग ही थे। बातचीत हुई तो उनका दर्द भी कुछ इसी तरह का था और सरकारों का हाल शायद उनके पास ज्यादा साफ था। गुजरात उन राज्यों में शामिल है जिन्होंने दिव्यांगों को लेकर यूएन रिजॉल्यूशन को अभी भी विधानसभा में पास नहीं किया है। बच्चों को अच्छी खासी समझ थी। ( प्रेयर हॉल्स में रोज दो अखबारों का वाचन होता है वो मोदी और राहुल गांधी दोनों के बारे में बात कर रहे थे। उनको सड़क, बिजली पानी और दिव्यांगों के रोजगार की बातें भी याद थी। लेकिन ज्यादातर बच्चों ने आंखों वालों के रूखे व्यवहार की बात की। उनका कहना था कि आम आदमी आखिर ये क्यों नहीं समझता कि उनको दया की नहीं बराबरी के व्यवहार की जरूरत है। हर बार दया दिखाकर हमकों अंदर से कमजोर करना कब बंद होगा। और यही बातें मुझे लगाता उनके सामने कमजोर कर रही थी। किसी तरह से मैंने ये क्लॉस के बच्चों से बात खत्म की तो फिर दूसरे सेक्सन की ओर चल दिया। इस बार मुलाकात हुई मूक-बधिर बच्चों से। मेरे हाथ में माईक और मुझे देखकर उनकी आंखों की चमक से अंदाजा हुआ कि वो न्यूज चैनलों को समझते है। उनकी टीचर की मदद से मैंने बात करनी शुरू की तो हर किसी को लगता था कि सरकार को उनकी ओर ज्यादा नहीं तो इतना ध्यान तो देना ही चाहिए कि उनके लिए आरक्षित नौकरियां भर जाएं। नेताओं को लेकर उनकी समझ बहुत ही साफ थी कोई राहुल गांधी की बात कर रहा था तो कोई मोदी को लेकर भाजप का इशारा कर रहा था। और फिर जापानी थैरेपी से इलाज करना सिखा रहे टीचर दिलीप जी से बात हुई। बातों ही बातों में एक आंध्रा प्रदेश की बच्ची ने कहा कि हम तो फिर भी ठीक है क्योंकि हमारे मां-बाप यहां भेज रहे है लेकिन गांवों में हालत बहुत खराब है।ल कोई भी दिव्यांगों की ओर आंख उठाकर नहीं देखता। एक बच्ची ने कहा कि पता नहीं कभी इस देश में कोई दिव्यांग मंत्री या सांसद बन कर उन लोगों की आवाज बनकर संसद या विधानसभा में चहक पाएंगा या नहीं क्योंकि इस देश के आम आदमी इस बात को अभी स्वीकार करने को तैयार नहीं कि दिव्यांग भी उनके जैसे इंसान है। एक मूकबधिर लड़की से पूछा कि कौन सा नेता पंसद है तो उसने लगभग खिलखिलाते हुए इशारों में जवाब दिया उसका अर्थ बताया टीचर ने कि राहुल गांधी, मैंने पूछा तो टीचर ने उसके जवाब को समझाया कि सरस लागे छै यानि सुंदर दिखता है।
खैर मैं इस स्कूल से बाहर निकल रहा था तो बचपन की अपने शहर के प्लेटफार्म की एक कहानी मुझे और भी रूला रही थी। पिताजी के साथ कही जाना था और प्लेटफार्म पर बैठकर ट्रैन का इंतजार कर रहा था। प्लेटफार्म पर कुछ लोग सामान बेच रहे थे। उन्हीं में एक दृष्टिविहीन विकलांग अपनी छड़ी के सहारे मूंगफली बेचता हुआ जा रहा था। वो प्लेटफार्म से ट्रैन की पटरियों की साईड में चल रहा थ। मुझे लग रहा थाकि कही ये गिर न जाएं और मैं इतना छोटा था कि उसको रोक पाता इससे पहले ही वो प्लेटफार्म से पटरियों पर गिर गया। लोगों ने भागकर उसको उठाया। उसका सामान उसको सौंप कर लोग इधर-उधर हो गए और मैं खंभे के सहारे खड़े उस दिव्यांग के पास गया और पूछा कि भैय्या बहुत चोट लगी होगी। इस पर उसका जवाब मुझे आज भी याद है कि भाई एक रोज की चोट हो दर्द को याद कर रो लूं ये रोज ही कही न कही लग ही जाती है।
गुजरात चुनाव कवर कर चुका था। दुनिया में हीरों के सरताज बने हजारों करोड़ के बिजनेस एम्पायर को संभालने वाले व्यापारियों से लेकर गंदे गटर से निकलने वाले पानी में मिट्टी को धोकर रोटी कमाने वाली उज्जवल मुस्कान की मालकिन लड़कियों तक को कवर किया। ( इस पानी से निकलनी वाली बदबू से आप नाक पर रूमाल रख कर निकलते है और एक छींट भी कपड़े पर पड़ जाएं तो कपडे़ फौरन उतार कर नहाने पहुंच जाते है) इसके अलावा मुझ बौंने के लिए अहम किसानों और शहरी मध्यमवर्ग की कवरेज तो शामिल थीं ही। ऐसे में अहमदाबाद में बस घूम रहा था, आईआईएम की दीवार से सटे हुए फुटपाथ पर घर बनाएं हुए परिवारों को देखता हुआ गुजर रहा था। खाली मैदान पर तिरपाल या रंगबिरंगी पन्नियों के नीचे अपनी दुनिया में मगन मजदूरों की दुनिया या फिर सुबह सुबह सीद्धी सईद मस्जिद से अगले चौक पर सुबह से मजदूरी इंतजार करते हुए मजदूरों की भीड़ इन सबके बीच गुजरता हुआ जा रहा था। एकाएक एक ब्रिज को पार करते हुए बोर्ड पर नजर पडी। पटेल ब्लाईंड स्कूल। बस लगा कि क्या हमने कभी इन दृष्टिविहीन लोगों से पूछा है कि उनको भी सरकार चाहिए की नहीं, सरकार से पूछने की जरूरत ही नहीं क्योंकि उसने अभी बड़े बड़े वादे करने शुरू नहीं किये है और नहीं वोट पाने के लिए आंखों पर पट्टी बांध कर उन जैसा दिखने की नौटंकी शुरू नहीं की है तो इसका मतलब साफ है कि वो इनकी वोट इतनी नहीं मानते है। और मैं इस स्कूल में अंदर चला गया। किसी ने रोका नहीं बल्कि कॉर्डिनेटर साहब के पास पंहुचा दिया। बेहद सज्जन व्यक्ति। और जैसे ही मैंने कहा कि मैं एक न्यूज चैनल से हूं और दिव्यांगों से इस चुनाव को लेकर उनकी राय जानना चाहता हूं तो उनके चेहरे पर एक सुखद आश्चर्य उभर आया। और उन्होंने कहा कि आप क्या क्या मदद चाहते है वो हम कर देंगे। इस पर मैंने कहा कि मुझे कुछ बच्चों से बात करनी है जिनकी वोट बनी हुई हो। उन्होंने फौरन अपने फैकल्टी को बात किया और कहा कि बच्चों को प्रेयर रूम्स में मिलवा दीजिए ताकि ये प्रेयर हॉल के दौरान की उनकी कुछ एक्टिीविटी भी देख सके। और फिर उस तरफ सुधा जोशी जी से मुलाकात हुई। सुधा जी ने कहा कि ये उनका पहला मौका है कि कोई चैनल या रिपोर्टर इस लिए राय जानने आया हो अभी तक तो कोई उनके पास नहीं पहुंचा। फिर मैं उनके साथ प्रेयर रूम में पहुंच गया। फर्स्ट फ्लोर तक बच्चों को बिना किसी मदद के एक दूसरे से हंसी-ठिठौली करते हुए रैम्प वाले जीने से ऊपर नीचे आते जाते देख रहा ता। जैसे ही कमरे में बच्चों को आते हुए देखा तो उनकी मुस्कुराहटों से घिर गया। एक दूसरे को शरारतों से ठेलते उसी तरह से जैसे अपने बचपन को जी कर आया था ठीक उसी तरह से उनको करते हुए देख रहा था। पहली बार इतने बच्चों को एक साथ देख रहा था जो मुझे देख नहीं सकते थे। उनकी मुस्कुराहटों ने शरारतों के साथ मिलकर एक सम्मोहन का भंवर बना दिया था और मैं उसमें निकलने की कोशिश करना बेकार समझ कर उसी में डूब रहा था। खैर बच्चों को सुधा मेम ने बताया कि आज एक चैनल वाला आपसे बात करने आया है। कितने बच्चों के वोटिंग कार्ड बने हुए है। बच्चों के बीच एक दम से शोर उभर आया ये उत्सुकता की उत्तेजना थी। वो किसी रिपोर्टर को देखना चाहते थे अपने मन की आंखों से। उसको सुनना चाहते थे कानों से। और बिना किसी तैयारी के कही भी पहुंचने की आदत के मुताबिक मैं बौंना शुरू हो गया। बच्चों के चेहरों पर माईक लगा रहा था और वो बिना किसी माईक को देखे बात कर रहे थे। मैं भीग रहा था उनकी इ्चछाओं के आगे। उनका दर्द था कि कभी कोई उनसे मिलने तो आए। वही फैकल्टी भी थी, वो भी ज्यादातर दिव्यांग ही थे। बातचीत हुई तो उनका दर्द भी कुछ इसी तरह का था और सरकारों का हाल शायद उनके पास ज्यादा साफ था। गुजरात उन राज्यों में शामिल है जिन्होंने दिव्यांगों को लेकर यूएन रिजॉल्यूशन को अभी भी विधानसभा में पास नहीं किया है। बच्चों को अच्छी खासी समझ थी। ( प्रेयर हॉल्स में रोज दो अखबारों का वाचन होता है वो मोदी और राहुल गांधी दोनों के बारे में बात कर रहे थे। उनको सड़क, बिजली पानी और दिव्यांगों के रोजगार की बातें भी याद थी। लेकिन ज्यादातर बच्चों ने आंखों वालों के रूखे व्यवहार की बात की। उनका कहना था कि आम आदमी आखिर ये क्यों नहीं समझता कि उनको दया की नहीं बराबरी के व्यवहार की जरूरत है। हर बार दया दिखाकर हमकों अंदर से कमजोर करना कब बंद होगा। और यही बातें मुझे लगाता उनके सामने कमजोर कर रही थी। किसी तरह से मैंने ये क्लॉस के बच्चों से बात खत्म की तो फिर दूसरे सेक्सन की ओर चल दिया। इस बार मुलाकात हुई मूक-बधिर बच्चों से। मेरे हाथ में माईक और मुझे देखकर उनकी आंखों की चमक से अंदाजा हुआ कि वो न्यूज चैनलों को समझते है। उनकी टीचर की मदद से मैंने बात करनी शुरू की तो हर किसी को लगता था कि सरकार को उनकी ओर ज्यादा नहीं तो इतना ध्यान तो देना ही चाहिए कि उनके लिए आरक्षित नौकरियां भर जाएं। नेताओं को लेकर उनकी समझ बहुत ही साफ थी कोई राहुल गांधी की बात कर रहा था तो कोई मोदी को लेकर भाजप का इशारा कर रहा था। और फिर जापानी थैरेपी से इलाज करना सिखा रहे टीचर दिलीप जी से बात हुई। बातों ही बातों में एक आंध्रा प्रदेश की बच्ची ने कहा कि हम तो फिर भी ठीक है क्योंकि हमारे मां-बाप यहां भेज रहे है लेकिन गांवों में हालत बहुत खराब है।ल कोई भी दिव्यांगों की ओर आंख उठाकर नहीं देखता। एक बच्ची ने कहा कि पता नहीं कभी इस देश में कोई दिव्यांग मंत्री या सांसद बन कर उन लोगों की आवाज बनकर संसद या विधानसभा में चहक पाएंगा या नहीं क्योंकि इस देश के आम आदमी इस बात को अभी स्वीकार करने को तैयार नहीं कि दिव्यांग भी उनके जैसे इंसान है। एक मूकबधिर लड़की से पूछा कि कौन सा नेता पंसद है तो उसने लगभग खिलखिलाते हुए इशारों में जवाब दिया उसका अर्थ बताया टीचर ने कि राहुल गांधी, मैंने पूछा तो टीचर ने उसके जवाब को समझाया कि सरस लागे छै यानि सुंदर दिखता है।
खैर मैं इस स्कूल से बाहर निकल रहा था तो बचपन की अपने शहर के प्लेटफार्म की एक कहानी मुझे और भी रूला रही थी। पिताजी के साथ कही जाना था और प्लेटफार्म पर बैठकर ट्रैन का इंतजार कर रहा था। प्लेटफार्म पर कुछ लोग सामान बेच रहे थे। उन्हीं में एक दृष्टिविहीन विकलांग अपनी छड़ी के सहारे मूंगफली बेचता हुआ जा रहा था। वो प्लेटफार्म से ट्रैन की पटरियों की साईड में चल रहा थ। मुझे लग रहा थाकि कही ये गिर न जाएं और मैं इतना छोटा था कि उसको रोक पाता इससे पहले ही वो प्लेटफार्म से पटरियों पर गिर गया। लोगों ने भागकर उसको उठाया। उसका सामान उसको सौंप कर लोग इधर-उधर हो गए और मैं खंभे के सहारे खड़े उस दिव्यांग के पास गया और पूछा कि भैय्या बहुत चोट लगी होगी। इस पर उसका जवाब मुझे आज भी याद है कि भाई एक रोज की चोट हो दर्द को याद कर रो लूं ये रोज ही कही न कही लग ही जाती है।
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