Monday, March 26, 2018

ये मांस का जला हुआ टुकड़ा नहीं सत्रह साल की खिलखिलाती बेटी का जिस्म है। टके नेताओं और दलाल नौकरशाहों के लिए इससे और भी माल बन सकता है। लूट के जनतंत्र में सबका स्वागत है।


सत्रह साल की बेटी की नौकरी का पहला दिन था। मां फैक्ट्री तक छोड़ आई और फिर दिन ढलने का इंतजार करने लगी। क्योंकि दिन ढलने पर बेटी ये बताने वाली थी कि आज का दिन कैसा रहा, कैसे उसके पसीने की कीमत से घर के अंदर की रोशनी बढ़ जाएंगी। लेकिन अब वो दिन कभी ढलेगा नहीं। मां के पास बेटी को फैक्ट्री तक छोड़ आने की याद बच गई है। बदले में उसे जो मिला वो न बेटी थी और न बेटी की लाश। ये मांस का ऐसा जला हुआ लोथड़ा था जिसे देखकर डॉक्टर चीख पड़े थे। " बॉडी की इतनी बुरी हालत थी कि देखकर कह नहीं सकते थे कि ये इंसान की बॉ़ड़ी है। शव की पहचान तक नहीं हो पा रही थी। शरीर के किस हिस्से को देखकर कहे कि सांस चल रही है या नहीं, कुछ सूझ नहीं रहा था।" लेकिन सिर्फ एक लाश नहीं बल्कि महर्षि वाल्मिकी हस्पताल में आने वाली हर लाश का कमोबेश यही हाल था। लेकिन ये दृश्य डॉक्टर जो देख रहे थे उससे ज्यादा मरने वाले मजदूरों के परिवारों की जिंदगी से चिपक गया है। ये आखिरी दर्शन उनकी जिंदगी के हर सपने को काला कर देगा। बवाना की फ्रैक्ट्री की आग बस एक और आग है। जो रोज आस-पास लग रही है। लोग रोज मौत के शिकार हो रहे है। ऐसी मौत के जिसकी जिम्मेदारी किसी पर आ ही नहीं सकती । कुछ देर बाद अधिकारी वहां पहुंच गए थे। हर जगह पहुंच जाते है कुछ देर बाद। फिर एक झूठी क्रांत्रि का नायक भी जो अब मुख्यमंत्री बन चुका है एक ओढ़ी हुई बेचारगी के साथ वहां पहुंच गया। ( लोगों की आस्थाएं और इन बौंने नायकों की एक्टिंग सच्ची थी) लेकिन ये किसी एक राज्य में नहीं चल रहा है, ये एक मुख्यमंत्री या पार्टी का काम नहीं है। ये देश में चल रहा एक सतत कार्यक्रम है। किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है। किसी को काम करने की जरूरत नहीं है ये गरीब है इनकी मौत पर पैसे बांटना ही बस कर्म है।
खबरों को देखना और बार-बार देखना ये मजबूरी है। मेरा यही धंधा है। हर रोज ऐसी खबरों पर वही वाक्य लिखना, उसी तरह दर्द से गुजरना , और फिर बेबसी से हाथ मलते हुए किसी अफसर से चाय के प्याले पर खबर की गुहार करना ये मेरी दिनचर्या है। सहारनपुर में गाड़ी गंदी हो जाएंगी इस वजह से पुलिस वालों ने दो चिराग बुझ जाने दिये। फिर अधिकारियों का रूदाली प्रवचन ( जो घटना के नाटक के बाद शाम की पार्टी में हंसी और ठहाकों के साथ ही खत्म होता है) और फिर कोई अगली खबर। वो पुलिसवाले आराम से कुछ महीने बाद फिर किसी को कानून का पाठ पढ़ा रहे होगे औऱ उसी कानून से लूट की छूट पा रहे होगे। ( मेरे पास ऐसे पुलिस वालों की फेहरिस्त मौजूद है जिनके कारनामों के आगे दाऊद संत दिखने लगता है कई बार तो) । हरियाणा में बलात्कार की खबरों पर खबरें करना। यूपी में लखनऊ में लूट की घटनाएं पाठशालाओं की रोज की प्रार्थना में बदल चुकी है। मुंबई में रूफ टॉप के जश्न का मातम में बदल जाना। ऐसी तमाम घटनाओं से बचकर निकलना लगता है। खबर लिखने से भी जी चुराने का मन करता है। क्योंकि इन सबमें फिर किसी एक छोटे से मुलाजिम को पकड़ने का काम जारी रहेगा।
अब ऐसी घटनाओं की बाड़ आ रही है। हर किसी के पास अपने अपने कारण हो सकते है। किसी को इसमें सरकार दिखाई देगी । किसी को पहली सरकारों का दोष दिखेगा। लेकिन इसके कारणों की चमक इतनी है कि कोई उसको देखना ही नहीं चाहता। पूरे देश में नौकरशाहों ने इस देश को डस लिया है। अपनी गुंजल में लपेटे हुए नौकरशाह देश को आजादी की अहसास ही नहीं होने दे रहे है। बौंने से नेता सिर्फ जाति के नाम पर जीत कर विधानभवनों या फिर संसद तक पंहुच रहे है अपनी आने वाली सात पुश्तों का इंतजाम करने में जुटे हुए ये नेता जानते है कि अफसरों से बना कर रखने पर पैसों की आने वाली धारा बनी रहती है और इनसे बिगाड़ कर वो गंदी नाली से आने वाला चमचमाता प्रवाह रूक जाएंगा। इतने सालों से ये ही देख रहा हूं। एक जनता कर भी क्या सकती है ये भी सोचता हुआ चलता हूं। इतने राज्यों को कवर कर रहा था और हर बार जनता की कसक देखता हूं और फिर उसका जनतंत्र पर विश्वास के लिए लाईन में लगकर किसी बदलाव के वोट। लेकिन हालात बदलते नहीं दिखते। उत्तरप्रदेश में चुनावों के बाद प्रवचन और आपराधिक वारदात दोनों उफान पर है। लेकिन एक अतिवाद से बचने के लिए दूसरे की शऱण में आएं हुए लोग बेहद मजबूरी से हर रोज अखबार की सुर्खियों से अपने को बचाने की कोशिश करते है। वो जानते है कि जिनके नाम अखबार में होंगे वो बदनसीब है बेचारे क्योंकि सरकार नाम की चीज तो हमेशा मौजूद है उनके लिए भी ऐसे ही जैसे अखबार पढ़नेवाले के लिए है। अगर कोई अखबार में किसी हादसे की खबर पढ़ रहा है तो ये उसकी किस्मत है क्योंकि सरकार तो दोनो के लिए एक सी है।
किस्मत के सहारे ये देश चल रहा है क्योंकि सत्ता के लिए बहुत समझौता हो चुका है। नौकरशाहों ने इस देश को रेहन पर लिया हुआ है। अर्से पहले तक गुस्से से फड़कते हुए लोग अब बेबसी में घर से बाहर निकलते है। फिर बेबसी में भी अपनी किस्मत को मेहरबान मानते हुए घर तक का सफर तय कर लेते है। किसी भी घटना में किसी ऑफिसर को सेवामुक्त नहीं किया जाता। वो लूटते है उनके पास करोड़ों रूपये निकलते है उनके नीचे भ्रष्ट्राचार चलता है उनके सामने हादसे हो जाते है उनके सामने रातों-रात अवैध निर्माण होते है उनके सामने कत्ल होते है लेकिन वो निर्द्वंद रहते है। वो विदेह है। और आजादी के मायने आपको उच्चतम न्यायालय समझाता है कि उसके जस्टिस बताते है कि न्यायालय की परंपराएँ तो सदियों पुरानी है और एग्लों-इंडियन न्याय की बुनियाद पर टिकी है। उस चिट्टी के पहले पेज की आखिरी लाईंने इस देश की हकीकत को ज्यादा बारीकी से सामने लाती है। आप भले ही पुरानी पंरपराओं का नाम लेते हो अपनी आजादी की लड़ाई को किताब का हिस्सा बनाते हो लेकिन आपके सुप्रीम कोर्ट के पास आजादी या आजादी से पहले हिंदुस्तानी परंपरा का कोई ऐसा प्रतिमान नहीं है जिसको वो अपने अंदरूनी ढांचे में आजादी पर आंच आने के नाम पर किए गए कागजी विद्रोह में जगह देते। आजादी के सत्तर साल बाद भी आपके पास अपने लोगो के लिए कोई सपना नहीं है जो अपने बीच से जन्मा हो। क्योंकि नौकरशाहों ने इसको होने नहीं दिया। जातियों के कबीलों से निकले हुए टके नेताओं ने लूट के लिए मिले टुकड़े के चलते इस पर कुछ सोचा नहीं। ऐसे हर हादसे के बाद आपको उस हादसे से संबंधित विभाग के नौकरशाह के घर का रूटिन ( अगर देखना संभव हो तो) देख सकते है वो अपने बच्चों को स्कूल में मिले नंबरों को लेकर रात भर परेशान हो सकता है या ये भी हो सकता है कि पासपोर्ट के बाद भी बाहर आ रही दिक्कतों को लेकर अपने ही बराबर के किसी अधिकारी से इस देश की व्यवस्था को लेकर कोस रहा हो सकताहै। आलोक धन्वा की एक कविता इन नौकरशाहों के चंगुल को शायद बेहतर तरीके से बता सकती है ।
( जिलाधीश.)..
तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो
तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो
एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था
तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया है
जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी
यह जो आदमी
मेज़ की दूसरी ओर सुन रह है तुम्हें
कितने करीब और ध्यान से
यह राजा नहीं जिलाधीश है !
यह जिलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहुत ज़्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज़्यादा तत्पर और संलग्न !
यह दूर किसी किले में - ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं
हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लड़का है
यह हमारी असफलताओं और गलतियों के बीच पला है
यह जानता है हमारे साहस और लालच को
राजाओं से बहुत ज़्यादा धैर्य और चिन्ता है इसके पास
यह ज़्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज़्यादा अच्छी तरह हमे आजादी से दूर रख सकता है
कड़ी
कड़ी निगरानी चाहिए
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग पर !
कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है !

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