त्रिपुरा में झंडों का अनुशासन तो दिखता है लेकिन जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन बहुत सी जगह दिखाई नहीं देता।
झंडों से पटा हुआ है त्रिपुरा। लेकिन इसके लिए आपको नजर उठाने की जरूरत नहीं है, त्रिपुरा में झंडे सड़क मकान या दुकान की छतों पर नहीं , जमीन में लगाएं जाते है। मेन बाजार, वीआईपी रोड़ या फिर गलियां, इनको पार कर गांव सब तरफ जमीन में गड़े हुए झंडें आपका ध्यान अपनी ओर खींचते है। राजनैतिक हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में भी तीनों पार्टियों के झंड़े एक साथ लगे हुए दिखाई देते है। जैसे लगाने वाला कोई एक ही आदमी है और क्रमवार झंडों को लगाता हुआ जा रहा है। ऐसा कही कही ही होता है कि आपको एक पार्टी का झंडा दिखाई देगा नहीं तो इस चुनाव में ताल ठोंक कही तीनों पार्टियों के झंडे एक साथ दिखाई देते है। फिर आप त्रिपुरा के राजनीतिक माहौल की ओर झांकते है तो लगता है कि ये बहुत कुछ बंगाल से मिलता जुलता है और उसी तरह से जैसे बंगाल में वामपंथी शासन के दौरान का बंगाल , इसमें विचारधारा का कोई विरोध के तौर पर नहीं कह रहा हूं बल्कि लोगों के मीडिया से इंटरक्शन के आधार पर। स्कूल-कॉलिजों में बात करने से पहले आपसे कहा जा सकता है कि आप को स्टूडैंट कौंसिल के मेंबर को बुला लीजिए। कैमरे ऑन होने से पहले हंसते-मुस्कुराते हुए चेहरे एकाएक शांत हो जाते है और आप माईक लगाएं वो चुप लगा जाते है। बाद में फिर धीरे से कहेंगे कि सर यहां सब कुछ के मायने होते है। हम बाद में कोई हल्ला नहीं चाहते। लेकिन स्कूलों और छात्रों की राजनीति से बाहर सड़कों पर एक अलग हवा चलते हुए दिखती है। लोगों से बात करों तो थोड़ी ही देर में खुल कर हंसते हुए अपनी बात कहते है। लगता है कि यहां राजनीति एक नई करवट ले रही है। पार्टियां अपनी रणनीति बना रही है और लोग अपनी। गांव गांव में वाम मोर्चे की पकड़ का आसानी से कोई तोड़ नहीं निकाल सकता। गर्ल्स स्कूल में प्रिसिपल से अनुमति ली। और फिर बाहर कुछ छात्राओं से बातचीत शुरू की। बातचीत शुरू हुई कि उन्हीं में से एक बच्ची ने जैसे पूरी बातचीत को अपने मुताबिक ढाल लिया। बाकि लड़कियों से कुछ भी बात करो तो फिर सब बच्चियां उसी की ओर देखती थी और फिर कुछ बोलते-बोलते तान सिर्फ मानिक सरकार पर चली जाती थी। हालांकि एक बच्ची ने फिर भी बताया कि उसको दिल्ली के नेताओं में नरेन्द्र मोदी पंसद है।
इसीतरह का माहौल महसूस किया पुल के नीचे मजदूरों की पंचायत में। हर शहर में एक चौराहे पर ये मजदूर अपने श्रम का सौदा कर घर के लिए कुछ मजदूरी ले जाने के लिए जुटते है। सुबह सुबह निकलने से पहले इसी चौपाल पर पहुंच गया और शुरू किया लोगों से बातचीत का सिलसिला। पहले तो सब मजदूरों ने एक हट्टे-कट्टे मजदूर की ओर देखा और फिर कुछ मजदूर इधर से उधर चले गए। लेकिन एक मजदूर ने शुरू किया कि दो दिन से कोई मजदूरी नहीं लगी है अगर आज फिर खाली हाथ गया तो घर में बीबी-बच्चों को खाना ले जाने के लिए सोचना होगा। और फिर एक के बाद एक मजदूर जुटने लगे। सब लोगों का एक ही दुख था कि मजदूरों और गरीबों के नाम पर सरकार चल रही है और वही दुखी है। काफी बातें हो रही थी कि उसी हट्टे-कट्टे मजदूर ने कहा कि चलो अब हो गया है काफी। मैं भी आगे की ओर बढ़ चला।
गांव में भी गया। सड़कों के किनारे गांव की हालत ठीक दिखाई देती है। लेकिन गांव में अंदरूनी हालात जानने के लिए काफी अंदर जाना पड़ता है। त्रिपुरा में शहरों के पास की सड़के अच्छे हालात में है। लेकिन गांव में किसान को वही परेशानियां है जो दूसरे राज्यों में है। त्रिपुरा के कुछ हिस्सों में सरकार अभी भी नहीं पहुंची है जैसे कि ऊनाकोटि के ऊपर आदिवासियों के गांवों में पानी के लिए लोग बेहद परेशान है। भूख का साया वहां से हट गया हो ऐसा भी नही है। चुनाव के लिए जानकारी हासिल करने के लिए प्रदीप चक्रवर्ती जी से मिला। सीनियर रिपोर्टर प्रदीप जी ने त्रिपुरा में भूख से जूझते हुए गरीब आदिवासियों पर रिपोर्टिंग की और एक किताब लिखी थी। 2002 में पब्लिश इस किताब का नाम था “ENCOUNTER with DISEASE & DEATHS “ इस किताब के हालात और बहुत से हिस्सों के हालात अभी भी काफी कुछ दिखते है। लेकिन विकास की गति शहरों में दिखती है,मोबाईल कंपनियां और कैमिस्ट शॉप दोनो बाजारों की शान बनी हुई दिखती है। किसानों को लेकर एक ही जैसा ही रवैया सब पार्टियों का होता है जब वो सत्ता में होती या फिर विपक्ष में होती है ऐसे में किसी भी पार्टी को शायद किसी पर ये आरोप लगाने का हक नहीं मिलता है कि यहां किसान ज्यादा परेशान है और उसके किसान कुछ डिग्री कम परेशान है। किसानों की ये हालात तो देश की एक हकीकत में तब्दील हो गई है। लेकिन लोगों से त्रिपुरा के राजनैतिक हालात पर बात करनी शुरू की। एक बात तो साफ है कि मानिक सरकार पर खुद कोई आरोप नहीं लगाता है। सरकार के बाकि मंत्रियों को कोई छोड़ता नहीं है। मानिक सरकार की एक खास मीडिया की तैयार छवि से हटकर देखे तब भी मानिक सरकार की सादगी काफी आकर्षक है। वो सादगी पंसद है इसमें कोई दो मत नहीं है। लेकिन बाकि मंत्रियों को लेकर ज्यादातर लोगों ने चिटफंड कंपनियों के साथ मिलने के आरोप चस्पा किये। इस छोटे से राज्य से 3500 करोड़ से लेकर 35000 करोड़ तक रूपये इन चिटफंडिया कंपनियों के मालिकों ने डकार लिये है ये आपको सीधा दिखता है। और ये चुनाव में मुद्दा है। ग्रामीण इलाकों में खुले हुए स्कूलों में बच्चों की दुनिया बस दोपहर के खाने तक ही सीमित हो चुके है। ऊनाकोटि के रास्ते में दो स्कूलों मे बच्चों से बात की। आठवीं क्लास के बच्चों से बात के बात लगा कि ज्यादातर बच्चे राज्य के मुख्यमंत्री या फिर प्रधानमंत्री कौन है मानिक सरकार याे नहीं जानते है और वो राज्य से सटे हुए राज्यों के नाम नहीं जानते है लेकिन वो पढ़ रहे है। और कागजों में केरल के बाद सबसे साक्षर प्रदेश के तौर पर आंकडों में त्रिपुरा छपता जा रहा है।
झंडों से पटा हुआ है त्रिपुरा। लेकिन इसके लिए आपको नजर उठाने की जरूरत नहीं है, त्रिपुरा में झंडे सड़क मकान या दुकान की छतों पर नहीं , जमीन में लगाएं जाते है। मेन बाजार, वीआईपी रोड़ या फिर गलियां, इनको पार कर गांव सब तरफ जमीन में गड़े हुए झंडें आपका ध्यान अपनी ओर खींचते है। राजनैतिक हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में भी तीनों पार्टियों के झंड़े एक साथ लगे हुए दिखाई देते है। जैसे लगाने वाला कोई एक ही आदमी है और क्रमवार झंडों को लगाता हुआ जा रहा है। ऐसा कही कही ही होता है कि आपको एक पार्टी का झंडा दिखाई देगा नहीं तो इस चुनाव में ताल ठोंक कही तीनों पार्टियों के झंडे एक साथ दिखाई देते है। फिर आप त्रिपुरा के राजनीतिक माहौल की ओर झांकते है तो लगता है कि ये बहुत कुछ बंगाल से मिलता जुलता है और उसी तरह से जैसे बंगाल में वामपंथी शासन के दौरान का बंगाल , इसमें विचारधारा का कोई विरोध के तौर पर नहीं कह रहा हूं बल्कि लोगों के मीडिया से इंटरक्शन के आधार पर। स्कूल-कॉलिजों में बात करने से पहले आपसे कहा जा सकता है कि आप को स्टूडैंट कौंसिल के मेंबर को बुला लीजिए। कैमरे ऑन होने से पहले हंसते-मुस्कुराते हुए चेहरे एकाएक शांत हो जाते है और आप माईक लगाएं वो चुप लगा जाते है। बाद में फिर धीरे से कहेंगे कि सर यहां सब कुछ के मायने होते है। हम बाद में कोई हल्ला नहीं चाहते। लेकिन स्कूलों और छात्रों की राजनीति से बाहर सड़कों पर एक अलग हवा चलते हुए दिखती है। लोगों से बात करों तो थोड़ी ही देर में खुल कर हंसते हुए अपनी बात कहते है। लगता है कि यहां राजनीति एक नई करवट ले रही है। पार्टियां अपनी रणनीति बना रही है और लोग अपनी। गांव गांव में वाम मोर्चे की पकड़ का आसानी से कोई तोड़ नहीं निकाल सकता। गर्ल्स स्कूल में प्रिसिपल से अनुमति ली। और फिर बाहर कुछ छात्राओं से बातचीत शुरू की। बातचीत शुरू हुई कि उन्हीं में से एक बच्ची ने जैसे पूरी बातचीत को अपने मुताबिक ढाल लिया। बाकि लड़कियों से कुछ भी बात करो तो फिर सब बच्चियां उसी की ओर देखती थी और फिर कुछ बोलते-बोलते तान सिर्फ मानिक सरकार पर चली जाती थी। हालांकि एक बच्ची ने फिर भी बताया कि उसको दिल्ली के नेताओं में नरेन्द्र मोदी पंसद है।
इसीतरह का माहौल महसूस किया पुल के नीचे मजदूरों की पंचायत में। हर शहर में एक चौराहे पर ये मजदूर अपने श्रम का सौदा कर घर के लिए कुछ मजदूरी ले जाने के लिए जुटते है। सुबह सुबह निकलने से पहले इसी चौपाल पर पहुंच गया और शुरू किया लोगों से बातचीत का सिलसिला। पहले तो सब मजदूरों ने एक हट्टे-कट्टे मजदूर की ओर देखा और फिर कुछ मजदूर इधर से उधर चले गए। लेकिन एक मजदूर ने शुरू किया कि दो दिन से कोई मजदूरी नहीं लगी है अगर आज फिर खाली हाथ गया तो घर में बीबी-बच्चों को खाना ले जाने के लिए सोचना होगा। और फिर एक के बाद एक मजदूर जुटने लगे। सब लोगों का एक ही दुख था कि मजदूरों और गरीबों के नाम पर सरकार चल रही है और वही दुखी है। काफी बातें हो रही थी कि उसी हट्टे-कट्टे मजदूर ने कहा कि चलो अब हो गया है काफी। मैं भी आगे की ओर बढ़ चला।
गांव में भी गया। सड़कों के किनारे गांव की हालत ठीक दिखाई देती है। लेकिन गांव में अंदरूनी हालात जानने के लिए काफी अंदर जाना पड़ता है। त्रिपुरा में शहरों के पास की सड़के अच्छे हालात में है। लेकिन गांव में किसान को वही परेशानियां है जो दूसरे राज्यों में है। त्रिपुरा के कुछ हिस्सों में सरकार अभी भी नहीं पहुंची है जैसे कि ऊनाकोटि के ऊपर आदिवासियों के गांवों में पानी के लिए लोग बेहद परेशान है। भूख का साया वहां से हट गया हो ऐसा भी नही है। चुनाव के लिए जानकारी हासिल करने के लिए प्रदीप चक्रवर्ती जी से मिला। सीनियर रिपोर्टर प्रदीप जी ने त्रिपुरा में भूख से जूझते हुए गरीब आदिवासियों पर रिपोर्टिंग की और एक किताब लिखी थी। 2002 में पब्लिश इस किताब का नाम था “ENCOUNTER with DISEASE & DEATHS “ इस किताब के हालात और बहुत से हिस्सों के हालात अभी भी काफी कुछ दिखते है। लेकिन विकास की गति शहरों में दिखती है,मोबाईल कंपनियां और कैमिस्ट शॉप दोनो बाजारों की शान बनी हुई दिखती है। किसानों को लेकर एक ही जैसा ही रवैया सब पार्टियों का होता है जब वो सत्ता में होती या फिर विपक्ष में होती है ऐसे में किसी भी पार्टी को शायद किसी पर ये आरोप लगाने का हक नहीं मिलता है कि यहां किसान ज्यादा परेशान है और उसके किसान कुछ डिग्री कम परेशान है। किसानों की ये हालात तो देश की एक हकीकत में तब्दील हो गई है। लेकिन लोगों से त्रिपुरा के राजनैतिक हालात पर बात करनी शुरू की। एक बात तो साफ है कि मानिक सरकार पर खुद कोई आरोप नहीं लगाता है। सरकार के बाकि मंत्रियों को कोई छोड़ता नहीं है। मानिक सरकार की एक खास मीडिया की तैयार छवि से हटकर देखे तब भी मानिक सरकार की सादगी काफी आकर्षक है। वो सादगी पंसद है इसमें कोई दो मत नहीं है। लेकिन बाकि मंत्रियों को लेकर ज्यादातर लोगों ने चिटफंड कंपनियों के साथ मिलने के आरोप चस्पा किये। इस छोटे से राज्य से 3500 करोड़ से लेकर 35000 करोड़ तक रूपये इन चिटफंडिया कंपनियों के मालिकों ने डकार लिये है ये आपको सीधा दिखता है। और ये चुनाव में मुद्दा है। ग्रामीण इलाकों में खुले हुए स्कूलों में बच्चों की दुनिया बस दोपहर के खाने तक ही सीमित हो चुके है। ऊनाकोटि के रास्ते में दो स्कूलों मे बच्चों से बात की। आठवीं क्लास के बच्चों से बात के बात लगा कि ज्यादातर बच्चे राज्य के मुख्यमंत्री या फिर प्रधानमंत्री कौन है मानिक सरकार याे नहीं जानते है और वो राज्य से सटे हुए राज्यों के नाम नहीं जानते है लेकिन वो पढ़ रहे है। और कागजों में केरल के बाद सबसे साक्षर प्रदेश के तौर पर आंकडों में त्रिपुरा छपता जा रहा है।
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