Monday, March 26, 2018

इन पहाड़ों को किसने तराशा। कंकर- कंकर को शंकर में बदल दिया। करोड़ से एक कम। आस्था नहीं बल्कि इतिहास में रहस्य है ऊनाकोटि।


“मूर्ति से उतरिये”। “मूर्ति से उतरिये”। सिक्योरिटी गार्ड सिटी बजाते हुए बांग्ला भाषा में तेज आवाज में बोल रहा था। मैं हैरान था कि वो किस पर चिल्ला रहा है। लेकिन वो लगातार मेरी ओर आ रहा था। मेरे ठीक पीछे कई लोग लकड़ी के एक प्लेटफार्म पर उतर-चढ़ रहे थे। वो भी उन विशालकाय मूर्तियों से दूर थे। फिर सीटी बजाता हुआ वो गार्ड किसको कह रहा है। सौमित्र बांग्लाभाषी है मैं प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ उसकी ओर देख ही रहा था कि वो गार्ड करीब आ गया और मुझसे विनम्रता से बोला कि सर आप इस मूर्ति से उतर जाईंये। मैंने नीचे की ओर ध्यान से देखा तो आभास हुआ कि जिस विशालकाय शिलाखंड को मैं एक साधारण पत्थर का टुकड़ा समझ कर, सामने पहाड़ पर तराशी हुई मूर्तियों को देखकर आश्चर्य में डूबा हुआ था वो साधारण पत्थर नहीं बल्कि और भी विशालकाय मूर्ति का गिरा हुआ एक हिस्सा था। गार्ड मुझे इस तरह देखकर शांति के साथ बोला कि साहब यहां किसी भी पत्थर पर पैर रखते हुए सावधान रहिये। हर कंकर में शंकर हो सकते है। इससे पहले मेरे लिये ये एक कहावत भर थी लेकिन यहां वो कहावत नहीं बल्कि एक सच्चाईं थी। भारत के एक और चमत्कार को सामने देख रहा था। भारतीय संस्कृति का वो हिस्सा जिसको वामपंथी इतिहासकारों ने वक्त की रेत में दफन करने की एक शानदार (शानदार इसलिये कि वो इसमें कामयाब रहे है) कोशिश की है। ये ऊनाकोटि है। ऊनाकोटि मतलब करोड़ से सिर्फ एक कम। और करोड़ से एक कम का यहां मतलब है कि एक करोड़ मूर्तियों की संख्या में सिर्फ एक कम यानि निन्यानवें लाख, निन्यानवें हजार नौ सौ निन्यानवे पत्थर की मूर्तियां इन घने जंगलों में मौजूद है। और ये कहानी और किस्सा अपनी मान्यताओं से अलग इतिहासकारों के लिए एक बड़ी पहेली है। ऐसी पहेली जिसकों कोई अभी सुलझा नहीं पा रहा है। पौंरोणिक आख्यानों से उलट ये बात किसी किस्से के तौर पर नहीं बल्कि एएसआई और त्रिपुरा इतिहास के मशहूर जानकार पन्नालाल रॉय से बात करने के बाद कह रहा हूं। क्या वाकई इन तमाम मूर्तियों को एक रात में ही तराशा गया था। क्या सुबह की पहली किरण ने शिल्पकार की एक कल्पना को अपने उत्कर्ष तक जाने से रोक दिया और इस तरह से परीक्षा पूरी नहीं कर पाया था। 
त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी। छोटी-छोटी पहाड़ियों के आड़े-तिरछे रास्तों को पार करता हुए आप पहुंचते है ऊऩाकोटि की गहरी घने जंगलों से भरी हुई घाटी में। ऐसी घाटी जिसमें संस्कृति की एक पूरी कहानी है। और जब आप उस कहानी से जाकर मिलते है तो उसका ही एक हिस्सा हो जाते है। ऊनाकोटि में विशालकाय पहाड़ की विशाल शिलाओं पर बेहद खूबसूरत मूर्तियां बनी हुई है। जैसे ही आप ऊपर से बने हुए खूबसूरत से जीने से उतरते है तो सबसे पहला सामना एक विशाल मूर्ति से होता है। जो लगभग चालीस फिट से भी ऊपर दिखाई देती है। पत्थर पर लिखी गई एक कविता। लेकिन आप की आंखों में जब तक आश्चर्य खत्म होता है अगली ओर नीचे की तरफ एक धारा बहती हुई दिखती है। और कुंड़ सा दिखाईं देता है। उस कुंड के ऊपर विशालकाय मूर्ति और आप सीधे पहचान जाते है कि ये भगवान शिव की मूर्ति है जिनकी विशाल जटाओं में मां गंगा अवतरित हो रही है। मूर्ति लगभग तीस फिट ऊंची है। बेस अब कुछ धंस रहा है। गले के नीचे का हिस्सा जिस खूबसूरती से उकेरा गया था और उस पर बनी जटाएं और लटें अब दिखाई नहीं देती। लेकिन मूर्ति के बराबर से बहती हुई धारा को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि पहाड़ों का ये बहाव हर बारिश में किस तरह की ताकत के साथ समुद्र से मिलने के लिए दौड़ता होगा। शिव के सामने एक रास्ता बना दिया गया है जिस से होकर आप गुजर सकते है क्योंकि वहां पड़े विशाल शिलाखंड किसी न किसी मूर्ति का हिस्सा है। सामने नंदी की दो खूबसूरत मूर्तियां पानी में धंसी हुई दिखाई देती है। इतनी खूबसूरती से नंदी का श्रृंगार किया हुआ कि आप शिल्पकार की कल्पनाओं पर न्यौछावर हो सकते है। इस से ऊपर उठकर फिर आप ऊपर की ओर चलते है। तो एक पुजारी जो अभी किसी कर्मकांड को संपन्न करा रहा था वो चिल्लाता है ऊपर जाओं वहां भी देखों, वहां त्रिदेव है। सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए सैकड़ों साल पुराने पेड़ की जड़ों और हवा में लटकती हुई जटाओं को देखकर लगता है कि वो यहां आने वाले रहस्यमयी शिल्पी को जानता है लेकिन किसको बताएं क्योंकि कोई तो उसकी भाषा नहीं समझता। अभी त्रिदेव के सौंदर्य से ऊबर ही नहीं पा रहे थे कि वही से फिर एक आदमी ने इशारा किया कि ऊपर जाईंये वहां शनि और इंद्र देवता है। फिर से सीढ़यों को पार करता हुआ ऊपर की ओर जा रहा था तो देखा हर एक पत्थऱ पर छैनी हथोड़ें से बनी हुई मूर्तिया दिख रही है। शिवलिंग बनाएं हुए है। हर एक पत्थऱ को कुछ न कुछ आकार देने की कोशिश की गई है नहीं तो उस पर कुछ न कुछ उकेर दिया गया। काफी सीढ़ियां चढ़ते हुए जा रहा था कि पीछे से कुछ और आवाजें आईं देखा तो पैरामिलिट्री फोर्स के एक डीआईजी अपने लाव लश्कर के साथ ऊपर की ओर आ रहे है। हांपते हुए वो भी इस पर आश्चर्य कर रहे थे कि ये किसने बनाया। फिर सामने एक पुरूष और महिला संन्यासी का जोड़ा मूर्ति के सामने दीप जलाएं बैठा था। उनके ठीक सामने एक लैंटर से बना हुआ कमरा जिसके दरवाजे पर ताला लगा हुआ था। कमरे में दीवारे नहीं बल्कि लोहे की रॉड्स लगी हुई थी और अंदर रखी हुई दर्जन भर मूर्तियां ये बता रही थी कि पत्थर पर बनाई गई उन मूर्तियों में जहां स्थानीय शैली का प्रयोग किया गया है वही यहां रखी गई मूर्तियों में आप गांधार और मथुरा शैलियों का इस्तेमाल भी देख सकते है। इनमें से कई मूर्तियों खंडित है। लेकिन अभी इन मूर्तियों को देख ही रहा था कि संन्यासी ने कहा कि आप आगे कि ओर चले जाईंये ऊपर भी महादेव का मंदिर है। मैं आगे कि ओर बढ़ने लगा कि डीआईजी के साथ जो हांप रहे थे कहा कि अब कितना ऊपर जाएं, यहां तो हर तरफ ही भगवान ही भगवान है। खैर मैं ऊपर की ओर बढ़ चला। इस बार सीढ़ियां नहीं सीधा पहाड़ था और ऊपर जाकर सामने दिखा कि एक शिवलिंग जो बेहद सफाई के साथ तराशा हुआ था दिखाई दे रहा था। उसके पास एक दो छोटी मूर्तियां भी रखी हुई थी। मैं अभी अपना काम करने की सोच ही रहा था कि डीआईजी साहब भी आ गए और अपने हाथ में लिए हुए लाल गुडहल के फूल में से दो फूल मुझे देकर बोले कि ऐसी जगह आप आ ही गए है तो ईश्वर को फूल तो अर्पण कर दीजिए। और अचरज से बाहर निकलने की कोशिशों में डूबे हुए मैंने फूल शिवलिंग को अर्पित कर दिए। फिर मैं नीचे की ओर ऊतरा तो पता चला कि वो सीता कुंड था जहां से हम पहले गुजरे। मैं सिक्योरिटी गार्ड से पूछ रहा था कि और नीचे भी मूर्तियां है तो उस युवा और सौम्य गार्ड ने कहा कि हां सर नीचे गणेश कुंड है। उसमें गणेश जी की बहुत बड़ी प्रतिमा है और साथ में देवी देवता भी है। आप वहां तक तो जाएंगे ही। लेकिन अगर वाकई आप देखना चाहते है तो अंदर जंगल में जाकर देखिये और भी मूर्तियां है जहां कोई भी नहीं जाता। मीडिया वाले अगर कभी आते है तो वो सिर्फ गणेश कुंड से ही वापस चले जाते है। मैंने कहा कि जंगल में कोई जंगली जानवर है क्या। उसने कहा नहीं जानवर तो कोई नहीं लेकिन नदी से जाना पड़ता है, कई बार पानी होता है उसको पार करना होता है। हम सोच ही रहे थे कि उसने कहा सर यदि आप जाना चाहते हो तो मैं साथ चल सकता हूं। और फिर हम चल दिये। कच्चे पक्के रास्ते पर चलते हुए दिख रहा था कि किस तरह का ये घना जंगल है। यहां तो दिन में अंधेरा दिख रहा है शाम ढलने पर क्या लगता होगा। रास्ते में शिल्पकला के उत्स को दिखाती हुई चतुर्मुख शिव की प्रतिमा, गांधर्व , हरि हर, और शिवलिंगों का एक समूह और दिखाई दिया और फिर एक बड़ी शिला भी दिखाई दी जो अक्सर प्राचीन मंदिरों में लगाई जाती थी। शिला पर एक जोड़ा देवी और देवता की मूर्ति थी। इन सबके बीच नदी एक साथ साथ चल रही थी। उसी में दूसरी तरफ एक और जोड़ा मूर्ति दिखाई दे रही थी जिसको जंगल से उठाकर स्थापित किया गया था। पगड़डियों पर चलते हुए जंगल में काली गिलहरी जैसे जानवरों के दर्शन हो रहे थे कई ऐसे पक्षी जो आम तौर पर उत्तरभारत में नहीं दिखते है वहां डालियों पर फुदक रहे थे। फिर वो नदी आ गई। पानी बह रहा था उसको पार करने के लिए पत्थऱ पड़े थे। उन पत्थरों पर पहले नदी के बीच में जाना था और फिर वापस फिसलन भरे पत्थरों पर चलकर वापस इस पार फिर उस पार जाना था। खैर पार कर सामने से देखा तो एक विशालकाय मूर्ति दिख रही थी। और उसके बराबर में एक मूर्ति जो अब बिलकुल क्षरित हो चुकी थी अपनी आकृति दिखा रही थी। इस पार भी ये बना है। क्या पूरे जंगल में इस तरह का और भी शिल्प है। मैं इसी विचार में खोया था क्योंकि इस नदी के रास्ते ही वहां रोशनी पहुंच रही थी नहीं तो पेड़ों ने सूर्य को रास्ता नहीं दिया था। घने पत्तों के उस जंगल में सूर्य की रोशनी को कभी कभी ही जगह मिलती होगी। तभी बांस काटते हुए एक जोड़ा दिखाई दिया। उन लोगों को हमारी दिलचस्पी में जाने क्या दिखा कि उन्होंने बांग्ला और कोकोबराक की मिली जुली भाषा में कुछ कहा। और गार्ड ने आश्चर्य से उनको देखा, मैंने पूछा क्या है तो गार्ड ने कहा कि ये महिला बता रही है आगे एक और जंगल में बड़ी मूर्ति है जो कुछ दिन पहले ही उसको दिखाई दी थी। गार्ड ने फिर क्लियर किया कि क्या बह कर जाने वाली मूर्तियों में से एक तो नहीं लेकिन उसने कहां नहीं वो तो पहाड़ पर ही बनी हुई है। कहां तो गार्ड ने कहा कि वहां कमर तक पानी हो सकता है शायद गार्ड को भी अंदर जाने से कुछ देरी का अहसास था। लेकिन उस महिला ने कहा कि अभी पानी नहीं है सिर्फ एक बार जूते के कुछ ऊपर तक पानी आएँगा। मेरी जिद पर गार्ड और वो जोडा भी साथ चल दिया। कुछ दूर नदी के बीच चलते चलते उस महिला ने ऊपर की ओर इशारा किया। तो देखा हरी काई से भरी हुई एक मूर्ति का ऊपर का हिस्सा साफ दिखाई दे रहा था। वक्ष तक दिखाई दे रहे इस मूर्ति के कुंडल साफ तौर पर दिख रहे थे। मैंने ऊपर जाने की जैसे ही सोची तभी महिला ने अपनी भाषा में गार्ड को कुछ कहा तो गार्ड की आंखों में हैरानी और डर एक साथ उभरा। मैंने फिर पूछा तो पता चला कि वो महिला उस मूर्तिको साफ करने जैसे ही पहुंची थी तो वहां उसको एक लाल रंग का बड़ा सांप मिला और वो और उसका साथी डर कर ऊपर से ही कूद कर भाग लिये और फिर ऊपर नहीं चढ़े। हम लोगों ने भी वापसी की राह ली क्योंकि मूर्ति तो नीचे से दिख ही रही थी। अब वापसी की राह में गार्ड नेबताया कि इस जंगल में अभी भी पूरी तरह से खोजा नहीं गया है कही कही जगह बहुत कुछ पड़ा है लेकिन जो दिख गया बस उसी को उठाकर यहां रखा गया है बाकि के लिए कोई मेहनत नहीं की गई। हम लोग उपर की ओर आ रहे थे कि त्रिदेव के सामने पूजा करा रहे पुजारी जी टकरा गए। पूरेसिर को सिंदूर से रंगे हुए भी बेहद सौम्य दिख रहे पुजारी से मैंने यहां की कहानी पूछी तो हाथ में माईक देख कर हंसने लगे और बांग्ला में ही कुछ कहा । तब गार्ड ने उनको प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ये त्रिपुरा के लिए अच्छा है कि लोग जाने। आप वो बता दो जो लोगों को मालूम है। तब पुरोहित ने बताया कि इसकी दो कहानियां है और ये लोगों में सुनी जाती है। लेकिन कहानी से पहले मैं अपनी इतिहासकार के साथ मुलाकात लिख देता हूं। 
पन्नालाल रॉय आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्वअधिकारी और त्रिपुरा इतिहास के जानकार लोगों में से एक माने जाते है। मैंने उनको अगरतला से बहुत दूर कंचनबाडी में उनके एक रिश्तेदार के यहां मिलने के लिए तैयार कर लिया जहां वो छुट्टी में परिवार के साथ थे। बातचीत हुई तो पता चला कि इतिहास के अनसुलझे रहस्यों में से एक है ऊनाकोटि का ये शिल्प। पन्नालाल के मुताबिक ये अभी तक साफ नहीं है कि इन मूर्तियों को आखिर किसने बनाया और वहां क्यों बनाया, किसके कहने पर बनाया और इस शिल्पकला के शिल्पकार कौन थे। उनका कहना था कि मूर्तियों में ज्यादातर की उम्र को निर्धारित किया गया है तो वो नौंवी शताब्दी की लग रही है। लेकिन उस वक्त यहां मानवबस्तियों से दूर इस घने और खतरनाक जंगल में किसने इनको बनाया इसका कही जिक्र नहीं है। राजतरंगिणी के अलावा दूसरी इतिहास की किताब मानी जाने वाली राजमाला में राजवंशों का जिक्र है लेकिन ऊना कोटि का कोई जिक्र नहीं किया गया। महाभारत काल से लेकिर माणिक्य राजाओं की वंश परंपरा पर रोशनी डालने वाली इस किताब में एक भी शब्द ऊनाकोटि के बारे में न मिलना ये तो साबित करता है कि उनमें से किसी राजवंश ने इनको तैयार करने के लिए नहीं कहा। पाल राजाओं के काल की इन मूर्तियों को बनाने का जिक्र कही नहीं मिला। ऐसे में ये कहानी अब तक अपने रहस्य के खुलने का इतंजार कर रही है। पन्नालाल का कहना है कि अभी इस पर बहुत रिसर्च की जरूरत है क्योंकि उस वक्त तक भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों का हमला नहीं हुआ था कि शिल्पकारों को इतनी गोपनीय जगह जाकर मंदिर के भगवान को बनाना हो। ये सही है उस दौरान वैष्णव संप्रदाय त्रिपुरा में प्रभावी था और शैव मत के साथ चल रहे मतभेद सामने आ रहे थे लेकिन नॉर्थ त्रिपुरा में इस तरह के संघर्ष का कोई इतिहास नहीं रहा ऐसे में उनसे हटकर भी इनको बनाने की कोई वजह समझ में नहीं आती है। यानि ऐसी कई थ्योरिज अभी देखी जा रही है। इनमें कई स्थानीय रिवाजों को दिखाती है और बुद्ध से रिश्ता रखती भी दिखती है लेकिन किसी के नष्ट करने के कोई सबूत नहीं है। इसके साथ ही एक बात और स्थापित होती है कि इन मूर्तियों को बनाएं जाने से पहले यहां कोई एक विशालकाय मंदिर के होने के संकेत मिलते है। हमको याद आया कि वो एक विशालकाय शिला किसी मंदिर का हिस्सा होने का संकेत करती है। 
मूर्तियों को यहां बनाने के लिए प्रचलित मान्यताएं भी है।
पहली मान्यता के मुताबिक एक रात भगवान शिव कैलाश से उतर कर देवी देवताओं के साथ काशी जा रहे थे। काशी के लिए जाते हुए यहां पहुंचने पर रात हो गई। तमाम देवी-देवताओं ने भोले को यही विश्राम करने को कहा लेकिन शिव जल्दी से जल्दी काशी जाना चाहते थे उन्होंने विश्राम करने से मना भी किया लेकिन थके हुए देवी देवताओं की जिद पर उन्होंने एक शर्त रखी। कि सुबह दिन होने से पहले निकलना होगा और जो भी सोता रह जाएंगा वो यही को हो जाएंगा। सबने शर्त स्वीकार कर ली। और सुबह की पहली किरण के साथ भगवान शिव काशी के रास्ते पर निकल लिए।बाकि तमाम देवी देवता गहरी नींद में थे और भौर हो गई। कौंए के बोलने की आवाज के साथ देवी देवताओं की नींद खुली लेकिन तब तक शिव जा चुके थे और तमाम देवी देवता यही पत्थर में तब्दील हो गए।
दूसरे लोकआख्यान के मुताबिक भगवान शिव का परमभक्त कल्लू कुम्हार एक मशहूर शिल्पी था। उसकी शिव में अटल भक्ति थी। वो रोज पूजा करने के वक्त एक ही प्रार्थना करता था कि शिव उसको कैलाश पर जगह दे। इस पर एक दिन पार्वती ने भी भगवान से कहा कि वो कल्लू कुम्हार को कैलाश पर जगह दे सकते है लेकिन शिव ने कहा कि सशरीर कोई मनुष्य कैलाश के विधान मुताबिक नहीं रह सकता है। लेकिन कल्लू की भक्ति से भगवान शिव ने कहा कि यदि वो एक रात में एक करोड़ देवी-देवताओं की मूर्तियां बना दे तो उसको कैलाश पर सशरीर आने का वरदान मिल जाएंगा। कल्लू जो कि शिल्पकला का निष्णात माना जाता था उसने ये चुनौती ले ली। और फिर एक रात उसने इस पहाड़ के पत्थरों को मूर्तियों में ढालना शुरू कर दिया। भोर की पहली किरण से ठीक पहले उसको लगा कि मूर्तियों की संख्या एक करोड़ हो गई और जैसे ही उसने अपने औजार रखे कि भोर हो गई।मूर्तियों की गिनती हुई और पता चला कि कोटि नहीं बल्कि मूर्तियों की संख्या ऊनाकोटि है। यही ऊनाकोटी है। (सभी खूबसूरत फोटो- सौमित्र घोष)

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