Tuesday, December 10, 2013

आप की सरकार- केजरीवाल की सरकार

चुनाव के नतीजें आ गये। लोकसभा चुनावों के लिये सेमीफाईनल माने जा रहे इन चुनाव के नतीजों ने काफी लोगों को गलत साबित कर दिया। लोग मोदी के कद को काफी आंक रहे थे। लेकिन मोदी के यशोगान से आकाश गुंजा रहे बीजेपी के लोग भी जानते है कि मोदी के विजयी रथ के पहिये दिल्ली में थम गये है। पहियों में झाड़ू फंस गयी है। झाड़ू की ताकत का आकलन करने में आम तौर पर विश्लेषक और पत्रकार फेल रहे। जनता ने नये ड्रीम मर्चेंट का चुनाव कर लिया । मोदी का विकास के सपने को ठुकरा कर आम आदमी पार्टी की तान पर दिल्ली थिरकने लगी। 8 दिसंबर को दिल्ली की सड़कों से गुजरते वक्त आदमियों को देखता रहा और सोचता रहा  कि क्या ये वही लोग है जिन्होंने इतना बड़ा फैसला इतनी चुपचाप से ले लिया। किसी को कानो-कान तक खबर नहीं हुई। या कान मोदी की वंदना सुनने में बहरे हो चुके थे। कुछ भी हो। झाड़ू की जीत का सबसे पहला असर  चमत्कारी होगा ये मालूम नहीं था। भ्रष्ट्राचार के प्रतीक बन चुके येदुयेरप्पा को गले लगाने में जुटे मोदी ने इशारा किया,और बीजेपी के मैले कपड़ों ने उजली चमक दिखानी शुरू कर दी। “हम जोड़तोड़ कर सरकार नहीं बनायेंगे।“ बीजेपी बहुमत से तीन सीट दूर है। लेकिन घोषणा कर रही है कि वो जनता के फैसले का सम्मान करती है। और विपक्ष में बैठेगी। ये वही बीजेपी है जिसने यूपी में पहली बार हरिशंकर तिवारी,अमरमणि, राजा भैय्या  जैसे माफियाओं को साथ लेकर सरकार बचायी थी। सालों तक केसरीनाथ त्रिपाठी ने संसदीय मर्यादाओं के साथ लगभग बलात्कार करते हुए विधायकों की असवैधानिक टूट पर फैसला लटका कर पांच साल तक लूली लंगडी लूटेरी सरकार चलायी थी। पार्टी के मुंह से ये सुनना अच्छा लगा कि वो किसी जोड़ तोड़ की राजनीति में नहीं पड़ेगी। ये ही केजरीवाल की केसरीनुमा बीजेपी की पॉलिटिक्स को पहली चोट है।
केजरीवाल ने सत्ता के दंभ में डूबी राजनीतिक जमात को एक बड़ी मात दी है। लेकिन क्या ये एक अनूठा प्रयोग है। क्या इससे पहले ऐसा नहीं हुआ है। क्या इसका स्थायी प्रभाव होगा। ऐसे बहुत से सवाल हवा में तैर रहे है। कुछ सवालों के जवाब तो वक्त से मिलेंगे और कुछ के लिये आप इतिहास की मदद ले सकते है। इस चुनाव में जो हुआ और आम आदमी पार्टी के इस अभ्युदय के पीछे आम आदमी की कौन सी आकांक्षायें काम कर रही थी उन पर बात की जा सकती है।
 चुनाव में कांग्रेस मोदी पर दांव खेल रही थी, और मोदी औद्योगिक घरानों पर।  दोनों पार्टियां आम आदमी से राब्ता करना सालों पहले छोड़ चुकी है। कांग्रेस को लग रहा था कि मोदी का हौव्वा उसके बक्शों में वोट भर देगा और वोट के बक्से उसके नेताओं की तिजौरियां। दलाली की परंपरा में प्रवीण हो चुकी एक पूरी जमात अंग्रेजी भाषी नेताओं से भरी हुई जिनकी डिग्रियों पर सिर्फ नाम हिंदुस्तानी है। चुनाव लड रहे उसके नेताओं के औसत हैसियत करोड़ों में हैं।  दिल्ली सरकार में मंत्री की हैसियत से 15 साल राज करने वाले एक मंत्री साहब के जूते लाख रूपये को छूते थे और उनकी घड़ियां लाखों में आती थी। ये अलग बात है कि उनको मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था दलित-पिछड़ों और कमजोर तबकों को ताकत देने के नाम पर। 
मोदी आजकल विकास के नारे पर सवार है। रात दिन उनकी प्रचार एजेंसियां उनके आकंड़ों को हवा में घुमाने में लगी है। गुजरात की जनता पर उनका जादू चलता है। विकास के नाम पर या फिर अल्पसंख्यकों पर नियंत्रण करने वाले मर्दवादी नेता के नाम पर। आंकड़े ये साफ नहीं करते।  लेकिन देश भर में उनके विकास पुरूष के चेहरे को बेचा जा रहा है। ये अलग बात है छत्तीसगढ़ में भीड़ उनके नारों का जबाव नहीं दे रही थी। गुजरात के विकास के नाम पर वहां उन्होंने सपने बेचने की कोशिश की। बस्तर की उन रैलियों में हर हर मोदी घर घर मोदी का जवाब जनता नहीं दे रही थी क्योंकि वहां मुस्लिम वोटो की तादाद बहुत कम थी लिहाजा मोदी का जादू चल नहीं रहा था। अगर आप मोदी की रैलियों का विश्लेषण करेंगे तो आप को साफ मालूम हो जायेगा कि मोदी का जादू यूपी, बिहार के लोगों पर अगर सर चढ़ कर बोलता दिख रहा है तो इसका कारण है कि वहां कि क्षेत्रीय सरकारों का रवैया। मोदी के नारों पर लाखों आवाज अगर साथ दे रही है तो ये नजारा   उन इलाकों में चल रहा है जहां कि जनता को वहां की सरकारों का रवैया बहुसंख्यकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण लग रहा है। यूपी में मुजफ्फरनगर के दंगों में अखिलेश सरकार का एकतरफा रवैया वहां के बहुंसख्यंक लोगों के मन में रोष भर रहा है। ये बात बीजेपी के नेता अंदरूनी तौर पर जानते और मानते है। बाकि सब जगह उनकी सभाओं में भीड़ जुट रही है लोग सुन रहे है तो इसकी जड़ में कांग्रेस का कुशासन ज्यादा है उनका पॉजीटिव एजेंडा कम है।
केजरीवाल की विजय की वजह तलाशने में तो शायद काफी लंबा वक्त लगेगा। लेकिन कुछ चीजें जरूर है जो केजरीवाल को लोगों की इस गुपचुप क्रांत्रि का नायक बनने की वजह लग सकती है।  आम आदमी के लिये तो दूर की बात है, देश के राजनीति के विश्लेषको को भी इस बात को याद करने में लंबा वक्त लगेगा कि आखिरी बार किस राजनेता ने किसी औद्योगिक घराने की लूट को कोसा हो। या फिर बिजनेसमैन्स के लालच के आगे समर्पण करती सरकारों की आलोचना की हो। लेकिन याद करने पर ये जरूर याद आ जायेगा कि 1991 से पहले भले ही राजनेता बिजनेस घरानों को गालियां न देते हो लेकिन लूट के लिये खुला मैदान  नहीं छोड़ा था। 91 के बाद के भारत में एक बात साफ दिख रही थी कि कि तरह से भारत के बिजनेसमैंस दुनिया भर के बाजारों मे पैसा लगा रहे थे। किस तरह से रातों रात कुछ करोड़ की कंपनियां हजारों करोड़ की कपनियों में तब्दील हो रही थी। और उनकी तारीफ के कशीदें पढ़ रहा था मीडिया। अगर किसी उद्योगपति पर कोई छापा डलता था तो कहा जा रहा था कि ये छापा इंवेस्टमेंट का रास्ता रोक देगा। इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर करोड़ों किसानों को भूमिहीन बना कर बड़े बिल्डर घराने तैयार कर दिये गये।  इस बेढ़ब विकास की आड़ में लूट का वातावरण तैयार कर दिया। और राजनेताओं ने लूट की इस आँधी में अपना हिस्सा लिया। पूरी राजनीति से जैसे आम आदमी कही गायब हो गया। कॉमनवेल्थ की लूट के बीच में अचानक सोशल मीडिया की शुरूआत हुई और इसने लूट के खेल को आम आदमी के बीच की चीज बना दिया। सोशल मीडिया ने आम आदमी को अपनी बात कहने का हौसला और रास्ता दिया। कॉमनवेल्थ, 2जी, देवास एंट्रिक्स और फिर कोयला घोटाला। हर कोई घोटाला एक के बाद एक दूसरे को पछाड़ता हुआ। और मध्यमवर्ग ने अपने आप को अकेला और असहाय पा लिया। धर्म और धर्म निरपेक्षता के नाम पर हर लूट को जायज ठहरा कर मुलायम,माया, जगन जैसे नेता उभर आये।इसी बीच दशकों से संसद के गलियारों में चक्कर काट रहे एक बिल को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चा शुरू होती है। कुछ वालिंटियर्स मिलकर संगठन खड़ा करते है। और अन्ना के सहारे खड़ा होता है एक नया आंदोलन। अन्ना के बाद केजरीवाल और किरण बेदी का नाम इस मुहिम का चेहरा बनजाता। 
अरविंद केजरीवाल ने इस मुहिम में सबसे आगे बढ़कर लूट के मूल कारण यानि औद्योगिक घऱानों के बेशुमार लालच को अपना निशाना बनाया। पिछले दो दशक से इस देश के वित्त मंत्री को कठपुतली मानने वाले अंबानी भाईयों पर सीधा हमला बोल कर अरविंद ने आम आदमी को समस्या की जड़ बतायी।  बात आम आदमी की समझ में नहीं आती अगर घोटालों के साथ अरविंद ने बिजली और प्राईवेटाईजेशन के बाद लूट में लगी कंपनियों की बैलेंसशीट और सरकार के साथ समझौते के दस्तावेज प्रेस कांफ्रैस और सोशल मीडिया के जरिये उन तक न पहुंचाई होती। दिल्ली शायद देश का अकेला राज्य होगा जहां 100 परसेंट आबादी सेटेलाईट टीवी और फोन से जुडी है।लिहाजा चर्चा होती गई और आम आदमी पार्टी का पर्चा भी आगे बढ़ता गया। बिजली पानी और भ्रष्ट्राचार जैसे साधारण मुद्दों ने महंगाई की मार झेल रहे मध्यम वर्ग को भी अंदर से हिलाया हुआ था। 
वीपी सिंह के अस्त होने के बाद से किसी भी आंदोलन से अपने को अलग रख रहे युवाओँ को केजरीवाल ने उम्मीद दी कि वो देश की तकदीर बदलने की हैसियत और हिम्मत रखते है। और युवाओं ने इस आवाज में अपनी आवाज मिला दी।
लेकिन बात फिर से वहीं  घूम कर आती है। चुनाव जीतकर विधान सभा पहुंचने वाले लोगों के चेहरे उनको चुनने वाले लोग भी नहीं पहचानते। 70 की 70 सीटों पर अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे थे और उन्होने ही हार जीत दर्ज की। यानि लोकल मुद्दें नहीं यानि कोई और मुद्दा नहीं जनता ने अरविंद केजरीवाल को चुना है। मैं नहीं जानता कि ये सच है लेकिन ज्यादातर आदमियों ने पूछने पर एक ही जवाब दिया कि आदमी कांग्रेस और बीजेपी दोनों की लूट देख चुके है अब इसको भी आजमा कर देखते है। क्या ये सकारात्मक वोट है।  जब कोई आंदोलन किसी आदमी के चेहरे में तब्दील हो जाता है तो उसकी हार के खतरे भी उतने ही बढ़ जाते है। लेकिन फिलहाल इन गंभीर सवालों से उलट एक बात का तब तक तो मजा तो लीजिये  कि आम आदमी को भिड़ा कर सिर्फ घऱानों के रहमोकरम पर जनता को छोड़ कर अपनी दलाली गिनने में मशरूफ दो पार्टियों को उन्हीं  के खेल में एक अनजान खिलाड़ी ने मात दे दी।  अब उस खिलाडी के  दिखाये गये सपनों में कितनी हकीकत निकलती है इसका इतंजार कीजिये।  फर्नाड़ों पैसोआ की कविता की लाईनों से मिलती जुलती लाईनों के साथ अपना लेख खत्म करता हूं।
पूरी तरह सत्यनिष्ठ, निर्रथक चीजों का विश्लेषण करता हूं 
मेरी विचारों को आप रद्दी की टोकरी में फेंक दीजिये
बंद कर दीजिये मेरी जुबान को गहरी गुफाओं में कहीं
लेकिन मैं आप से प्यार करता हूं क्योंकि मैं अपने आप से प्यार करता हूं।

Sunday, December 1, 2013

केजरीवाल की सरकार-सरकार केजरीवाल

अन्ना के रामलीला ग्राउंड पर किये गये अनशन के बाद पहली बार दिल्ली वोट कर रही है। इस वोट और अनशन दोनो के बीच यमुना में पानी बहा या नहीं, बता नहीं सकते है क्योंकि यमुना अब दुनिया के नक्शे पर नाम के लिये नदी है - असलियत में वो नाला ज्यादा है। कहने का मतलब है कि वक्त काफी बदल गया। आज अन्ना के अर्जुन  यानि अरविंद उनके साथ नहीं है। अन्ना चैनलों की उपेक्षा से  क्रोधित होकर कोप भवन में बैठे है लेकिन उनके पास कोई शिष्य नहीं है जो कैमरों को उनकी ओर कर सके और उनको योग करने से लेकर सोने जाने तक टीवी पर दिखाता रहे। और ना ऐसा शिष्य जो उनके बागी अर्जुन को नाथ सके। अन्ना की नयी टोली में है अपनी हरकतों से हारा जनरल-दलाली की परंपरा में पारंगत संपादक और ना मालूम इरादों के साथ घूम रहे दर्जन भर लोग। कभी-कभी स्टूडियों में बैठे ऐंकरों के पीछे की ताकत यानि प्रोड्यूसर को याद आता है अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कोई बाईट चाहिये तो मसाले के तौर पर  उनके स्ट्रिंगर एक औसत प्रतिभा के इस गांधीवादी की बाईट भेज देता है और वो पैकेज में लग जाती है। अन्ना की बाईट हैडलाईंस नहीं रही। चमत्कार की उम्मीद करने वाले भ्रष्ट्र नौकरीपेशा लोग हालात पर अपना ज्ञान और ऑफिस में कामचोरी के लिये की जाने वाली बहस में  अन्ना का नाम नहीं उछालते है। गुजरा जमाना हो गया है। लगता है इतिहास ने इस पन्ने को कुछ ज्यादा तेजी से अपने आगोश में समेट लिया है।

लेकिन बात अन्ना के अर्जुन की। ऐतिहासिक परंपरा में अरविंद केजरीवाल किसी तरह से अन्ना के अर्जुन का दावा नहीं कर सकते है। लेकिन साईबर ऐज है। सीरियल्स में जैसा है वैसा अर्जुन तो आप उनको कह ही सकते है। कुछ हजार मोबाईल सदी का सबसे बडा व्यक्ति करार दे सकते है। अरविंद में भी काफी बदलाव आ गया है। अब वो अपनी आरटीआई छपवाने के लिये किसी पत्रकार की चिरौरी के मोहताज नहीं है। परिवर्तन हुआ है लेकिन उनकी परिवर्तन संस्था कहां गई शायद उनको भी मालूम नहीं होगा। पहचान के लिये आरटीआई लगा कर उसे छपवाने की जरूरत नहीं। अभी एक  चैनल की पत्रकार ने फोन किया इंटरव्यू के लिये तो अरविंद का जवाब कुछ यूं था कि मैं आपके एडिटर से  बात करूंगा। बात सही अरविंद टीवी का ब्रांड है।  अरविंद ने दिल्ली की राजनीति का वैक्यूम भरा है। दिल्ली में कभी भी तीसरा मोर्चा नहीं था। लूट का बंटवारा शांतिप्रियता से हो रहा था। हां लूट को बांटने की जिम्मेदारी कभी पंजे के पास होती है तो कभी कमल के पास। अरविंद की कई बातों का मैं शैंदाई हूं। एक तो वो किसी औपचारिकता की निशानी नहीं ओढ़ते है। वो बोलते है शीला ऐसा बोलती है। शीला ये कहती है। शीला ने लूटा है दिल्ली को। सीधा संवाद जनता से। उनकी रैलियों की एक विशेषता है कि वो तिरंगें से पटी होती है। ये काफी खूबसूरत लगता है टीवी पर लहरते हुए। आखिरकार हॉलीवुड की फिल्मों की हिंदी कॉपियों में या फिर घर में लगे चैनल्स के सहारे जनता जानती है देश का झंडा भावुक कर देता है थोड़ी देर के लिये।

बात बहुत लंबी हो रही है। वापस पहुंचते है कि क्या हो सकता है इस चुनाव में। अरविंद सरकार बना सकते है या नहीं।  कुछ लाईनें अरविंद के नाम पर। उनकी पत्नी अभी भी उसी करप्ट सिस्ट्म में काम कर रही है और बकौल अरविंद उस पोजिशन पर रह कर कोई भी आदमी करोड़ों बना रहा है। मतलब कि उनकी पत्नी करोड़ों बना रही होगी। ये कोई मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं अरविंद के बयान के साथ एक अंदाज लगा रहा हूं। बच्चें उसी स्कूल में शिक्षा पा रहे होंगे जिसमें अरविंद के नौकरी छोडने से पहले से  पा रहे होंगे। और शायद वही गाड़ी घोड़ा और घर होगा जिसमें अरविंद पहले से रह रहे है। यानि कम शब्दों में अरविंद के रहन सहन में इस आंदोलन ने कोई फर्क नहीं डाला है जो पूरे देश के भविष्य में और वर्तमान में फर्क पैदा करने वाला है। चलिये ये तो व्यक्तिगत आक्षेप हो सकते  है।

टीवी चैनलों में कई मैनेजिंग एडीटर्स के अगर आप जंतर-मंतर और रामलीला मैदान के लाईव्स निकलवा कर देंखें तो आपको ये मालूम हो जायेंगा कि झूठ और मक्कारी भी कैसे पद का ताकत के साथ ज्ञान में बदल जाती है। उस वक्त की आंधी और क्रांति अब की राजनीतिक बयार में बदल गयी है। काफी  जल्दी है अरविंद को। और काफी कुछ जल्दी है टीवी चैनल्स के इन बुद्धिमानों को। क्योंकि बुलेटिन बदलता है तो खबर बदलती है और पद बदलता है तो औकात बदल जाती है। अरविंद को काफी कुछ बदलना है। दिल्ली की किसी भी विधानसभा को जीतने के लिये  30,000 से ज्यादा वोट चाहिये। क्या अरविंद के बदलाव की परिभाषा लोगों को इतना दुरूस्त लग रही है कि वो अपने जिच  तोड़कर आप पार्टी का वोटों का बक्सा भर देंगे।

अगर हम देंखें तो अरविंद के सपोर्ट बेस में दो किस्म के लोग है। एक वो लोग जो सोशल मीडिया पर इस क्रांत्रि को रात दिन जिलाये हुए है। कॉल सेंटर से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियों में काम कर रहे ये युवा काफी ज्यादा प्रभावित है अरविंद के क्रांत्रि रूप से। और अरविंद का तमाम करिश्माई व्यक्तित्व इन युवा मेधावों की कारगुजारियों पर टिका है चाहे वो दिल्ली के सबसे काबिल मुख्यमंत्री होने वाले हो या फिर सदी के देश के सबसे  बड़ी प्रतिभा। सवाल ये है क्या ये वोट देते है। क्या कॉल सेंटर से एक दिन की छुट्टी लेकर वो इस क्रांत्रि को कार्यरूप देने की  गुजाईँस में होंगे। अभी तक का अनुभव कहता है कि नहीं। इसके साथ साथ एक बड़ा तबका ऐसा  भी है जो अन्ना के नाराज होने से काफी नाराज भी है। ऐसे में वोट बूथ को उनकी तलाश रहेंगी।

अरविंद समर्थकों को दूसरा तबका है आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का जैसे ऑटोवाले या झुग्गी बस्तियों का। अरविंद के बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर सबसे ज्यादा समर्थन इसी समूह का है। लेकिन इस समूह के लिये एक दिन की आमदनी बड़ी अहम है। और अगर एक दिन की मजदूरी उनको घर मिल जाती है तो कई लोग बूथ तक जाने में बदल सकते है।  अब इस समूह में कितना कमिटमेंट पैदा कर पाये है अरविंद ये देखना इस इलेक्शन का सबसे रोचक क्षण होगा। लेकिन सबसे ज्यादा अरविंद की चर्चा करने वाला वर्ग है मध्यम वर्ग। टीवी चैनल्स पर आने वाले विज्ञापनों का सबसे बड़ा खरीददार अपने सपनों के लिये सबसे ज्यादा सौदें और समझौते करने वाला वर्ग। भ्रष्ट्राचार से नाराज औऱ पूरी तरस उसमें डूबा ये वर्ग अनीति पर चलो और नीति पर बहस बनाये रखों का मंत्र हमेशा अपनी जेब में रखता है। समाज में इस वक्त सबसे ज्यादा मुखर और सबसे ज्यादा संघर्षरत इस वर्ग के वोटरों के टैक्स से ज्यादातर देश चलता है। केजरीवाल की शुरूआती अपील इसी वर्ग को माफिक आती है लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस वर्ग को अरविंद में नहीं नरेन्द्र मोदी में मसीहा दिख रहा है। दोनों की रैलियों में भीड़ का अंतर दिख सकता है। खैर हम अरविंद की रैली की भीड़ की किसी भी राजनेता की रैली से तुलना कर नहीं सकते है क्योंकि अरविंद क्रांत्रि का आगाज कर रहे  है औऱ राजनेता अपनी राजनीति।

आखिर में लगता है कि 8 तारीख को जब वोट बक्से से  सपने आकंडों की शक्ल में निकलेंगे तो लगता है कि अरविंद को सत्ता की मछली हाथ से फिसली मिलेंगी। बदलाव की भाषा तो उनकी जंतर-मंतर पर अन्ना से निकलते ही बदल गयी थी। कभी अरविंद को लगता था कि अन्ना अगर कहेंगे तो वो पार्टी नहीं बनायेंगे। लेकिन पार्टी बनी फिर सत्ता के लिये तमाम टोटके किये। हर चीज लगातार उन्हें राजनीति की कीचड़ में लपेटती रही।

अगर अरविंद ने बाकी सभी पार्टियों किसी को परिवार पर टिकी तो किसी को तानाशाही पर चलता हुआ करार दिया तो आप आम आदमी पार्टी का हाल भी देख सकते है। सारी ताकत के हकदार है अरविंद केजरीवाल, उनके समर्थकों की नजर में कोई दूसरा आदमी कागज के एक रद्दी टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं है। सारे नारों का हाल अरविंद केजरीवाल। मुख्यमंत्री पद का हकदार अरविंद केजरीवाल। स्वराज किताब का लेखक अरविेंद केजरीवाल। हर पोस्टर का चेहरा अरविंद केजरीवाल। लोग इस बात पर नाराज हो सकते है कि दूसरी पार्टी के नेताओं के बारे में कुछ नहीं सिर्फ अरविंद पर टिप्पणी लेकिन इसका कारण है कि सबको गाली देना अरविंद का शगल है और वो सबसे उजली कमीज बता कर बदलाव का नारा बुलंद कर रहे है।  लेकिन अरविंद को उस दलाल पत्रकार को धन्यवाद देना चाहिये जिसने दलाली खायी और काम भी ठीक से नहीं किया। फर्जी स्टिंग्स का पर्दा जल्दी ही फट गया और अरविंद के इस आरोप को कि राजनीतिक पार्टियां उसके खिलाफ साजिश कर रही है थो़ड़ी सी विश्वसनीयता दे दी है।

चुनाव में अरविंद की पार्टी को अगर दो सीटों पर अपनी जमानत बचाने में कामयाबी हाथ लगी तो ये एक ऐसी पार्टी की बड़ी सफलता होगी जो सड़कछाप जुमलों और नारों के साथ इतना सफर इतनी जल्दी कर पायी। हालांकि अपना आकलन है कि इस पार्टी को कोई सीट नहीं मिल रही है और कहीं जमानत भी नहीं बच पायेगी। क्योंकि इतिहास को जितनी जल्दी अरविंद को अपने किताब में एक पन्ना देने की है उससे कही ज्यादा जल्दी अरविंद को इतिहास को  कूड़ेदान में फेंक देने की है।

तो अपना आकलन यही है कि दोस्तों इस चुनाव के बाद अन्ना को उनका अर्जुन वापस मिल जायेगा। उसकी जुबान के तरकश के तीर भोथरे हो चुके होंगे। उसके साथ जुटी भीड तब तक नये नारों की तलाश में कहीं ओर जा चुकी होगी।

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