Monday, March 26, 2018

बेशक दो इंच जमीन न दो, लेकिन गांधी जी को इन सींखचों से तो बाहर निकालों मेरे भाईयों। बरेजा में क्या कर रहे हो गांधी का। दांडी यात्रा ..........7


असलाली को देखकर अब रास्ते का ढंग दिखने लगा था। साबरमति में बैठे हुए गांधीवादी एक बनावटी दुनिया में है और नेताओं के लिए गांधी का रास्ता अब वोटों से दूर चला गया है। असलाली में महात्मा गांधी की विश्रामस्थली को "विकास" खा गया। पंचायत भवन की भेंट चढ़ गया उस महात्मा का कमरा जिसने इस भवन को बनाने की हैसियत किसानों को दिलवाई थी। यहां से आगे की ओर चल पड़ा। बरेजा गांव में जाना था। बरेजा गांव के लिए हाईवे से और थोड़ा सा अंदर की तरफ जाना था। मैं हाईवे से काफी पहले मुड़ गया था और गांव के बाजार की ओर चला गया। बाजार में काफी भीड़ थी। कई लोगों से मालूम किया कि दांडी यात्रा के दौरान महात्मा गांधी ने अपना दिन का प्रवास इस गांव में किस जगह पर किया था। लेकिन बाजार में लोग खरीद-फरोख्त में जुटे थे। और वो ऐसी दुनिया में जिसमें पर्स के वजन से इंसान का वजन तय किया जा रहा हो वहां इतिहास का वजन नहीं ढोना चाहते है। इतिहास एक बोझ होता है अगर परंपराओं से काट दिया जाएं। हम ऐसे ही वक्त में पल और जी रहे है जहां इतिहास और परंपरा में उत्तर-दक्षिण का रिश्ता है। पहले इतिहास गायब किया गया और फिर लूले-लंगड़े, बेजान इतिहास के साथ परंपराओं को खत्म करना शुरू किया गया। मालूम नहीं ये क्यों किया गया। कहते है कि सच से दूर तो हुआ जा सकता है लेकिन सच से दूर होने के परिणामों से नहीं। इस सफर में ये बात रह-रह कर उभर कर आ रही है कि क्यों महात्मा का जोर अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा पर था। वो अंग्रेजी के अखबारों को इंटरव्यू दिया करते थे लिखते थे लेकिन उनको अपनी दुनिया से संवाद बनाने के लिए इस भाषा की जरूरत नहीं पड़ी। गांव में एक स्कूल दिखा। स्कूल से नई एक्टिवा की ओर बढ़ते हुए एक युवा से पूछा कि इसको शायद मालूम हो क्योंकि एक तो युवा है ऊपर से स्कल से भी आ रहा है। रोक कर पूछा कि भाई ये बरेजा है। जी साहब आप बरेजा में है। मैं ये जानना चाहता हूं कि वो जगह कहां जहां महात्मा ने 13 मार्च 1930 को अपनी दांडी यात्रा में दिन का विश्राम किया था और लोगों को संबोधित भी किया था। उस युवा के चेहरे पर उलझन आ गई। चेहरे की चमक और इस उलझन के बीच का रिश्ता आपको आंखों से दिखता है, वो मेरी भाषा से समझ चुका था कि मैं बाहर से हूं और वो ऐसे गांव का युवा जिसमें गांधी रूके थे लेकिन कहां उसको मालूम नहीं था। उसने एक दो बार अपनी तमाम जानकारी को दिमाग में खंगाला और फिर मुझसे कहा कि आपको गांव में जाने पर पता चल जाएंगा। बाजार से एक दो लोगों ने सलाह दी कि आप गांव के अंदर चले जाओँ वहां से पता चल जाएंगा। मैं गांव के अंदर घुसा। दो बड़े तालाब दिखाई दिए। तालाबों में पानी नहीं बल्कि हरियाली दिख रही थी। मेरे सहयोगी ने कहा कि कितना सुंदर तालाब है। मुझे दर्द हुआ। कई बार रंगों और खूबसूरती में सच कही सात पर्दों तले चला जाता है। ये तालाब खत्म हो रहे है। जिसको मेरे दोस्त या फिर ऐसे लोगों को जिनको तालाबों का और उस तथाकथित हरियाली का रिश्ता नहीं मालूम वो पानी के दर्द को कैसे महसूस कर पाएंगे। ये समुद्र सोख है। हरियाली से भरे बड़े बड़े पत्तों का समुद्र सोख। गांव में रहने वाले पुरखों ने किसी वैज्ञानिक से चर्चा नहीं की होगी जब ये नाम इस पौंधे के गुण के आधार पर बोलना शुरू किया होगा। समुद्र सोख ऐसा पौधा जो समुद्र को भी सूखा सकता है। और ये दोनों तालाब अब कुछ दिन बाद सूख जाएंगे और हो सकता है अगली यात्रा में कभी इन पर खड़े हुए मकानों में तालाब की सिसकियां सुनाई दे। माफ करना मैं यात्रा में गांधी को खोज रहा हूं और सामने ये सब आ रहा है। सरकार के सबसे आला पद पर बैठे हुए गुजरात के बेटे के वक्त में गुजरात के सबसे बड़े बेटे की तलाश में जूझता हुआ। गांधी आश्रम में इतने बड़े ताम-झाम को देखकर लग रहा था कि कुछ और नहीं होगा तो कम से कम टीम टाम तो होगी रास्ते में लेकिन लगता है ये सब भी गांधी को नसीब नहीं होगा। खैर में गांव के बीच में गया। गांधी जी की तलाश करने लगा। गांधी भवन कर एक बिल्डिंग दिखाई दी। उसमें कुछ दफ्तर और अस्पताल से दिख रहे थे। और उसी की दीवार में पहले प्लाटिक्स की पारदर्शी शीट और उसके ऊपर एल्युमीनियम की जाली के साथ गांधी दिखाई दिए। गांधी जी दीवार में चिने हुए। गांधी जी एक शीट के पीछे छुपाएं हुए। गांधी जी जाली के पीछे बंद। मैं सन्नाटे में था। इसलिए नहीं कि ये क्या है बल्कि ये कहां है। क्योंकि इस पथ पर 2005 में कांग्रेस के दिग्गजों ने दांडी की स्वर्ण जयंति के उपलक्ष्य में एक दांडी यात्रा भी की थी। इस सरकार को तो जवाबदेही होनी ही चाहिए। लेकिन उस वक्त के सरदार और उनकी सरदार सोनिया गांधी और मौजूदा वक्त में विपक्ष की उम्मीद राहुल गांधी ने भी हिस्सा लिया था। क्या इसको देखकर वो आगे निकले थे। दीवार में चिने हुए गांधी जिनके ऊपर भी भवन और जिनके इस तरफ भी भवन। ये क्या कर रहे है हम गांधी के साथ। क्या करे उनकी विरासत का ये सवाल हमेशा कचोटता है। युवा काफी नाराज है क्योंकि जिस तरह इतिहास को रखा गया उसमें गांधी की इमेज इस तरह बनाई है कि तमाम फायदा गांधी नाम के परिवार को मिलता रहे और उससे जनित नफरत महात्मा के हिस्से आती रहे। मैंने इधर-उधर जाते हुए लोगों से पूछा लेकिन ज्यादातर को उसका किस्सा मालूम नहीं था और मुझे लग रहा था कि कोई तो बोले इस कहानी के बारे में। इस गांव में गांधी जी एक तालाब के किनारे दो विशाल इमली के पेड़ों की छांव में रूके थे। वहां तालाब दिख नहीं रहा था और ईमली के पेड़ों का तो कोई नामों-निशान नहीं था। गांधी के नाम पर बस वही एक बिल्ड़िंग दिख रही थी। और जिन लोगों से भी मैंने पूछा उनके पास भी गांधी के बारे में बताने के लिए वही बिल्डिंग थी। हालांकि मैं यहां कोई भी ऐसा बोर्ड नहीं देख पा रहा था जिस पर उस दिन के बारे में कुछ लिखा हो। आखिर में सामने धूप सेंक रहे त्रिवेदी रमनभाई दिखाई दिए ( नाम उन्हीं से पूछ कर पता चला मैंने लिखा है) मैंने गांधी के बारे में पूछा उन्होंने कहा कि हां दांड़ी यात्रा के बारे में उनको पता है कि गांधी जी यही संबोधन किये थे। लेकिन क्या कोई गांधी जी का कही और भवन है तो रमन भाई ने कहा नहीं बरेचा में तो बस यही गांधी की याद है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। मैंने पूछा कि ये सब क्या है उन्होंने कहा कि सरकारी बिल्डिंग है, कुछ सालों पहले ही बनाई गई है। मेरे जुबान से सवाल खत्म हो गए थे और मेरे दिल के सवालों का रिश्ता सो सिर्फ मुझ से था उसमें रमन भाई से कोई सरोकार नहीं था। इतिहास के आईऩें में मैं उस दिन की कहानी को देखता चलूं।
“सरकार समर्थक अखबारों और सरकारी अफसरों की पहली भविष्यवाणियां मार्च के पहले दिन झूठ साबित हुई थी। उत्साह से भरे हुए लोगों ने महात्मा के कारवां का स्वागत जिस तरह से किया उसने सरकार को थोड़ा विस्मय में डाल दिया था। लेकिन 13 मार्च की सुबह महात्मा ने जैसे ही असलाली को छोड़ा तो सरकारी चंपूओं में बदले अखबारों और सरकारी अफसरों को काफी राहत मिली। बरेजा में गांव का सरपंच सरकार का बहुत बड़ा समर्थक था। उस वक्त इस बात के काफी मायने होते थे कि गांव के रसूखदार इंसान किस तरफ बैठता है और उससे ही गांव का रूख भी तय होता था। इसलिए कहते है बरेचा में इस तरह का स्वागत नहीं हुआ जैसा पिछळे गांवों में हुआ था। लेकिन बरेचा में इस बात को नहीं मानते है उनका कहना था कि सब लोग पहले ही असलाली में महात्मा का स्वागत करने के लिए पहुंचे थे लिहाजा अभी वापस आने से पहले ही महात्मा का मार्च सुबह से ही शुरू हो गया तो अभी लोग पहुंचे भी नहीं और बाद में वो महात्मा के साथ ही थी । और लोग कहते है कि महात्मा के संबोधन के वक्त भीड़ हजारों की तादाद में इकट्ठा हो चुकी थी।महात्मा गांधी ने बरेजा में लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि खादी हमारे स्वराज संघर्ष की आधारशिला है। और अछूतों को लेकर बहुत कड़े शब्दों में कहा कि गांव-गांव में जाकर लोगों को ये बताना चाहिए कि अछूतों के किया जाने वाले भेदभाव का व्यवहार खुद भेदभाव करने वाले को ही नीचे गिराता है। इसको बदलना होगा। गांव में लोग आ चुके थे। महात्मा गांधी को इस गांव से 101 रूपये का चंदा मिला। आराम करते वक्त महात्मा गांधी ने अपना पत्रव्यहार का काम निबटाना शुरू किया। मीरा बेन को लिखे खत में उन्होंने कहा कि कल का प्रदर्शन (12 मार्च) अहिंसा की एक बहुत बड़ी जीत थी। और ये एक शानदार शुरूआत है। नेहरू को लिखे खत में महात्मा गांधी ने नेहरू को बताया था कि वो अहमदाबाद में होने वाली कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में हिस्सा नहीं ले पाएंगे। 
महात्मा गांधी के पैर छालों से भरे हुए थे। गठिया से संबंधित रोग भी ऊभर आया था। लेकिन शारीरिक परेशानियों से भी ज्यादा किसी और उद्देश्य की ओर देख रहे महात्मा गांधी ने घोडे पर बैठने से इंकार कर दिया था। ( घोड़ा शुरू से ही साथ चल रहा था जो एक व्यापारी ने इस लिए दिया था कि अगर गांधी जी थक जाएंगे तो इस घोड़े की मदद से रास्ता तय करेंगे) लोग चिंतित थे और महात्मा से कहा गया कि क्या इस रूट्स को बदला जा सकता है। या फिर आराम करने की भी सलाह दी गई। लेकिन बेपरवाह महात्मा गांधी ने जवाब दिया था कि ये ही रूट्स रहेगा और निश्चित समय पर मैं दांडी में पहुंचूंगा भले ही मेरे पैरों का कुछ भी हो जाएं। “ (अगला पड़ाव नवगाम होगा वहां गांधी की याद को दर्द और गुजरना होगा क्योंकि यहां गांधी एक बार नहीं तीन -तीन बार रूके जिंदा भी और शहादत के बाद भी , कैसे अगली कड़ी में बताऊंगा, आप साथ है तो अच्छा है मैं तो गुजर ही रहा हूं।)....

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