दफ्तर देख रहा हूं, एक दफ्तर, दो दफ्तर या फिर और भी दफ्तर। कई सौ किलोमीटर चल चुका था। ज्यादातर दफ्तरों पर पोस्टर पर लगे हुए है, मैं पहचाने की कोशिश करता हूं कार्ल मार्क्स, फैडरिक एंगेल्स, ब्लादमिर इल्यिच लेनिन, जोजेफ स्टालिन, माओं , हो ची मिन्ह, फिर चेहरा ( चाओ उन लाई सही सेमैं पहचान नहीं पाया) और फिर चे ग्वेरा। दुनिया के किसी कम्युनिस्ट देश में नहीं घूम रहा हूं बल्कि त्रिपुरा में हूं। राज्य के कई स्कूलों में बच्चों से पास के राज्यों का नाम जानने की नाकाम कोशिशों के बाद दफ्तरों के बाहर के चेहरों को पहचानता हुआ।
राज्य के मुख्यमंत्री का सरकारी आवास मार्क्स-एंगेल्स सरनी पर है। सड़क का नाम रहने वालों का मिजाज बता देता है खास तौर से उन लोगों का जिन लोगों की हैसियत नाम बदलने की हो। दिल्ली में सड़कों के नाम बदलने पर हुई राजनीति के बाद इससे कोई इंकार मदांध ही कर सकता है या फिर किसी से बेहद नफरत या प्यार करने वाला। त्रिपुरा का इतिहास काफी समृद्ध है। कला से भी और वीरता से भी। और राज्य की सबसे वीआईपी सड़क पर लिखे जाने के योग्य हो सकते है। खैर ये पार्टी की अपनी रणनीति हो सकती है, त्रिपुरा के लोगों को दुनिया के नायकों को पहचानना जरूरी है देश के कम्युनिस्ट आंदोलनों के किसी चेहरे ने अभी वामपंथ के अवतारी पुरूषों में शामिल होने की योग्यता शायद हासिल नहीं की है। मानिक सरकार का चेहरा भी नहीं दिख रहा था। मैं इसको सादगी से नहीं जोड़ कर देख रहा हूं बल्कि वामपंथ की नियम यात्रा का हिस्सा मान रहा हूं। मुझे बहुत कुछ आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि दिल्ली में भी वामपंथियों की प्रेस में पीछे दिखाई देने वाली तीन तस्वीरों में मार्क्स, लेनिन और स्टालिन को देखने का आदी हूं। लेकिन यहां गांव-गांव में इस तरह के दफ्तरों पर उससे भी आगे देखना एक नया अनुभव है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन मैं इनका जिक्र करने के पीछे भी मेरा मकसद किसी पार्टी को लेकर नहीं बल्कि इस चुनाव में वामपंथी और दक्षिणपंथी पार्टी के बीच के बीच चल रहे सत्ता युद्ध का एक पक्ष देखना है। मानिक सरकार चौथी बार सत्ता में बने रहने के लिए लड़ रहे है। और अच्छे से लड़ रहे है। उनके पास अपने से अर्जित सादगी पंसद मुख्यमंत्री की छवि है। लेकिन उनकी दिक्कत है कि उनकी मदद के लिए उन पोस्टरों से एक भी चेहरा बाहर निकल कर स्टेज पर नहीं आ सकता है। अगर कोई जिंदा भी होता तो भी हिंदुस्तान के एक राज्य के चुनाव में आकर वो रैली करता इस पर मुझे संदेह है और कर भी देता तो राज्य की जनता उसको सुन कर समझ कर वोट देती इसकी भी मुझे बहुत संभावना नहीं दिखाई देती है। और यही दिक्कत माणिक सरकार को पेश आ रही है। गांव-गांव, शहर-शहर विधानसभा की हर सीट पर अकेले दम पर पार्टी को खींच रहे है। जिताने की रणनीति बना रहे है। और पार्टी के सबसे बडे चेहरे के तौर पर दिख रहे है। पार्टी का पुराना नेतृत्व तो जाने क्या सोचता है लेकिन एमबीबी ( अगरतला का सबसे पुराना और सबसे बड़ा कॉलिज) का युवा जो वामपंथ को समर्थन करता है उसके लिए दिल्ली में सबसे बड़ा नायक अब कन्हैया बन चुका है। और हैरानी की बात नहीं है कि विजयेन धर ( राज्य की सबसे ताकतवर पार्टी पदाधिकारी यानि पार्टी सचिव) भी अपनी पार्टी की नई उम्मीदों में कन्हैया को गिनते है। हालांकि अभी कन्हैया को मैंनै चुनावी रैली में देखा नहीं ( हो सकता है रैली संबोधित की हो)। इस बार पार्टी और भी काफी बदलाव के दौर में है। मानिक सरकार की हेल्थ को लेकर लोगों में चर्चाएं हो रही है। उनकी उम्र को लेकर भी विपक्षी पार्टी कई सारे सवाल खड़े कर रही है। लेकिन सबसे बडी कहानी खुद पार्टी में ही चल रही है। अलिखित नियम है कि तीन बार से ज्यादा किसी आदमी को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए लेकिन पार्टी की मजबूरी है कि उसके पास मानिक सरकार के अलावा कोई भी चेहरा ऐसा नहीं है जो अपनी विधानसभा के अलावा राज्य की राजधानी अगरतला से पचास किलोमीटर भी जाने-पहचाने की योग्यता रखता हो। और पार्टी फिर से मानिक को माणिक्य मान कर इस पूरी जंग को जीतने के लिए मैदान में उतरी हुई है।
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