Monday, March 26, 2018

Dhirendra Pundir 
ज़िंदगी की पाठशाला में नए सबक़ के लिये फिर पाठशाला में।
यात्रा फिर से साथ चल दी। एक बार से फिर सच मुझे बतायेगा कि मैं कितना कम जानता हूँ अपने ही देश को।

यात्रा आपको बदल भी सकती है।


यात्रा से एक बात समझ में आती है कि इस देश ने इतिहास से रिश्ता तोड़ लिया था। या तो इतिहास से मुक्त हो गया था कर दिया गया था। आत्महीनता की ग्रंथियों जूझता हुआ एक झूठे इतिहास के दम पर कागज की तलवार से लड़ने लगा। ये बात मध्य कालीन इतिहास के बीच में समझ में आती है कि क्यों इस तरह का अंधकार पैदा किया गया प्राचीन इतिहास और मध्ययुगीन भारत के बीच। लेकिन आजादी के बाद उसी मध्य युग को सच बना कर पूरे देश की स्मृति पर चेप दिया गया। और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया।
ये बात मुझे काफी हैरान कर रही है कि लेकिन एक कहानी भी बता रही है कि वेस्ट से हासिल ज्ञान से आधुनिक युग से रिश्ता जोड़ने वाले राजनेताओं ने प्राचीन भारत से अपनी जड़े काटने की कोशिश को प्रश्रय क्यों दिया इसका बड़ा कारण वेस्ट का पुराने इतिहास को मध्यकालीन इतिहास से तुलना करना था।
आजादी के बाद इसी इतिहास से टूटे रिश्तों की वजह से आजादी के दीवानों को दूध में गिरी मक्खी की तरह भूला दिया। आजादी के दीवानों और अपनी जान गंवाने वालों के घर वालों को भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा। ये भी इतिहास से टूटे रिश्तों की वजह से हुआ। ऐसे कई परिवारों की कहानियों से बावस्ता हुआ कि जिनकी जमीनों को नीलाम कर दिया गया और आज उनके परिवार वाले ठोंकरे खाकर उनके घरों के बाहर बैठ कर रोटी मांग रहे है जिनको अंग्रेजों के जूते चाटने के लिए पुरस्कृत किया गया। हजारों किलोमीटर की ये यात्रा मुझे बहुत सारी उलझनों में डाल रही है तो उनको सुलझाने के कुछ सूत्र खोजने के लिए भी मजबूर कर रही है। लग रहा है जैसा इस यात्रा को शुरू करते वक्त था अब जब यात्रा के आखिरी पड़ाव की ओर चल रहा हूं वैसा रह नहीं जाऊंगा।

तस्लीमा नसरीन औरंगाबाद नहीं रुक पाई।


जिहादियों की तलाश करने की ज़रूरत नहीं होती वो आस पास मौजूद होते है। कि बार सोचता हूं कि दिखावे की देशभक्ति से कड़वी हक़ीक़त बेहतर दवा होती है।
औरंगाबाद था मध्युगीन जिहादी बादशाहों की विनाश लीला वह हर तरफ बिखरी है। जिस चीज को लेकर आत्म चिंतन होना चाहिये वो गर्व है जिहादियों के लिये।
फेस बुक पर रोज़ अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिये रोने वालो को देखता हूं और यह भी उस पर कॉमेंट्स क्या क्या और करने वाले कौन कौन है। यह सवाल काफी बड़ा हो जाता है जब यह आज़ादी हत्यारों को शहीद बना कर इस देश को मरघट बनाने वालों के लिये रोटी है
तस्लीमा ने इस देश के मुसलमानों को अभिकुच कहा या लिखा नही लेकिन हैदराबाद से लेकर औरंगाबाद तक जिहाद जारी है।
हो सकता है मेरे विचार कुछ लोगो को अजीब लगे लेकिन यह हैरानी मुझे उनपर भी ऐसे ही होती है जब वो जंतर मंतर पर आईएसआईएस टाइप प्रवक्ताओं की तरह बोलते है।
खैर यह चलन अभी बढ़ेंगे।
No protest by Activists who are otherwise at forefront. No award Waapsi. CM Maharashtra. Police who cannot guarantee safety of individual ought to be given bangles. Home Minister of Maharashtra should be sacked.

चल खुसरो घर आपने सांझ भई परदेश।

 
खुद से खुद तक की यात्रा। पानी के समंदर से रेत के समंदर तक के इस सफर में बारिश से ऐसा रिश्त बना कि छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था फिर इस सुनहरी रेत पर आकर लगा कि यहाँ से बेहतर कोई और मोड़ हो ही सकता, इस सफर को छोड़ने के लिये। केरल से शुरू हुए सफर से अब विदा लेता हूँ।

घर आ गया तो सोच रहा हूं कि क्या क्या देखा और क्या क्या छूट गया।


65 दिन की यात्रा, बीस राज्यों के बीच से गुजरना, सैकड़ों शहर के लोगों के बीच होकर जाना, बारिश के इंसानी रिश्तों को देखने के बहाने देश को देखने की कोशिश ( मालूम नहीं कितना सफल हो पाया)
ये यात्रा बारिश के साथ की यात्रा थी। लेकिन ये यात्रा संगीत की यात्रा भी थी। इतने सालों तक अपराध, राजनीति, आतंकवाद की रिपोर्टिंग के बीच में ये कभी पता ही नहीं चला कि संगीत की यात्रा इंसान के जंगल से सभ्य होने की यात्रा है। इस यात्रा से दिखा कि प्रकृति से संघर्ष और इंसानी द्वंद से उपजे दर्द के बीच इंसानी यात्रा संगीत की यात्रा भी है। हजारों साल के इंसानी सफर में दर्द, मौत, यंत्रणाऐं तो दिखती है लेकिन संगीत और कला जिस तरह से उन दर्द के थपेड़ों में प्रेरणा बन कर उभरी होंगी वो आज भी आपको दिख सकता है बस थोड़ा सा उसके साथ वक्त गुजारना होता है। कथकली की यात्रा से लेकर जैसलमेर के रेत के टीलों पर माड राग गाते हुए मांगणयारों और लंघाओं के बीच कालबेलिया डांस करती हुई वो लोक कलाकार इतिहास की यात्रा के गवाह है।
केरल में 30 मई को मानसून के आगमन के साथ ही शूरू बारिश के साथ का सफर जैसलमेर की जिस सुनहरी रेत में खत्म हुआ वहां अब रेत भी रास्ता बदल रहा है। रेगिस्तान में ज्यादातर हिस्सों में फसल लहलहाने लगी है। ये उन किताबों के हर्फों से अलग है जिनको पढ़ कर आप देश को समझ रहे है।
देश में बने हुए हाईवे अब फिर से इस देश का आर्थिक भविष्य बदल रहे है। कालाहांडी के पास एक खूबसूरत और इतिहास से भरा हुआ असुरगढ़ जब अपनी संपन्नता की कहानी सुनाता है तो मिट्टी से बने हुए इस दुर्ग के दक्षिणापथ और उत्तरापथ के मिलन स्थल पर होने से गुजरते व्यापारिक कारवों से हासिल समृद्दि की कहानी दिखाई देती है तो फिर जैसलमेर की रेत पर गुजरने के दौरान रेत और सिर्फ रेत के बीच पानी के अभावों से जूझते हुए इंसान ने कला और संगीत के साथ साथ संपन्नता के कितने नखलिस्तान तैयार किये वो भी इस यात्रा से ही सीखा। और उन संघर्षों को जनसाहित्य में भी जगह मिली। लिखने को तो काफी लिखा जा सकता है और हर एक जगह पर लिखा जा सकता है लेकिन जैसलमेर में बातचीत में पता चला कि इस शहर तक पहुंचने की कठिनाईंयों को लोक कवि ने कैसे कहा है उसी से हालात का अंदाजा लगता है.
" घोड़ा कीजै काठ का, पिंड कीजै पाषाण,
बख्तर कीजै लोह का, तब देखों जैसाण"
खैर इस यात्रा में इतना देखा, सुना कि लिखना भी दुष्कर दिख रहा है
लेकिन इस यात्रा में यदि उन स्थानीय दोस्तों का जिक्र न करूं तो ये यात्रा के साथ भी धोखा होगा। मैं उन तमाम दोस्तों ने जिस तरह से स्थानीय परंपराओं से लेकर इतिहास की कहानी बताने और दुर्गम जगहों पर ले जाने का जो उत्साह दिखाया वो भी इस यात्रा का हिस्सा है। उन तमाम दोस्तों के साथ अपने स्मरण मैं जल्दी ही शेयर करूंगा। क्योंकि इसमें कुछ लाईंनों में उनकी सहायता को समेटा नहीं जा सकता।
यात्रा में विलक्षण लोग भी मिले जो बघाना जैसी जगह में एक गुफा में बैठकर उस दुर्गम जगह पर आने वाले यात्रियों को चाय और पानी पिलाते रहते है बिना किसी स्वार्थ के। ऐसे युवाओं को भी देखा जो महीने भर वहां सेवा करने के लिए अकेले रह रहे है। आस्थाओं के सहारे।
इसके अलावा मेरे साथ इस यात्रा को जैसे मैंने देखा उसको वैसे ही खूबसूरत तरीके से दर्शकों तक पहुंचाने में सत्या रंजन राऊत्रे की भूमिका मेरे से ज्यादा थी। मैं तो बस उन अजनबी चीजों को अचंभें से देखता रहता था और सत्या अपने कैमरे से उनको खूबसूरती से कैद कर दर्शकों तक पहुंचाता रहता था।
और यात्रा में जिस तरह से 18500 किलोमीटर की दूरी बिना किसी बाधा के और इस दौरान तय हुई उसमें ड्राईवर अब्दुल हक का सबसे बड़ा योगदान था। अपने बालों को लेकर बेहद संवेदनशील अब्दुल हक ने जैसे थकना सीखा ही नहीं। नईं चीजों को देखकर उसका उत्साह मुझे भी हिम्मत देता था। दिन भर शूट करना और फिर रात को 500 से 700 किलोमीटर का सफर तय कर अगले शहर के लिए निकलना इस मशक्कत में कभी अब्दुल की हिम्मत नहीं टूटी।
खैर अभी अभी घर पहुंचा तो सोच रहा था कि इस यात्रा को कैसे शब्दों से कैसे पूरा किया जा सकता है। जो कैमरे से देखा उससे ज्यादा वो है जो मेरी आंखों ने देखा। ( ये फोटो उन हजारों यादों में से एक छोटा सा हिस्सा भर है)

कभी कभी मुड़ कर देख देना दीवानों, हमने किस लिए चूमे फंदें और सीने पर खाईं गोलियां। राजपरिवारों को चुनने वाली जनता। (आजादी के दीवाने ---1)

देश भर की यात्रा से लौटा तो अगस्त महीना सामने आ खड़ा हुआ। अगस्त में धर्म के त्यौहार तो कई होते है लेकिन अगस्त का त्यौहार तो देश का त्यौहार होता है। ऐसे में देश भर में घूमते हुए राजाओं की कहानी देखी कई राजाओं ने बदलाव के रास्ते को चुना लेकिन ज्यादातर राजाओं को देखा, जो अंग्रेजों के टुकड़ों पर पले पूर्वजों से हासिल महलों और किलों को अपने कब्जें में रखकर उनको होटलों में बदल कर पैसे कमाने मेें लगे हुए है और बहुत से चुनाव जीत कर जनता की नुमाईंदगी कर रहे है उसी जनता की जिसकी आजादी की पहली जंग में ये लोग अंग्रेजों के पालतू कुत्तों की तरह जनता पर ही झपट रहे थे। 
ऐसे में लगा कि इतिहास के इस पहलू को भी देखा जाना चाहिए। ऐसे में कुछ लोकगीतों और युद्द के वक्त के गवाहों की नजर से इस को देखने की कोशिश करता हूं और कुछ आपके साथ शेयर करता हूं। आपको भी लगे तो आप भी शेयर कर सकते है।
"प्राचीन वंशक्रम और महान युद्ध परंपराओं का दावा करने वाले राजस्थानी राजाओं ने राष्ट्रीय विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेंजों को अपनी सेनाओं का उपभोग करने दिया। इस तरह से उन्होंने अपनी और शेष भारत की जनता की इस आशा को झुठला दिया कि वो अंग्रेज विरोधी धर्म युद्द में शामिल होंगे। अगर राजपूताना ने विद्रोह किया होता तो आगरा कैसे बचा रह पाताऔर दिल्ली में हमारी फौंजें कैसे रह सकती थी।" (मेलसन)
"मध्य भारत में ग्वालियर का स्थान महत्वपूर्ण था। सिंधिया पर जनता का बहुत दबाव था, किंतु उसने इसे झेल लिया।
....अगर उसने (सिंधिया ने) उनका (अपने विद्रोह उत्सुक सैनिकों का ) नेतृत्व किया होता और उसके भरोसेमंद मराठों की तरह युद्ध के मोर्चों पर पहुंचा होता तो परिणाम हमारे लिये बहुत विनाशक होते। वह हमारे कमजोर मोर्चों पर कम से कम बीस हजार टुकड़ियां लेकर आया होता। आगरा और लखनऊ का उसी समय पतन हो गया होता। हेवलॉक को इलाहाबाद में बंद कर दिया गया होता और या तो उसे घरे लिया गया होता या उसके सहारे विद्रोहियों ने बनारस से कलकत्ता तक मार्च किया होता। उन्हें रोकने के लिए न तो कोई सैन्यदल होता और न कोई किलेबंदी।" (रेड पैंफ्लेट का अनाम लेखक)
"सिंधिया की वफादारी ने भारत को अँग्रेजों के लिए बचा लिया।" (इन्स)
पटियाला और जींद के सिख राजाओं और करनाल के नवाब ने अपने सारे संसाधन अंग्रेजों को उपलब्ध करा दिए और सेना में भरती द्वारा अंग्रेजों के प्रमुख आधार स्थल अंबाला से दिल्ली तक सड़क खुली रखने का जिम्मा लिया, जिससे विद्रोहियों को राजधानी में घेर हुए अंग्रेजों तक कुमुक पहुंच सकी।
समाचार -पत्रों की किपोर्ट पढ़ने के बाद अपनी घटनावार टिप्पणियों में मार्क्स ने लिखा ;
"अंग्रेजी कुत्तों का वफादार सिॆंधिया वैसे ही उसके सैन्य दल, पटियाला का राजा, अँग्रेजों की मदद के लिए सैनिकों की कमान भेज रहा है। शर्म हैं"
विद्रोहरत उत्तर और भारत में अंग्रेजों के पहले ठिकाने मुंबई को जोड़ने वाला क्षेत्र था राजपूताना। सिर्फ राजपूताना ही नहीं , बल्कि सारे देश के लोगों को आशा थी किि राजपूत राजा अंग्रेजों को समुद्र पार खदेड़ने में मदद करेंगे, किंतु ये सामंती राजा अंग्रेजी सत्ता से चिपरके रहे और अपना राष्ट्रीय कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएं। बुंदी के प्रसिद्द दरबारी कवि सूरजमल ने राजपूताना राजाओं को राष्ट्रीय विद्रोह में शामिल करवाने की पुरजोर कोशिश की, पर वह असफल रहा था उसने अपने तीव्र मोह भंग और रोष को सशक्त कविता में उतारा है। कुछ दोहे आप पढ़ सकते है।
" सुअर उजाड़ रहे हरियाली
हाथी बिगाड़ रहे तालाब
शेर डूबा शेरनी के प्यार में
भूला अपना दांव
अपने को कहोगे कैसे सिंह तुम ठाकुर
तुमने परदेसियों से दया की भीख मांगी
जो अपने पंजों से हाथी को गिरा दे
वही है काबिल इस नाम का , न कि बुजदिल
अपने पुरखों के गुण भूल
विदेशियों की तुम करते चापलूसी
और आलस-विलास में करते
अपने कीमती दिन बरबाद
सारे वैभव से टूटे फूटे झोंपड़ों
की कच्ची दीवारों के तिनके तक
छि ; छि; ऊंचें उऊंचे राजमहलों
के राज करने वालों पर
महलों के लुटेरों के लिए
झोंपड़ियां तो बस अभिशाप हैं
झोंपड़ियों को लूटने चलेंगे तो
बस मौत ही दे पाएंगे।
जब सामंत कवि ही विद्रोह से इस तरह से प्रभावित हो तो लोक कवि तो और भी बेफिक्र हो कर लिख रहे थे। जोधपुर में सिंहासनारूढ़ महाराजा के बाद दूसरे सबसे प्रभावित व्यक्ति अउवा के ठाकुर ने अपने स्वामी-महाराज- और अपने अधिराज के अधिराज-अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उसने आसपास के कृषकों और कुछ देशभक्त सामंती मुखियाओं को एकत्रित ककर जोधपुर की शाही सेना को हरा दिया। अंग्रेजों के राजनीतिक एजेंट मांक मासन को युद्ध में मार दिया। और राजपूताना में गवर्नर जनरल के अंग्रेज एजेंटों को महीनों तक चुनौती दी। अउवा के उस संघर्ष को लोकगीतों में अर्से तक गाया गया। होली पर गाएँ जाने वाला एक लोकगीत आप पढ़ सकते है।
अरे, हमारे काले लोगों ने
बनियों की हरी-भरी जमीन पर
गाड़ दिये है अपने झंडे
हमारा राजा तो दे रहा है अंग्रेजों का साथ
उसने लाद दिया हम पर युद्ध
गोरे फिरंगियों के सिर पर काली टोपी
काली टोपी वाले गोरे
हकाल रहे हैं हमें
विदेशियों की बंदूकों की गोली
कर रही है मिट्टी को ही घायल
और हमारी बंदूकें
उड़ा रही है उनके शिविर
यह तुम्हारा प्रताप है अउआ
हे प्रतापी अउवा -
इस धऱती को धारण करने वाले
तुम्ही हो , अउवा
जब गरजती हैं हमारी बंदूकें
दहल जाता है अरावली पहाड़
अउवा का मालिक करे प्रार्थना
देवी सुगाली से
और लो, लड़ाई शुरू...
अउवा है भूमि लड़ाकू लाड़लों की
हो लड़ाई शुरू
अरे राजा की घुड़सवार सेना
कर रही पीछा अपने ही काले देशवासियों का
अगर अउवा के घोड़े उन्हें
मार रहे दुलत्ती पीछे
लड़ाई चलने दो
युद्द करते रहो
विजय होगी तुम्हारी ही
अरे लड़ाई चलने दो
युद्ध करते रहो।
....... पार्ट --1

लोकतंत्र की सड़क और अगस्त का महीना। ऐसे ही एक सड़क के साथ।


सड़क बहुत लंबी नहीं है। इस तरफ के गोल चक्कर से लेकर दूसरे गोल चक्कर के बीच लगभग एक किलोमीटर का फासला हो सकता है। चौड़ी सड़क के दोनो और घने और पुराने पेड़ लगे है। ज्यादार पेड़ अपनी उम्र की गवाही देते है। कभी इस सड़क के दोनो और की ईमारते राजाओं के दिल्ली प्रवास के वक्त के लिए उनकी रियासत की जनता का खून पसीना छीन कर बनवाई हुई थी।विलासिता के तमाम साधन दुनिया भर से इकट्ठा किए गये। अय्याशियों की मिसाल मिलना मुश्किल है। हिंदुस्तान के सदियों के सफर में इस देश के पास अभिमान करने के लिए अत्याचारी राजाओं और धर्मांध बादशाहों के बनवाएं हुए महल और उन महलों की नींव में दबी हुई है उनके अत्याचारों और ऐय्याशियों की कहानियां। लेकिन सदियों के बाद भी और लंबी गुलामी के बाद भी जनता इन महलों से कभी नफरत करना नहीं सीख पाई। हमेशा अपने राजा की तारीफ में कशीदें पढ़ने से अपने आप को ऊंचा महसूस करते हुए लोग आजादी के नायकों और खलनायकों में भेद करना ही भूल चुके है। आजादी हासिल करने के दशकों बाद भी लोगो को मयस्यर हुई है तो लोकतंत्र को कोसने की ताकत। उसी लोकतंत्र को जिससे उन्हें ये बात कहने का अधिकार मिला। अक्सर इन ईमारतों में बैठे हुए लोगो से बात करने पर या फिर दूर दराज गांव में बैठे हुए आदमी से बात करने पर एक बात उलझन में डा देती है कि कैसे सत्ता का उपभोग कर रहे लोगों ने हजारों किलोमीटर दूर बैठे इस इंसान के दिमाग में भी ये बात बो दी है कि आज के माहौल से तो गुलामी का शासन यानि अंग्रेजों का शासन ही बेहतर था। लाखों लाख लोग इस बात को अपना मुहावरा बनाएं हुए बैठे है कि कैसे अंग्रेजों के राज में इंसाफ मिल जाता था। हालांकि इंसाफ के क्या मायने है ये पूछोंगें तो घाघ नौकरशाह इस बार हंसने लगते है और गांव वाले की समझ में कुछ आता नहीं। सड़क के दोनो और की ईमारतों का नाम उनकी पुरानी रियासत के नाम है। पूरी सड़क ही ऐसे नाम पर है जिसका इतिहास अपनी कौम और देश से गद्दारी के लिए कहावतों में शुमार किया जाता है। मानसिंह को लेकर देश के इतिहासकारों की राय क्या है इससे उलट लोक कथाओं में ये शख्स एक ऐसे गद्दार के तौर पर याद किया जाता है जिसने मुगल बादशाह अकबर की गुलामी करने में कौम की सारी मर्यादाओ को धता बता दी थी।