कोई आपको अधिकारपूर्ण तरीके से बिना कुछ सोचे हुए कह सकता है कि अरे तुम तो बिलकुल नहीं बदले। कोई भी कंधें पर हाथ रखकर बता सकता है कि तुम्हारे मुंह से तो शब्द नहीं निकलते थे। या फिर कोई ये कहकर भी हंस सकता है कि हम तुमको कैसे ब्लैकमेल करते थे डराकर कि घर तुम्हारी फोटो भेज देंगे नहीं तो शांत होकर यही बैठ जाओं। ये ही वक्त में लौटना। भले ही साईंस आपसे कुछ भी कहती हो लेकिन कॉलिज के दोस्तों के साथ होना वक्त में वापस लौटने जैसा ही होता है। मौजूदा सालों की कहानी आपके सहकर्मी सुना सकते है वो आपके साथ रिश्तों को वक्त के साथ तौलते है लेकिन पुराने दोस्त तो पुल होते है उन से गुजर कर आप ऐसी दुनिया में चले जाते है जहां कोई तुला या रिश्तों का वजन करने का कांटा नहीं होता। 18 साल बाद एक ऐसा ही वक्त आया। अचानक से सब तय हुआ। कुछ ही दोस्त इकट्ठा हुए और फिर एक जगह बैठना तय हो गया। कई लोगों से इस 18-20 साल में सलीके से बात ही नहीं हुई और कुछ से तो हुई ही नहीं। लेकिन इस तरह मिलने से जैसे फिर से हम लोग साउथ कैंपस में मूर्ति की कैंटीन में बैठ कर लस्सी या डोसे का इंतजार कर रहे थे। ऐसा ही लग रहा था कि हमने वक्त को फिर से कुछ वक्त के ही लिए पीछे मोड़ लिया। यहां हम कुछ ही दोस्त थे लेकिन जिनसे मुलाकात नहीं हुई वो ये नहीं कह सकते कि उनकी बात नहीं हुई। क्योंकि उस जमाने में सब थे तो उस जमाने को वापस लौटा लाने वाले लम्हों में भी सब थे। सबके बारे में बाते हुई। और शायद पहली बार पत्रकारिता में आने के बाद हमने पत्रकारिता, बॉस, टाईमिंग और दुनिया को पीछे छोड़ कर अपने बारे में बातें की सिर्फ अपने बारे में। शुक्रिया आप सभी का दोस्तों वक्त को यूं ठेंगा दिखाने का।
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