Monday, March 26, 2018

पंजाब की हार समझ के परे है- केजरीवाल। आओं तो खेल ही खत्म कर दें। वैसे तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है कामरेड


दिल्ली की जीत के मायने मालूम थे क्या कामरेड। सड़कों पर घूमते हुए एक घुन्ने नौकरशाह को ईमानदारी का मानक बना कर दिल्ली की ईवीएम ने दिल्ली का दरबार थमा दिया था क्या किसी ने शक किया था। केजरीवाल की पहली सरकार में रेल भवन पर चल रहे धऱने को कवर कर रहा था। तभी केजरीवाल साहब ने भाषण दिया कि 26 जनवरी रूक जाएं तो रूक जाए उन्हें ऐसे आयोजन की परवाह नहीं जिसमें कुछ मोटे पेट वालों के लिए ( या कुछ ऐसे ही गेस्ट के लिए) एक प्रदर्शनी हो और उसमें करोड़ों रूपये स्वाहा हो। मैं लाईव करते हुए चौंक उठा। मुझे लगा कि इस हिटलरी स्वभाव वाले इंसान के लिए सारे आंदोलन और सिद्दांत सत्ता के सिद्दांत है। किसी को बर्दाश्त नहीं करना राजनीतिक रणनीति हो सकती है लेकिन गणतंत्रता दिवस को बर्दाश्त न करना सिर्फ देश को पैर की जूती समझना हो सकता है। मैंने अपनी खबर में कहा था कि केजरीवाल साहब ( उन्होंने नहीं सुना था मैं एक छोटा सा बौंना हूं ऐंकर नहीं सो किसी ने नहीं सुना था मेरे सिवाय) कि केजरीवाल साहब ये ही वो त्यौहार है जिसने ये तय किया कि एक सड़क पर घूमने वाला आदमी कुछ लोगों के वोट गिने और शान से मुख्यमंत्री आवास में बैठ जाएं। बिना किसी तमंचे और तोप के फायर के बिना। पूरा अमला (पुलिस, फौंज , जनता ) उसके सदारत में आ गया। लेकिन केजरीवाल को उसकी परवाह नहीं थी या तो उसकी सुनों या फिर वो सब कुछ तोड़ देंगा। खेल बिगाड़ देगा।
दरअसल केजरीवाल और उसके बौंने (मीडिया वाले) नाचने से पहले मैदान की कमियां गिनाने लगते है। मैं केजरीवाल पर कुछ लिखना भी नहीं चाहता हूं क्योंकि नौकरशाहों से राजनीतिक बदलाव की बहुत ज्यादा उम्मीद मैं रखता नहीं हूं। ( ये मेरा दुराग्रह हो सकता है) पन्द्रह साल तक भारतीय राजस्व सेवा में रहे इस शख्स के पास अपनी सर्विस के दौरान देश की सर्विस या अपनी आईआरएस की सर्विस में ही कुछ उल्लेखनीय बताने को नहीं था। ( ऐसे ही जैसे कोई बौंना कहे कि मैंने 30 साल पत्रकारिता की लेकिन बताने के लिए तीस खबर भी ना हो) उसके चमचे नारे लगाते थे कि लाखों की नौकरी छोड़ी है ( भाई कोई चिट्ठी देकर बुलाने गया था) खैर बात पुरानी है अब तो नई कहानी है।
चुनाव से पहले विजय चौक पर केजरीवाल के बौंनों से मुलाकात होती रहती थी। ( ये जाने क्या शाप है बौंनों पर जिस बीट या सरकार को कवर करते है उसके एजेंट की तरह बात करने लगते है. कई बार तो चाय की मक्खी को किसमिस साबित करने में जुट जाते है)। मैं हमेशा पंजाब के बारे में पूछता रहता था। कि कैसे जीत का समीकरण बन रहा है। जनता रैलियों में बहुत आ रही है लेकिन क्या वोट में तब्दील होंगी या नहीं। और केजरी के बौंने मेरी सारी समझ को हिला कर रख देते थे। ( इस चुनाव में चैनल ने पंजाब नहीं भेजा तो नहीं जानता था लेकिन इससे पहले पंजाब को कई बार कवर किया है और होमवर्क भी किया है) "अरे सर क्या समझ रहे हो अभी सत्तर सीट तो पक्की है हालांकि संजय सिंह जी (वही अनूप सांडा का चमचा -अरे माफ करना केन्द्रीय नेता जैसा आप के केन्द्रीय रणनीतिकार वाजपेयी साहब ने वीडियो में फरमाया था) तो मान ही नहीं रहे है कि 100 से नीचे आ ही नहीं सकती है। "मैंने कई बार उन लोगों से समझना चाहा कि पंजाब में ये काफी बड़ा चेंज है और देश की राजनीति के लिए भी काफी बदलाव भरी बात है ये। पंजाब की राजनीति का एक क्षेत्रीय चरित्र भी है जो काफी मजबूत है और कांग्रेस की राजनीति में भी वहां स्थानीय क्षत्रप काफी मजबूत होते है और स्थानीय नेताओं को पंजाब की जनता को ये यकीन दिलाना होता है कि वो दिल्ली के इशारों पर नहीं नाचेंगे और पंजाब के गौरव को बनाएं रखेंगे। मेरी जिज्ञासा सिर्फ ये जानने की थी कि क्या अरविंद को वो मुख्यमंत्री मान सकते है और नहीं तो फिर क्या नशे में मंचों पर लड़खड़ाता और नशाबंदी के लिए सारा नशा खुद ही करने वाले जोकर को जनता मुख्यमंत्री मान लेगी तो केजरीवाल का हिटलरी आदेश वो मानेगा। और क्या पंजाब की जनता दिल्ली की कठपुतली को स्वीकार करेंगी। ऐसे कई सारे सवाल जो पंजाब को जरा सा भी जानने वाले के दिल से उठते हैकिए तो उनका जवाब होता था कि "ये तो नहीं मालूम सर लेकिन उनका सर्वे तो गजब है ही खुद भी होकर आया हूं तो वहां तो आप की आंधी है दिल्ली से बड़ी आंधी है। "
पंजाब की राजनीति में काफी बड़ी उलटफेर की बात थी ये। पंजाब में इस वक्त अकाली और कांग्रेस यकीनन एक सिक्के के दो पहलू है एक का नेतृत्व हजारों करोड़ रूपए कमाने वाला गरीब किसान कर रहा है तो दूसरे का नेतृत्व हजारों करोड़ का गरीब राजा। जनता बदलाव चाहती है लेकिन दिल्ली में बैठकर अपनी ही पार्टी में किसी आवाज को बर्दाश्त न करने का स्वभाव दिखा चुके अरविंद को वहां मुख्यमंत्री मान लिया जाएगा। ये मुझे लगता नहीं था। ऐसे में गाजियाबाद में प्रधानमंत्री की रैली में एक वरिष्ठ साथी जो आप को ही कवर करते है मिले तो फिर से बौंनी जिज्ञासा ने जोर मारा और पूछा तो जवाब आया कि 77 सीट में तो कोई संदेह नहीं है बस संजय सिंह 100 से नीचे नहीं मान रहे है। मुझे डर लगा कि अगर 99 आईं तो फिर संजय सिंह गुस्से में क्या कर देंगे पता नहीं अनूप सांडा तो सुल्तानपुर में कुछ कुछ कर देता है। और एक चेहरा और है राघव ..पता नहीं स्क्रीन पर बैठकर चैनलों को ताला लगवादेने का शाप देने लगा था कि अगर 88 से कम आईं तो वो क्या क्या छोड़ देगा। राजनीति या ऐसा ही कुछ क्योंकि वो साहब कुछ और है राजनीति करते है। मुझे लगा कि क्या आज संजय सिंह इससे नाराज हो सकता है या पार्टी से बाहर कर सकते है क्योंकि ये 100 सीट से नीचे ही मान रहा है।
अब रिजल्ट ने आकर सब का खेल बिगाड़ दिया। बुद्दि का भी और विलास का भी।अब क्या करे। फिर किसी बौंने ने समझाया होगा कि बचपन में जब ये दिख जाता था कि खेल जीत नहीं रहे तो फिर खेल बिगाड़ दिया जाता था। ये सलाह अरविंद को काफी भाई और वो अचानक चिल्लाने लगे ईवीएम ईवीएम। ऐसा नहीं कि अरविंद को ये मालूम नहीं होगा कि हर चीज से यकीन खो चुके देश में इस तरह से एक और अविश्वास पैदा करना आग से खेलना होगा लेकिन वो सिर्फ एक चीज में यकीन रखते है कि मेरा नहीं तो फिर अन्ना का भी नहीं। अफ्रीकी देशों में चुनाव से पहले और चुनाव के बाद सड़कों पर मौत बांटती भीड़ की तस्वींरें अरविंद के जेहन में नहीं आई होगी ऐसा तो नहीं है लेकिन खेल तो खराब करना ही है क्योंकि जब मैं जीत नहीं रहा तो फिर वो खेल कैसा। अगर किसी को याद नहीं आ रहा है तो फिर बनारस के चुनाव को याद कर ले। पूरे चुनाव को हिंदु-मुस्लिम करने में इन साहब को कुछ मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। ये साहब वहां वादे करके आएँ थे कि हारूं या जीतूं बनारस का रहूंगा। समझ गए थे कि जीतना तो दूर की बात खेल बिगाड़ने की हैसियत नहीं तो फिर उधर का रूख ही नहीं किया। संजय सिंह की ईमानदारी की छवि उसके बौंने गैंग्स ने काफी गढ़ी दिल्ली में लेकिन बेचारे को सुल्तानपुर में कोई नहीं मानता इसीलिए यूपी के चुनाव में सुल्तानपुर में भी आप का कैंडीडेट नहीं खड़ा किया बल्कि सुल्तानपुर से सैंकड़ों मील दूर पंजाब में 100 सीट पर दांव खेलते रहा और यहां तक एक एक मिर्जापुरियां बौंने है जेएनयू मार्का भी है ( हमने भी उनकी सदारत में काफी गुल खिलाएं है) वो तो सैंकडों मील दूर समंदर को ही फतह करने चले गए थे।
सल्वाडोर के महान कवि राक डाल्टन की एक कविता मुझे काफी अच्छी लगती है "संशोधनवाद"
"हमेशा ऐसा नहीं होता
क्योंकि
उदाहरण के लिए
मकाओ में
अफ़ीम
जनता की ही अफ़ीम है ।"

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