ये अदालत भी है, ये मुंसिफ भी है और ये पीड़ित भी। ग़ज़ब है भाई। और इनकी मासूमियत भी कुछ लोगो के लिए ही है। मैं क्या कहूं गड़बड़ा गया हूं लगता है कि आजतक कोई ख़बर ही नहीं की। खुद ही तय करते है कि कौन क्या है और क्या किसने किया है और किसको क्या कह दे।
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Monday, March 26, 2018
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