"पाकिस्तान, एक देश जो मजहब के लिए बनाया गया था, जो कभी भी किसी महान इस्लामी परंपरा का हिस्सा नहीं रहा, और सांस्कृतिक तौर पर हमेशा फारसी और अरबी तहजीब का एक निष्कर्ष सा हिस्सा रहा है। वह देश जो तेल से समृद्धि वर्गों को बस अपने मजदूरों का सहयोग दे पार रहा था, दुनिया के नक्शे पर अकेला खड़ा एक महान इस्लामी भविष्य का ख्वाब देख रहा था। और उस ख्वाब के टूटने का डर अनकहे तौर पर हिंदुस्तान का डर था।" (आतिश तासीर --इतिहास से अजनबी)
सऊदी अरब में सिनेमा घरों के खुलने का "बाब ए कश्मीर" गिलानी साहब ने विरोध किया है। गिलानी साहब को इस्लाम का मालूम है। वो जानते है कि हिंदुस्तान का विरोध ही उनका "असली इस्लाम" है।पाकिस्तान में मिलने के लिए रोज नारे लगाते है । वहां भी सिनेमा घर खुले है। अब पैंगबर साहब की जमीन पर सिनेमाघर खुल रहे है। ऐसे में कश्मीर में 1990 के शुरू में बंद किए गए सिनेमाघर अगर कश्मीर में खुल जाएंगे तो फिर 28 साल से वो बंद क्यों थे। दरअसल कश्मीर में जितने भी रास्ते जाते है उनको पत्थर से ढ़क कर लोग इस्लामी रास्ते का नाम लेते है। उनको लगता है कि हिंदुस्तान सरकार इस्लाम पर बंदिशें कायम करने में लगी है। ( मौजूदा सरकार से नहीं भाई लोगों उस सरकार के समय से जिस में गृहमंत्री कश्मीर के मुफ्ती ही थे)।
मैं तो गुजरात के चुनाव में घूम रहा था। इतिहास के बिखरे हुए गवाहों को देखता, बात करता हूं, उलझता हुआ, नफरत की लंबी सुरंगों से निकल कर भविष्य की आंखों में झांकता हुआ गुजरात। ऐसे में सऊदी अरब के सिनेमाघर खोलने के फैसले का विरोध गिलानी साहब ने किया तो याद आया कि इतिहास से इतनी दुश्मनी क्यों है गिलानी साहब को। और अपनी दुश्मनी को आम कश्मीरी के जेहन में जहर बोकर क्यों नफरत के खेत तैयार कर रहे है गिलानी साहब। कश्मीर कई बार गया । चुनाव कवर करने। मेरा ड्राईवर हिंदी का गाना गा रहा था।मैंने बस ऐसे ही पूछ लिया कि अरे सिनेमा तो बंद है फिर गाना कहा से सुना और सिर्फ सुना या देखा भी। इस पर ड्राईवर ने कहा कि यहां तो केबिल है, सेटेलाईट चैनल है सब पर तो दिखता है। मैंने हंसते हुए कहा कि फिर सिनेमा हाल से क्या दिक्कत है, उलझे हुए से उस खुशनुमा युवा ने कहा कि साहब ये तो उन लोगों को मालूम होगा हमको येे ही कहा है सिनेमा हॉल जाना धर्म के खिलाफ है। खैर हंसते हुए पहले होटल पर हमने खाने की बात की। ड्राईवर हमारे साथ था तो आदतन कहा कि खाना खा लो। लेकिन उसने बेहद साफगोई से मना कर दिया। फिर ऐसे ही एक दो दिन देखा वो कभी साथ में खाना नहीं खाता था और कई बार किसी और ढाबे पर बैठकर खाना खाया। फिर एक दिन ऐसे ही मैंने पूछ लिया कि भाई तुम खाना क्यों नहीं खाते हो तो जवाब हिला देने वाला था। कहा कि मैं शिया और हिंदुओं के साथ खाना नहीं खाता हूं। मैं अवाक नहीं था। इस तरह की बातों का आदी हो चुका था। लोग अच्छे थे लेकिन जाने क्या बोलते है। वो जुबां और दिमाग का रिश्ता किस तरह से जुड़ रहा है और कौन है जो उस बहाव को नियंत्रित कर रहा है। इस तरह के सवाल आपको कश्मीर में हर तरफ मिल जाते है।
कश्मीर लगातार कोशिश कर रहा है अपने आपको अतीत से काटने की। और अतीत है कि वर्तमान पर हावी है। इसके बीच की खाई लोगों को रोज उलझनों में फंसाती है। अतीत मिटा देते है तो पता नहीं चलेगा कि कहां से आएँ है और उसको मानते है तो उस वक्त से चली आ रही परंपराओं को खत्म करने के नाम पर चल रहे जिहाद के मानी खत्म हो जाएंगे। दरअसल ऐसी कहानी जिसका एक सिरा दिख रहा है और दूसरे सिरे को कहानी के पात्र मानने से इंकार कर रहे है। इस तरह की उलझनों से जूझते हुए आतिश तासीर की एक किताब में इस उपमहाद्वीप की एक बड़ी जनसंख्या की उलझन दिखती है। सिनेमा तो अलग शादियों और दूसरे त्यौहारों की परंपराओं से दूरी क्या पैदा कर रही है।
"बड़ी आसानी से इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि सूफी दरगाहों की तरह शादियां भी हर मजहब वालों के लिए कैसे त्यौहार जैसी बात थी। बड़े ही कमाल का सद्भावना का माहौल होगा, जब एक मजहब का आदमी दूसरे मजहब के यहां शादी में जाता होगा और वह दूसरा उसे केवल मजहबी तौर पर अलग होता होगा सांस्कृतिक तौर पर नहीं। अब यहां मेरे लिए कोई सांस्कृतिक समानता नहीं थी , यह पूरी तरह से मुस्लिम निकाह था। निकाह में बस वही रीति-रिवाज बाकि थे जिनका लेना-देना पूरी तरह से इस्लाम से था, ताकि इस संस्कृति से हिंदुस्तान की खुशबू को अलग कर दिया जाएं, ताकि उस समूचे समाज की कोई याद भी दिलों में न रहे। इस कोशिश में उन्होंने इस संस्कृति की आत्मा और शरीर दोनों को जला दिया था, और उनके पास अब बस एक जला हुआ कंकाल बचा था। वह बुजुर्ग भी एक मजहबी इंसान था, पर अपनी संस्कृति खो बैठा था। " (इतिहास से अजनबी)
( इस लेख का आधार कश्मीर में लोगों से हुई मुलाकातों के बारे में मेरे अपने अनुभव है)
मैं तो गुजरात के चुनाव में घूम रहा था। इतिहास के बिखरे हुए गवाहों को देखता, बात करता हूं, उलझता हुआ, नफरत की लंबी सुरंगों से निकल कर भविष्य की आंखों में झांकता हुआ गुजरात। ऐसे में सऊदी अरब के सिनेमाघर खोलने के फैसले का विरोध गिलानी साहब ने किया तो याद आया कि इतिहास से इतनी दुश्मनी क्यों है गिलानी साहब को। और अपनी दुश्मनी को आम कश्मीरी के जेहन में जहर बोकर क्यों नफरत के खेत तैयार कर रहे है गिलानी साहब। कश्मीर कई बार गया । चुनाव कवर करने। मेरा ड्राईवर हिंदी का गाना गा रहा था।मैंने बस ऐसे ही पूछ लिया कि अरे सिनेमा तो बंद है फिर गाना कहा से सुना और सिर्फ सुना या देखा भी। इस पर ड्राईवर ने कहा कि यहां तो केबिल है, सेटेलाईट चैनल है सब पर तो दिखता है। मैंने हंसते हुए कहा कि फिर सिनेमा हाल से क्या दिक्कत है, उलझे हुए से उस खुशनुमा युवा ने कहा कि साहब ये तो उन लोगों को मालूम होगा हमको येे ही कहा है सिनेमा हॉल जाना धर्म के खिलाफ है। खैर हंसते हुए पहले होटल पर हमने खाने की बात की। ड्राईवर हमारे साथ था तो आदतन कहा कि खाना खा लो। लेकिन उसने बेहद साफगोई से मना कर दिया। फिर ऐसे ही एक दो दिन देखा वो कभी साथ में खाना नहीं खाता था और कई बार किसी और ढाबे पर बैठकर खाना खाया। फिर एक दिन ऐसे ही मैंने पूछ लिया कि भाई तुम खाना क्यों नहीं खाते हो तो जवाब हिला देने वाला था। कहा कि मैं शिया और हिंदुओं के साथ खाना नहीं खाता हूं। मैं अवाक नहीं था। इस तरह की बातों का आदी हो चुका था। लोग अच्छे थे लेकिन जाने क्या बोलते है। वो जुबां और दिमाग का रिश्ता किस तरह से जुड़ रहा है और कौन है जो उस बहाव को नियंत्रित कर रहा है। इस तरह के सवाल आपको कश्मीर में हर तरफ मिल जाते है।
कश्मीर लगातार कोशिश कर रहा है अपने आपको अतीत से काटने की। और अतीत है कि वर्तमान पर हावी है। इसके बीच की खाई लोगों को रोज उलझनों में फंसाती है। अतीत मिटा देते है तो पता नहीं चलेगा कि कहां से आएँ है और उसको मानते है तो उस वक्त से चली आ रही परंपराओं को खत्म करने के नाम पर चल रहे जिहाद के मानी खत्म हो जाएंगे। दरअसल ऐसी कहानी जिसका एक सिरा दिख रहा है और दूसरे सिरे को कहानी के पात्र मानने से इंकार कर रहे है। इस तरह की उलझनों से जूझते हुए आतिश तासीर की एक किताब में इस उपमहाद्वीप की एक बड़ी जनसंख्या की उलझन दिखती है। सिनेमा तो अलग शादियों और दूसरे त्यौहारों की परंपराओं से दूरी क्या पैदा कर रही है।
"बड़ी आसानी से इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि सूफी दरगाहों की तरह शादियां भी हर मजहब वालों के लिए कैसे त्यौहार जैसी बात थी। बड़े ही कमाल का सद्भावना का माहौल होगा, जब एक मजहब का आदमी दूसरे मजहब के यहां शादी में जाता होगा और वह दूसरा उसे केवल मजहबी तौर पर अलग होता होगा सांस्कृतिक तौर पर नहीं। अब यहां मेरे लिए कोई सांस्कृतिक समानता नहीं थी , यह पूरी तरह से मुस्लिम निकाह था। निकाह में बस वही रीति-रिवाज बाकि थे जिनका लेना-देना पूरी तरह से इस्लाम से था, ताकि इस संस्कृति से हिंदुस्तान की खुशबू को अलग कर दिया जाएं, ताकि उस समूचे समाज की कोई याद भी दिलों में न रहे। इस कोशिश में उन्होंने इस संस्कृति की आत्मा और शरीर दोनों को जला दिया था, और उनके पास अब बस एक जला हुआ कंकाल बचा था। वह बुजुर्ग भी एक मजहबी इंसान था, पर अपनी संस्कृति खो बैठा था। " (इतिहास से अजनबी)
( इस लेख का आधार कश्मीर में लोगों से हुई मुलाकातों के बारे में मेरे अपने अनुभव है)
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