Sunday, November 27, 2011

और वो दिन आ ही गया।

देश के मीडिया में टीम अन्ना और सरकार के बीच की अंताक्षरी चल रही थी। मुझे लग रहा था ऐसा कुछ भी है जो कमरों और फाईलों के अंदर चुपचाप चल रहा होगा। सरकार के सेक्रेट्रीज ने रिटेल में एफडीआई को बिना किसी शोरशराबे के पास कर दिया। मीडिया को इतना बड़ा फैसला दिखा नहीं या जानबूझकर देखा नहीं- दोनों बातें अलग है। मेरा मत है जानबूझकर देखा नहीं। और अब मंत्रिमंडल ने भी इस बिल को मंजूरी दे दी है। चार करोड़ लोगों के रोजगार को खत्म करने और उस पर पलते बीस करोड़ हिंदुस्तानियों को भिखारी की हैसियत में लाने की दुर्भावनाओं से भरे बिल को मंजूरी। एनआरआई और कॉरपोरेट घरानों के इशारों पर नंगा नाच करती हुई दिख रही है सरकार। नूरा कुश्ती लड़ते हुए बेशर्म जातिवादि नेता विपक्ष में होने का माखौल उड़ाते हुए। लेकिन इस बिल की पृष्टभूमि आंदोलन के समय ही रख दी गई थी और मुझे लगता है कि ये बात मुझे जरूर करनी चाहिये।

केजरीवाल और किरण बेदी की टीम के साथ उत्तर भारतीयों के लिए अजनबी अन्ना हजारें रामलीला मैदान पर धरना दे रहे थे। लहराते हुएं तिरंगे के बीच अन्ना और बाद में नामित हुई टीम अन्ना के लोग हुंकार भर रहे थे। देश के मीडिया के फन्नें खां रामलीला मैदान को अपने ज्ञान और जोश के जज्बें से सराबोर कर रहे थें। देश के युवा अभिव्यक्ति के नये माध्यमों से इस पूरी मुहिम को अंजाम देने में जुटे थे। भ्रष्ट्राचार में आकंठ डूबे भावुक नौकरी पेशा लोग पूरी तरह से आंदोलित थे। टीवी चैनलों के ज्ञानी पत्रकारजन कदमताल करते हुए भीड़ का आकलन कई गुना कर रहे थे। इस दौरान सबसे खास बात थी कि इस शोर में विवेक की आवाज नहीं थी। जो भी आवाज गूंज रही थी वो या तो समर्थन में अंधी थी या फिर विरोध में। लेकिन इस पूरे माहौल को बनने से पहले ही मेरे एक दोस्त ने धीरे से कहा था कि देश का युवा अगले चार-पांच महीने बाद एक सामूहिक अवसाद में डूबने वाला है। बेहद अजीब सी प्रतिक्रिया थी। इस बारे में किसी से कोई शब्द सुना नहीं था। ये बात लगभग चार अप्रैल की थी। जंतर-मंतर पर धरने की तैयारी चल रही थी। मैंने उस दोस्त से बात को थोड़ा स्पष्ट करने को कहा। उसका आकलन था देश में भ्रष्ट्राचार से आदमी परेशान है। मीडिया के पूरी तरह कॉरपोरेट के हाथों में खेलने या फिर उनके साथ साठ-गांठ करने के बावजूद कभी-कभी समीकरण गड़बड़ाने के चलते खबर छप ही जाती है। ऐसे में जो सूचना आम आदमी तक कानाफूंसियों के माध्यम से जाती थी अब वो सीधे पहुंच रही है। और उसके पहुंचने का समय भी बहुत कम हो गया। ऐसे में आम आदमी का रियेक्शन भी बहुत तेजी से आ रहा है। इतनी उथल-पुथल के बीच ऐसे आदमी जिनका कार्य अपर मीडिल क्लास का रहा हो या फिर जिनकी जिंदगी ऐओ-आराम से कट रही हो वो लोग भ्रष्ट्राचार से परेशान लोगों के नायक बनकर कदमताल कैसे कर सकते है। देश के युवा के पास इस वक्त कोई आदर्श नहीं है। मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नायकों ने देश में आजादी से पहले और आजादी के बाद का अंतर ही खत्म कर दिया। आंदोलन को देख कर देश का युवा जरूर आदर्श की तलाश में इससे जुडेगा। युवाओं के लिए देश और परदेश में अंतर नहीं रह गया है और उसको हॉलीवुड की फिल्मों और देश के टीवी मीडिया से उपजी देशभक्ति की नयी धारा कि मौका मिलते ही तिरंगा लहराओं की धारणा को मजबूत करने लिए तेजी से इस आंदोलन के साथ जुड जाएँगा। लेकिन जैसे ही इस आंदोलन में शामिल लोगों की हकीकत सामने आएंगी वो तेजी से अवसाद में चला जाएंगा। मेरे दोस्त की बातों का आधार था 1975 का जेपी मूवमेंट और उसके रणबांकुरों की गाथा। आय से अधिक संपत्ति के आरोपों से घिरे लालू यादव महज जातिवादी राजनीति का एक चेहरा भर है। कभी भदेस बातों और पहनावे से अपने आप को गरीब जनता से जोडने वाले लालू यादव अपने गालों की चमक भर देख ले तो खुद शीशे से मुंह मोड़ ले। फिर दूसरा युवा आंदोलन हुआ वीपी सिंह का भ्रष्ट्राचार विरोधी मामला। लेकिन इस सफल लड़ाई का अंत हुआ मंडल के नाम पर उभर आएं जातिवादी राजनेताओं के हुजूम को ताकत मिलने से।
जेपी मूवमेंट के जहां महज 15 साल बाद जहां दूसरा आंदोलन खड़ा हो गया था वहां पूरे 22 साल लग गए दूसरे आंदोलन से जुड़ने वालों युवाओ की पीढ़ी सामने आने में।
इस आंदोलन को लेकर अपनी राय रखने वाले मित्र की राय आंदोलन का नेतृत्व संभाल रहे केजरीवाल, किरणबेदी, प्रशांत और कुमार विश्वास के बारे में अपनी पुरानी जानकारियों के आधार पर थी। केजरीवाल खबरों में रहने के बेहद शौकीन है और उसके लिए कुछ भी कर सकते है किरण बेदी के खिलाफ अपनी बेटी के मेडीकल में एडमिशन के लिए मिजों कोटे का इस्तेमाल करने का आरोप था। दोस्त का कहना था कि जिस अन्ना को ये लोग खोज कर लाएं है उसका जादू कैमरों के आगे जबान खोलते ही टूट जाने वाला है। प्रशांत और शांतिभूषण की ईमानदारी पर सवाल उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। उन लोगों ने यदि पूरा टैक्स भी ईमानदारी से दिया है तो उसकी कीमत भी अरब में है। ऐसे में 30 परसेंट टैक्स देने के बाद जो संपत्ति बची उसकी कीमत कई अरब रूपये होगी। क्या इतनी मोटी कमाई करने वाले लोगों को गरीब लोगों के कष्ट में कितना दर्द होगा ये तो आप समझ सकते है। मेरे मित्र का आकलन था कि ये आंदोलन अन्ना के टीवी कैमरों पर मुंह खोलते ही खत्म हो जाएंगा। टीवी चैनल्स ने अपने मुनाफे के लिए इस आदमी को जोकर में तब्दील कर देंगे। ऑन कैमरा और ऑफ कैमरा की जंग में एक दोयम प्रतिभा का आदमी सामने आ खड़ा होगा। तब इस पूरी लड़ाई के भेडियाधंसान में जाने का काम शुरू हो जाएंगा। किरण बेदी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होने के बाद केजरीवाल के छुट्टियों पर घूमने औऱ उसका पैसा माफ करने की चिट्ठियों के बाद ये बात तो साफ हुई कि बौने लोग क्रांति का आह्वान कर रहे थे। क्रांति विफल हुई। टीम में एक गवैया गा रहा था होठों पर गंगा और हाथों में तिरंगा। बाद में पता चलता है कि कॉलिज में पढ़ाने की बजाय वो शख्स कवि सम्मेलनों और मंचों पर अपना वक्त गुजारता है। नोटिस जारी किया गया कॉलिज से। ये तमाम नायक जब सामने आयेंगे तो सरकार इनको पूरी तरह बदनाम कर देंगी। और फिर यूथ का वो बेशकीमती गुस्सा जो किसी भी देश की तकदीर बना सकता है जाया हो जाएंगा। अपने में घिर कर उस युवा को ये समझ नहीं आयेगा कि के उसको बेवकूफ किसने बनाया-बौने नायकों ने विदेशी ताकतों के इशारों पर एनआरआई की तरह व्यवहार कर रही सरकार ने या फिर हमेशा अपने को जनता की आवाज बताने वाले बौने से मीडिया ने। इसके बाद वो युवा अपने खोल में सिमट जायेगा और या फिर अवसाद का शिकार होकर रास्ता भटक जाएंगा। आज इस बात को खत्म हुए लगभग 7 महीने हो गये और लगता है कि दोस्त ने अपना आकलन कुछ ज्यादा ही सही किया था। एक बात और इस पूरी बातचीत के दौरान टीम अन्ना के एक साथी भी हमारे साथ थे जिनका ये मानना था कि जनता का दबाव उनके बौनों की लंबाई बढ़ा देगा। अब दोनों में किसका आकलन सही निकला ये आप सोच सकते है।

.मैं तो सिर्फ जर्मन कवि हांस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर की एक कविता मध्यमवर्ग का शोकगीत से बात खत्म करता हूं..
हम फरियाद नहीं कर सकते/हमबेकार नहीं हैं/ हम भूखे नहीं रहते
/हम खाते हैं/ घास बाढ़ पर है/ सामाजिक उत्पाद/नाखून/अतीत/सड़कें खाली है/ सौदे हो चुके हैं/ साइरन चुप हैं/यह सब गुजर जायेगा/
मृतक अपनी वसीयतें कर चुके हैं/ बारिश ने झींसी की शक्ल ले ली है/युद्ध की घोषणा अभी तक नहीं हुई है/उसके लिए कोई हड़बड़ी नहीं है/
हम घास खाते हैं/हम सामाजिक उत्पाद खाते हैं/हम नाखून खाते हैं/हम अतीत खाते हैं/हमारे पास छिपाने को कुछ नहीं है/हमारे पास चूकने को कुछ नहीं है/ हमारे पास कहने को कुछ नहीं है/हमारे पास है/ घड़ी में चाबी दी जा चुकी है/बिलों का भुगतान किया जा चुका है/ धुलाई की जा चुकी है/आखिरी बस गुजर चुकी है/ वह खाली है/ हम शिकायत नहीं कर सकते/हम आखिरकार किस बात का इंतजार कर रहें हैं ?

Friday, October 28, 2011

सायक की उम्मीद

सायक को
कोई शिकायत नहीं है
उसे उम्मीद है।
रोता नहीं है बस देखता है
आस-पास
वक्त को
खेल और सपनों के बीच पुल बनाने में डूबे भाई को
काम में दिन को धोती हुई अपनी मां को
धीमें-धीमें बोलने से पहले खामोश होते हुए अपने पिता को
वो धीरे-धीरे झपकाता है पलकों को
उसको उम्मीद है- शिकायत नहीं
पलकों उठने गिरने से चौंक जाएंगा भाई
मां रोक देंगी दिन को उथलने का काम
पिता की आवाज में लौंट आएँगी गर्मी
कोई ध्यान नहीं देता
लेकिन उसे कोई शिकायत नहीं है
वो धीमें से हिलाता है अपने हाथ-पांव
आवाज के भारी पर्दें गिराता-उठाता है
इधर-उधर घूमती नजर में कोई शिकायत नहीं
उम्मीद रहती है
वो आया है
दुनिया की ऐसी गोद से
जहां वो शिकायत कर जिंदा नहीं रह सकता था
वहां सिर्फ उम्मीद थी
अंधेंरों में डूबे उन महीनों ने
सायक को सिखाया है
उम्मीद रखना
चारों ओर से बंद दीवारों में
भी सांस ली जा सकती है
जिंदा रहने के लिए
ली जा सकती है खुराक
और जरूरत नहीं होती
किसी इंसान के बनाएं किसी कपड़े की
लेकिन कितनी जल्दी
ये सब बदल सकता है
ये दुनिया सायक को बदल देंगी
उम्मीद की जिंदगी से
शिकायत करते एक मासूम में।

क्या सिर्फ यहीं है
इस दुनिया के पास
एक उम्मीद
के बदले में

काश स्टीव जॉब्स हमारे बाप होते

स्टीव जाब्स का निधन हो गया। अगर इस देश में गुलामी की आदत रगों में न दौड़ रही होती तो बस इतनी सी खबर ही थी। लेकिन देश में जिसे राष्ट्रीय मीडिया कहा जाता है, या माना जाता है या स्वंभू बने हुए राष्ट्रीय मीडिया में ये बाप के मरने जैसा दुखांत सीन था। काफी सारे न्यूज पेपर ने अपने पन्ने रंग डाले। हैडलाईंस बनाने के लिये अपने पूरे दिमाग और क्षमताओं का इस्तेमाल किया। संपादकीय से लेकर बीच के कई-कई पेज रंगे गएं। टीवी चैनलों ने किस कदर का रोना रोया ये देखकर किसी को भी रोना आ सकता था। ये नंगे राष्ट्रीय मीडिया का रूदन था। उस राष्ट्रीय मीडिया का जिसने अपने कंधें पर इस देश के लिए सही गलत सोचने की जिम्मेदारी संभाल रखी है।
अमेरिकी राष्ट्रपति को दुख हुआ या नहीं लेकिन मनमोहन सिंह को दुख हुआ है। मनमोहन सिंह लाटरी से बने प्रधानमंत्री है। उनके गले में प्रधानमंत्री का हार उनकी आम जनता से दूरी के चलते डला है। सोनिया गांधी जानती है कि पूरी कोशिशों के बावजूद जो शख्स अपनी मातृभाषा यानि पंजाबी राष्ट्रभाषा यानि हिंदी नहीं सीख पाया वो देश की हजारों जातियों में बंटी जनसंख्या का नायक कैसे बन सकता है।
यानि इतिहास में एक बड़े गुलजारी लाल नंदा के तौर पर दर्ज हो जाएंगा। ऐसे प्रधानमंत्री को हर साल हजारों बच्चों की अकाल मौत पर दर्द नहीं होता। दुख नहीं होता। किसान भूख से मर रहे है। आत्महत्या कर रहे है। रोज अखबार में कई पन्नों पर सड़कों पर मारे गये लोगों के बच्चों की बेबस सी फोटो दिखती है। किसी पर प्रधानमंत्री को दर्द नहीं हुआ। एक लाख साठ हजार लोगों एक्सीडेंट में सड़कों पर दम तो़ड़ते है कभी प्रधानमंत्री का दर्द नहीं दिखा्।
लेकिन ये विषय से भटकना हुआ। बात स्टीव जॉब्स की है। एक ऐसा आदमी जो भारत के बारे में कोई अच्छी राय नहीं रखता हो। ऐसा आदमी जिसे प्रधानमंत्री भारत रत्न न दे पाएं लेकिन भारत की तरक्की में एक मददगार माने।
अब जरा सच देखे। मीडिया एक झूठ के बादल की तरह हो रहा है जो रोज सिर्फ झूठ रच रहा है। और सौ बार बोला गया झूठ सच में तब्दील हो रहा है। स्टीव जॉब्स ने जो भी बनाया कंपनी के मुनाफे के लिए बनाया। उस आदमी ने भरपूर कीमत वसूली अपने आविष्कारों की। हमारे देश ने हर मोबाईल को पैसा देकर खऱीदा। हर चीज पर पैटेंट का पैसा दिया। उसने ऐसी कोई चीज नहीं बनाईँ जो हमारे देश के किसी गरीब आदमी को रोटी हासिल करने में मदद दे। सिर्फ आईफोन जैसी चीजों से दुनिया नहीं चल रही है। ये दर्द उन्हीं बेशर्म लोगों का और दलाल मीडिया का है जिसको 32 रूपये रोज कमाने वाला गरीब नहीं दिखता । लेकिन 32 हजार का आईफोन खरीदने वाले के जरा से दर्द पर पेट में मरोड़ उठ जाती है। ऐसे में सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है कि ये मीडिया देश के लोगों का नहीं स्टीव जाब्स जैसों की आवाज जिंदा रखने के लिए है।

Thursday, August 11, 2011

काश इनके पास बाप होता :

पॉर्लियामेंट में मंहगाई पर हाल ही में बहस हुई। एक ऐसी बहस हुई जिसके होने के लिए ये देश हजारों करोड़ रूपये खर्च करता है। बहस होनी थी तो हुई। इस बहस में निकला बस अंडा। हर बार यही निकलता है। विपक्षी पार्टी हाय-हाय चिल्लाती है और सत्तारूढ़ पार्टी आंकड़े गिनवाती है। भूख से मरते हुए लोगों को संसद से कोई वास्ता नहीं है और न ही संसद को उनसे। एक सालाना नाटक है। गंभीरता से खेला जाना चाहिए।
कोई झोल-झाल नहीं। संसद में डीपी यादव है। नहीं जानते अरे हत्याओं और लूट के दर्जनों लिखित और अलिखित मुकदमों का आरोपी। मधु कोड़ा है, कलमाड़ी है, ए राजा है-उनकी करीबी कनिमोझी है। प्रणव मुखर्जी है, जिसके पास आकंडें ही आंकडें है। ये सिर्फ बानगी है। नाटक की हर बार एक निर्धारित स्क्रिप्ट होती है। लेकिन ये अलिखित है और परंपराओं पर चलती है। नया डायलॉग आ जाता है कभी-कभी।
इस बार के नाटक का सबसे शानदार डायलॉग बोला है सलमान खुर्शीद साहब ने। सलमान खुर्शीद के इतिहास के बारे में आप जाने न जाने - लेकिन ताजा जानकारी ये है प्रधानमंत्री के अजीज है। सलमान साहब पर प्रधानमंत्री की नवाजिशों का दौर जारी है। कॉरपोरेट अफेयर्स से होते हुए अब कानून मंत्रालय संभाल रहे है। हर ऐसी कमेटी में शामिल है जिसमें प्रधानमंत्री की दूसरी आंख यानि कपिल सिब्बल साहब है। काश हमारे देश को आज भी ब्रिटेन से लार्ड जैसी उपाधि हासिल होती थी कपिल सिब्बल आज लार्ड कपिल सिब्बल के नाम से जाने जाते। खैर कपिल साहब इस बार गच्चा खा गये। डायलॉग सलमान खुर्शीद की जबान पर था।
संसद में मंहगाईँ की बहस के दौरान सरकार की लाचारी का बयान करते हुए सलमान साहब ने दीवार का मशहूर डायलॉग दोहराया। मेरे पास मां है। अब सरकार में और भी मंत्री है तो मां सिर्फ सलमान साहब के पास ही नहीं हो सकती है। लिहाजा सलमान साहब ने कहा कि हमारे पास यानि तमाम सरकार के पास मां है यानि अर्थशास्त्र के जानकार मनमोहन सिंह है। दुनिया में अगर कोई भी आदमी काम देखकर नौकरी देता तो मनमोहन सिंह को ऑफिस में भी नहीं आने देता कि अर्थशास्त्र का इतना ज्ञान और देश में भूख से तड़प रहे लोग बच्चे बेच रहे है आत्महत्या कर रहे है बाढ़ में डूब रहे है कर्ज में मर रहे है बीमार है औऱ ये साहब बता रहे है कि विकास हो रहा है।
बात मां की थी। दीवार फिल्म में माफिया डान अमिताभ को जवाब देते हुए ईमानदार पुलिस अफसर कहता है कि उसके पास और कुछ नहीं तो क्या मां तो है। लेकिन सलमान साहब की उच्च शिक्षित एड्वोकेटस है। अपने सहयोगी कपिल सिब्बल की तरह से प्रधानमंत्री की किचन कैबिनेट में शामिल है। ऐसे में हिंदी फिल्म के डायलॉग को उन्होंने ऐसे ही इस्तेमाल कर लिया कि इससे संसद में तालियां बजेगी। लेकिन उन्होंने फिल्म नहीं देखी है शायद फिल्म में उन दोनों का बाप नहीं होता है। अमिताभ को कई बार दुनिया चोर के बेटे के तौर पर जानती है। ऐसे में आपको ये परेशानी खड़ी हो सकती है कि पहले तो इन लोगों का बाप कौन है। ऐसे में सरकार के पास मां है तो शीलादीक्षित, विलासराव देशमुख, अशोक चव्हाण कौन है। बाप का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। दरअसल सलमान साहब देख नहीं पाएं उन्होंने कैसी मां चुना है जो दूसकों के बच्चों को लूटकर लाने वाले अपने बच्चों को सजा देने की बजाय इनाम दे रही है। एक ऐसी मां है सलमान साहब के पास जो एक बड़ी हवेली की आया रखी गयी थी लेकिन ये आया हवेली को लूट-लूट कर खा रहे अपने बच्चों को देख कर उनके बचाव के रास्ते देखती रहती है। और जब भी कोई सवाल उठता है तो खड़ी हो जाती है अपनी ईमानदारी की कहानी लेकर।
दरअसल सलमान खुर्शीद ने एक अधूरा डायलॉग बोला है। उनके पास एक मां ही नहीं बल्कि एक मामा भी है। लोगों को लग सकता है कि मोटेंक सिंह अहलूवालिया की भूमिका को अगर सलमान खुर्शीद देश को बताना चाहे तो इससे बेहतर रिश्ता अब वो कुछ नहीं बता पाएंगे। मनमोहन सिंह और मोटेंक सिंह अहलूवालिया ये ही जोड़ी है जो पिछले सात सालों से इस देश में चल रहे हर अर्थशास्त्र के फैसले के पीछे है। जिस भी नीति की घोषणा होती है जिसमें रूपये-पैसे का मामला होता है उसमें मनमोहन सिंह और मोटेंक सिंह की समझ शामिल होती है ऐसा ये देश मानता है।
देश को इनकी अर्थशास्त्र की समझ का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। कोई ये कहने को तैयार नहीं कि जनाब पिछले दो दशक से ये गरीब देश आपकी तारीफ कर रहा है। अखबारों और टीवी चैनलों ने रोज टट्पूंजियें नेता से लेकर देश के शिरोमणि तक मनमोहन सिंह कि ईमानदारी की तारीफ करते है। उनके अर्थशास्त्रिय ज्ञान के बारे में कशीदें पढ़ते है। लेकिन इसी दौरान दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। देश भर में भूखमरी और बीमारी ने कब्जा जमा लिया। गरीबी रेखा से नीचे लोगों का जीना दूभर हो गया। मंहगाईं ने आसमान तक पहुंचने की ठान ली। लेकिन इन जनाब को कुछ सिरा नहीं मिला। कोई अंधा आदमी भी समुद्र की आवाज सुनकर बता सकता है कि पानी की लहरें कितनी है लेकिन ये जनाब सिर्फ किताबों में पढ़ी और सुनी गई कहानियों की तरह से देश को देख रहे है। ये तो इनकी अर्थशास्त्र की समझ का मामला है।
रही बात ईमानदारी की। देश के साठ साल के इतिहास की सबसे भ्रष्ट्र सरकार का मुखिया है मनमोहन सिंह। ये रकम इतनी है कि आम तौर पर सड़क पर बिकने वाले कैलकुटर में तो समाएंगी भी नहीं। एक-एक घोटाला खरबों रूपये का। रकम का आंकड़ा दिमाग खराब कर देता है। दो लाख करोड़ एट्रिक्स-इसरो, पौने दो लाख करोड़ टेलीकॉम, सत्तर हजार करोड़ कॉमनवेल्थ घोटाला। नाक के नीचे और आंखों के सामने हुआ। हर घोटाले में पीएमओ की जानकारी भी सामने आ रही है। ये ईमानदारी का सबूत है। हर काम चल रहा है इन जनाब की जानकारी में और इनके जिस्म में कोई हरारत नहीं है।

सलमान साहब ने बात तो शायद सच कही है। कि प्रधानमंत्री के तौर पर इनकी पार्टी के पास एक मां है क्योंकि देश के ग्रामीण इलाकों में अक्सर बिगड़े बच्चों को देखकर बोला जाता है कि बचपन में इसको बाप की जूतियां नहीं पड़ी तभी इसको सही-गलत का पता नहीं है। ऐसे में हम जैसे तो सिर्फ ये ही कह सकते है कि काश इनका कोई बाप भी होता ........

Friday, July 29, 2011

टुकड़ों में कुछ

बहुत वक्त लगा इस शहर को जीने में यारों
खंजर मेरी भी आस्तींन में था
शमशीरों के इस शहर में
दिल नहीं मिला किसी के सीनें में यारों

हर चीज की कीमत यहां
हर एक अहसास के दाम यहां
शीशें से पत्थर तोड़ों
खून बहाकर रिश्तें जोड़ों

हुनर है तो मंजिल के लिए
धोखा है मंजिल का नाम यहां
धोखा खाया तो सीख लिया
धोखा दिया तो जीत लिया

आंखों में चमक की कमी नहीं
मुस्कुराहटों में बस नमी नहीं
हमने भी बहुत सीखा-भूला
पर अपनी बिसात जमी नहीं



पुष्पेन्द्र ग्रेवाल के एक लेख में लिखी गईं
एक सीरियाई कवि निजार कब्बानी की कुछ पंक्तियां

अगर हम अपनी जमीन /और मिट्टी के सम्मान /की हिफाजत करते हैं/
अगर हम अपने और अपनी जनता के/ बलात्कार के खिलाफ/ विद्रोह करते है
अगर हम अपने आसमान के/ आखिरी सितारे की हिफाजत करते है..
अगर यह पाप है/तो कितनी खूबसूरत है दहशतगर्दी/
इस सब के लिए मैं/अपनी पुरजोर आवाज बुलंद करता हूं/
मैं दहशतगर्दी के साथ हूं/जब तक नयी विश्व संरचना/
मेरी संतानों को जिबह करके/ उन्हें कुत्तों के आगे परोसती रहेगी
इन सबके खिलाफ मैं आवाज उठाता रहूंगा/ मैं दहशतगर्दी के साथ हूं





न कोई वादे वफा
न खतो-किताबत
इस तरह भी कोई जाता है
महफिल से रूठकर।
लहर से बच गयी तो क्या
वक्त की हवा थी जो ले गई
रेत की तस्वीर थी उसकी याद
गिरी औऱ बिखर गई टूटकर

Sunday, July 24, 2011

लुटेरों का लॉग मार्च

निवेशकों ने नोएडा में लॉगमार्च किया। अपने घर का सपना संजोंएं हुए हजारों निवेशकों ने नोएडा की सड़कों पर जूलुस निकाला। हाथों में उठाएँ हुए कार्डबोर्ड पर लिखा था कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मिले पैसे नहीं -घर चाहिए। ये सब वो लोग थे जिन्होंने अपने लाख-दो लाख रूपये और कुछ बैंकों से लोन लेकर बिल्डरों को देकर अपने लिए घर पक्का किया था। देश के आंख-नाक और कान में तब्दील हो चुके मीडिया पर इसका सचित्र प्रसारण जारी रहा। बौने से रिपोर्टर उछल-उछल कर निवेशकों के सपने टूट जाने और या फिर ऐसी ही लाईनें कि किसी ने अपनी जमा-पूंजी लगा दी है, या मां-बाप के जीपीएफ का पैसा लगा दिया है जैसी मध्यमवर्ग का दर्द जगाने वाली बाईट्स चला रहे थे। ऑफिसों में भी जो बातचीत चल रही थी उसमें भी ज्यादातर बौंनों का कोरस यही था कि बेचारे निवेशक लोगों का क्या कसूर।
पहली नजर में ये ही लग सकता है कि ये पांच हजार लोग अपने फ्लैट छीन जाने से दुखी है। लेकिन आपको बस इतना करना है पर्दे पर बौने मीडिया की ईबारत मिटानी है। और उसके बाद कोरी स्लेट पर अपने दिमाग से इस पूरे खेल को समझना है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की बेंच ने देश में चल रही लूट का पर्दाफाश करने के लिए बस पर्दे ही हिलाए थे कि देश को लूट के लिए इस्तेमाल कर रहे बिल्डर माफिया, भ्रष्ट्रराजनेताओं और नौकरशाहों का मजमा जुट गया अदालत के आदेश की ऐसी की तैसी करने में। पहले आदेश के खिलाफ पहुंचें सुप्रीम कोर्ट में। करो़ड़ों रूपये की फीस के सहारे दूसरे के बाप को अपना बाप साबित करने को तैयार दलालों की एक पूरी फौंज ने पैरवी की कि ये गलत हो रहा है। लगभग इसी अंदाज में को देश की सबसे बड़ी अदालत ने जानना चाहा कि क्या गलत हो रहा है तो उनका जबाव था हजारों निवेशकों के साथ अन्याय हो रहा है ये बताने को कोई तैयार नहीं था कि भाई किसानों का क्या हो रहा है। कोर्ट ने भी देखा कि लूट के लिए किस तरह का शानदार प्लान तैयार किया जा रहा है। और कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी।
इस पूरी कवायद में कोर्ट ने देश के उन हजारों लोगों का संवैधानिक अधिकार बरकरार रखते हुए कि जिन का पैसा बिल्डरों ने लिया है उनका पैसा वापस किया जाएगा और ये रकम सूद समेत वापस की जाएंगी। अगर निवेशक ईमानदार होते या फिर उनका देश के गरीब और असहाय किसानों से और देश के कानून से कोई रिश्ता होता तो बात यहीं खत्म हो गयी थीं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद सबसे पहले निवेशकों के पैसे का दर्द का रोना बिल्डरों के एडवर्टाईजमेंट से चलने वाले बौंनों ने रोया। मासूमियत के साथ सवाल बस इतना था कि निवेशकों की गाढ़ी कमाईं का पैसा कौन वापस करेगा। टीवी देखने वाली मध्यमवर्ग की जनता के लिए ये दर्द बहुत बड़ा दर्द है। आखिर में आंसूओं से भरी बाईट्स चलने लगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने तो इस योजना पर ही पलीता लगा दिया कि पैसे से खरीदी गई बाईट्स से पिघल जाएगी देश की सबसे बड़ी अदालत। अदालत ने आदेश दिया कि पैसा वापस हो जाएंगा सूद समेत।
अब आपसे एक सीधा सवाल है कि यदि आपकी लगाई गई लागत मय ब्याज के आपको वापस मिल रही है तो क्या ये आपके साथ अन्याय है। यानि जिन लोगो ने देश में लूट के लिए अपना निवेश किसी बिल्डर के पास नहीं किया बल्कि बैंक में किया वो लोग बेवकूफ है। उन के पास बस लूट में हिस्सेदारी के लिए केवल ढाई लाख रूपये लगाने का कलेजा होना चाहिएं था फिर वो भी इस वक्त भ्रष्ट्राचार के भगवान बने हुए बिल्डरों के साथ गरीब, किसान या असहाय लोगों को लूटने के वहशियाना खेल में शामिल हो सकते थे। एक नया शब्द है जो इंग्लिश पत्रकारों में काफी चलन में है ब्लड मनी यानि खूनी पैसा इसका अनुवाद सही नहीं है आप समझ नहीं सकते है। इसको इस तरह समझा सकते है कि ऐसा पैसा जो खूनी लूट का हिस्सा हो। इन इनवेस्टर यानि निवेशकों को वहीं ब्लड मनी यानि देश के खूनी लूट में अपना हिस्सा चाहिएँ। और इस खबरों को दिखाने का अपना पुनीत कर्तव्य निबाह रहा बौना मीडिया बिल्डरों के टुकड़ों पर अपनी निगाह गढ़ाऐँ बैठा है। ये तो सिर्फ आम सीन है जो आप मीडिया की स्लेट से हट कर पढ़ कर सकते है। लेकिन इससे आगे की कहानी भी आपको दिख सकती है।
एक-एक इनवेस्टर यानि निवेशक ने पचास-पचास या सौ सौ से ज्यादा फ्लैट बुक कराएं हुए है। देश में इस दलाली को पनपाने वाले आर्थिक नीति के समर्थकों ने जब सबसे पहले एक परिवार को एक मकान की शर्त गायब कराई थी तब से पैदा हुई हजारों लाखों करोड़ की रकम ने लगभग करो़ड़ के पार ऐसे नये अमीर पैदा कर दिये थे जो ऐसे लूट में बिल्डरों की ढ़ाल बन कर इस साजिश को कामयाब करते रहते है। ये ट्रिकल डाउन थ्योरी की नाजायज औळाद है जो हिंदुस्तान में गरीब आदमी के लिए रोटी से दूर करने में अपना योगदान दे रही है।
जाति के ठेकेदार से राजनेताओं में तब्दील लुटेरों का गठजोड़ और पर्दे के पीछे छिपे नौकरशाहों के दिमाग के सहारे किसानों की जमीने रातो-रात बिल्डरों के हाथों में पहुंच रही है। किसी मीडिया हाउस को नहीं दिखा कि कैसे हजारों एकड़ जमीन का लैंड यूज पलक झपकते ही बदल गया। ऐसा नहीं कि किसी को कानो-कान खबर नहीं हुई। मीडिया में बहुत से रिपोर्टरों को इसका हाल मालूम था लेकिन या तो चैनल और अखबार ने छापा नहीं या फिर रिपोर्टर ने अपने लिए कुछ इंतजाम कर लिया। फिर ये खेल शुरू हुआ। फिर बिल्डरों को एक और सहूलियत दी गई कि आप जमीन का पैसा दस साल में दस किस्तों में दें सकते हो। यानि जमीन के लिए सिर्फ दस परसेंट और नेताओं की रिश्वत का पैसा देना था बाकि अरबों रूपये के बारे-न्यारें। इनमें से कई बिल्डर्स के पुराने प्रोजेक्ट अभी अधूरे पड़े हैं लेकिन नोएडा एक्टेंशन में तो लूट की आंधी थी लिहाजा पहले इसके आम अपनी टोकरी में डाल लेने थे बाकि तो अपने बगीचे में फल है ही। इसी तर्ज पर लूट चल रही थी। बैंकों ने धड़ा-धड़ लोन करने शुरू कर दिएं एक ऐसी जमीन पर जिसका पूरा पैसा तो असली मालिक ने भी नहीं चुकाया था। इस लूट में जिनता आप गहरा उतरते है उतनी ही आपकी आंखें हैरत से फटती चली जाती है। ये लूट केन्या,सोमालिया और रवांडा जैसे देशों को भी शर्मा सकती है। नौकरशाह और टके के कबीलाईं नेता ने लूट को इस तरह से अंजाम दिया कि कोई भी कानून शर्मा जाएं।
रही बात बिल्डरों की तो उनका खेल साफ है। पैसा किसी कीमत पर नहीं देना है। लूट के लाखों करोड़ रूपये को हजम करने के बाद उसको उगलना एनाकोंडा के लिए आसान होगा लेकिन बिल्डरों से निकलवाना काफी मुश्किल है। लूट में दुनिया के इतिहास में अपनी जगह दर्ज करा चुके यूपी के नौकरशाहों और राजनेताओं के गठजोड़ से एक भी रूपया रिश्वत वापस नहीं होंगी। तब वो क्या करेंगे। रास्ता साफ है मीडिया का हल्ला साफ है। आप को दिख रहा है कि ये इनवेस्टर के हक की बात कर रहा है। ऐसा नहीं है दरअसल मीडिया के इस हल्ले का सच है कि पैसे वापस करने के खेल में बिल्डर का साथ दे सरकार और सरकारी बैंक। यानि सरकार पैसा वापस करने में बिल्डरों का हिस्सा बटाएं और उनको कुछ बैंकों से कम दर पर ब्याज दिलादें। अब ये समझने की बात है कि ये सरकार क्या है जिसका हल्ला मीडिया मचाता रहता है। ये पैसा कहां से लायेगी। पैसा लाएंगी सड़क पर तन बेचकर रोटी खाने वाली और परिवार चलाने वाली औरतें। दिन भर दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर और साल भर मेहनत कर मिलमालिकों और आड़तियों की तिजोरियों को भरने वाले किसान। क्योंकि टैक्स लगाकर ही तो इस रकम की भरपाई हो सकेंगी। यहीं है पूरा खेल मीडिया के इस हल्ले का और इनवेस्टर्स के वेष में मार्च कर रहे लुटेरों का। इसका क्या मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट कह रहा है ये जमीनें अवैध तौर पर जुटाईं गई है लोगों की रोजी-रोटी छीनी गयी है उनसे सवैंधानिक तौर पर राहजनी की गयी है लेकिन इससे इन लुटेरों को क्या। ये तो लूट में अपना हिस्सा चाहते है।
कहानी साफ न हो तो इसको यूं समझें कि एक अपराधी चरित्र के आदमी ने वादा किया कि वो एक लड़की को ला रहा है उससे मुजरा कराएंगा और देह व्यापार कराएंगा। कुछ धनवान लोगों ने पैसा दे दिया। लड़की आने ही वाली थी कि खरीददार पकड़ा गया और पता चला कि वो उस लड़की को शादी का धोखा दे कर ला रहा था और किसी कारणवश उसकी पोल खुल गयी। कानून ने उससे धनवान लोगों के पैसे भी दिलवा दिएं लेकिन उनकी जिद है कि वो तो उस औरत से अब जिना करके ही मानेंगे क्योंकि उन्होंने पैसे इसी शर्त पर दिए थे कि उनकी रात रंगीन होगी। अब ये रात रंगीन करने के लिए वो आदमी यानि बिल्डर चाहते है कि उनकों रिहा कर दिया जाएं।
एक और खबर पर आपकी नजर रहनी चाहिएं कि सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में सरकार और सबसे अहम योजना आयोग को एक पहेली सुलझाने के लिये कहा है कि कैसे 17 रूपये से ऊपर रोज कमाने वाला गरीबी रेखा से ऊपर है। यानि 17 रूपये में 2400 कैलोरी कैसे आ सकती है इसको हलफनामें बताने को कहा है। देश को अपनी बाजीगरी से अमेरिकी उपनिवेश में बदल चुके मोंटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की जोड़ी कौन सी चाबी से इस ताले को खोलेंगी देखना दिलचस्प होगा। एक बार फिर श्रीकांत वर्मा की ये कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं।
चेचक और हैजे से /मरती है बस्तियां/
कैंसर से/ हस्तियां/ वकील/ रक्तचाप से/
कोई नहीं/ मरता /अपने पाप से

Saturday, July 16, 2011

मुंबई में आतंकी हमला और युवराज का बयान

जंगल में एक आवारा राक्षस का आतंक था। लोगों ने तय किया कि राक्षस को हर रोज एक आदमी रोज राक्षस को खाने के लिए भेज दिया जाएं। इससे राक्षस भी खुश और शहर का कामकाज भी चलता रहेगा।......कहानी आगे भी है। लेकिन राहुल गांधी को सिर्फ इतना ही याद रहा। अपनी भाषा से इतर रहने के कुछ नुकसान होते है ये नुकसान भी कुछ ऐसा ही है। मुंबई में हुए बम धमाकों के बाद कांग्रेसियों के कल की सुनहरी उम्मीद यानि युवराज राहुल गांधी ने बयान दिया कि ऐसे आतंकवादी हमले रोके नहीं जा सकते। एक दो हमले तो होते रहेंगे। तब ये कहानी याद आ गयी। बस अब करना ये है कि राहुल गांधी को अपने चाटुकार नंबर बन दिग्विजय सिंह को ये जिम्मेदारी दे सकते है कि वो देश में ऐसे लोगों की पहचान कर ले जिनको आतंकवादियों के सालाना हमले में बलि के लिए पेश करना है। उन मासूम बच्चों की तस्वीरें और उन बेसहारा रह गये बूढ़ों को राहुल गांधी अपनी मासूमियत से समझा देंगे कि देश के लिए उनके बाप या बेटों की बलि जरूरी थी। दुनिया का सबसे ज्यादा डिसीप्लीन्ड प्रधानमंत्री मुआवजें की घोषणा कर देगा। चाहे तो जनार्दन दि्वेदी और सत्यव्रत चतुर्वेदी उन बलि के बकरों को संघ का आदमी बताकर मुआवजा भी बचा सकते है।
मुंबई पर हमले जंगल में होने वाली मौत की तरह से है। हल्ला मचा, बंदरों इधर से उधर कूदे। चिडियों ने शोर मचाया और उड़ गयी। मौत किन्हीं मासूमों को झपट्टा मार कर गायब हो गयी। जंगल शोक नहीं मनाता और न ही मुंबई। मुंबई के लोगों ने अगले दिन बाजार खोला। ट्रेनों में यात्राएं की। अपने कामकाज किये। और देश की लंबाई में सबसे बौने यानि नेशनल मीडिया के लिए बाईट्स मुहैय्या कराई। शेअर मार्किट हमेशा की तरह से ऊपर चढ़ गया। ये हैरानी की बात है कि 26/11 में भी शेअर मार्किट ऊपर चढ़ गया था। आतंकी हमले और मासूमों की मौत से शेअर मार्किट का रिश्ता देश के दलालों से देश के रिश्ते को जाहिर करता है। हमला होता है तो बयान देने का सिलसिला जारी हो जाता है। कोई भी बयान जारी करता है। और उन बयानों पर सबसे पहले नेता-राजनेता और फिर मीडिया के बौनों की बारी होती है।
देश का गृहमंत्री बयान देता है कि पुलिस की चूक नहीं है। इंटेलीजेंस की कोई कमी नहीं। पुलिस ने 31 महीने से हमला नहीं होने दिया। बेचारे गृहमंत्री को याद ही नहीं रहा कि आतंकवादियों ने पिछले 31 महीने से देश में कई जगह हमले किये। लेकिन गृहमंत्री को पिछले कुछ दिनों से याद है तो बस 2 जी स्पेक्ट्रम में अपना नाम न आ जाए बस यही कवायद। चिदंबरम की छवि को इस तरह से बनाया गया कि ये सुरक्षा के ताम-झाम नहीं रखते। रात दिन काम करते है। लेकिन ये छवि फाईनेंस मंत्रालय में क्या कर रही थी।
ए राजा जब देश के लाखों करोड़़ रूपये भ्रष्ट्र बिजनेसमैन के साथ मिलकर लूट रहे थे तो ये ही चिदंबरम साहब उसको वैधानिक बनाने में जुटे है। इनके मेहनताने को खोजने में जुटी है सीबीआई और ये उसको छुपाने में। ऐसे में आपको उम्मीद हो कि ये बताएंगे कि देश को आतंकवादियों से बचाने के प्रयासो में विफलता मिली हो या न मिली हो लेकिन चिदंबरम को कानून का फंदा अपने से दूर रखने में जरूर कामयाबी मिली है।
ये पुलिस वही है जो बेगुनाहों को पकड़ कर आतंक के केस खोल सकती है। ये वही पुलिस है जिसने मुंबई ट्रेन ब्लास्ट में जाने किन को पकड़़ कर केस खोल दिये। दिल्ली के सरोजनीनगर ब्लास्ट में पकड़ लिए हवाला डीलर और भी कई केस खोल दिये।
आम जनता को उन अफसरों के भरोसे छोड़ दिया है जो सिर्फ जुगत भिड़ा कर मुंबई में पैसा वसूली में जुटे है। जुहू में पुलिसकर्मियों के आवास के लिए आरक्षित एक प्लाट को आईपीएस अफसरों के ग्रुप ने अपनी सोसायटी बनाकर हासिल किया उसमें मंहगें फ्लैट बनाये। और इसके बाद सबको किराये पर दे दिया। बिल्डिंग का ग्राउंड फ्लोर एक निजि कंपनी को दिया है। लगभग 72 लाख रूपये महीना किराये पर। 36 फ्लैट बने है जिनमें हर फ्लैट ऑनर को लगभग दो लाख रूपये महीना मिला। इसके अलावा उन फ्लैटों में रहने वाले देश के आईपीएस अफसरों ने फ्लैट किराएं पर दे दिये और खुद सरकारी फ्लैट में गरीब जनता का खून चूस रहे है। ये खबर किसी चैनल को नहीं दिखाई दी। एक न्यूज पेपर में दिखा कि कुछ अफसरों को महीने में लगभग चार लाख रूपये महीना भी मिल रहा है। ऐसे ही फ्लेट में रह रहे है महाराष्ट्र के राजा आईपीएस। इनमें से कोई आईजी है कोई डीआईजी कोई एडीजी इन्हीं के कंधों पर है देश की जिम्मेदारी। कोई भी साफ चैक कर सकता है कि कैसे ये अफसर लुटेरों को मात दे रहे है। लेकिन कानून में इन लोगों को देश का तारणहार बनाया गया। बिना किसी जिम्मेदारी के बस लूट ही लूट। जितना चाहे लूट लो। हैरानी है कि इस सोसायटी में उन आईएस अफसरों को भी शामिल किया गया है जिन-जिन के हाथों से सोसायटी की फाईल गुजरी।
रही बात बौने मीडिया के लोगो की। आप सिर्फ किसी एक चैनल को लगातार देखते रहे। दो दिन तक उसकी खबरों को लिखते रहे या फिर रिकार्ड करते रहे। फिर आप देखेंगे कि पहले दिन जिस तरह मुंबई रो रही थी उनके शब्दों में अगले दिन वही मुंबई हौसला दिखाती है। कैसे दिखाती है मुंबई अपना हौंसला ये भी जान लीजिये उनके शब्दों में अपना रोज का काम करके। यानि घर में लाशें पड़ी हो और बेटा जाकर दुकान खोल ले तब उसको नालायक बताते है ये लोग-लेकिन वहीं मुंबई के बेमुरौव्वत लोग अपने घर में पड़ी लाशें से बेशर्मी से दूरी बनाते हुए अपने काम पर चलते है रोजाना- ये हौसला है तो वाकई काबिले तारीफ हौसला है। बाकि दुनिया में मैंने कभी नहीं देखा कि ऐसा हौसला कोई दूसरा नहीं दिखाता।
दरअसल ये देश का आतंकवाद के प्रति नजरिया है। जो चाहता है सिर्फ वहीं रोएँ जिनके मर गये है। बाकि के लिए या तो वो बेचारे है, कुछ जिंदा बाईट्स और टीआऱपी है या फिर कुछ के लिए वोट है। अगर मुंबई के लोग एक दिन जिंदगी थाम ले। सड़क पर निकल कर मरने वालों के लिए दो बूंद आंसू बहा दे तो शायद उसको इस का मर्म मिल जाए कि क्यों जूता और जबान एक हो गयी है नेताओं की।
दिग्विजय सिंह के बयान पर नजर डाल लो-सरकार सक्षम थी और उसने बहुत दिन तक आतंकवादियों का मंसूबा फेल रहा। ऐसे में ये विलाप ऐसा ही लगता है जैसे किसी की बेटी के साथ रेप हो जाएँ और वो आदमी इस बात के लिए खुश हो रहा हो कि चलो वो नाना तो बन जाएंगा।

Sunday, July 10, 2011

बौनो का कोरस-लोकतंत्र का संकट

मेरे लोगो:
दुख से समझौता न करना-वरना दुख भी कड़वाहटों की तरह
तुम्हारे जायके का हिस्सा बन जाएंगा
तुम दुख के बारे में गौर करना.....

मेरे लोगो,
दुख को जब पहचानोंगे तो उसका कर्ज उतारोगे....................

इस समय देश में लूट का महोत्सव जारी है। कोई भी मंत्री अरबपति से कम नहीं है। खुली लूट है। कोई पूछने को तैयार नहीं है। समापन यूं ही चल रहा है आजकल हर आम आदमी की बातचीत का। प्रदेश हो या फिर केन्द्र सरकार पूरी तरह से लूटने में लगी है। कोई भी पॉलिसी ऐसी तैयार नहीं हो रही है जिसमें देश की दो तिहाई आबादी का दर्द या उसका अक्स दिखता हो। हां प्रोजेक्ट रोज पास हो रहे है। एक चीज ओर दिखती है कि रोज प्रोजेक्ट की कॉस्ट में ईजाफा होता जा रहा है। पहले एक हजार करो़ड़ का प्रोजेक्ट होता था तो बड़ी बात होती थी। आज छोटे से छोटे राज्य में पांच-से पचास हजार करोड़ के प्रोजेक्ट पास हो रहे है। देश में बहस जारी है कि लोकपाल बिल कैसा हो। संसद में भूमि अधिग्रहण कानून किस रूप में पास हो। बाबा रामदेव और उसके साथी आचार्य बालकृष्ण किस तरह से ढ़ोंगी है। योगी होकर भी राजनीति करते है। संसदीय लोकतंत्र को खतरा बढ़ता जा रहा है। इस तरह के वक्तव्य रोज जारी कर रहे है सरकार के प्रवक्ता। देश का बौना माफ करना नेशनल मीडिया इस को कवर कर रहा है। मीडिया की इस भेडिया-धसान में किसी भी विदेशी को लग सकता है कि देश में एक सरकार है जो रोज उपद्रवियों से जूझ रही है। मंत्रियों को एक ऐसे विपक्ष से सामना करना पड़ रहा है जो सरकार के खिलाफ विदेशों से पैसा ले रहा है। बाबा और सिविल सोसायटी नाम की संस्था लोकतंत्र पर कब्जा कर इसे विदेशियों के हवाले करना चाहती है। लेकिन देसी आदमी को हैरानी हो रही है कि आखिर लाखों करोड़ का बजट चलाने वाली सरकार को एक बाबा और उसके चेलों या फिर सिविल सोसायटी जैसे संगठनों से निबटने के लिए रोजाना अंत्याक्षरी करने की क्या जरूरत है।
आप को समझना है। मीडिया में अंत्याक्षरी से बाबा रामदेव टीआरपी बनाता है। अन्ना हजारे सरकार के खिलाफ लोगों के गुस्से का बायस बनता है। लेकिन हकीकत ये लगती नहीं है। दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के एक मंदिर में घर बना कर रहने वाले अन्ना हजारे में और महात्मा गांधी में हजारों जन्मों का नहीं तो सैकड़ों जन्मों का अंतर जरूर होगा। अपने हर भाषण में भगतसिंह और सुभाष चन्द्र बोस का नाम लेने वाले रामदेव में और देश के लिए मरमिटने वाले क्रांतिकारियों में जमीन और आसमान से भी ज्यादा फर्क होगा। फिर ऐसा क्या है कि सरकार इन सबको उतना चढ़ा रही है। कारण साफ है देश में ऐसा कुछ चल रहा है जिसको सरकार छुपा रही है और अपने इशारे पर नाचने वाले बौनों के सहारे छोटी-छोटी घटनाओं को इतना बड़ा दिखा रही है कि आप इधर-उधर देखने की बजाय सिर्फ अंत्याक्षरी देंखें।
सालों तक रिटेलिंग में आने को बेकरार विदेशी कंपनियों को इक्यावन फीसदी निवेश की अनुमति दे दी गई। अमेरिका से एक दो दस नहीं बल्कि पचास हजार करोड़ रूपये के रक्षा सौदे कर लिए गए। परमाणु ऊर्जा पर समझौते के लिए जो सपने दिखाएं गये थे वो एक-एक करके झूठे साबित हो रहे है। कभी परमाणु सौंदे का विरोध करने वाले और न दिखने वाले पर आसानी से समझ में आने वाले कारणों से बाद में सरकारी भोंपू बन कर इस सौदे को अंजाम देने वाले काकोदकर भी कह रहे है कि देश पर दबाव डाल रही है विदेशी ताकतें। कावेरी बेसिन में हजारों करो़ड़ रूपये के फायदे के सौदे देश के सबसे बड़े भिखारी(माफ करना अमीर) अंबानी की झोली में डाल दिये गए।
सरकार को इस बात से कतई खतरा नहीं है कि एक लोकपाल बन जाएंगा। क्योंकि कोई भी लोकपाल इस देश के मौजूदा संविधान के अंदर कभी वोट बटोरने वाले राजनेता को अंदर नहीं कर पाएंगा। ये धुव्र सत्य है। ये थामस की तरह से एक और सफेद हाथी साबित होगा। एक ऐसा हाथी जिसके खाने का इंतजाम सोनागाछी, कमाठीपुरा या फिर दिल्ली के जीबी रोड़ पर रोटी के लिए तन बेचने वाली औरते अपने पैसे से करती रहेगी। कई आईएस अफसरों के लिए नया ठिकाना बन जाएंगा। हजारों कर्मचारियों के लिए नौकरी का रास्ता खुल जाएगा। लोकपाल की मांग करने वाली सिविल सोसायटी के नुमाईंदों को देखने भर से लग जाता है ये किस तरह की लोकपाल की मांग कर सकते है। अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी ऐसे पद पर रह कर लौटे है जो मध्यमवर्ग के सपनों का आखिरी पड़ाव होती है यानि आईआरएस और आईपीएस। शांति भूषण और प्रशांत भूषण कई सौ करोड़ रूपये का तो टैक्स सरकार को दे चुके है। आज प्रशांत भूषण और शांति भूषण कमाना बंद कर दे तो भी सैकड़ों साल तक अपनी कार में पेट्रोल डलवा कर घूम सकते है। ऐसी उनके पास हैसियत और ताकत है। अन्ना साहब ने दोहराया कि ये अच्छे ड्राफ्ट करने के लिए जरूरी है। कोई भी कह सकता है कि बाबा जी इनसे बेहतरीन ड़्राफ्ट तो कोई क्लर्क भी कर सकता होगा जो पैसे वसूलने में बेहद दक्ष हो। हमको ड्राफ्टमैन नहीं सच्चे लोग चाहिए थे जिनको गरीबों से सहानुभूति नहीं समानुभूति हो। लेकिन ऐसे आदमी कहां से लाएं। जो राजा को नंगा कहने का साहस जुटा सके। लिहाजा ये भी सिर्फ जबानी जमा खर्च ही है।
रही बात बाबा रामदेव की तो 1995 में हरिद्वार में दवाईयां बनाने वाले बाबा आज हजारों करोड़ रूपये के मालिक है। इस पर कोई ऐतराज किसी को नहीं हो सकता है। उन्होंने अपने कामयाब चार्टड एकाउंटेंट्स की मदद से एक ऐसा जाल तो बुन ही दिया है कि अपनी सारी ताकत और हैसियत के बावजूद केन्द्र सरकार कुछ पकड़ नहीं पा रही है। आखिर सरकार में बैठे लोगों ने बाबा के यहां लंबे अरसे तक कार्निश की है। तो अपनी उस बुद्दि का सहारा जरूर बाबा को दिया होगा जिससे वो साठ सालों से देश को लूट रहे है बाकायदा संवैधानिक तौर पर मालिक बनकर। कोई भी आदमी चार जून की रात पुलिस की असंवैधानिक कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता है। जिस पुलिस कमिश्नर को किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभी जेल में होना चाहिए था वो रिटायरमेंट के बाद यकीनन किसी भी राज्य में राज्यपाल बनने की तैयारी कर रहा होगा।
इस समय देश में सरकार को बचाने की जिम्मेदारी है कपिल सिब्बल पर। कपिल सिब्बल इस वक्त मनमोहन के सबसे करीबी मंत्री है जो संगठन से ज्यादा इस समय प्रधानमंत्री की वकालत में जुटे है। लेकिन कई भारी-भरकम मंत्रालय संभाल रहे कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट के नामी-गिरामी वकील है। अपनी वकालत के कैरियर में उन्होंने कितने गरीब लोगों के लिए केस लड़े है और कितनी पीआईएल में वो पार्ट रहे है अगर पता करेंगे तो पता चलेगा कि एक भी नहीं या फिर आपके हाथ में उंगलियां ज्यादा होगी उनकी सहभागिता के केस कम होगें। वो देश की क्या सेवा कर रहे थे कि मंत्रीमंडल में उनको शामिल किया गया। उनका सार्वजनिक जीवन में इतना ही योगदान है कि उन्होंने अमीर और बड़े लोगों के करप्शन में उनका बचाव किया कानून की बारिकियां निकाल कर जिस कानून को बनाया गया था कमजोर और गरीब लोगों की रक्षा के लिये। यही एकमात्र योग्यता थी उनकी सरकार में शामिल होने की। क्योंकि उनको ये अच्छी तरह से मालूम है कि ताकत कहां है लिहाजा उसका फायदा उठाना आता है। किसी पानीदार आदमी से कहों कि आपने पंचायत में झूठ बोला था तो वो शर्म से गर्दन नहीं उठाएंगा। लेकिन इनको महारथ हासिल है झूठ बोलने में उसको दोहराने में और फंस जाने पर फिर कोई नया झूठ बनाने में। आखिर सीएजी में इन्होंने किस गणित से राजा की रक्षा की। इनके मुताबिक तो कोई नुकसान हुआ नहीं था देश को तो फिर इनके होते हुए राजा जेल में क्यों है। सीबीआई चार्जशीट क्यों कर रही है। इनकी आत्मा जरूर दुख रही होगी अमीर लुटेरों को जेल जाते देख कर। अब एक नयी कहानी सामने आई है रिलाइंस इन्फोकॉम को जुर्माने में राहत देने संबंधी। सच में झूठ बोलने वाले कपिल सिब्बल को बचाव नहीं सूझा तो बौनों को ही सलाह देने लगे कि सही तरह से कवरेज करें। किस तरह से कवरेज करे भाईसहाब बता दे। रिलायंस पर जुर्माना बढ़ाने की बजाय घटाने की तारीफ करे। जीं हां यही लूट का अर्थशास्त्र है जो देश में इस समय चल रहा है। कभी कोई ये कह सकता है कि कानून की इन बारीकियों को लिखा गया था अमीर लोगों को गरीबों का खून चूसने देने के लिए या फिर देश के उस सबसे गरीब आदमी की महाजनों से सुरक्षा के लिए।
और अब कपिल सिब्बल को लग रहा है कि लोकतंत्र खतरे में है। क्योंकि बौंनों के कौरस में भी देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग जाग रहे है। सवाल कर रहे है और उनको किसी अन्ना के लोकपाल या फिर रामदेव के योग की नहीं सिर्फ जाति औऱ क्षेत्रवाद के खोल से बाहर निकल कर लुटेरों की पहचान करनी है। इसी खतरे की ओर इशारा कर रहे है देश के सबसे जहीन और महीन मंत्री कपिल सिब्बल साहब।

पता नहीं क्यों लेकिन मन कह रहा है कि पाकिस्तान की एक अनजान सी कवियत्री की उपर की पक्तिंयों को पूरा पढ़ना चाहिएँ...
मेरे लोगो
दुख के दिनों में सूरज के रस्ते पर चलना
उसके डूबने-उभरने के मंजर पर गौर करना
मेरे लोगो झील की मानिंद चुप न रहना
बातें करना,चलते रहना , दरिया की रवानी बनना
मेरे लोगो
दुख से कभी समझौता मत करना, हंसते रहना
दुख के घोड़े की लगामों को पकड़ हवा से बाते करना
ऊंचा उड़ना.....
शाहिस्ता हबीबी

Thursday, June 23, 2011

मोंटेक और मनमोहन के अमीर की मौत

नेशनल हाईवे 58 से गुजर रहा था। सड़क के किनारे यातायात रूका हुआ था और भीड़ थमीं हुईं थीं। सुबह के आठ बजे थे। कार से उतर कर देखा तो एक बुजुर्ग महिला बेसुधी के आलम में रो रही थी। बुजुर्ग औरत ने अपनी धोती के पल्ले से एक लाश का चेहरा ढ़का था। लाश का चेहरा नहीं दिख रहा था। बराबर में एक टुटही साईकिल पड़ी थी। बुजुर्ग महिला लाश को अपना बेटा लाल और जिगर का टुकड़ा कह कह कर बेहोश हुई जा रही थी। थोड़ी सी दूरी बनाकर कुछ सिपाही और एक सब इंस्पेक्टर हाथ में डायरी लेकर बस खड़े थे। कुछ देर बाद एक पुलिस वाले ने मजदूर की जेब में हाथ डालकर एक काली सी छोटी डायरी और उसमें कुछ हिसाब लिखे पन्ने निकाले। जेंब में चंद सिक्कों के अलावा कुछ भी नहीं था। पूछने पर मालूम हुआ कि ये एक मजदूर था। जो यूपी के पूर्वी हिस्से से इधर गाजियाबाद मजदूरी करने आया था। उसको यदि काम मिलता था तो रोज 110 रूपया मिलता था। तब लगा कि अरे ये तो देश के एक गरीबी रेखा से उपर के आदमी की लाश है। एक ऐसे आदमी की लाश है जो मोंटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की गरीबी रेखा के फार्मूलें को पार कर चुका है। ये तो एक अमीर आदमी की लाश है। जिस पर रोने के लिए एक भूखी, बीमार और उम्रदराज महिला के अलावा कोई नहीं है। उसको घर तक ले जाने के लिए व्यवस्था नहीं थी। उस अमीर आदमी के हाथों में सड़क के किनारे अमीर बनाने वाले पत्थरों की बनी सस्ती अंगूठियां थी। हाथों में गंडें और ताबीज भी बंधें थे। और एक प्यार करने वाली मां की दुआएं भी उसके साथ थी। लेकिन इन सबके बावजूद मोंटेक सिंह अहलूवालिया या इस देश के वित्त नीति के नियामकों की लाईं गयी नीतियों को नहीं हरा पाया। वो मौत के जाल में फंस गया। भूख और कुपोषण के चलते अकाल मौत के रास्ते चला गया। ये एक नये भारत के सपने के अंदर की एक छोटी सी तस्वीर है। ये उस भारत की तस्वीर है जिसने हाल ही में अमेरिका को कई अरब डॉलर दिए है सिर्फ युद्ध में काम हाने वाले हवाईजहाज हरक्यूलीस के सौंदे के लिए। ये उसी भारत का मोंटेकसिह अहलुवालिया का अमीर था जिसने हजारों करोड़ के सौंदे अभी रक्षा के लिए किये है। ये उसी भारत की तस्वीर है जिसने अभी कॉमनवेल्थ करा कर पूरी दुनिया में अपना डंका बजाया है। कई बार लगता है कि पता नहीं ये मजदूर मरने से पहले ये भी जान पाया है कि नहीं कि देश चन्द्रमा पर अपना चन्द्रयान भेजने वाला है। लेकिन ये तो मर गया। एक दो दस नहीं हजारों लोग रोज मर रहे है बिना मनमोहन सिंह के सपनों के जाने बिना। क्या कोई रास्ता है इन लोगों को मरने से पहले ये बताने का कि पूरी दुनिया में उनकी ताकत, हिम्मत और तरक्की की मिसाल दी जा रही है। दुनिया में अब वो महाशक्ति है। अमेरिका का राष्ट्रपति भी रोज उनका नाम लेता है और हाथ जोड़ कर अमेरिकियों की नौकरी बचाने की गुजारिश करता है। लेकिन इसमें एक गड़बड़ जरूर है कि इस मर गएं मजदूर का नाम तो मोंटेक सिंह को भी नहीं मालूम और मुझे भी नहीं मालूम तो दुनिया इसे किस नाम से धन्यवाद दे रही है इसका लोहा मान रही है ...पता नहीं।
देश का वित्त मंत्री का ऑफिस बग्ड हो रहा है। पहले ऐसी खबर आती है। फिर पता चलता है कि दस महीने पहले की घटना है। फिर नया खुलासा होता है आईबी से पहले किसी निजि जासूसी एजेंसी को बुलाकर दिखा दिया गया। फिर तार जुड़ते है और मुड़ जाते है गृहमंत्रालय की ओर। यानि देश के एक मंत्री की जासूसी दूसरा मंत्रालय कर रहा है। बात खुलती है या खोल जाती है मालूम नहीं। हल्ला हो जाता है। तब वित्त मंत्री ऐलान करते है नहीं जासूसी नहीं च्यूंईंगम चिपगाई गयी थीं। और आईबी ने कहा था कि कुछ गंभीर नहीं है। आईबी गृहमंत्रालय के अंडर आती है।
एक नया चिट्ठी आती है सीएजी से। देश के पेट्रोलियम मंत्रालय ने मुकेश अंबानी को दिए गएं के जी बेसिन के ब्लॉक नंबर 6 में हजारों करोड़ की रकम फालतू लगाकर खोज की और कुएं मुकेश को हैंडओवर कर दिए। ये रकम हजारों में करोड़ है। कभी जनमोर्चे के ईमानदार रहे बेचारे जयपाल रेड्डी का कहना है ये तो सीएजी का पहला ड्राफ्ट है अभी जल्दी न करें। हां जयपाल रेड़्डी जी को मालूम है उनके पहले मंत्रालय की निगरानी में हजारों करोड़ रूपये के कॉमनवेल्थ में कैसे बाद के ड्राफ्ट तैयार हुए है। इसका भी हो जाएंगा।
फिर एक खबर आती है कि देश के निजि हो या सरकारी सभी बैंकों ने अपनी तय लिमिट से आगे जा कर मुकेश अंबानी और उनके भाई अनिल अंबानी को हजारों करो़ड़ में कर्ज दे दिए। खबर बस यही तक आती है आरटीआई के हवाले से। इसके बाद खबर कही नहीं है। अरबों रूपये दे दिये गए इन दोनों भाईयों की कंपनियों को। ऐसा क्या है इनमें जो उस रोज के 110 रूपये कमाने वाले अमीर आदमी में नहीं था जो सड़क पर मर गया। मुकेश और अनिल अंबानी और कोई नहीं बल्कि देश के वित्त चाणक्य मोंटेक सिंह अहलूवालिया और अपनी ईमानदारी का परचम ओढ़े घूमने वाले मनमोहन सिंह के गरीब आदमी है। इन लोगों के कल्याण के लिए सरकार रात-दिन अपने को हलकान किये हुए है। अरबों रूपये के घोटाले, लोन और काली कमाई से भी इनका पेट नहीं भर रहा है। सरकार पूरी तरह से हैरान है हालांकि साउथ ब्लॉक और नार्थ ब्लॉक के गलियारों में घूमने वाले दलाल और पत्रकार आपको आसानी से गिनवा देंगे कि मौजूदा वित्तमंत्री किस भाई से डिक्टेशन लेता है और पुराना वित्तमंत्री किस भाई से डिक्टेशन लेता था।
भूख से थके बड़े भाई मुकेश ने तो सात हजार करो़ड़ रूपये का घर बनवा लिया है।ताकि भूख से निजात मिले। इसके लिए वक्फ की जमीन में घपला करने के आरोप लोग उन पर लगाने लगे। अंबानी मायने क्या है भाई ये तो लोग भूल ही जाते है।
एक सरकार है जिसके मंत्री इस वक्त लोकपाल के मुद्दे पर लगे हुए हैं। कोई कहता है कि प्रधानमंत्री इसके अंदर आएंगे ही नहीं कभी कोई कहता है कि आम जनता तानाशाही कर रही है। दोनों ही समूह लोकपाल बनाने की नूराकुश्ती में लगे है लखनऊ के बांकों की तरह। दोनों ही समूहों में कोई भी ऐसा नहीं है जो उस नेशनल 58 पर गुमनाम की तरह मर गएं मजदूर की तरह अमीर हो। ये तमाम लोग खाएं-पिएं और अघाएं हुए लोग है। खेल चल रहा है सरकार खेल रही है। पर्दे पर दिख रहे बौंनों और जादूगरों के पीछे हंस रहे है सरकार के गरीब और सड़क पर आवारा कुत्तें से बदतर मौंत के शिकार हो रहे है मोंटेक और मनमोहन सिंह के नायाब फार्मूले से बिना कुछ भी कमाएं भूक्खड़ों से निकल कर नएं बने अमीर।
हां एक बात और पुलिस उस मजदूर की लाश को घर भेजने के लिए न कोई गाड़ी मंगा रही थी न किसी कफन का इंतजाम कर रही थी। एक ऐसे इंसान के लिए कुछ करना पुलिस की भी बेईज्जती होती जिसकी जेंब से उसे कुछ भी नहीं मिला।
देश के बकता नेता और सत्तारूढ़ पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन की मौत पर बयान दिया था कि कि मरने के बाद ओसामा बिन लादेन जी का संस्कार धार्मिक रीति-रिवाजों और सम्मान से होना चाहिएं था। लेकिन ये यूपी है और माया की पुलिस इस मनमोहनी अमीर पर चार लीटर मिट्टी का पेट्रोल और पांच गज कफन का टुकड़ा क्यों बर्बाद करें..दिग्गी भी तो हैं।

Sunday, June 12, 2011

रामलीला मैदान में यूपी का दंगल

पुरानी कहानी है कि एक ठग को दिल्ली के दरबार में पेश किया गया। राजा ने पूछा कि बता क्या खाओंगे 100 कोड़े या फिर 100 प्याज। ठग को लगा कि कोड़े खाने से बेहतर है कि प्याज खा ली जाएं। प्याज खाना शुरू हुआ और पांच दस प्याज के बाद ही ठग की हिम्मत जवाब दे गयी और वो चिल्लाया कि मुझे कोडे़ लगा दो।उसको कोड़े लगाने शुरू किये कि पांच-सात कोड़ों के बाद ठग चिल्लाया कि मुझे प्याज दे दो। फिर से प्याज खाना शुरू किया और कुछ देर में ही फिर से कोड़े मांगने लगा। कहानी का अंत तो इस तरह से हुआ कि ठग ने 100 प्याज भी खायें और कोड़े भी।
यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी के नेता इस कहानी को दोबारा से देश को दिखा रहे है।
लोकतंत्र को बचाने के नाम पर रात में सोते हुए लोगों पर ये बर्बर लाठीचार्ज किसी लोकतांत्रिक आस्था को हिला सकता है। लेकिन कांग्रेस सरकार के मंत्रियों और पार्टी के नेताओं ने इस के समर्थन में बेशर्मी से बयान दे रहे है। मीडिया के तमाम समर्थन के बावजूद सरकार या पार्टी ऐसा कोई सबूत नहीं दे पा रही थी जिससे लोगों को उनकी बातों पर यकीन हो। लेकिन फिर भी यूपीए के लोग इस पर टिके हुए है। कांग्रेस के बकता महासचिव दिग्विजय राष्ट्र को संघ के हमलों से बचाने के लिए इस लड़ाई को आखिर तक लड़ने की बात कर रहे है। लेकिन कोई भी आदमी इस बात को देख सकता है कि जो फ्रेम में जड़ा जा रहा है उस फोटों के लिए ये फ्रेम नहीं बनाया गया है। आखिरकार कारण क्या है कि जो पार्टी अपने उपप्रधानमंत्री प्रणवमुखर्जी सहित देश के सबसे योग्य मंत्री कपिल सिब्बल को स्वामी रामदेव से मिलने एअरपोर्ट भेजती है वही अगले दिन उसे ठग साबित करने जुट जाती है। रात में पचास हजार लोगों पर लाठियां भांजती पुलिस भेजती है। ऐसा सिर के बल खड़ा होने वाला करतब दिखाने के लिए पार्टी ने अपने को कैसे तैयार किया। जनसमर्थन से पैदल दिग्विजय सिंह एकाएक पार्टी के रणनीतिकार में कैसे तब्दील हो गये। कैसे कपिल सिब्बल अपना वाक्-चातुर्य खोकर एक उलट बांसी सुनाने लगे। एक योगी योग करे राजनीतिक आसन न सिखाएं। खुद सालों तक बेचारे कपिल सिब्बल सिर्फ वकालत करते रहे। लेकिन अब दोनों कर रहे है टेलीकॉम राजा से कागज के प्रधानमंत्री की वकालत तक। सब लोगों को अचानक दिखने लगा कि संघ इस तरह की आग भड़का रहा है। पहले स्वामी रामदेव का मुखौटा इन लोगों को दिखा फिर अन्ना हजारे को भी यूपीए के मंत्री वहीं मुखौटा पहनाने में जुट गए। एक दिन पहले पैर छूने वाले अचानक पैर पकड़ कर कैसे पटक कर मारने वाले बन गए।
इस सवाल का जवाब आपको दिल्ली में नहीं लखनऊ में मिलेगा। यूपीए को हालिया लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में चुनावी कामयाबी मिली थी उसने पार्टी को सेर से सवा सेर में तब्दील कर दिया। लेकिन उसके बाद युवराज राहुल की मेहनत की उनकी पार्टी के हवाई नेताओं ने हवा निकाल दी। पार्टी न अपना अध्यक्ष बदल पायी न ही माया से परेशान अपने कार्यकर्ताओं को कोई ठोस उम्मीद। कोढ़ में खाज वाली बात रही मुलायम सिंह का वापस मैदान में उतर कर फिर से ताल ठोंकना। दलाल की उपाधि से नवाजे गए अमरसिंह की पार्टी से बर्खास्तगी के बाद सपा अपने पुराने स्वरूप में वापस आने की जी-तोड़़ कोशिश में जुट गयी। मुस्लिमों को अपने साथ जो़ड़ने की मुहिम में मुलायम को अप्रत्याशित कामयाबी मिल रही है। और यही वो कुंजीं है जो रामलीला मैदान में हुई रावणलीला का ताला खोल सकती है।
कांग्रेस के अफलातूनी दिग्विजय सिंह जो मध्यप्रदेश में पार्टी को खत्म कर उत्तर प्रदेश के इंचार्ज बने है ने ये बात युवराज राहुल जी के दिमाग में उतार दी कि यूपी में जीत की कुंजी मुस्लिम वोटों के पास है। अगर रामदेव नाम के एक संयासी और स्वघोषित योगसम्राट जो जाति ये यादव भी है हमला बोला जाएं तो कोई संकट नहीं है। इसका राजनीतिक फायदा काफी है। इस योजना में दिग्विजय सिेंह को मदद मिली होंगी राहुल के आंख-नाक और कान यानि कनिष्क सिंह और भंवर जितेन्द्र सिंह के बिरादराना सहयोग से। पार्टी की मीटिंग्स में सोनिया को डराने के लिए ये बताना काफी था कि जितनी सीट यूपी में लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली थी उतनी संख्या भी विधानसभा चुनाव में नहीं छू पाएंगी। और यदि ऐसा हुआ तो युवराज राहुल की छवि को काफी नुकसान होगा। राहुल कांग्रेस के पूरे देश में नायक है लेकिन यूपी में तो वो कांग्रेसी सेना के घोषित कमांडर है। ऐसे में राहुल का मिशन प्रधानमंत्री भी खटाई में पड़ सकता है। अपने काम से ज्यादा कमजोर और दिशाहीन विपक्ष की बेवकूफियों के चलते सत्ता की मलाई काट रहे कांग्रेसियों को इससे ज्यादा कोई नहीं डरा सकता कि उनकी सत्ता की उम्मीद राहुल फेल हो सकते है। बस इस बात ने पूरी पार्टी को अपनी ही आत्मा के खिलाफ एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया। हो सकता है इस बारे में बहुत से ज्ञानियों को ये लग सकता है कि मुसलमानों के वोट को लेकर इतना दांव क्यों खेल रही है कांग्रेस तो उनको असम और केरल में हुए चुनावों के रिजल्ट पर निगाह डाल लेनी चाहिए।
पहली बार किसी राष्ट्रीय अखबार ग्रुप(टाईम्स ग्रुप) ने मुसलमानों में वोटिंग में धार्मिक पार्टियों को एक मुश्त दिये गये वोट पर चिंता जाहिर की। लेकिन अपना कोई रिश्ता इस चिंता से नहीं है। कांग्रेस को जिस तरह की सफलता असम में जिस तरह से यूडीएफ और केरल में मुस्लिम लीग को वोट किया गया उससे अखबार ने चिंता जाहिर की थी कि मुस्लिमों सेक्यूलर पार्टियों की विश्वनीयता खत्म हो रही है। इस बात से हमारा कोई सरोकार नहीं है लेकिन यहीं वो आंकडां है जो कांग्रेस पार्टी में लोकतंत्र समर्थकों को अपनी जुबान बंद करने के लिए मजबूर कर रहा है। पार्टी ने अब पूरी तरह से मन बना लिया है क्यों कि वो जानती है यूपी में उसके पास हिंदुओं का कोई भी ऐसा वोट बैंक नहीं है प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी को मिल जाएंगा। लेकिन मुस्लिम ने अगर पीस पार्टी जैसी छोटी पार्टियों और समाजवादी पार्टी जैसी एक परिवार की पार्टी को वोट दे दिया तो कांग्रेस के युवराज को राजनीतिक तौर पर दीवालिया होते देर नहीं लगेगी। ऐसे में कांग्रेस ने अपने पर वापस इमरजेंसी के रोल में लौटने में गुरेज नहीं किया। हालांकि देश को इसकी कीमत काफी चुकानी पड़ेगी।

यूं तो मैं बोल सकता था

यूं तो मैं कह सकता था,
कि ये आवारा भीड़ नहीं है
मुझे बोलने से पहले सोचना नहीं था
इस भीड़ में कोई खतरा नहीं है.
या ऐसा ही कुछ
ये दीवानों का जमावड़ा
तोड़ सकता है
बनी-बनाईं व्यवस्था
मेरे पास लाईंने थीं
सीखें गएँ शब्द थे
मेरे पास कलम भी थी
और पेपर भी
मुझे लिखना था
और फिर उसे छाप देना था
ऐसा ही जैसा मुझे बताया गया
लेकिन मेरी आंखों में दर्द ज्यादा था
न मैं लिख पाया
न मैं बोल पाया।
यूं तो मैं बोल सकता था
बस और मत मुस्कुराओं मेरी तरफ
अंतर नहीं कर पाता हूं मैं
तुमहारी इन मुस्कानों में
ये सब तरफ से एक सी दिखती है
कातिल की तरफ हो
तुम्हारा चेहरा
या फिर कत्ल हुएं की ओर
बंद करों इस तरह दिखना
कि
दोनों में कोई फर्क दिखाईं न दें
बंद करो इस तरह से मुस्कुराना
लेकिन आवाज नहीं निकली
यूं तो मैं कह सकता था
कि किताबों में बंद बेजान अक्षरों में
बंद नहीं की जा सकती है
बेसाख्ता हंसतें हुए किसी बच्चें की तकदीर
रोका नहीं जा सकता हवा में झूमना किसी फिरकी का
गहराईं में धरती की गोद में
समाएं हुए किसी पेड़ की जड़ नहीं उखाड़़ सकते
हो महज काली लाईनों को पढ़कर
लेकिन सोच ही नहीं पाया
यूं तो बोल सकता था
मैं इस खेल में शामिल नहीं हूं
बंद करों
ये गोटियां उछालना
जिसकी हर चाल तुमकों मालूम है
मत छनकाओं वो सिक्के
जिसमें दोनों ओर तुम्हारे लिए ही जीत
लिखी हो।
लेकिन
मेरी जुबान सर्द है
मैं बस देख रहा हूं तुम्हारा सिक्का, गोटियां और मुस्कानें
मैं बिक गया था,
तुम जानते हो मेरे डर को और मेरी कीमत को
बिना किसी और के ये जाने........

Saturday, June 11, 2011

आधी रात को आजादी

एक खामोश सी चादर शहर पर है
बोलते हुए लोगों के ऊपर
शहर के बीचों-बीच मारे गये लोगों की निगाह
टिक गयी शहर में बसे हुए लोगों पर।
हिल गये अंतस में
डूब गयी एक आवाज को दबाने में जुट गया शहर
आवाज जो गले से निकली ही नहीं
लेकिन कानों में बजती रही जोर से-
- चोर है सब
बुरी तरह पिट कर निकले लोगों की निगाह में
ये शहर था जहां उनकी धुंधली सी आवाज
अपने भाईयों के लिए
घुट गए बचपन के लिए
और गुमशुदा जवानियों के लिए
निकल कर-
गले गूंज बन जाती
लेकिन
शहर में खरीद कर लाएं गये बांस के डंडों में
रूंध कर रह गयी।
रात के तीसरे पहर में दौड़ते वक्त
उनको
याद नहीं रहा
तिंरगा जो मचान पर खंभें के बांध दिया गया था
नहीं दिख रहा था लालकिले का वो मचान
जिस पर पचासियों बार प्रधानमंत्रियों ने
माईक से आवाज बढ़ा कर
गोरों के भाग जाने का आश्वासन दिया था।
कांपते-हाथों और जाम की चढ़ गई गर्मी से
नर्म गद्दे में धंस कर नाराज होते हुए कहा
नींद खराब हो जाती है
रामलीला मैदान से आते हुए खर्राटों से
अंधेंरे में ढूंढ़ते हुए शत्रु शिविरों का
आग लगाकर मिटा देना है नामो-निशान
इतना आदेश बहुत था
सदियों के अनुभव को अपने में समेटे हुए
वर्दी के अनुशासन को।
उधर पुलिस पर यकीन रखने वालों को नशे के बाद हरारत हुई
गोपीनाथ बाजार में सपने डूबी लड़की
जीने के अधिकार को सीने से लगाएं घूम रही थी
उठाया
रौंदा
फेंक दिया
उसी जगह पर
सफेद से लाल हो गये खून से कपड़े
एजेंसी को शक है
जरूर किसी संगठन से रिश्ता है इसका
लाल कपड़े पहने
और आंखों में सपने लिए घूम रही थी
अकेले
राजधानी की सड़कों पर।
इस बीच ढोंगियों को लगा दिया
ठिकाने
भगा दिया सड़कों पर
बेघर बेचारों की तरह
सड़कों पर दौड़ते
नींद में इधर-उधर हाथ मारते
लोगों के
अंदर का राक्षस
दिख रहा था संसद
से
लेकर अकबर रोड़ तक
आखिर नंगें हाथ और
भूख के सहारे
खतरा बन सकते थे
हजारों लोग
मासूम दिखने वाले
औरतों बच्चों और बूढ़ों के चेहरे।
बदल गया फोकस कैमरे का
फ्रेम में चीखतें बौंनों को
दिखाई दे रहा था
किसी पिरामिड के गणितीय ज्ञान की तरह
कभी लगता है कि भीड़ आवारा नहीं है
कभी लगता है ढोंगी बाबा के पास सरकार उड़ाने के बम है
झूठ के सहारे चलती एकाउंटिंग में
100 के चालान से बचने के लिए
कमिश्नर तक की कुर्सी हिलाने वाले बौंनों को
मैंदान में मिट्टी कुचलने वाले ढ़ोंगी के भक्तों के खिलाफ
फ्रेम बनाने थे, कलम चलानी और ढूंढने थे ऐसे शब्द
जो संसदीय लोकतंत्र को बचाने में मददगार रहे
इसके लिए जूता दिखाने वाले को पिटते देखने से ज्यादा
मजा है
खुद जूता उतार कर जूतिया दिया जाएं

क्रमश.....

Tuesday, June 7, 2011

असली ईमानदार प्रधानमंत्री है भाई

"it is unfortunate that operation had to be conducted but quite honestly, there was no altenative" ये बयान देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। रामलीला मैदान में रात को सो रहे औरतों और बच्चों पर बर्बर पुलिसया एक्शन के बाद का पहला बयान। ये देश के प्रधानमंत्री का बयान है। एक ऐसे प्रधानमंत्री का बयान जो अपनी योग्यता से किसी वार्ड मेंबरी या गांव में सभासद का चुनाव भी नहीं जीत सकता था। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो बेचारा अपनी कोई राय रखता होगा इस बारे में लोगो को संदेह है। प्रधानमंत्री से एक ऐसा ही बयान चाहिए था। क्या एक ऐसा आदमी जो सिर्फ खडाऊं उठाने के लिए रखा गया था पार्टी के और अपनी ही सरकार के खिलाफ न्याय के पक्ष में खड़ा हो सकता है। नहीं कभी नहीं आम समझ और इतिहास इस बात की ताईद करता है। मनमोहन सिंह की योग्यता सिर्फ इतनी ही है कि वो कभी भी अपनी सत्ता नहीं बना सकते है और न ही देश के लोगों के दिलों मे जगह। मध्यमवर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले बौंनों की मुहिम में मीडिया के एक वर्ग ने बेहद ईमानदार आदमी के तौर स्थापित किया था मनमोहन सिंह को। लेकिन एक ऐसा ईमानदार आदमी जो जानता है कि देश का प्रधानमंत्री पद का वो किसी भी तरह से हकदार नहीं है फिर भी बैठा है कितना ईमानदार है भाई। एक विदेशी महिला को जिसको देश की जनता ने अपने दिल में और सिर पर बैठाया सिर्फ इस लिये क्योंकि उसके साथ गांधी या फिर नेहरू खानदान का नाम जुड़ा था। इसके अलावा और कोई योग्यता इस महान नेत्री सोनिया गांधी में है ये तो बेचारे दिग्विजय सिंह भी नहीं गिनवा सकते है।
लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है कि रात के अंधेंरे में पुलिस ने सोए हुए मासूम बच्चों, बेगुनाह औरतों और बूढ़ों पर हमला किया। यहां सवाल ये खड़ा हो गया है कि क्या सरकार अपनी तानाशाही में किसी भी आदमी को जब चाहे फना कर सकती है। क्या कोई आवाज जो सत्ता में शामिल पार्टी के खिलाफ है उठाने की इजाजत नहीं मिलेंगी।
ये वो सरकार है जो अपना इकबाल दिखाना चाहती है लेकिन उसको जगह नहीं मिलती। मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री पद पर चुनाव इस देश के लोकतंत्र को पहली चोट थी। देश के तमाम प्रधानमंत्रियों के नाम गिनवाने से बचते हुए ये कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह राजनीतिक तौर पर चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा या फिर इंद्र कुमार गुजराल जितनी भी हैसियत नहीं रखते है। लेकिन इनको युवराज के बालिग होने तक चरण पादुकाओं को सर पर रख कर चलने की इजाजत दी गयी थी। कोई दिग्विजय सिंह जैसे चाटुकार ये चरण पादुकाओं को युवराज को पहनाने से पहले उनमें कांटे भर सकते है।
जनार्दन द्विवेदी जैसे लोग सर्टिफिकेट बांट रहे है कि कौन साधु है और कौन शैतान। ये जनार्दन द्विवेदी कौन है भाई एक और परजीवि। गांधी नेहरू फैमली के किचन कैबिनेट में शामिल दिग्विजय सिंह की जगह हासिल करने की जुगत भिड़ाता हुआ एक बेचारा राजनीतिज्ञ। हम लोग व्यक्तिगत न हो तब भी इन लोगों के बयान अच्छे-खासे आदमी को परेशान कर सकते है।
दूसरों लोगों की शराफत की ओर इशारा करने वाले इन नेताओं ने रामलीला मैदान की कार्रवाई पर क्या सफाई दी है ये सुन लेते है।
दिग्विजय को लगा कि बाबा ठग है। जनार्दन द्विवेदी को लगा कि बाबा औरतों के भेष में भागा। कपिल सिब्बल को लगा कि बाबा योग करे राजनीति नहीं। और प्रधानमंत्री का बयान आप को इस लेख के शुरू ही मिला।
एक ठग के बुलावे पर आएं हजारों मासूमों को ये सरकार लाठी-डंड़ों और अश्रूगैस का उपहार देंगी। ये लोग क्या मांग कर रहे थे देश के गरीब और किसानों के लूटे गये धन को वापस देश में लाने की कार्रवाई करने की मंशा जाहिर करे सरकार। बस इतनी सी मांग पर गुस्सा गये जूते साफ करने की राजनीति करने वाले ये लोग। ओसामा बिन लादेन की मौत पर गुस्साएं दिग्विजय सिंह के बयान पर ध्यान देना बेवकूफी है। ऐसा पहली नजर में लग सकता है लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के महासचिव है इसीलिए जो भी कहते है उसमें कोई न कोई वजन तो जरूर होगा। लेकिन इन बेचारे की पार्टी में नहीं चली। चार-चार मंत्री जिनमें प्रणवमुखर्जी भी शामिल थे ठग का सम्मान करने गएं। लेकिन बेचारे दिग्गी की औंकात नहीं कि ठग का सम्मान करने वालों से इस्तीफा मांगे।
जनार्दन द्विवेदी की सरकार थी जो मुंबई हमलों का सामना कर रही थी। क्या उसको लग रहा था कि बाबा फिदाईन हमला करने आया है। क्या उसको भागने से बेहतर अपनी लाश जनार्दन के घर के सामने पहुंचा देनी थी। ये आदमी बात कर रहा है लोकतांत्रिक मर्यादाओं की हैरानी की बात हो सकती है कि मीडिया के बौंने कैसे मारने भागे जब एक आदमी ने इस पर जूता उठाया।
कपिल सिब्बल का तो कहना ही क्या है। पार्टी के ट्रबल शूटर है। हर बार नयी ट्रबल के साथ आते है। खुद बेचारे वकालत करते थे अब राजनीति कर रहे है वकालत भी कर रहे है। पत्नी इम्पोर्ट -एक्सपोर्ट के धंधें में है। लेकिन दूसरा कैसे राजनीति कर सकता है ये बताना नहीं भूलते। ये वो है जो इतनी शर्म भी नहीं रखते कि सीएजी पर आरोप लगाने के बाद माफी मांग ले। सीएजी भी सरकार की है और सीबीआई भी। दोनो ने न केवल माना बल्कि इनके दोस्त राजा साहब जेल में है। लेकिन साहब फिर देश के सामने बेशर्मी का नया नारा ले कर आये है कि योगी है तो योग करें। फिर भाई आप अदालत के बाहर क्या कर रहे है।
बात व्यक्तिगत आरोप लगाने की नहीं है। लेकिन मन बहुत दुखी है। इस बात पर नहीं कि एक बाबा के समर्थकों पर हमला हुआ है। दुख इस बात पर है कि लोकतंत्र की इस सरेआम हत्या पर भी लोग बहाना ढूंढ रहे है। कुछ दिन पहले इसी ब्लाग में एक लेख में इस बात का अंदेशा जताया था कि बौंने मीडियावाले इस देश में एक हिटलर की तलाश कर रहे है लेकिन ये हिटलर इतनी जल्दी आएंगा ये लिखने वालों को भी अंदेशा नहीं होगा।
आखिर में ये कुछ पंक्तियां है उन्हीं कांग्रेसियों को समर्पित जिनकी पार्टी के नेता ने ही ये लिखी हैं।
महामहिम |
डरिए। निकल चलिए।
किसी की आंखों में
हया नहीं,
ईश्वर का भय नहीं,
कोई नहीं कहेगा,
"धन्यवाद"
सबके हाथों में,
कानून की किताब है,
हाथ हिला पूछते है,
किसने लिखी थी,
यह कानून की किताब ?
"श्रीकांत वर्मा"

Sunday, June 5, 2011

लोकतंत्र के हत्यारें-

इस वक्त कैसा अहसास हो रहा है। बता नहीं सकता। घर में किसी की मौत हो गयी हो और तब आपको मर्सिया लिखना हो ऐसा ही लग रहा है। देश में लोकतंत्र की सरे-राह हत्या। एक लोकतंत्र जो किसी भी कीमत पर गरीब आदमी का लोकतंत्र नहीं था। लेकिन उस पर्दे को भी इस बे-पैंदी के प्रधानमंत्री की सरकार ने फाड़ दिया। रात के अंधियारें में आराम कर रहे हजारों लोगों पर पुलिस का लाठीचार्ज अश्रु-गैस के गोले बरसाये गये।
ये पुलिस वाले वहीं है जो पहले यूनियन जैक के नाम पर इस देश के लोगों पर अत्याचार किया करते थे और अब तिरंगे के नाम पर कर रहे है।
भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आंदोलन में दिल्ली आएँ इन देशवासियों पर कुछ हजार पुलिस वालों ने सरकार में बैठे बौंनों के आदेश में हमला बोल दिया। साफ तौर पर दिख रहा है कि आजादी के बाद भी इस देश की पुलिस ने कुछ नहीं सीखा। सत्ता में बैठे लोग चार जून से ही सदमें में थे कि क्या चल रहा है। राजधानी में कुछ लोग आ गये और पैसे वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात कर रहे है। ये क्या बात हुई। पिछले साठ सालों से खाकी वर्दी के दम पर राज में हिस्सेदारी कर रहे लुटेरों के खिलाफ आंदोलन। मैं कई बार इस बात समझने में नाकाम रहा कि मीडिया ऐसे वक्त में क्यों चूक जाता है कि उसे किसका साथ देना है। टीवी चैनलों और अखबारों में ऐसी खबरें साया हो रही थी कि जैसे रामदेव नाम का ये बाबा पाकिस्तान का एजेंट है और इसके तंबू और कनात का पैसा आईएसआई ने दिल्ली में बैठे आरएसएस नाम के संगठन की मार्फत भेजा है। हो सकता है रामदेव के ट्रस्ट्र के खिलाफ कई शिकायतें हो फिर ये शिकायतें उसी वक्त को आती है जब वो भ्रष्ट्राचार के खिलाफ कोई आंदोलन कर रहा होता है। ये उसी वक्त क्यों आती है जब भ्रष्ट्राचार की नाभि में हमला करने की बात होती है। रामदेव के खिलाफ लोग मुझे एक बात से मुत्तमईन करना चाहते है कि ये बाबा कभी साईकिल पर चलता था तब मैं एक सवाल करता हूं कि क्या उन लोगों के बाबा हवाई जहाज में बैठ कर चलते थे।
इस पूरे मामले में दो किस्म की खीझ थी एक कि ये बाबा कभी साईकिल पर चलता था अब इसके पास हजारों करोड़ रूपये का ट्रस्ट है और दूसरी कि इससे लोकतंत्र को खतरा है। अरे शांति पूर्ण विरोध करना किस देश के लोकतंत्र में अवैध है। एक मैदान में बैठकर अनशन करना किस देश के कानून का उल्लंघन है। इस बारे में कोई बोल नहीं रहा है।
मैंने इस बात को समझने की कोशिश की चलो बाबा के खिलाफ हो सकता है भ्रष्ट्राचार के मामले हो लेकिन क्या इससे ही वो भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता है।
ये तर्क देने वालों से एक बात पूछना चाहता हूं कि रोटी के लिए जीबी रोड़ पर बैठकर जिस्म बेचने वाली औरत अगर बाजार में उतरती है तो क्या हर आदमी को उससे बलात्कार करने का अधिकार मिल जाता है।
मैं आजतक एक बात ही समझता रहा कि लोकतंत्र का मूल ये बात है जो किसी पश्चिमी विचारक ने कही थी।
"मैं आपकी कही बात से पूर्णतया असहमत हूं लेकिन आपके कहने की अधिकार की रक्षा के लिए अपने खून की आखिरी बूंद भी बहा दूंगा।"

ये बौंने युवराज की पुलिस है

ये बौने युवराज की पुलिस है। ये उत्तर प्रदेश पुलिस नहीं है युवराज। ये उसकी अपनी दिल्ली की पुलिस है जहां शीला दीक्षित राज करती है। अगर बुद्धि कमजोर है तो फिर ये याद कर लो कि दिल्ली देश की राजधानी है। इस राजधानी में आधी रात को सोते हुए लोगों पर लाठियां चलाने वाली पुलिस कहां से आयी है। बौने युवराज को पता लग जाना चाहिएं। मैं हमेशा से ये मानता रहा हूं कि इस देश में राज कर रहे बौने या तो पैसे वालों के एंजेट है या फिर सीधे दलाल है। ज्यादातर नौकरशाहों के बच्चों या फिर उन राजघरानों की संतानें है जो देश की आजादी की ओर से भौंकतें थें।
ये उन लोगों की औंलादें है जो विदेशों में पढ़कर इस देश के करोड़ों-करोंड़ लोगों की नुमाईंदगी का दावा करते थे। ये वो लोग है जिनका ताकत अनपढ़ और गरीब लोग थे लेकिन ताकत का मजा ये खुद अंग्रेजों के साथ मिल कर बांच रहे थे।

लेकिन इस आंदोलन पर लाठीचार्ज देश के फर्जी लोकतंत्र के खात्में की शुरूआत है। पहले से ही कौन सा लोकतंत्र इस देश में था। ये सवाल हर बार किसी भी आदमी को सोच में डाल देता था।सारे कानून बनाने वाले अग्रेंजों की फेंकी गई कतरनें पहन कर फैशनेबल बने थे और बाकि जगह गली के गुंडों के लिए छो़ड दी थी। क्या कोई ये सोच सकता है कि शाहबुद्दीन, सूरजदेव सिंह, डी पी यादव, अमरमणि और हरिशंकर तिवारी माननीय हो सकते है। ये सब लोग माननीय थे है औऱ रहेंगे। कभी भी देश जातिवाद से मुक्त नहीं हो पाया। और यही वो ताकत थी जो दिग्गी जैसे चिंदीचोर को देश का प्रवक्ता बना देती है। किसी भी बाहर के आदमी को देखकर झटका लग सकता है कि इस आदमी या इसके खानदान का देश को क्या योगदान है। लेकिन ये आदमी देश की दिशा तय करने में योगदान देता है।

दिग्विजय से लोग क्यों नहीं डरते,

"अगर सरकार किसी से डरती तो वो जेल के अंदर होता है।" कुछ ऐसा ही बयान दिया है बाबा (रामदेव) के आंदोलन के बारे में कांग्रेस के कारामाती महासचिव दिग्विजय सिेंह ने। अमरसिंह के नये अवतार है दिग्विजय सिंह। बेचारे जबां की खारिश की चपेट में है। सोचते है कि वो जो बोलते है वो गजब का होता है। एक के बाद एक बयान देश सुन चुका है। मध्यप्रदेश को छोड़कर दिग्विजय की पहचान देश में राज कर रही पार्टी के महासचिव की है और मध्यप्रदेश में कांग्रेस को एक पार्टी के तौर पर राज्य से गायब करने की। सारे वक्तव्य याद दिलाने की जरूरत नहीं है। दिग्विजय का मुंह मीडिया का कैमरा देखते ही खुल जाता है इसके बाद आपके मुंह से जो निकले वो ही खबर है। सो इस बार भी खुल गया। और देश की उस जनता के सामने जो दिग्विजय में एक मसखरें को देखती एक नया मसाला मिल गया।
ये सरकार भी गजब की है। एक दो नहीं चार-चार मंत्री बाबा रामदेव का स्वागत करने एअरपोर्ट पहुंचते हैं। बाबा रामदेव के साथ वार्ता करते है। उनसे आंदोलन वापस लेने के लिए बात करते है। उसी पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह बयान जारी करते है कि योग गुरू के नाम से प्रसिद्ध रामदेव को योग नहीं आता है। दिग्विजय को लगता है बाबा खुद अरबपति हो गये और गरीबों की बात करते है। बेचारे दिग्विजय की परेशानी है कि बाबा ने माल काट लिया और हिस्सा भी नहीं मिला।

Friday, June 3, 2011

मीडिया के बुद्ध और जनता की ममता

अबीर-गुलाल उड रहा था। कोशिश थी कि रंग हरा ही हरा दिखें। लेकिन गुलाल-अबीर में लाल रंग बचा है सो दिख रहा था। कोलकाता या कहिये सारा बंगाल मस्ती के आलम में था। ये बंगाल के रंग बदलने की मस्ती थी। लाल बंगाल हरा हो गया। चौंतीस साल तक जो बंगाल लाल था वो अब हरा है। बुद्ध के देवत्त से बंगाल ममता की छांव में आ गया। मीडिया के गपौड़ियों और बे-सिर पैर के तर्क देने वाले बक्कालों के पास बहुत सारी कहानियां रातो-रात आ गयी। ऐसी कहानियां जिनके मुताबिक लेफ्ट ने अपनी नीतियां खो दी थीं। वो आम जनता से दूर हो गया था। इसके लिए उनके पास बहुत सारे उदाहरण भी है। वामपंथियों को सबसे ज्यादा गरिया रहे रिपोर्टर कम एंकरों के पास जो सबसे बड़ा मुद्दा है- परमाणु मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना। इन लालबुझक्कड़नुमा पत्रकारों के पास हर चीज का प्रोम्पटर पर लिखा हुआ समाधान है। ये सर्वज्ञानी है। ये अलग बात है कि जिस कोर्स से पढ़ कर आएँ हैं उसमें थर्ड डिविजन से पास होंगे और या फिर आईएएस का एक्जाम फेल कर यहां पहुंचे होंगे। यदि मार्क्सवादियों का सबसे बड़ा दोष यहीं है तो फिर टीवी चैनल्स और अखबारों ने तब हल्ला क्यों मचाया जब जापान में सुनामी की चपेट में आएं परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा का मुद्दा उठा। न इन बेचारों को परमाणु मुद्दे का पता न बंगाल का। बस इनको रन डाउन के हिसाब से बोलना था। परमाणु मुद्दें पर बहस करने वाला ऐंकर अगले ही पल गांव में पंचायती फैसलों पर होने वाली हिंसा पर बोलने के लिये तैयार था। क्या गजब का विस्तार है इनकी समझ का। लेकिन माफ करना हम यहां बात बंगाल की कर रहे है। तो वहीं पर बात करते हैं। बात शुरू हुई कि वामपंथी क्यों के हारे के मीडिया चिंतन पर।
मीडिया के मार्किट के दलालों की भूमिका का सबसे बड़ा और आसानी से समझ में आने वाला उदाहरण है ममता की गलतियां बताने वाला एक आर्टिकल। नवभारत टाईम्स के मुताबिक ममता ने टाटा को बंगाल के बाहर का रास्ता दिखाकर अपनी राजनीतिक अपरिक्पक्वता का परिचय दिया। अब मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें अपनी भूल सुधारनी होंगी। इस वक्त्वय के दो मतलब है। एक कि ममता ने टाटा का विरोध किया -गलती की। तब टाटा का समर्थन करने वाले वामपंथियों को इसका फायदा क्यों नहीं मिला। माना वामपंथियों की गलतियां ढ़ेर सारी थीं इसीलिए इस का फायदा नहीं मिला तो दीदी की पार्टी को दूसरी बार उस इलाके से इतना भारी जनसमर्थन क्यों मिला। इसका कोई जवाब दलाल पत्रकार नहीं दे पाएंगे। इसके लिए उनको ईमानदारी से काम करना होगा। लेकिन वो कर नहीं सकते। सत्ता की दलाली, देश को लूट रही मल्टीनेशनल कंपनियों के एडवर्टाईजमेंट का लालच और दूसरे मालिकों की हित साधना ये ऐसे रोड़े है जो बेचारे दलाल पत्रकार का गला दबाते रहते हैं।
बात फिर ममता दीदी पर। इस देश में दिया लेकर कर खोजनें पर भी सत्ता में ऐसी ईमानदारी ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी। 14 बाई 12 के लगभग की उस खोली में रह रही दीदी सालों से सत्ता में ताकतवर भूमिका में रही है। लेकिन उनका लाईफस्टाईल आज भी वहीं है। सूती धोती-हवाई चप्पल पहनने वाली दीदी उन सबके मुंह तमाचा है जो पत्थर के हाथियों को खड़ा कर गरीब दलितों का दर्द या अपने लिए हजारों जोड़ी जूतियों खरीद कर राज्य के करोंड़ों नंगें पैरों का दर्द दूर करने वाली महारानियों की तारीफ करते हैं। इस देश को ममता की छांव की जरूरत हैं। उसी ममता की छांव जिसने यादव शिरोमणि या आय से अधिक संपत्ति की रेल में बैठने वाले लालू के झूठ का पर्दाफाश किया। सालों तक दलाल पत्रकारों और लुटेरी मल्टीनेशनल कंपनियों और भ्रष्ट्र नौकरशाहों के दबावों को झेलते हुए गरीब आदमी का रेल किराया नहीं बढ़ाया। ऐसी ममता दीदी देश के करोड़ों गरीब आदमियों की आखिरी उम्मीद है लेकिन दलाल पत्रकार उनके दिमाग में ये बैठाने में जुट गएं है कि आपको क्या करना है क्या नहीं। ये वही दलाल पत्रकार है जो अब दीदी को ये समझाने में जुट गएं है कि आप जिसे अपनी ताकत समझ रही हो वो आपकी ताकत नहीं है। जो हम बता रहे है वो आपकी ताकत है। और ये उनको दलाली की भाषा समझा रहे है। चूंकि न तो दीदी को इन लेखों को पढ़ना है न ही अपनी समझ उस जननेता को समझाने की है लेकिन हमारी समझ में दीदी पहली गलती कर चुकी है, अमित मित्रा जैसे पुराने घाघ अर्थशास्त्री को वित्त मंत्री बनाकर। ये उन्हीं लोगों में शामिल है जो देश में लाखों किसानों की मौत की जिम्मेदार नीतियां बनाने के लिए जिम्मेंदार है अब वहीं किसानों के हक में नीतियां बनाएंगें।

Sunday, May 29, 2011

मनमोहन सिंह का वार्ड नंबर 6

हॉस्पीटल में घुसते ही बदबू का भभका नाक में घुस गया। सब लोगों के मुंह पर रूमाल बंधे थे। वही बैठे एक सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि वार्ड नंबर 6 कहां है। 23-24 साल के उस सिक्योरिटी गार्ड की आवाज में बेहद ऊब थी और उसने बता दिया की उल्टे हाथ से जाआों और फिर सीधे हाथ मुड़ जाना- वार्ड नंबर 6 लिखा दिख जायेगा। वार्ड नंबर 6 तक के रास्तें में बेहद बदबूदार पानी फैला हुआ था। उसको पार करते ही एक गैलरी में दाखिल हुआ। गैलरी में साईड में सामान रखा फैला हुआ था। खून के पुराने पड़ चुके धब्बों और धूल से अट गयी ये चादरें इस बात का इशारा भर कर रही थी कि ये चादरें जब बनी थीं तो सफेद थीं। एक व्हील चेयर पर इंसानी ढांचा निकल रहा था। उसके कुर्तें की बांहे जैसे उनमें लटक रही थी। व्हील चेयर को लेकर चल रही महिला के चेहरे में उदासी का पूरा जीवन दिख सकता था। लेकिन उसके सूख गये चेहरे में जीवंत थी तो आंखें जिसमें वो अपने करीबी की जिंदगीं की आस के साथ इस अस्पताल में थीं। जैसे ही दाखिल हुआ तो लगा कि कहां आ गया। चारों तरफ गंदें बेड़ पर लेटे हुए लस्त-पस्त इंसान। उनके पास बैठे घर के लोग जो बेहद खामोश है या फिर अगले दिन के ऑपरेशन पर बात कर रहे है।
मेरे मन में बेहद खौंफ भर गया। अपने परिचित को देखने के बाद भी मैं संयत नहीं हो पा रहा था। हालांकि उसके ऑपरेशन की बात मैं कर जरूर रहा था लेकिन रास्ते में शवगृह में जाते हुए स्ट्रेचर को दिमाग से नहीं निकाल पा रहा था। ये अस्पताल देश की किसी प्रांत या आदिवासी इलाकों में नहीं बना हुआ है। पेशे से वकील मेरे दोस्त बता रहे थे कि अस्पताल में बेड़ की समस्या है। इससे बावजूद कि मरीज मर कर बेड़ खाली कर रहते है। ये अस्पताल है लाला रामस्वरूप टीबी हॉस्पीटल। राजधानी दिल्ली में टीबी यानि तपेदिक का सबसे ज्यादा अहमियत वाला अस्पताल। इसकी दीवारें अगर दो तीन रेड लाईट्स पार कर लेती है तो एनसीआरटीई और देश के सबसे शानदार संस्थान आईआईटी से मिल जाएंगी।
इस अस्पताल में घुसने के बाद ही आपके स्नायुतंत्रों को लकवा मार सकता है। ये देखकर कि देश में तपेदिक के इतने सारे पोस्टर लगाने वाली और निजि मीडिया से लेकर सरकारी मीडिया को एडवरटाईजमेंट से पाट देनी वाली सरकार ने सुविधा के नाम पर इस अस्पताल को क्या दिया। मैंने किसी भी साईट्स पर जाकर इस अस्पताल के बारे में रिसर्च नहीं की है। मैंने इस संस्थान के अधिकारियों से भी जानने की कोशिश नहीं की। क्योंकि जो भी था वो आंखों से दिख रहा था। इस हॉस्पीटल में मरीजों की संख्यां कितनी थी उसका अंदाजा इतने से लग सकता है कि अपने मरीज की भर्ती के लिए संस्थान के डायरेक्टर को कई बार फोन करना पड़ा। और जैसे ही मैं देखने गया तो पांव तले की जमीन खिसक गयी। इसीतरह से लड़ रही है सरकार इस महामारी से।
ये वही सरकार है जो देश की इज्जत के नाम पर सत्तर हजार करोड़ रूपये दिल्ली पर लगा सकती है। ये वहीं सरकार है जो एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के घोटाले पर आंख मूंद कर बैठ सकती है और जब दलालों की महारानी का भांडा-फोड़ हो जाएं तो साझा सरकार की मजबूरी बता सकती है। एक ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री हो सकता है जिस पर जनता को इतना विश्वास है कि कांग्रेस की आंधी में भी चुनाव हार गया। देश की सत्ता में जीत कर आएं नेताओं से ज्यादा भऱोसा जताया था सोनिया गांधी ने उस पर तब भले हीमीडिया के बौनों ने लिखा हो कि ये योग्य है। लेकिन योग्यता बढ़ती मंहगाईं के कारण हर रोज गुम होते आदमी की जद्दो-जहद में दिखती है।
मैं बार-बार बहक रहा हूं। मुझे याद आ रहा है मेरा गांव का दोस्त सतेन्दर उर्फ पटवारी। अपने शहर तो जाता रहता हूं लेकिन गांव जाना अब कम हो गया है। गांव में भी उन दोस्तों के साथ बातचीत और भी कम हो गयी जिनके साथ मई-जून की गर्मियों में सालों तक जानवर चुगाता रहा। ऐसे ही दोस्तों में शामिल था सतेन्दर। गांव की कुनबे और खानदान की परंपरा में मेरे कुनबे में आऩे वाला सतेन्दर पतला-दुबला तो बचपन से ही था। कभी का बड़ा किसान परिवार रहा सतेन्दर का परिवार अब पुरखों के खेतों की कहानियां और दूसरे किसानों के खेतों में मजदूरी के सहारे दिन काट रहे थे। सतेनदर के साथ रहने में घर वालों को एक ऐतराज और था कि मौका लगते ही सतेन्दर के पिता और बड़े भाई दूसरे के खेतों से फसल काट लेने के लिये भी बदनाम थे। लेकिन दोस्ती चलती गयी। सतेन्दर मुझे हमेशा अपने लिए एक ऐसा दोस्ता मानता रहा जो उसके साथ शहर की बातें भी बांटता था।
इधर हम लोग उमर में बड़े होते गये और हमारी मुलाकातें छोटी होती गयी। सालों तक यायावरी की और फिर देश की राजधानी में डेरा जमा लिया। अमेरिका की नीतियों से लेकर अफगानिस्तान के बामियान के बारे में जानकारी बढ़ी तो दोस्तों के बारे में जानकारी और भी कम हुई। लेकिन फिर भी सतेन्दर के बारे में पता चलता रहा कि उसका परिवार गांव से पलायन कर गया। पानीपत में कपड़ों के कारखानों में मजदूरी कर रहे उसके परिवार के किसी सदस्य से वास्ता अप्रैल -मई के महीनों में ही पड़ता था जब वो लोग बटाई पर दिये गये अपने खेतों से गेंहू काटने आते थे। फिर एक दिन गांव से आएँ मेरे भतीजे ने बताया कि चाचा जी आपके दोस्त पटवारी ने शादी कर ली। मैं बहुत खुश हुआ। पटवारी पानीपत से एक महिला से शादी कर गांव चला आया था। मैं गांव गया और पटवारी से मिला। रिश्तें में बड़ा होने के नाते मैं पटवारी की पत्नी का चेहरा नहीं देख सकता था। मुंह पर पल्ला डाले एक औरत के पटवारी के आंगन में घूमते देखकर मैं बेहद खुश था। लेकिन जैसे ही पटवारी पर नजर पड़ी तो मैं हैरान रह गया लंबा पटवारी अब बस हड़्डियों का ढांचा भर था। उसकी आवाज बेहद नर्म हो गयी थी। मेरे साथ बात करते हुए पटवारी ने इस बात का बेहद ख्याल रखा कि मैं ये न भूल सकूं कि पटवारी मेरे से बेहद नीचे का आदमी है। मैं जैसे ही पटवारी से ईलाज की बात करता वो औऱ अपने में सिमटता जाता था। खैर बेहद उदास मन से मैं वापस लौट आया। मैं कुछ दिन पहले गांव गया तो मेरे भतीजे ने बताया कि सतेनदर नहीं रहा। उसको टीबी थी। ईलाज कराने के लिये शहर के अस्पताल में जा रहा था लेकिन फायदा नहीं हो रहा था। मैने सतेन्दर के भाई पवन को काफी भला-बुरा कहा कि क्यों नहीं सतेन्दर के लिए दिल्ली आएँ। मैं वहां के शानदार सरकारी अस्पतालों में उसका ईलाज कराता। वो बेचारा कहता रहा कि भाई क्या करते उसकी मौत तो बुला ही रही थी। मैने पूछा तो पता कि सतेन्दर की बीबी चली गई कहां कोई नहीं जानता।
मैं बेहद अफसोस में था कि दिल्ली चला आता तो पटवारी बच सकता था। लेकिन दिल्ली के इस सबसे बेहतर सरकारी अस्पताल की इस हालत को देखकर मुझे लगा कि अच्छा हुआ था कि पटवारी दिल्ली नहीं आया। पवन के मुताबिक आखिरी दिनों में अक्सर पटवारी ये बोलता था कि अगर वो वक्त से दिल्ली चला जाता तो उसका दोस्त बबलू उसका ईलाज करा देता। मुझे तो बस इतना ख्याल आ रहा है कि बेचारा दवाईयों के लिए भटकता पटवारी कॉमनवेल्थ खेल देख लेता तो मरने से पहले ये तो सिदक रहता कि कॉमनवेल्थ के सही तरह से होने से देश की ईज्जत बच गयी पटवारी की जिंदगी का क्या वो तो वैसे भी रास्ते का पत्थर थी।

Friday, May 27, 2011

अमेरिका में मोर नाच रहा है, मीडिया को दिख रहा है।

हिंदुस्तान का नेशनल मीडिया इस वक्त खबरों की एंड्रीनेलीन के नशे में है। अमेरिका के शिकागों में डेविड कॉलमेन हैडली और तहव्वुर राणा पर मुकदमा चल रहा है। इस मुकदमें का भारत से ताल्लुक इतना है कि इन दोनों ने भारत में अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले की साजिश रची थी। ये जानकारी भी हिंदुस्तानियों को अमेरिकी सरकार ने सायास नहीं दी थी अमेरिका से अनायास ही मीडिया के जरिए मिल गई थी। दुनिया की सबसे उभरती हुई अर्थव्यवस्था और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के हिंदुस्तान ने तो इस हमले को आमिर अजमल कसाब पर खोल कर विजय हासिल कर ली थी। हिंदुस्तानियों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रूपये की रकम पर पलने वाली हिंदुस्तानी जांच एजेंसियां का सबसे नायाब कारनामा था ये। महीनों तक इस देश के तथाकथित खोजी रिपोर्टर जो किसी भी झूठ को सच बना सकते है बिना किसी नियामक एजेंसी से या कोर्ट से डरे हिंदुस्तानी एजेंसियों की तारीफ के डंके बजाते रहे।
एक दिन अचानक अखबार में एक खबर छपी कि अमेरिका में आतंकवादी साजिश रचने के आरोप में हैडली और तहव्वुर राणा नाम के दो लोगों को गिरफ्तार किया है। इन दोनों लोगों की गिरफ्तारी के हिंदुस्तान के लिए क्या मायने है इस बारे में अमेरिका ने हिंदुस्तान को कब बताया ये मालूम नहीं। हो सकता है ये रहस्य भी ये नार्थ ब्लाक के उन तहखानों में दफन हो जहां इस देश के उजले लोगों के काले कारनामे दफन है हमें मालूम नहीं। फिर अखबारों में धीरे-धीरे ये खबर साया होने लगी और रिकंस्ट्रक्शन के सहारे या फिर घटिया स्केच ग्राफिक्स के सहारे जोकरनुमा ऐंकरों ने पूरे देश को ये कह कर चेताना शुरू कर दिया कि हैडली और राणा ही है असली गुनाहगार मुंबई हमले के।
ऐसा ही हुआ इस मामले में। अमेरिका ने बेहद गिड़गिडाने के बाद हिंदुस्तानियों को हैडली और तहव्वुर राणा की सूचनाओं तक पहुंच दी। हालांकि उनसे पूछताछ करने का एक सपना अधूरा ही रह गया। खैर इसपर अमेरिका में ये जद्दो-जहद हुई की हम राणा और हैडली का क्या करें। फिर उनको अमेरिकी कानूनों के तहत उन पर मुकदमा चल रहा है। अब उस मुकदमें रोज नये खुलासे हो रहे हैं। और समाचार जगत बल्लियों उछल रहा है। अहा क्या बात है। पाकिस्तान का हाथ, आईएसआई की साजिश सब कुछ तो है इस खबर में। न्यूक्लियर प्लांट की भी रेकी की गई थी। ये बात तो न्यूज रूम में बैठे एडिटर्स को और भी खुशी देने वाली है।
घटिया से घटिया किताब में इससे बेहतर लिखा जाता होंगा जो न्यूज चैनलों के स्क्रिप्ट राईटर लिखते है। स्क्रीन पर लिख कर आता है पाकिस्तान होगा बेनकाब, आज फूटेगा पाकिस्तान का भांडा..पाकिस्तान की खतरनाक साजिश।
एक दम वाहियात और पूरे देश को धोखा देने वाली पत्रकारिता का शर्मनाक नजारा है ये। कोई ये पूछने को तैयार नहीं कि मुंबई हमले के वक्त लापरवाही बरतने वाले आईबी, रा, और दूसरी जांच एजेंसियों के अफसरों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई। किसी अखबार या चैनल को याद नहीं कि मुंबई हमले में इस्तेमाल हुए फोन नंबर पहले ही आईबी को दे दिये गये थे कि इन नंबरों को किसी आतंकवादी नेटवर्क ने खरीदा है।लेकिन दिल्ली और राजधानियों में ऐश काट रहे आईबी के काले साहबों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। मंत्री वहीं है संतरी वही है तो फिर बदला क्या।वही अफसर अभी भी देश को आतंकवादियों से बचाने की रणनीति तैयार कर रहे है जो बेचारे सालों से बचा रहे है। कई सौ लोगों की मौत के जिम्मेदार इन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने या उसके लिए खबर लिखने का ख्याल इस देश में किसी को नहीं।
ये कैसा देश है जो बेचारा विदेशियों से शिकायत करता घूमता है कि पाकिस्तान ये कर रहा है पाकिस्तान वो कर रहा है। हम तो गांधी के देश के है। हमारी पुलिस सिर्फ गांधीवादी आदर्शों पर चलती है। उसके सैकड़ों फर्जी एनकाउंटर देशी लोगों के लिए है उसका बेरहम लाठीचार्ज सिर्फ मजदूरों के लिए है।
सवाल सिर्फ इतना ही होता है कि पार्टियों में बैठकर गप करने वाले अधिकारियों के लिए हिंदुस्तानी कब तक अपनी जेब से टैक्स देते रहेंगे। हजारों करो़ड़ रूपये की लूट ऱकरने वाली कंपनियों पर नजर रखने वाली एजेंसियों के अधिकारी मौज में अपने घर जाते है अपने बच्चों के लिए हराम के पैसे से खरीदे गये ऐशो-आराम के साधनों पर नजर डालते हुए दारू पीकर सो जाते है। उधर जीबी रोड़ -सोनागाछी या फिर ऐसे ही बाजार में दस रूपये के लिए जिस्म बेचती है औरतों पर जिम्मेदारी आ जाती है जन-गण-मण अधिनायक जया है गाने की और इसके सम्मान के लिए अपना जिस्म बेचकर कमाएं गएं पैसे से टैक्स भरकर काले साहबों का ऐशो-आराम जुटाने की।

Thursday, May 26, 2011

मैं नहीं डरता था, बिके हुए डर से

मेरे बचपन में,
मैं डर सकता था किसी से भी
मेरे वक्त में नहीं बिका था डर
ऐसे में मुझे ही तय करना था
बचपन को रंगीन करने के लिए
किससे डरना है मुझे।
मैं गांव के किनारे बने रेत टीलों से डरा
घरों में सुनसान पड़े कमरों से भी डरा
मैंने डर कर देखा पीपल के पेड़ों को
अंधेंरे में तेज हवा से झूलते
हल्के-फुल्के पेड़ों से भी डर लिया कभी-कभी
रात को घेर में सोते वक्त
मुझे
अहसास हुआ कि कभी भी आ सकता है
सिर कटा हुआ भूत, या बैचेन डायन
मैंने पसीने से भीगी रात काट दी
मां की बगल में या पिता के साथ लिपट कर
सारे डर की बनी डोर में
जो सच्चा डर था
ताऊजी की पिटाई का,
या
कभी कभी मैं कुछ सामान टूट जाने से
मां से भी डर सच्चा होता था।
डर के हजार आईनों में देखता था
तो सबसे बड़ा डर मां ने दिया
झूठ बोलना यानि पत्थर हो जाना
किसी प्यासे को पानी न देना
यानि अगले जन्म में प्यासा रहना
भिखारी को डांटना
मतलब कई जन्मों तक
भूख के रेगिस्तान में भटकना
ऐसे डर के बहुत से रंगों से
बुनता रहा जिंदगी की चादर
मेरी जिंदगी में डर का दायरा
मेरे डर से भी छोटा था
जिसकी सीमा में आ जाते थे
गांव के सूने पड़े मंदिर
शहर के बीच में बना स्कूल
जिसमें खूबसूरत जीनों से फिसलते वक्त
आत्माराम मास्टर जी का डंडे का डर
याद न करने के बावजूद
भूल जाना क्लास में
कि
आज टेस्ट है जिसके नंबर पिताजी की मेज पर रखने है
इस सब डर से निकल कर महानगर पहुंच गया।
लेकिन
पांच साल के बेटे की जिंदगी में
जब भी दखल देता हूं
लगता है कि डर भी डर नहीं है उसका
जल के डर बाजार के बडे होने के साथ ही बदल गये
अब उसको कोई बूढ़ी औरत नहीं डरा पाती है
उसको डर नहीं लगता है किसी अंधेंरे कमरे से
बिल्डर ने हर कमरे में रोशनी के लिए प्लान बनाया है
इस शहर में बिना पोस्टर लाउड्स्पीकर के कोई मंदिर नहीं है
वीरान पड़े घर किताबों में सिमट गये।
अब उसको डरना पड़ता है
हर उस डर से जो बिक सकता है।
डोर में कीआई नहीं है
सिक्योरिटी के कैमरे नहीं है कॉलोनी में,
नया पैगासिस आया है
बहुत खतरनाक
घर के बाहर आवारा गाडियों से डर है
कुचल सकते है गाडियों में चलने वाले राक्षस
भीख मांगने वाले उठा सकते है
खाकी वर्दी वाले उठाकर बेच सकते है
अंग बेचने वाले,
इंसानी जिस्म को बेचने वाले
ऐसे तमाम डर से घिरा
आयुध
उसके पास एक भी डर ऐसा नहीं है जो
उसने भरा हो अपने बचपन के कैनवस पर
आलीशान और एअर कंडीशन्ड
आफिसों में तैयार हो रहा है डर
घर में चल रहे टीवी के
हर फ्रेम में उतर रहा है डर
सच की रोशनी में सदियों के भूतों की
झूठी समझी गई कहानियों से
सिल्वर स्र्कीन के सहारे
उसके दिमाग में भर दिया डर
अब डर जीने से फिसलने पर नहीं
रिपोर्ट कार्ड में गिरने से लगता है
प्रलय की झूठी खबरों के बीच
दुनिया तबाह करने के रोजमर्रा के
खबरी झूठों के बीच जनमता है डर
ऐसा डर जिसमें उसका कुछ भी नहीं है
सिवा उस डर के जो उसके बीच समा
गया है खबरों के स्ट्रिंगर की तरह
वो नहीं डरता है मेरे डर से
मैं हर पल डरता रहता हूं उसके डर से

Sunday, May 22, 2011

साधो ये मुर्दों का देश ?

एक देश है। देश है तो संविधान भी होगा। संविधान है तो चलाने वाले भी होंगे। चलाने वाले हैं तो गलतियां भी होंगी। गलतियां होंगी तो फिर वो लोग भी होंगे जिनसे गलतियां होती हैं। और वो लोग भी होंगे जो लगातार गलतियों को माफ करते हैं। देश हमारा है गलतियां आम आदमी करते हैं। और माफ करने के लिए राजनेता है। देश के मंत्रिमंडल में एक से बढकर एक मंत्री हैं। एक से बढ़कर एक। एक है कि हर घोटाले में सलिंप्त मिलते है, खुद नहीं तो अपनी बेटी-दामाद के सहारे या फिर भतीजे का रोल निकलता है। दाल से लेकर क्रिकेट तक कोई भी घोटाला हो उनकी मेहरबानी जरूर होती है। देश के अमीर राजनेताओं में भी अमीर। ऊपर वाले से गजब का इम्यून सिस्ट्म बनवाकर लाए है।
देश है तो फिर विदेश भी होगा। लिहाजा एक विदेशमंत्री है। विश्व संसद में दूसरे देश का बयान पढ़ देते है जनाब। पता ही नहीं चलता। उनको लगा चुनावी मेनीफेस्टों की तरह है कि पहला पन्ना उखाड़ दो तो बनाने वाले को भी पता न चले कि किस पार्टी के लिए बनाया था। लेकिन वो विश्व संसद की तरह माने जाने वाला यूएनओ था लिहाजा हल्ला हो गया। लेकिन उन्होंने कहा कि कोई बड़ी गलती नहीं थी। पूरी दुनिया में मजाक हो गया लेकिन वो गरीब-गुर्बों और बेहद पिछडे़ लोगों के देश का हुआ होगा। उनके लिए तो एक बेहद मामूली सा मजाक था। किसी की नौकरी नहीं गयी।
एक गृहमंत्री है। पॉलिशिंग ऐसी की हर कोई हैरान हो जाएं। बौने से मीडिया से इस तरह से अपनी लंबाई बढ़ाई है कि हर कोई कायल उनके काम करने का। किसी को लगता है कि गजब का काम करते है। दिल्ली में आतंकवादी फायरिंग करके निकल गएं लगभग साल होने को किसी को मालूम नहीं। बनारस के घाट पर बम विस्फोट हो गया लेकिन कोई सुराग नहीं। और अब पाकिस्तान को दी गई देश की मोस्ट वांटे़ड़ लिस्ट में एक के बाद एक गलतियां लेकिन जनाब की नजर में ये बेहद मामूली गलती है। एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने कहा कि ये लिस्ट एक रूटीन है बल्कि देने का कोई फायदा नहीं। यानि आठ साल से एक नाटक देश के सामने खेला जा रहा था। अगर मौजूदा गृहमंत्री की माने तो पहले सभी प्रधानमंत्री और मंत्री देश के सामने लिस्ट का एक नाटक खेल रहे थे। एक ऐसा नाटक जिसमें बेहद संजीदगी का अभिनय किया जाता है। यहां देश का मीडिया लिस्ट् को लेकर बेचारा हलकान होता जा रहा था। कभी एक्सक्लूसिव करता था तो कभी विशेष कोई पूछने वाला नहीं था। अब भेद खुला कि भाई ये तो बांकों का नाटक था।
एक मंत्री है। कानून मंत्री है। कानून भी जानते है। पैसे दो और किसी को भी उनकी भाषा में दूध धुला बनवा लो। उनके पास दूसरे भारीभरकम मंत्रालय भी है। साहब को सरकार बचाने की जिम्मेदारी लेनी थी। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने जिस राजा को प्रथम दृष्टया चोर ठहरा कर सलाखों के पीछे भिजवा दिया उसकी इनसे शानदार पैरवी कौन कर सकता था। देश की संवैधानिक संस्था को गलत ठहरा दिया। बिना उस संस्था के प्रमुख के खिलाफ मामला दर्ज कराएं। बात इतनी तरीके से की एक नया गणित का फार्मूला निकाल दिया। और उस फार्मूले के मुताबिक देश को उस घोटाले में कोई नुकसान नहीं हुआ जिसको सरकार की एक संस्था एक लाख छिहत्तर करोड़ का तो देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी भी तीस हजार करोड़ के बराबर का ठहरा रही है। अब तो सब साफ हो गया लेकिन मंत्री जी नवरत्नों में शामिल है।
एक मंत्री है जो अब पेट्रोलियम संभाल रहे है। उससे पहले शहरी विकास मंत्रालय देख रहे थे। बेचारे जनमोर्चा संभालतें हुए कांग्रेस विकास मंत्रालय संभाले हुए थे। सत्तर हजार करोड़ रूपये के घोटाले में धृतराष्ट्र बने रहे। उनके अफसर घोटाला करते रहे और वो बेचारे मूक दर्शक बनते रहे। जनाब कलमाड़ी साहब तो तिहाड़ में पहुंच गए अपनी बारात के साथ लेकिन मंत्री जी की तरक्की हो गयी।
राजा साहब की बात करना बेकार है। नाम ही राजा रखा गया था पैदा जरूर मध्यम वर्ग में पैदा हुए थे। बेचारे बड़े हुए राजा नाम से लेकिन जनतंत्र में राजा कैसे। फिर एक राज्य में बेहद भावुक और नारों से खेलने वाले लोकतांत्रिक राजा की बेटी के करीब आ गये और बन गए राजा। एक हजार दो हजार नहीं पूरे पौने दो लाख करोड़ का घोटाला कर बैठे। अब अपने राजा की बेटी के साथ तिहाड़ की अलग-अलग कोठरी में बाहर आने की जुगत बैठा रहे है।
ये कहानी आप कितनी लंबी लिख सकते है। इसमें सिर्फ नाम बदलने है और हर कोई फिट बैठ जाएंगा। ये एक ऐसे देश का मंत्रिमंडल है जिसको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। जिसकी तरक्की के कारनामे दुनिया का हर देश गा रहा है ऐसा मीडिया के लोगों का कहना है।
इस पूरे देश में एक बात साफ हो जाती है कि किसी भी अपराधी को आप जिन अपराधों के लिए पकड़ कर जेल में डाल सकते है उसकी आजादी पर रोक लगा सकते है उन्हीं अपराधों को करने पर नेताओं की तरक्की के रास्ते खोल सकते है।
लिखना तो बहुत कुछ है लेकिन मेरी समझ में जो उलझन थी वो सबसे पहले हर्षद मेहता मामले को लेकर सामने आई थी। देश में पांच हजार करो़ड़ का घोटाला हुआ लेकिन इस घोटाले को रोकने की जिम्मेदारी न किसी मंत्री पर गई न किसी ब्यूरोक्रेट पर। किसी ने नहीं पूछा कि भैय्या इन महानुभवों को किस बात के लिए पाला गया देश के आदमियों ने अपने बच्चों के खून को पिला-पिला कर। उसी वक्त राजनेताओं और भ्रष्ट् बाबूओं की जमात को ये रास्ता मिल गया था कि उनके राजनैतिक और नौकरशाह पूर्वज इस देश को लूटने का इंतजाम करके गए है। और रही बात मीडिया की तो वो बेचारा चुनावों में हार- जीत में देश की जनता की समझदारी की तारीफ करने लगता है। ये जानते-बूझते हुए भी कि जातिगत गोलबंदी और छोटे-छोटे लालच के सहारे जीतते है ये राजनेता न कि जनता की किसी सामूहिक समझदारी पर। अगर जनता की समझदारी ही सामने आनी थी तो ये जानना जरूरी है कि इस देश में दहेज खत्म होने की बजाय बढ़ गया है। आर्थिक घोटालों की तादाद एजूकेशन की दर के साथ ही बढ़ रही है। सड़क पर मौतों की संख्या गाडियों की संख्या के साथ होड़ कर रही है। और सबसे बड़ी बात कि पैसठ साल की आजादी के बाद भी देश की राजधानी दिल्ली समेत सभी शहरों चलने वाले वेश्यालयों में गरीब, बेसहारा और जबरदस्ती धंधें में धकेली गईं औरतों की तादाद बढ़ रही है। हां इस बार देश के मीडिया के पास खुश रहने का एक और कारण आ गया देश में महिला राजनीतिज्ञों की बढ़ती हुई ताकत का।

Wednesday, May 18, 2011

ये युवराज भी बौना निकला ?

नेशनल न्यूज चैनलों के दफ्तरों में अचानक सनसनी फैल गईं। राजनीति में टीवी चैनलों के सबसे बड़े ब्रांड औऱ देश के अघोषित युवराज बयान दे रहे है। किसानों की राजनीति के टाट में मखमल का पैंबद हो रहे है आजकल ये युवराज।हम भी टीवी के सामने जम गएं कि देखें युवराज की जुबांन से क्या निकलता है। कलावति और गन्ना किसानों के बाद अब युवराज की किस मांग से कांग्रेंस के चारण अपना गला तर करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देश में राज कर रही पार्टी के युवराज है ये और लोकतांत्रिक भाषा में पार्टी के महासचिव और सांसद भी है। लेकिन उनकी जबान से निकले आरोप तो नगर निगम के पार्षद से भी गये-गुजरे थे।
राजधानी से सटे हुए उत्तरप्रदेश के एक गांव की जमीनों पर बिल्डरों की निगाह है। देश के सबसे बड़े लुटेरों में बदल चुके ये बिल्डर भ्रष्ट्र मुख्यमंत्रियों और नौकरशाहों को जूतों की नोंक पर रखते है। ऐसे ही एक मामले में भट्टा पारसौल गांव के किसानों की जमीन को राज्य सरकार अधिगृहित कर एक कुख्यात बिल्डर को दे चुकी है। लेकिन किसानों ने बाजार भाव से मुआवजें की मांग की और जमीनें देने से इंकार कर दिया। सत्ता के नशे में मदहोश दलित की बेटी और राज्य की मुख्यमंत्री के लिये तो ये अंग्रेजी राज में किए गए विद्रोहों से भी बुरी बात है। जातियों के दम पर चुनी गई सरकार के लुटेरों को ये बात नागवार गुजरी। आजादी के बाद से ही वर्दी में गुंड़ों के तौर पर काम कर रही पुलिस ने गांव पर हमला बोला दिया। कानून के दम पर किस किस्म की गुंडईं की गई इसके निशान टीवी चैनलों की फुटेज और अखबारों की फोटों से किसी को भी दिख जाएंगे। नादिरशाह ने दिल्ली को जिस तरह से रौंदा था उसी तरह से रौंदा गया होगा वो छोटा सा गांव।
और मीडिया की सुर्खियों के बीच एक दिन युवराज वहां छिप कर पहुंच गएं। वहां से लौटकर प्रधानमंत्री से कुछ किसानों को मिलवाने के बाद मीडिया के आतुर कैमरों को युवराज ने बयान दिया कि गांव में राख के ढ़ेर है जिसमें किसानों को जला कर राख कर दिया। पुलिस ने घर लूटे और औरतों के साथ बलात्कार भी हुए। देश के युवराज ने ये सब आरोप राष्ट्रीय मीडिया के सामने लगाएँ। हमेशा की तरह युवराज की जर्रानवाजी पर खुश मीडिया में से किसी ने ये सवाल नहीं किया कि क्या ये मंच है। केन्द्र सरकार को संविधान से शक्ति हासिल है कि वो गैरकानूनी काम करने वाली राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकती है। राष्ट्रपति शासन लगा सकती है।
लेकिन युवराज को आरोप लगाना था और तीसरे दर्जे के सनसनीखेज बयानों से यूपी के चुनावों के लिए गिरे-पड़े और कूड़ादान में पहुंच चुके कांग्रेसियों को योद्धा की पोशाक पहनानी थी। लेकिन ये सवाल कहीं से नहीं आया कि पिछले 63 सालों से पुलिस कानूनों में युवराज की पार्टी ने कभी बदलाव नहीं किया। किसानों से जमीनें लूट रही सरकारों के अधिग्रहण संबंधी कानूनों में बदलाव नहीं किये गये। बुनियादी किसी किस्म का बदलाव नहीं किया युवराज की पार्टी ने। सांसद उनके पास है केन्द्र सरकार उनके पास है। आजादी के 62 साल से ज्यादा के समय में ज्यादातर हिस्से में युवराज के पिता, दादी, और दादी के पिता ने राज किया है। लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा कि किसानों की जमीनों को किस तरह से लूट से बचाया जा सकता है। कैसे देश की आम जनता के लिए मुसीबत बन चुकी पुलिस को ब्रिटिश झंडें की सोच से मुक्त कराया जाएं। न ही ये सोचा गया कि आजादी के दीवानों के परिवार को गोलियों से भूनने वाले, उनके बच्चों को भाले की नोंक पर बींधने वाले और औरतों की सरेआम इज्जत लूटने वाली पुलिस के मैन्यूअल और कानूनों में आमूल-चूल बदलाव किया जाएं।एक बार सोचा तक नहीं गया कि कैसे फर्जी एनकाउंटर करने वाले अधिकारी, लूट में शामिल रहने वाले अधिकारी, बलात्कार और लड़कियों से छेड़छाड़ करने वाले अधिकारी अपनी नौकरियां पूरी कर शान के साथ पैंशन उठाते है। उनके ज्यादातर बच्चें अब विदेशों में पढ़ रहे है या फिर वहां सैटल हो गये है। ये कहानी सिर्फ आईपीएस अफसरों की ही नहीं है बल्कि कई थानेदारों के बच्चे भी विदेशों में जा चुके है। देश की लूट का क्या नंगा सीन है। लेकिन युवराज राज्य पुलिस पर ऐसे आरोप लगा रहे है जैसे उत्तरप्रदेश पाकिस्तान का हिस्सा है और वहां परवेज मुशर्रफ की सरकार शासन कर रही है।
युवराज को हरियाणा में होंडा फैक्ट्री के मजदूरों पर हुए लाठीचार्ज के फूटेज याद नहीं होंगे तीन-चार साल पुरानी बात है। लेकिन महीने भर पहले जैतापुर में खुद उनकी पार्टी की सरकार के ही किसानों पर किये गएं गोलीकांड की याद नहीं ये बड़ी हैरान करने वाली बात है। लेकिन हैरानी उसको होगी जिसने युवराज की ऊंचाईं को मापा नहीं है।
देश के ज्वलंत मुद्दों पर युवराज ने अब तक अपना कोई रवैया साफ नहीं किया है। घुन की तरह देश को खा रहे भ्रष्ट्राचार पर युवराज अपनी पार्टी लाईन पर खड़े होते है यानि विपक्षी पार्टी कर रही है तो भ्रष्ट्राचारी है और यदि अपनी पार्टी का नेता है तो फ्री का चंदन है घिसों और अपने और अपनों के लगाओं। युवराज ने ये नहीं बताया कि राज्य की अकाउँटैबिलिटी के बारे में उनकी क्या राय है। क्यों ये साफ नहीं होता कि फर्जी एनकाउंटर में अधिकारियों की नौकरियां फौरन खत्म होनी चाहिए और पुलिस अधिकारियों पर कानून तोड़ने पर सख्त सजा होनी चाहिएं। ऐसा कोई मौलिक बदलाव हो सकता है इसका कोई अंदेशा भी उनके बयानों से नहीं होता है।
लेकिन एक हैरानी हमको नहीं कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को है कि देश युवराज के आरोपों पर ध्यान नहीं दे रहा। पहले कांग्रेस के युवराज एक करवट बदलते थे और देश के लोग धन्य हो जाया करते थे। आपके राष्ट्रीय चैनल्स और नेशनल अखबारों की कवरेज दिखाती थी ऐसा। पहली बार युवराज संसद में बोले यूपी के किसानों के चीनी मिलों पर बकाया पैसों को लेकर। अखबारों और चैनलों ने काफी प्रशंसा की। एक और बिलकुल गौरा-चिट्टा और हमारे लाट साहिबों के देश से पढ़कर आया युवराज किसानों पर बोला। कितना सुंदर और अभिराम दृश्य था वो जब देश के सबसे बड़े ऐशो-आराम में पला -बढ़ा हुआ एक युवराज गरीब किसानों पर बोल रहा था। कई कांग्रेसी नेताओं का गला रूंध गया बोल नहीं निकले और कुछ तो हर्षातिरेक रो पड़े। आखिर गूंगे युवराज ने मुंह खोला और वोटो की बारिश के लिए कांग्रेसी रो पड़े।
देश के मीडिया ने काफी लिखा। और हमेशा की तरह टीवी का माईक देखकर मुंह खोल देने वाले राजनीतिक विश्लेषकों ने मौसमी बारिश की तरह से राजनीति में नयी बयार पर बयान दिये। कलावति को लेकर संसद में दी गई स्पीच ने युवराज के जनवादी और जननायक के चेहरे को काफी निखारा। इसके बाद भी कभी ट्रेन में आम यात्रियों के साथ यात्रा तो कभी किसी दलित के घर खाने की अदा ने टीवी चैनल्स और अखबारों के पत्रकारनुमा चारणों को मंत्र-मुग्ध किया। लेकिन यूपी में युवराज का गणित थोड़ा गड़बड़ा गया। लोकसभा के चुनावों में चमत्कार का दावा करने वाले कांग्रेसी जनों के पास अब यूपी में अब कोई तुरूप की चाल नहीं है। वो हैरान है कि गोरे मुंह वाले युवराज की बात जनता नहीं सुन रही है। आखिर युवराज अंग्रेजी पढ़े है, विदेशों में रहे है और देश के जनतांत्रिक राजघराने से ताल्लुक रखते है। उनके दोस्त सब विदेशों से पले-बढ़े है और ज्यादातर अंग्रेंजों के जूते चाटने वाले राजाओं के वंशज है या फिर देश की लूट में सहायक रहे नौकरशाहों के बच्चें। लेकिन यूपी जातियों का कबीला है। कबीले के नायक बदल चुके है। अपनी-अपनी जातियों के गणित के दम पर इस राज्य में जो राज कर रहे है वो किसी भी लुटेरे को अपनी लूट से आईना दिखा सकते है अपनी लूट को वैधानिक बनाने के प्रयासों से वो किसी भी तानाशाह को रूला सकते है। एक मुख्यमंत्री जो लूट के नये प्रतिमान गढ़ रही है। राज्य का दौरा करती है तो राज्य में अधिकारी कर्फ्यू लगा देते है ताकि कोई बच्चा राजा तो नंगा है वाली कहानी न दोहरा सके। राज्य में राजनीति के दूसरे नायक जो कांग्रेसी रहमो करम पर सुप्रीम कोर्ट में लगे हलफनामें के आधार पर कभी सरकार की तरफ तो कभी दूसरी तरफ दिखते है। जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो लूट में इतने बेशर्म थे परिवार के ज्यादातर सदस्य आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में कोर्ट में है इस बार राजनीति में ईमानदारी के नये नायक बन रहे है।
अब इस ड्रामें में युवराज को कोई भूमिका चाहिएँ तो हीरो की। लेकिन जातिय गणित में वो कहीं फिट न होने के चलते युवराज को ऐसे बयान देने पड़ रहे है। और इन बयानों के सहारे ही सर्कस के उस जोकर की तरह दिख रहे है युवराज जो अपनी लंबाई बढ़ाने के लिए बांस के पैरों का सहारा लेता है और उस पर एक पाजामा ढक लेता है। युवराज के बयानों ने उसके बांस के पैरों पर लगाया गया उसके चारण कांग्रेसजनों और पिट्ठू मीडिया का पाजामा उघाड़ कर रख दिया है। जिसको देखकर एक ही शब्द मुंह से निकला " अरे ये युवराज भी बौना निकला"।

अब दिन को बोता कौन है

सर्द रातों में. रजाईं के अंदर मुड़ें हुए सपनों की दुनिया में
कुछ आवाजें आकर दस्तक देती थी
धीमें-धीमें अँधेंरे में रोशनी को टटोलती आंखों को
दिखता था बीच में रखा एक अंगार
कुछ देर में दिमाग जागता था कि
रात के आखिरी पहर में
हुक्के की बंसी नाच रही है
एक हाथ से दूसरे हाथ और बीच में सुलग रहा चिलम का अंगार
हमेशा मुझे एक अचरज रहा कि कैसे अंधेंरे में
खाटों के घेरे में बैठें ये बुजुर्ग एक दूसरे के हाथ से ले लेते है हुक्के की बंसी
उन्हीं आंखों के सहारे जिनसे दिन में भी कम दिखता है।
फिर से मेरी आंखें मूंद जाती
जब अम्मा की आवाज से आंखें खुलती तो देखता दिन चढ़ आया घर के कच्चे आंगन में
ताऊजीं और चाचा सब तो जंगल चले गएं।
एक दिन मैंने ताऊ जी से पूछ लिया
क्या करते हो ताऊ जी आप रात के अंधेंरे में जब कोई भी नहीं दिखता बिस्तर के बाहर
हंसी से बिखरते हुए ताऊजीं ने कहा
कि हम दिन को बोते है तुम्हारे लिए
ताकि वक्त का खूड़ तुमकों सीधा मिले।
उनकी हंसी मेरे जेहन में बनी है आज भी
जैसे घर के साफ आंगन में कोई बिखेर दे सफेद चावलों को चादर से उछाल कर।
साल दर साल मैं बड़ा होता चला गया
कम होता चला गया बंसी के हुक्के का घेरा
और मेरा गांव आना जाना।
राजधानी में कभी जरूरत नहीं पड़ी बोए हुए दिन को काटने की
सालों बाद गांव में लौटा
घेर में अकेले बैठे हुए तांबईं से चेहरे वाले ताऊजी को
नौकर के हाथ से भरे हुए हुक्के की बंसी को हाथ में पकड़े हुए
बेहद उदास आंखें, डूबी हुई आवाज से वक्त की डोर को पकड़े हुए
मैंने देखा अब कोई संगी-साथी नहीं है उनके साथ।
लेकिन कई बार बात करते हुए वो भूल कर अपना हाथ बढ़ा देते है अगली खाट की तरफ
जैसे थाम लेगा कोई हुक्के की बंसी को उनके हाथ से
फिर सहसा नींद से जागे हो जैसे वापस अपनी ओर खींच लेते है।
रात को उसी आंगन में सोते वक्त सालों बाद देखा उगे हुए चांद को ठीक उसी तरह
अपने छोटे से बेटे को बगल में लिटाएं
रात भर देखता रहा एक अकेले बूढ़े इंसान की उलझन को
मैं रात भर देखता रहा कब रात का आखिरी पहर हो
कब ताऊं जी उठें औऱ कोई खाटों के बिछे घेरे से थाम ले हुक्के की बंसी
फुसफुसाहटों के शोर से उठ जाएं मेरा बेटा
और ये देख ले कि किस तरह से दिन को बोते है बुजुर्ग
ताकि उसके लिए वक्त का खूड़ हमेशा सीधा रहे।
ताऊ जी की खांसी की आवाज नौकर का उठकर चिलम भरना
और मेरे अंदर जम गएं सन्नाटे में बस एक आवाज थी जिसको गले का रास्ता नहीं मिल रहा था।
ताऊजीं एक बार फिर से दिन को बो दो
मेरे बेटे के लिए ।

Monday, May 9, 2011

गोली किसानों पर और रोना डीएम के लिए

ईश्वर ने जब अपने बेटों की ओर देखा और सोचा कि इनमें से कौन सा बेटा बाकि सब का ख्याल रखते हुएं अपने छोटे भाईयों का पेट भरेगा। फिर उसने सबसे सीधे और विनम्र बेटे को कहा कि तुम्हें अपने भाईयों का ख्याल रखना है। ये तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तु्म्हारा कोई भाई तुम्हारी वजह से भूखा नहीं सोना चाहिए। और इस सबका पेट भरने के लिए जरूरी है कि तुम सबसे ज्यादा मेहनत करो। दुनिया तुम को किसान के नाम से जानेगी। किसान ने अपने भाईयों को लिया और उसके बाद उसने धरती का सीना चीर कर फसलें पैदा की और अपने भाईयों का उनके परिवार का पेट पाला।
ये कहानी कितनी सच है ये तो नहीं मालूम है लेकिन मानव विकास के दौरान किसानों ने अपने खून-पसीने से इंसानी समाज को सींचा।
लेकिन जब किसान के भाईयों ने अपने रोजगार फैलाने शुरू किये तो उनको अपने उस भाई का ख्याल नहीं आया जिसने उनको जिंदा रखने में सबसे ज्यादा मेहनत की थी। दलालों, व्यापारियों और सरकारों के बाद किसान को लूटने की बारी बिल्डरों की है। जातियों के नायक बन कर सिर्फ समीकरणों के सहारे सत्ता चलाने का वैधानिक अधिकार हासिल करने वाले बौने नेता सकार बन गए। बौने नेताओं की लाठी बने ब्योरोक्रेट्स जिनको विेदेशी शासकों ने गुलाम हिंदुस्तान की लूट को सुगम बनाने के लिए पैदा किया था। इतने शक्तिशाली कि हजारों करोड़ की लूट के बावजूद उनपर मुकदमा चलाने के लिए अनुमति मिलने में सालों कभी कभी तो दस साल लग जाएं। इन दोनों ने जब किसानो को हर किस्म से निचोड़ लिया तो एक नयी कौम पैदा कर दी और इसका नाम दिया बिल्डर। छोटे-छोटे सौदों में दलाली खाने वाले प्रोपर्टी डीलर अब शहर बसा रहे है। शहर बसाने के लिए जो जमीन चाहिए वो सिर्फ किसान के पास है लिहाजा उनके इशारे पर टके के राजनेता और रीढ़विहीन ब्यूरोक्रेट किसानों से जमीनें छीन कर उन हवाले कर दे रहे है।
देश भर में किसानों और सरकारके बीच जमीन के अधिग्रहण को लेकर झगड़े-आन्दोलन और प्रदर्शन जारी है। इसी कड़ी में ग्रेटर नौएड़ा में शुक्रवार को जो फायरिंग हुई और दो किसान मारे गए। कई महीनों से प्रदर्शन कर रहे इन किसानों के साथ झड़प में दो पुलिसकर्मियों की मौत भी हो गई। इस खबर को लेकर न्यूज चैनल्स और अखबारों ने काफी वक्त दिया। राजनीति पर बात करना ऐसे है जैसे कोढियों में खाज के गीत गाना है। सत्ता में जो पार्टी है उसको अपनी कार्रवाई को जायज ठहराऩा है विपक्ष में बैठी तमाम पार्टियां इस वक्त देवदूत की तरह से सरकार के खिलाफ बयान जारी करेंगी या कर चुकी होगी। इस पर बात करना भी उल्टी करने जैसा ही है। कि ये नेता जब सत्ता में थे तब क्या हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए उऩ लोगों ने क्या इस बारे में को जवाब नहीं मिलेगा और न ही कोई सवाल खड़ा करेगा। लेकिन मैं इस बारे में नहीं सोच रहा हूं। मेरे जेहन में सिर्फ वो खबर है जो न्यूज चैनलों ने दिखाईं और बार-बार दिखाईं। खबर थी ग्रेटर नौएड़ा के डीएम यानि जिलाधिकारी या जिला कलेक्टर को गोली लग गयी। तस्वीरों में ्चो कलेक्टर भाग रहे थे और उनका घुटना खून से सना हुआ था। पूरे न्यूज चैनल्स को लग रहा था कि गुंडों और बदमाश किसानों ने संभ्रात डीएम पर गोली चला दी। कई न्यूज चैनल्स सरकार को इसलिए कोस रहे थे कि किस तरह से कानून व्यवस्था चल रही है डीएम तक पर फायरिंग हो रही है। इसी कड़ी में अगले दिन एक अखबार में खबर थी कि डीएम की पत्नी ने अस्पतालमें गुस्से में मीडिया के कैमरे वगैरह छीन लिये थे। कवरेज को लेकर नाराज थी। लेकिन गांव में पुलिस ने किसानों की फसलें जला दी बुरी तरह से मार की। औरतें और बच्चों का क्या हुआ। इस सब के लिए आपको फोटों और वीडियों दिख सकते है लेकिन इसकी वजह किसानों को बताया जायेगा प्रशासन को नहीं। मारे गए किसानों के बच्चों का भविष्य क्या होगा। किस तरह से उसकी पत्नी अपनी जिम्मेदारियां का निर्वहन करेंगी क्या उसको भी इतना हक होगा कि वो अपने पति की लाश के फोटों खींच रहे फोटो जर्नलिस्ट के कैमरे छीन लेंगी। जवाब में आपको शायद भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी आपका जवाब होगा बच्चें सड़कों पर पलेंगे और बीबी शहर में जाकर बर्तन मांज सकती है और बर्तन मांजने वालियों का कोई निजता नहीं होती।
इस सबके बीच मीडिया की औकात नापने का पैमाना चाहिए तो देखिये कि जिस प्राईवेट कंपनी यानि जे पी गौर के लिए उत्तर प्रदेश सरकार दलालों की तरह से ये काम कर रही है उसका नाम तक लेने में अखबारों और न्यूज चैनलों के पसीने छूट रहे है। किसी विपक्षी नेता की औकात नहीं थी कि वो जे पी गौर की भूमिका की जांच करने की मांग करता। और अब ये भी जान लीजिये कि जिस एक्सप्रेस वे के लिए ये जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे अमीरों के सिर्फ 90 मिनट बचेंगे। ये 90 मिनट कितने कीमती है इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकार हजारों किसानों के बच्चों को यतीम कर सकती है।

Saturday, May 7, 2011

बिन लादेन, दिग्विजय की जुबान और अमरसिंह के जूतें

सुबह-सुबह घर में बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा था। सारे नौकर इधर से उधर भाग रहे थे। पीए भी पसीना-पसीना हो रहा था। आखिर मामला जूतों का था। वहीं जूते जिन को पहन कर एमपी अमरसिंह बयान जारी करते है। ठाकुर अमर सिंह से अफलातून हो जाने वाले बयान। ऐसे में अमर सिंह के वही प्यारे जूतें गायब हो तो परेशानी स्वाभाविक है। अमरसिंह की त्यौंरियां चढ़ी हुईँ थी आखिर उनकी जुबान माफ करना जूतें घर से कहां गायब हो गये। थोड़ी देर में एक नौकर ने आकर कहा साहब जूतों का पता लग गया है। लेकिन अब जूतें घर में नहीं है।अमरसिंह ने पूछा कि कहां है जूते, नौकर ने डरते-डरते हुए कहा, टीवी देखिएं साहब। टीवी पर दिग्गी राजा का भाषण चल रहा था। और उनकी जुंबा जो उगल रही थी उसके बाद अमरसिंह का शक गायब हो गया था कि अमरसिंह के जूतें माफ करना जुबान अब दिग्विजय के पास है। पिछले कुछ दिनों से राजनीतक रिपोर्टिंग कवर करनेवाले रिपोर्टर को समझ में नहीं आ रहा है कि अमर सिंह और दिग्विजय सिंह के बयानों में अंतर खोजना क्यों मुश्किल होता जा रहा है। अमरसिंह ने समाजवादी पार्टी में रहते वक्त अपने उल-जलूल बयानों से टीवी चैनलों में खूब सुर्खियां बटोरी थी। अब अमरसिंह राजनीति के कूडेंदान में है तो ये जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह ने अपने कंधों पर ली हैं।
बचपन की एक कहानी याद आती है कि एक गांव में रामलीला चल रही थी। लेकिन राम का अभिनय कर रहे बच्चें की तबीयत खराब हो गयी। ऐसे में उस रोल के मुफीद कोई बच्चा नहीं मिला तो एक मजदूर के बच्चें को पकड़ कर उस दिन राम का रोल दे दिया गया। गांव में मुख्य अतिथि जो इलाके का जाना-माना बदमाश को भी आना था। बच्चा जब लकड़ी के तीर कमान जिन पर चमकीली पन्नी चढ़ी थी और पीतल का मुकुट पहन कर स्टेज पर पहुंचा तो गांव के हर आदमी ने खडे़ होकर कहा जय श्री राम। रामलीला शुरू होने से पहले बच्चें की आरती की गयी और परंपरा के मुताबिक मुख्य अतिथि यानी उस बदमाश ने भी बच्चें के पैर छुएं। बच्चा बहुत हैरान था कि रोज गालियों से नवाजने वाले ये लोग उसको आज इतना सम्मान क्यों दे रहे है। थोड़ी ही देर में उसने अपने दिमाग में तय कर लिया कि ये सब इस मुकुट और तीर कमान की वजह से है। अब उसने निश्चय कर लिया कि वो इस तीर कमान और मुकुट को चुरा कर भाग जाएंगा। रामलीला के खत्म होते ही वो बच्चा मुकुट और तीर कमान के साथ गायब हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह बच्चा रात के मेकअप में जब निकला तो गांव के लोग उस पर हंसने लगे, ठहाके लगाने लगे, बच्चा चकरा गया कि ये लोग रात-रात भर में किस तरह से बदल गए है। अमर सिंह के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। मुलायम सिंह के मजमें में कुछ दिन का मेहमान बनने के बाद अमरसिंह अपनी जुंबान और जूते के साथ भाग निकले लेकिन अब उनको कोई भाव नहीं दे रहा है।
दिग्विजय सिंह का आजकल हाल कुछ ऐसा ही है। राजनीति का ककहरा पढ़ने वाले भी जानते है कि दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में कांग्रेस का भट्ठा बैठाने के बाद दिल्ली पहुंचे। उनको उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई। कुछ दिन बाद दिग्विजय की किस्तम का सितारा बुंलद हुआ और कांग्रेस के घोषित सेक्युलर सम्राट अर्जुन सिंह हाईकमान की नजर से उतर गए। और स्वास्थ्य संबंधी कारणों और उससे भी ज्यादा मुस्लिमों में अपनी अपील के खत्म होने से घर बैठ गए अर्जुन सिंह की जगह खाली हो गयी। अपनी राजनीति की शुरूआत अर्जुन सिंह के जूतों में बैठकर करने वाले दिग्विजय सिंह को मौका अच्छा लगा और एक दिन वो अर्जुन सिंह के जूतों में अपना पैर घुसा कर दिग्गी ने अपनी राजनीति के सेक्यूलर रथ की यात्रा शुरू कर दी। उसके बाद से उनके बहुत से अफलातूनी बयान आएं और लोगों को यकीन हो गया कि अर्जुन सिंह के जूतों में दिग्विजय सिंह के पैर सही नहीं जम पाएं। तब अमरसिंह के खाली रखे जूतों का ख्याल दिग्विजय सिंह को आ गया और एक रात उन्होंने वो जूते पहन कर शुरू कर दी अपनी जुबान यात्रा। खास तौर पर अण्णा की टीम पर भ्रष्ट्राचार को लेकर हमले शुरू कर दिए। ये बात अलग है कि दूसरों की भ्रष्ट्राचार की निंदा करने वाले दिग्गी की घिग्गी बंध जाती है जब उनके सामने शरद पवार और दूसरे उनकी खुद की पार्टी के नेताओं का काला चिट्ठा सामने आता है।

गौर करने की बात है कि काफी दिन तक दिग्गी और अमर दोनों नेताओं ने आपसी गाली-गलौज की जुगलबंदी करने के बाद गलबहियां शुरू कर दी। कारण अज्ञात है। लेकिन हालिया बयान दिग्गी का आया है। रही बात अमर सिंह तो वो अब पैसे देकर भी पत्रकारों को बुलाएं तो नहीं आते है। उनकी प्रेस क्रांफ्रैंस कुछ नाटक के कारण कभी-कभी चर्चा का विषय बन जाती है। बेचारे जन नेता तो कभी बन नहीं पाएं लेकिन टीवी के लिए मनोरंजन जुटाने में हद तक कामयाब हो गए थे। अब अमरसिंह की समाजवादी पार्टी से रूसवाई के साथ दफा होने के बाद से उनकी धार कम हुई तो मीडिया मनोरंजन का जरिया बन गएं दिग्विजय सिंह।

ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद दिग्विजय सिंह को याद आया कि आतंकवादी या फिर कोई अपराधी मरने के बाद उसके शव को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उसका सम्मान करना चाहिएं। हां इस बात को और साफ कर देना चाहिये कि निजि तौर पर दिग्विजय सिंह से कोई वास्ता हमें नहीं है लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश की सत्ता संभाल रही पार्टी के जनरल सेक्रेट्री की कोई तो हैसियत होती होगी। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी की मौत के बाद उसके सम्मान का नारा लगाने वाले दिग्गी के इस बयान से पूरे देश को ही आपत्ति होगी। वोटों की फसल काटने की उम्मीद करने वाले दिग्गी को ये जवाब जरूर देना चाहिये कि अमेरिका को उनकी सरकार ने इस आंतकवादी की गिरफ्तारी या फिर मौत के लिए क्या इनपुट दिए थे। इनकी सरकार से क्या बातचीत की थी। इनका मिलिट्री सहयोग लिया था या फिर कोई दूसरा कारण कि अमेरिका को दिग्गी राजा के बयान पर ध्यान देना क्यों चाहिये था। ये ऐसे बयानवीर है कि ओबामा ने सुबह नाश्तें में जो मुर्गा खाया उसको हलाल किया या नहीं इस पर भी बयान दे सकते है। देश को इस पर क्यों ध्यान देना चाहिए सवाल तो ये भी है। लेकिन एक अरब लोगों वाले देश में एक सत्ता संभाल रही पार्टी का नेता ऐसे बेसिर-पैर के बयान देता है तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक है। अमेरिका ने पाक-साफ देश नहीं है।लेकिन वो एक देश है जिसका अपने नागरिकों के लिए एक वादा है कि वो उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है।
ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी कमांड़ों द्वारा इस तरह मारने के बाद हिंदुस्तानी तथाकथित नेशनल मीडिया को भी ये जोश चढ़ा हुआ है कि हिंदुस्तान को दाउद इब्राहिम को मारना चाहिएं। कभी सेनाध्यक्ष बयान देते है तो कभी पूर्व विदेश मंत्री। टीवी पर खूबसूरत मेकअप के बाद अपनी बेवकूफाना भरी बातों से देश को उल्टी-सीधी जानकारी देने वाले ऐंकर हाथों की आस्तींनें चढ़ाएं बस एक ही बात कर रहे है कि अमेरका की तर्ज पर पाकिस्तान में दाउद का इलाज करना चाहिएं और हां एक और शब्द उधार ले लिया है सर्जिकल स्ट्राईक। आधे से ज्यादा ऐंकर वो है जो निठारी कांड में मंनिनदर और कोली दोनों को किडना सप्लायर साबित करने में जुट गएं थे। बिना ये जाने कि भैय्या किडऩी और सेम का बीज अलग होता है ऐसा नहीं है कि एक की जेब से निकाल कर दूसरे कि जेंब में डाल दिया। हां इतना जरूर जान ले कि ऐंकर जो बोलता है वो सामने स्क्रीन पर पढ़ता रहता है।
देश की सड़कों पर एक लाख से ज्यादा मौत सड़क दुर्घटनाओं में होती है। लेकिन अंग्रेजों के समय से पैसों वाले के मददगार कानून में इतने बदलाव के लिए तो मीडिया लड ले कि भैय्या एक्सीडेंट में किसी को मारने वाले की जमानत थाने से न हो। बेवकूफ बनाने वाले कानूनों से बेहतर है कि कोई सख्त कानून आएं ताकि अपनी मनमानी से किसी कि जान लेने वाले को थाने से जमानत न मिल जाएँ। अमरसिंह के जूतों से चल रहे दिग्गी बाबू को इस पर ध्यान देना चाहिएं कि किसी आतंकवादी की मौत पर रोने से बेहतर है कि वो इस कानून पर सवाल उठाएं. लेकिन मुस्लिम वोटों को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा हो तो एक काम कर सकते है ये सिर्फ सलाह है माने न माने उनका काम कि लादेन के नाम से राघोगढ़ में अपनी हवेली में एक मजार बना दे और रात दिन उस पर दिया जलाएं हो सकता है उनकी बंद दुकान में इस बहाने ही सही वोटों के ग्राहक आ जाएं।