Monday, March 26, 2018

ये जीत का जश्न फीका है, ये हार का स्वाद मीठा है। ये गुजरात की उलटबांसी है। सिर्फ जनता चाणक्य है बाकि सब बौंनों के मुहावरे है।(चुनाव मेरी आंखों से)

करोड़ों के कमलम में सैकडो़ं गिनना भारी था। मीडिया के कैमरों और मीडियाकर्मियों की तादाद और कार्यकर्ताओं की संख्या में एक तरह की स्पर्धा सी थी। एक पार्टी राज्य की सत्ता में छठी बार काबिज हो रही थी,और एक तरफ प्रधानमंत्री की हार या फिर बड़ी जीत के उम्मीद में जुटे हुए मीडियाकर्मी। बार बार स्क्रीन पर से नजर नहीं हट रही थी। वो हंस भी नहीं रहे थे और आंसू भी नहीं मिल रहे थे। ये जीत का अलग रंग देख रहा था अपने पिछले सालों के घुमंतू जीवन में। पटाखें वाला पटाखों का ट्रक गेट पर नहीं ला पा रहा था और ढोल वाले कहीं से उतर नहीं पा रहे थे। 
उधर कमलम से पुराने करोड़ों वाले ऑफिस में भी ढोल-और ताशे वालों के नंबर नहीं लगाएं गए थे। कुछ बुक तो जरूर किए होगे क्योंकि जमीन में इस बार उम्मीद की फसल दिख रही थी लेकिन किसान की तरह से ( जिस के दम पर ये दिख रहा था) फसल तभी मानी जाती है जब वो खेत से घर आ जाएं नहीं तो खेत में सब कुछ हरि इच्छा। कुछ देर तक फसल लहलहाती दिखी और गीत होंठों तक उमड़ आएँ। लेकिन फिर याद आया कि अभी तो उधार बाकि है। जनता से सालों तक जो विश्वास लेकर खाया और बाद में चुकाया नहीं था, उस वादाखिलाफी से नाराज जनता ने दो दशकों से जो खाता बंद किया था, वो अब खुल तो गया है लेकिन लेन देन का कॉपी में अभी कुछ बकाया बाकि है। इसीलिए कुछ देर स्क्रीन के सामने रस्म अदाईगी हुई और , कुछ देर बाद ये तमाशा भी साफ हुआ।
बीच-बीच में लाईव पर खड़े होना और दूसरे तमाम स्टुडियों में बैठे एक्सपर्ट को सुनने के बीच मुझे गुजरात की कहानी एक दम कही दूर तक जाती सुनाई दी। ये एक पूरे पहिए के घूमने का वक्त था।
गांधीनगर की फोरेंसिक लैब के बाहर पेड़ों के नीचे अखबार बिछा कर बैठा हुआ था। सामने गुजरात के पत्रकारों की भीड़ थी। हम सब इंतजार कर रहे थे कि पंधेर और कोली के नारकों टेस्ट के बीच कुछ खबर हाथ लग जाएं। मैं अपने औंजारों के साथ था। और किसी तरह से उनको चलाने के रास्ते खोज रहा था। कुछ देर की झिझक के बाद वहां के पत्रकारों से बात शुरू हो गई। मैंने पहले तो अपनी सहयोगी से ही पूछा ( जिन का आदर करता हूं उन पत्रकारों में से एक) क्या हो सकता है। कैसे अंदर जाया जा सकता है। उसकी आंखों में एक विस्मय सा उभर आया। और जवाब दिया कि ये दिल्ली नहीं है साहेब ( साहेब गुजरात में आदरसूचक शब्द के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है)। ये गुजरात है मोदी का गुजरात। यहां हर काम ईमानदारी से होता है। मैंने कहा कि नहीं किसी एक को तो पकड ही लूंगा. कोई डॉक्टर, नर्स या फिर लैब्स का बंदा। लेकिन गोपी को लगा जैसे मैं दूसरी दुनिया में हूं। नहीं साहेब ये हो ही नहीं सकता आपकी दिल्ली में चलता होगा ये सब यहां नहीं। फिर बातचीत में सभी पत्रकार शामिल हो गए। और सबकी बातों का सार इस तरह से था कि आप मोदी के गुजरात में है। उनकी बातों में जिस अभिमान का पुट था वो मोदी के गुजरात का होने का था। मै उस वक्त भी ( चैनल अपने बॉस लोगों का शुक्रिया) पूरा देश घूमता रहता था खबरों के सिलसिले में। इसीलिए ये मेरे लिए एक दम से नया अनुभव था। पत्रकारों की पूरी जमात एक मुख्यमंत्री को प्रदेश का गौरव मानते हुए एक अलग किस्म के अभिमान से भरी हुई थी। मैंने बहुत बार सोचा और अपनी सोच को दंगों से बार बार जोड़ कर देखा। लेकिन मैं सिर्फ दंगों से इस अभिमान को उगते हुए नहीं देख रहा था। मोदी को लेकर उन लोगों का विश्वास कही और से जुड़ा हुआ था। खैर मैं कोई स्टिंग्स नहीं कर पाया। और अपनी खबरों को किया और वापस लौट गया।
फिर कई बार आया गया। लेकिन वो अभिमान यहां अलग-अळग हिस्सों में दिखता रहा। फिर आया 2014 का दौर। मुझे अहमदाबाद के दोस्तों के फोन लगातार आते रहे। ( मेरा संस्थान बदल गया था और मेरी बीट भी)। उन लोगो का विश्वास था कि मोदी की जीत बड़ी होगी। वो एक जादूगर है।आप देखते रहिए। हालांकि उस पेड़ के नीचे बैठे हुए तमाम दोस्तों से बातचीत तो नहीं हुई लेकिन फिर अलग-अलग वक्त में कई लोगों से बातचीत हुई और सब मोदी को गुजरात के गौरव से जोड़ कर देख रहे थे।
मोदी जीत गए। इसके बाद बातचीत काफी कुछ कम हो गई।लेकिन जैसे ही कोई चुनाव आता मेरे पुराने सहयोगियों के फोन आ जाते थे। और कुछ ऑफिसर भी जो उस वक्त से दोस्त चले आ रहे थे। ( ज्यादातर लोगों का एक गलत विश्वास भी होता है कि दिल्ली के पत्रकार कुछ ज्यादा जानते है) फोन करते थे। लेकिन मैं अब फोन में गर्व का अहसास नहीं देखता था। वो लगातार फोन करते थे लेकिन इस बार वो जीत की हार की कामना करते हुए दिखते थे (पत्रकार)। और फिर मैं 2017 का चुनाव कवर करने आ पहुंचा।
उन्हीं पत्रकारों के बीच उन्ही तमाम लोगों केबीच वही गांधीनगर,वही अहमदाबाद,वही गुजरात लेकिन गायब था वो अभिमान, वो अभिमान जिसने मोदी को मोदी बनाया। इस बार मोदी से ज्यादा उसके घमंड की चर्चा। इस बार मोदी से ज्यादा उसकी तानाशाही की चर्चा। और मैं गुजरात घूम रहा था ( अपनी आदत के मुताबिक हर जगह जाने की कोशिश) और हर तऱफ से लगभग यही गायब होते हुुए देख रहा था। मेरे पत्रकार मित्रों ने शर्त लगा दी थी कि इस बार बीजेपी हार रही है। मैं जो देख कर वापस लौटा था उसके आधार पर मैं कह रहा था कि सरकार तो बन जाएंगी। (इसके पीछे मेरा अपना अनुभव था वो भी मैं शेयर करूंगा हो सकता खामख्याली हो लेकिन मेरा है तो शेयर करूंगा) । पत्रकार दोस्त या तो इस बात को सिरे से नकार रहे थे या फिर वो कह रहे थे कि साहेब गड़बड़ से ही सकता है। कुछ लोगों से शर्त भी लग गई थी। इस बार मैं उनसे सवाल कर रहा था कि वो मोदी क्या हुआ जिसके लिए मैं गांधीनगर की लैब के बाहर ये कह रहा था कि राजनीति में नायक आते और जाते है लेकिन उनको अब कुछ याद नहीं है। वो सिर्फ ये मानकर चल रहे है कि अंहकारियों ने पूरी तरह से गुजरात में एक तानाशाही का माहौल क्रियेट कर दिया है। सरकार गांधीनगर की चुनी जाती है और चलती है 11 अशोक रोड़ से। मोदी को लेकर उनकी टिप्पणियों में गाहे-बगाहे कागजी चाणक्य का जिक्र आ जाता हैा। मोदी आज भी वही है लेकिन एक छाया अहंकार की मोदी के ऊपर दिखरही है और सब इसका रिश्ता जोड़ रहे है अमित शाह से। जिस जोड़ी को दिल्ली में एक विजयी जोड़ी माना जा रहा है उस जोड़ी की जन्मस्थली पर अब वो अंहकार की जोड़ी दिख रही है। मोदी का नायकत्व अभी भी वही दिख रहा है लेकिन उसमें अहंकार की घुन दिख रही है।मुझे दिल्ली के पत्रकारों को लेकर कभी कोई गलतफहमी नहीं होती क्योंकि जमीन से दूर उनको धरती आवंला दिखती है और वो घूमफिर कर अपनी पुरानी समझ सब पर लाद कर अपने इंतजाम में जुट जाते है। इसीलिए उनसे नहीं पूछ रहा था लेकिन कई पत्रकारों से सामना हो रहा था तो उन लोगों से मौसम की बातचीत नहीं हो सकती थी लिहाजा समीकरण ही पूछ रहा था तो वो बता रहे थे कि लोग नाराज है, क्यों तो उनको पाटीदार, ठाकोर और दलित दिख रहा था और मैं सिर्फ उस पार बैठ कर गांधीनगर वाले मोदी और दिल्ली वाले मोदी के कायांतरण के बीच बैठे उन पत्रकारों के घमंड और सत्तारूढ़ पार्टी के घमंड की चर्चा सोच रहा था।
खबर को कवर करने के बाद अहमदाबाद में लौट रहा था तो भी शहर शांत दिख रहा था कही से नहीं लग रहा था कि इस राज्य में सरकार बनी है। लोग चाय की दुकानों पर चुनाव की चर्चा नहीं कर रहे थे। अपने कामों में मशगूल थे। गोकुल चाईनीज चाउमीन खाते हुए सेल्फी दिखाते हुए लड़कों के बीच जैसे सरकार के आने-जाने की की उम्मीद नहीं। फिर याद आया कि पटाखों के चलाने का इशारा होने ( पार्टी के अधिकारियों ने तय किया था कि ऑफिशियली जब तक 93 का आंकडा़ पार नहीं हो पटाखा नहीं दगे)
पटाखें चलने लगे तभी एक पत्रकार ने पटाखे वाले को कहा कि
"बस बहुत हो गया शोर कम चलाओं अब पटाखें नहीं तो आवाज से मशीन (स्क्रीन ) हिल भी सकती है और ये आंकड़ा (सीट) और भी नीचे आ सकता है"। ....

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