Monday, March 26, 2018

जिन को लग रहा था कि कुछ बदलेगा उनको अपने आसपास देखना चाहिए कि क्या क्या बदला है। उत्तर प्रदेश का अभूतपूर्व जनादेश बदलाव के लिए था न कि चेहरे और मंत्री बदलने के लिए।

 
तीस बच्चों की आसामयिक मौत एक कत्ल से अलग कुछ नहीं है। सरकारी कातिलों ने मासूमों और असहाय लोगों के जिगर के टुकड़ों को छीन कर मौत के सामने फेंक दिया। इस बात के लिए किसी को दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि मरने वालों के परिवार वालों का आर्थिक स्तर क्या होगा। अगर कोई मूर्ख पैदा भी हुआ होगा तो वो जानता है कि गरीब लोगों के अलावा कोई सरकारी अस्पतालों का रूख नहीं करता है। रात दिन ऐसे लोग मरते रहते है। ये सिर्फ वोट होते है या फिर आधार कार्ड का नंबर। इसके अलावा ये सिर्फ सरकारी फाईलों के नंबर होते है। क्योंकि इस देश में पिछले 10-15 सालों से नागरिक सिर्फ नौकरशाह और नेता रह गए है। बाकि दलाल भी समयानुसार कभी कभी इनमें घटते और जुडते रहते है। पत्रकारिता के दलाल बौंने भी शामिल है जो ये तय करते रहते है कि कैसे इस देश में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है या फिर मानवाधिकारों की रक्षा हो रही है।
दरअसल ये राजनेताओं के लगातार बौंने होते जाने की और नौकरशाहों के लगातार ताकतवर होने की कहानी भर है। इतने भारी भरकम बहुमत से सत्ता में पहुंचने वाले नेता को भी लगता है कि नौकरशाहों को अपने साथ रखना जरूरी है। ये कैंसर की विषवेल को साथ रखने वाली कहानी है. अगर समाजवादी सरकार में लूट हुई थी तो कौन लोग थे जिन्होंने लूट की। वो लोग कहां है। वो गुंडे मवाली बदमाश कहां है। वो आफिसर कहां जिन्होंने झूठी रिपोर्टोे को फाईलोे में लगाया। वो कहां जिन्होंने समाजवादी पार्टी के इशारों पर मुजफ्फरनगर के दंगों को भड़काने में अहम भूमिका निबाही वो अफसर कहां जिन्होंने भ्रष्ट्राचारी की फाईलों पर साईन किए। वो भर्ती बोर्डों में रहने वाले नौकरशाह कहां । वो कहां जिन्होंने कई सौ कई सौ करोड़ की जमीनों को औने-पौने दाम पर बेच दिया। इतने सारे सवालों के जवाब सिर्फ एक ही में शामिल हो जाएंगा कि वो सब अपने पदों पर है। ट्रांसफर पोस्टिग्स का खेल खेलना सिर्फ पैसे की कवायद है । नौकरशाह बस जाकर पैर दबाता है और आकर जनता का गला दबाता है। उसको बहुत कुछ नहीं करना है लूट का कुछ हिस्सा नेता से विधायक मंत्री बने लोगो को देना है। और बदले में नौकरशाह अपने टुकड़ेखोर पत्रकारों के जरिए जनता में नेताओं को बौने साबित करने का पुनीत कार्य करता है।
मैं आजतक नहीं समझ पाया कि अगर एक चपरासी की भऱती के लिए हजारों लाखों फॉर्म आते है तो फिर इन भ्रष्ट लोगों को हटाने में अदालतों में जाने या फिर विधानसभाओं से कानून पास कराने में क्या दिक्कत आती है। अगर इतने बेरोजगारों की टीम सड़कों पर है तो फिर चोर-दलालों से काम चलाने की जरूरत क्या है। अक्सर इसकी कहानियां सुना दी जाती है कि अदालत है कानून है तो फिर अपनी सेलरी बढ़ाने के लिए जिस तरह एक मत होकर प्रस्ताव किए जाते है उसतरह की विधानसभा की ताकत उसी वक्त आती है क्या।
इस सरकार के कुछ दिनों बाद ही अहसास होना शुरू हो गया था कि ये तो ऐसी सरकार बन गई जो नौकरशाहों को बराबर में बैठाने से ज्यादा उनकी चाटुकारिता कर रही है। नौकरशाहों को शायद पहली बार इस तरह की सरकार दिख रही होगी जो लूट में हिस्सा मांगने से भी बढ़कर उनकी ही चाटुकारिता करने में लगी हुई है। कुछ लोग तो दिल्ली से भी गए है सरकार में शामिल होने तो वो जानते है कि अफसरान कितने काम की चीज होते है। कितने तालों की चाबी होते है।

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