ये तो गांधी जी की सत्याग्रह की जगह है जहां से गांधी जी ने सत्याग्रह किया है वहां पर छुआछूत रख रहे तो पूरे भारत का क्या हाल होगा, ये तो पूरी दुनिया जानती है। दांडी यात्रा....3 (साबरमति आश्रम के अंदर से)
गांधी जी के कमरे के अंदर बैठे हुए धीमंत भाई जब ये बात बोल रहे थे तो उनके चेहरे से दुख और रोष की मिलीजुली छायाएं आ जा रही थी। दलित, हरिजन या फिर मूलवंशी किसी भी नाम से संबोधित कर सकते है लेकिन टूूटे हुए सपने की तरह दांडी यात्रा के पंखों को बुन रहे थे धीमंत भाई को अफसोस है कि विदेशी यहां पहुंच रहे है दांडी की यात्रा करने लेकिन हिंदुस्तानियों के मन में इस यात्रा को लेकर उत्साह तो दूर की बात है सही से जानकारी तक नहीं है। और गुजरात तो दूर की बात है अहमदाबाद के पचानऊ टका लोगों नेे कभी साबरमति आश्रम में झांक कर भी नहीं देखा। अहमदाबाद में दिल्ली से लगभग हजार किलोमीटर दूर साबरमति आश्रम सेे मैं निकलना चाह रहा था दांडी के लिए लेकिन अंदर से ही आश्रम में कुछ ऐसा दिख रहा था जिससे आगे आने वाली दांडी यात्रा का हाल का अंदाजा लगाया जा सकता था। इसीलिए चुनाव के दौरान सिर्फ चाय की दुकान पर खड़े होने से बेहतर समझा कि एक लंगोटी वाले इंसान के कदमों के निशानों पर मस्तक टेका जाएं।
छूआछूत के खिलाफ गांधी जी की लड़ाई को यहां साबरमति से देखने की कोशिश शुरू की। धीमंत भाई का इस आश्रम से बहुत करीब का रिश्ता है। महात्मा गांधी साउथ अफ्रीका से वापस लौट कर मुंबई में देश के बड़े-बडे लोगों से मिल रहे थे तो धीमंत के दादा भी महात्मा गांधी से मिलने पुहंच गए। पूछने पर बताया कि वो गुजरात केे एक कामगार है और महात्मा को इसबारे में कुछ बतााना चाहते है। महात्मा गांधी को बताया गया कि गुजरात से एक कामगार आपसे मिलना चाहते है तो गांधी जी ने पूछा क्यों आखिर यहां आकर क्यों मिलना चाहते है बुलाओं । धीमंत के परदादा ने महात्मा गांधी से वतन (गुजरात में ) में रोजगार कमी बताई थी तो महात्मा ने उन्हीं को जिम्मेदारी सौंप दी कि वतन नें जाकर खादी का प्रचार प्रसार करो। धीमंत के दादा लाठी चले आएं और अमरेली जिले के इस गांव में खादी की कताई और बुनाई के प्रचार का काम शुरू कर दिया और बाद में जब कोचरब के बाद साबरमति में बापू ने अपना सत्याग्रह आश्रम खोला तो धीमंत के परदादा को परिवार सहित बुला लिया था। 1930 में जब आश्रम से लोगों को ऐतिहासिक दांडी यात्रा के लिए लिया जा रहा था तो धीमंत के परिवार के चार लोगों ने अपना नाम लिखाया था और गांधी जी ने धीमंत के दादा अर्जुन को बुलाकर कहा कि आप पर यहां लोगों को खादी और गौशाला की देखरेख की जिम्मेदारी है। और तीन लोग उनके परिवार के देश बदलने की उस यात्रा में शामिल थे। आजादी की लडाई का ऐसा पन्ना जो अब यूपीएसी के एक्जाम की तैयारी के लिए याद किया जाता है। कभी कभी एसएससी के सवालों में भी आजाता है लेकिन क्या सिर्फ आजादी की लड़ाई के हिस्से को लेकर। और ये पाठ महात्मा के कद को बाकि रहबरों के बराबर करने की कोशिश ही लगती है।
अछूत को लेकर तत्कालीन समाज की हालत पर शायद किसी बड़े सियासतदां को न सफलता की उम्मीद थी और न ही कोई इस बवंडर से टकराना चाह रहा था। लेकिन आजादी के लिए संस्कृति को तलाश रहे महात्मा गांधी की नजर प़ड़ चुकी थी। आश्रम में जिस तरह से उन्होंने नियम लागू किये वो सब इसी और थे। धीमंत के परदादा और उसके परिजनों को आश्रम में कई जिम्मेदारियां देकर पहले ही अपना ईरादा जाहिर कर चुके महात्मा ने इस यात्रा को हिंदुस्तान के भविष्य के सफर के लिए तैयारी माना था।
(मैंने इस सफर में इतना कुछ देखा है कि उसको उसी अर्थों में शेयर कर पाऊंगा इसमें थोड़ा संदेह है लेकिन मैं कोशिश जरूर करूंगा। ये यात्रा एक और कड़वे अनुभवों का पिटारा है तो वही एक महात्मा के इंसान से महामानव बनने का रास्ता भी दिखाती है। )
आश्रम में छूआछूत और चुनाव को लेकर धीमंत भाई से बातचीत हुई। धीमंत भाई ने उस दौरान की कहानियों केबीच में बताया कि जिन पर जिम्मेदारी थी गांधी जी के विचारों को फैलाने की वही फैल रहे। आश्रम के सौ साल पूरेहुए तो एक प्रार्थना सभा कर छुट्टी पा ली गई। अपने अनुभवों के साथ धीमंत भाई को लग रहा था कि मौजूदा सरकार ने गांधी के बारे में तब पहचाना जब राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन कर विदेशों में पहुंचे और वहां महात्मा गांधी की मान्यता तो देखा। एक रोष था कि नरेन्द्र मोदी ने अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में शायद साबरमति में चार-पांच बार ही दौरा किया था लेकिन कोई काम उस वक्त शुरू नहीं हुआ जो वो आज जोर-शोर से कर रहे है।
छूआछूत के खिलाफ गांधी जी की लड़ाई को यहां साबरमति से देखने की कोशिश शुरू की। धीमंत भाई का इस आश्रम से बहुत करीब का रिश्ता है। महात्मा गांधी साउथ अफ्रीका से वापस लौट कर मुंबई में देश के बड़े-बडे लोगों से मिल रहे थे तो धीमंत के दादा भी महात्मा गांधी से मिलने पुहंच गए। पूछने पर बताया कि वो गुजरात केे एक कामगार है और महात्मा को इसबारे में कुछ बतााना चाहते है। महात्मा गांधी को बताया गया कि गुजरात से एक कामगार आपसे मिलना चाहते है तो गांधी जी ने पूछा क्यों आखिर यहां आकर क्यों मिलना चाहते है बुलाओं । धीमंत के परदादा ने महात्मा गांधी से वतन (गुजरात में ) में रोजगार कमी बताई थी तो महात्मा ने उन्हीं को जिम्मेदारी सौंप दी कि वतन नें जाकर खादी का प्रचार प्रसार करो। धीमंत के दादा लाठी चले आएं और अमरेली जिले के इस गांव में खादी की कताई और बुनाई के प्रचार का काम शुरू कर दिया और बाद में जब कोचरब के बाद साबरमति में बापू ने अपना सत्याग्रह आश्रम खोला तो धीमंत के परदादा को परिवार सहित बुला लिया था। 1930 में जब आश्रम से लोगों को ऐतिहासिक दांडी यात्रा के लिए लिया जा रहा था तो धीमंत के परिवार के चार लोगों ने अपना नाम लिखाया था और गांधी जी ने धीमंत के दादा अर्जुन को बुलाकर कहा कि आप पर यहां लोगों को खादी और गौशाला की देखरेख की जिम्मेदारी है। और तीन लोग उनके परिवार के देश बदलने की उस यात्रा में शामिल थे। आजादी की लडाई का ऐसा पन्ना जो अब यूपीएसी के एक्जाम की तैयारी के लिए याद किया जाता है। कभी कभी एसएससी के सवालों में भी आजाता है लेकिन क्या सिर्फ आजादी की लड़ाई के हिस्से को लेकर। और ये पाठ महात्मा के कद को बाकि रहबरों के बराबर करने की कोशिश ही लगती है।
अछूत को लेकर तत्कालीन समाज की हालत पर शायद किसी बड़े सियासतदां को न सफलता की उम्मीद थी और न ही कोई इस बवंडर से टकराना चाह रहा था। लेकिन आजादी के लिए संस्कृति को तलाश रहे महात्मा गांधी की नजर प़ड़ चुकी थी। आश्रम में जिस तरह से उन्होंने नियम लागू किये वो सब इसी और थे। धीमंत के परदादा और उसके परिजनों को आश्रम में कई जिम्मेदारियां देकर पहले ही अपना ईरादा जाहिर कर चुके महात्मा ने इस यात्रा को हिंदुस्तान के भविष्य के सफर के लिए तैयारी माना था।
(मैंने इस सफर में इतना कुछ देखा है कि उसको उसी अर्थों में शेयर कर पाऊंगा इसमें थोड़ा संदेह है लेकिन मैं कोशिश जरूर करूंगा। ये यात्रा एक और कड़वे अनुभवों का पिटारा है तो वही एक महात्मा के इंसान से महामानव बनने का रास्ता भी दिखाती है। )
आश्रम में छूआछूत और चुनाव को लेकर धीमंत भाई से बातचीत हुई। धीमंत भाई ने उस दौरान की कहानियों केबीच में बताया कि जिन पर जिम्मेदारी थी गांधी जी के विचारों को फैलाने की वही फैल रहे। आश्रम के सौ साल पूरेहुए तो एक प्रार्थना सभा कर छुट्टी पा ली गई। अपने अनुभवों के साथ धीमंत भाई को लग रहा था कि मौजूदा सरकार ने गांधी के बारे में तब पहचाना जब राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन कर विदेशों में पहुंचे और वहां महात्मा गांधी की मान्यता तो देखा। एक रोष था कि नरेन्द्र मोदी ने अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में शायद साबरमति में चार-पांच बार ही दौरा किया था लेकिन कोई काम उस वक्त शुरू नहीं हुआ जो वो आज जोर-शोर से कर रहे है।
"सवाल-- इस चुनाव में छूआछूत का सवाल फिर से बडा़ हो रहा है तो ये संकेत नहीं है कि दांडी की मूलभावना समझने में हिंदुस्तानी फेल रहे है।
क्या 87 साल बाद हम कह सकते है कि छूआछूत कम नहीं हुई है
उत्तर- (धीमंत भाई) सौ टका सही बात है क्योंकि साबरमति आश्रम गांधी जी की कर्मभूमि है यहां 13 साल तक काम करके बिताएं है वहां पर हरिजन आश्रम ट्रस्ट है उस हरिजन आश्रम ट्रस्ट में एक भी हरिजन नहीं एक भी दलित नहीं और साबरमति ..ट्रस्ट है जो सारे आश्रम का देखभाल कर रहा है उसके अंदर भी एक भी हरिजन को नहीं लिया गया है। ये तो गांधी जी की का सत्याग्रह की जगह है जहां से गांधी जी ने सत्याग्र किया है वहां पर छुआछूत रख रहे तो पूरे भारत का क्या हाल होगा ये तो पूरी दुनिया जानती है।"
महात्मा गांधी के कमरे में चरखा और उनकी टेबिल के चारों और लकड़ी का एक बाडा सा लगाय गया था अचानक धीमंत उस तरफ मुडे और बताने लगे कि इस डेस्क पर रखे हुए बंदर ही चोरी हो गए। वो बंदर जो महात्मा गांधी के तीन बंदरों के तौर पर देश की जनता की बोली में शामिल हो गए। वो एक बौद्ध साधु ने महात्मा गांधी को एक भेट के तौर पर दिए थे। और बापू उनको हमेशा अपनी लिखने की टेबिल पर रखते थे। लेकिन इस घटना को बताने की बजाय आश्रम के ट्रस्ट ने ( धीमंत भाई के मुताबिक ) घटना को ही गलत बता दिया और कहा कि वो बंदर पुराने हो गए थे लिहाजा नए बंदर रख दिए गये। खैर बाद में मान लिया गया कि महात्मा गांधी के बंदर कोई ले गया। अब कैमरे लग गए है। महात्मा के मंदिर में कैमरे लग गए। इसके बाद बा का कमरा है। बा के कमरे में नई खाट दिख रही है और दिख रहे है नए गद्दे। इस को लेकर भी आश्रम में काफी चर्चा हुई । धीमंत चार पीढ़ियों से आश्रम वासी है और उनका कहना है कि बापू तो चटाई पर सोते थे क्या बा खाट और गद्दों पर सोती थी।हालांकि आश्रम का कहना है कि वो एक रेप्लिका के तौर पर रखे गए है।
बापू को लेकर वही आने जाने वालों को आश्रम की रूप रेखा और दिनचर्या के बारे में जानकारी दे रही लता बेन से भी बात हुई। लता बेन चरखा चलाती है ताकि आने वाले लोग चरखे और खादी के बारे में कुछ जान सके। लता बेन को काफी दुख होता है जब वो इस नई पीढ़ी को गांधी की शिक्षाओं से दूर पाती है। लता बेन ने कहा कि
" दांडी यात्रा जब गांधी जी ने निकाली 12 मार्च 1930 को तो उस वक्त गांधी जी की उम्र थी 61 साल पैदल चले थे 241 मील तो उनका मकसद तो था लोक जागृति वो लोगों में एक जागृति लाना चाहते थे और दांडी यात्रा के लिए वो निकले तो उन्होंने तो उन्होंने काफी लंबा रास्ता चुना था । तो दांड़ी जाना और नमक सत्याग्रह करना ये ही रीजन नहीं था गांधी जी का। वो अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी और जो कौमी एकता के लिए ज्वार लाना चाहते थे तो उनकी जो यात्रा थी वो एक मकसद के साथ चली । हर एक गांव में उनका रूकाव हो, हर सोमवार को उनका मौन व्रत रहता था यात्रा स्थगित करते थे क्योंकि जिस गांव में गए और सभा न हो ऐसा भी वो नहीं चाहते थे। वो चाहते थे कि लोग उनसे... तीन दिन पहले अरूण टुकड़ी गुजरात विद्यापीठ से एक टुकड़ी गांव में जाती थी गांधी जी के जाने से पहले तीन दिन पहले। वो एक डाटा गांधी जी को देते थे कितने लोग , नल खडा करते इंतजाम करते तो ये पूरी तैयारी थी ऐसा नहीं था कि गांधी जी चल दिए। वो चाहते तो यहां खंभात का दरिया है वहां जाकर नमक बना सकते थे। तीन दिन में पहुंच सकते थे। 61 साल की आयु में इतना लंबा रास्ता क्यों चुना। बीच रास्ते में उन्होंने शपथ भी ले ली कि कव्वै कुत्ते की मौत मरेंगे लेकिन स्वराज लिए बिना वापस आश्रम नहीं लौटेंगे ये सब हुआ।लेकिन आपका सवाल है कि आज जनता क्या चाहती है। तो आज कोई भी कोई भी बंदा वो इकसठ साल का न हो कम उम्र का भी हो और वो चाहे कि दांडी तक पैदल जाना है तो उनका कोई मकसद होना चाहिए
गांधी जी का जो विजन है ऐसा कोई विजन आज देखने को नहीं मिलता। वो बड़े दुख की बात है. फिर इतना बड़ा रास्ता है तो कुछ ऐसे करे।"
गांधी जी को समझ में आ गया था कि हमारी क्या संस्कृति थी । अपनी संस्कृति को कैसे बचाया जाएं लोगों को पश्चिमी संस्कृति से अपनी संस्कृति की ओर लाया जाएं। गांधी जी तो समझते थे कि किस तरह से हमारी प्रजा अंग्रेजों के प्रभाव में आती जा रही है।
गांधी जी को रास्ता मालूम था। लोग कह रहे थे कि गांधी जी इस यात्रा को गांव में होकर अपना वक्त जाया कर रहे है। अंग्रेजों ने और अंग्रेजी परस्त अखबारों ने ( आज के बड़े मीडिया ग्रुप) इस पूरी यात्रा का बहुत मजाक बनाया। वो लोग सोच रहे थे कि जल्दी ही महात्मा का ये भूत उतर जाएंगा। और कुछ दिन बाद ही महात्मा गांधी अपने ही बुने हुए जाल में उलझ जाएंगे और इस यात्रा का मकसद पूरा होने की बजाय अंग्रेजों का आंदोलनों को कुचलने का मकसद पूरा जाएंगा बिना एक भी कदम उठाए। इस आंदोलन की कहानी कहने का मन तो है लेकिन काफी लंबी है। मैं तो इस बात का जिक्र करना चाहता हूं कि जिस काम को अंग्रेज करने में विफल रहे और गांधी को फेल करने की जिन कोशिशों को उन्होंने रात दिन मेहनत करने के बावजूद निराशा झेली उसको हमने यानि खुद गांधी के बेटों ने बड़ी आसानी से कर दिया। उस वक्त दांडी यात्रा ने बूढ़े देश में जवानी फूंक दी थी लेकिन आज उसकी यादों को हमने फूंक दिया है। साबरमति से लेकर दांडी तक एक ही कोशिश गांधी की इस यात्रा को श्मशान तक पहुंचा दिय जाएं इसीलिए उनके रास्ते में सरकार के सजावटी कामों के अलावा बाकि सबकुछ गायब हो गया। और सरकार ने अपनी योजना इस तरह से लागू कि सब कुछ दिख जाएं बस गांधी और उनकी शिक्षा गायब हो जाएं।
अगली कड़ी में कोशिश करता हूं इस आश्रम से बाहर की यात्रा शुरू करू। और आपको दिखाऊं कैसे 87 कदम चलने के बाद ही गांधी का सपना दम तोड़ता दिख रहा है। जिसको भी साथ आना हो आएँ स्वागत है क्योंकि मैं तो चल रहा हूं। (खूबसूरत छाया चित्रों के लिए सौमित्र को धन्यवाद)
क्या 87 साल बाद हम कह सकते है कि छूआछूत कम नहीं हुई है
उत्तर- (धीमंत भाई) सौ टका सही बात है क्योंकि साबरमति आश्रम गांधी जी की कर्मभूमि है यहां 13 साल तक काम करके बिताएं है वहां पर हरिजन आश्रम ट्रस्ट है उस हरिजन आश्रम ट्रस्ट में एक भी हरिजन नहीं एक भी दलित नहीं और साबरमति ..ट्रस्ट है जो सारे आश्रम का देखभाल कर रहा है उसके अंदर भी एक भी हरिजन को नहीं लिया गया है। ये तो गांधी जी की का सत्याग्रह की जगह है जहां से गांधी जी ने सत्याग्र किया है वहां पर छुआछूत रख रहे तो पूरे भारत का क्या हाल होगा ये तो पूरी दुनिया जानती है।"
महात्मा गांधी के कमरे में चरखा और उनकी टेबिल के चारों और लकड़ी का एक बाडा सा लगाय गया था अचानक धीमंत उस तरफ मुडे और बताने लगे कि इस डेस्क पर रखे हुए बंदर ही चोरी हो गए। वो बंदर जो महात्मा गांधी के तीन बंदरों के तौर पर देश की जनता की बोली में शामिल हो गए। वो एक बौद्ध साधु ने महात्मा गांधी को एक भेट के तौर पर दिए थे। और बापू उनको हमेशा अपनी लिखने की टेबिल पर रखते थे। लेकिन इस घटना को बताने की बजाय आश्रम के ट्रस्ट ने ( धीमंत भाई के मुताबिक ) घटना को ही गलत बता दिया और कहा कि वो बंदर पुराने हो गए थे लिहाजा नए बंदर रख दिए गये। खैर बाद में मान लिया गया कि महात्मा गांधी के बंदर कोई ले गया। अब कैमरे लग गए है। महात्मा के मंदिर में कैमरे लग गए। इसके बाद बा का कमरा है। बा के कमरे में नई खाट दिख रही है और दिख रहे है नए गद्दे। इस को लेकर भी आश्रम में काफी चर्चा हुई । धीमंत चार पीढ़ियों से आश्रम वासी है और उनका कहना है कि बापू तो चटाई पर सोते थे क्या बा खाट और गद्दों पर सोती थी।हालांकि आश्रम का कहना है कि वो एक रेप्लिका के तौर पर रखे गए है।
बापू को लेकर वही आने जाने वालों को आश्रम की रूप रेखा और दिनचर्या के बारे में जानकारी दे रही लता बेन से भी बात हुई। लता बेन चरखा चलाती है ताकि आने वाले लोग चरखे और खादी के बारे में कुछ जान सके। लता बेन को काफी दुख होता है जब वो इस नई पीढ़ी को गांधी की शिक्षाओं से दूर पाती है। लता बेन ने कहा कि
" दांडी यात्रा जब गांधी जी ने निकाली 12 मार्च 1930 को तो उस वक्त गांधी जी की उम्र थी 61 साल पैदल चले थे 241 मील तो उनका मकसद तो था लोक जागृति वो लोगों में एक जागृति लाना चाहते थे और दांडी यात्रा के लिए वो निकले तो उन्होंने तो उन्होंने काफी लंबा रास्ता चुना था । तो दांड़ी जाना और नमक सत्याग्रह करना ये ही रीजन नहीं था गांधी जी का। वो अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी और जो कौमी एकता के लिए ज्वार लाना चाहते थे तो उनकी जो यात्रा थी वो एक मकसद के साथ चली । हर एक गांव में उनका रूकाव हो, हर सोमवार को उनका मौन व्रत रहता था यात्रा स्थगित करते थे क्योंकि जिस गांव में गए और सभा न हो ऐसा भी वो नहीं चाहते थे। वो चाहते थे कि लोग उनसे... तीन दिन पहले अरूण टुकड़ी गुजरात विद्यापीठ से एक टुकड़ी गांव में जाती थी गांधी जी के जाने से पहले तीन दिन पहले। वो एक डाटा गांधी जी को देते थे कितने लोग , नल खडा करते इंतजाम करते तो ये पूरी तैयारी थी ऐसा नहीं था कि गांधी जी चल दिए। वो चाहते तो यहां खंभात का दरिया है वहां जाकर नमक बना सकते थे। तीन दिन में पहुंच सकते थे। 61 साल की आयु में इतना लंबा रास्ता क्यों चुना। बीच रास्ते में उन्होंने शपथ भी ले ली कि कव्वै कुत्ते की मौत मरेंगे लेकिन स्वराज लिए बिना वापस आश्रम नहीं लौटेंगे ये सब हुआ।लेकिन आपका सवाल है कि आज जनता क्या चाहती है। तो आज कोई भी कोई भी बंदा वो इकसठ साल का न हो कम उम्र का भी हो और वो चाहे कि दांडी तक पैदल जाना है तो उनका कोई मकसद होना चाहिए
गांधी जी का जो विजन है ऐसा कोई विजन आज देखने को नहीं मिलता। वो बड़े दुख की बात है. फिर इतना बड़ा रास्ता है तो कुछ ऐसे करे।"
गांधी जी को समझ में आ गया था कि हमारी क्या संस्कृति थी । अपनी संस्कृति को कैसे बचाया जाएं लोगों को पश्चिमी संस्कृति से अपनी संस्कृति की ओर लाया जाएं। गांधी जी तो समझते थे कि किस तरह से हमारी प्रजा अंग्रेजों के प्रभाव में आती जा रही है।
गांधी जी को रास्ता मालूम था। लोग कह रहे थे कि गांधी जी इस यात्रा को गांव में होकर अपना वक्त जाया कर रहे है। अंग्रेजों ने और अंग्रेजी परस्त अखबारों ने ( आज के बड़े मीडिया ग्रुप) इस पूरी यात्रा का बहुत मजाक बनाया। वो लोग सोच रहे थे कि जल्दी ही महात्मा का ये भूत उतर जाएंगा। और कुछ दिन बाद ही महात्मा गांधी अपने ही बुने हुए जाल में उलझ जाएंगे और इस यात्रा का मकसद पूरा होने की बजाय अंग्रेजों का आंदोलनों को कुचलने का मकसद पूरा जाएंगा बिना एक भी कदम उठाए। इस आंदोलन की कहानी कहने का मन तो है लेकिन काफी लंबी है। मैं तो इस बात का जिक्र करना चाहता हूं कि जिस काम को अंग्रेज करने में विफल रहे और गांधी को फेल करने की जिन कोशिशों को उन्होंने रात दिन मेहनत करने के बावजूद निराशा झेली उसको हमने यानि खुद गांधी के बेटों ने बड़ी आसानी से कर दिया। उस वक्त दांडी यात्रा ने बूढ़े देश में जवानी फूंक दी थी लेकिन आज उसकी यादों को हमने फूंक दिया है। साबरमति से लेकर दांडी तक एक ही कोशिश गांधी की इस यात्रा को श्मशान तक पहुंचा दिय जाएं इसीलिए उनके रास्ते में सरकार के सजावटी कामों के अलावा बाकि सबकुछ गायब हो गया। और सरकार ने अपनी योजना इस तरह से लागू कि सब कुछ दिख जाएं बस गांधी और उनकी शिक्षा गायब हो जाएं।
अगली कड़ी में कोशिश करता हूं इस आश्रम से बाहर की यात्रा शुरू करू। और आपको दिखाऊं कैसे 87 कदम चलने के बाद ही गांधी का सपना दम तोड़ता दिख रहा है। जिसको भी साथ आना हो आएँ स्वागत है क्योंकि मैं तो चल रहा हूं। (खूबसूरत छाया चित्रों के लिए सौमित्र को धन्यवाद)
No comments:
Post a Comment