सिर्फ ताले पर नहीं इस पर बने हुए हिंदुस्तान पर भी जंग लग रहा है। कमरा बंद करने से किस्से बंद कहां होगे। कुछ दिन बाद ये निशानियां खो जाएंगी, किसको महात्मा याद आएंगे। .....दांडी यात्रा ...8
इस कमरे पर लगे हुए ताले पर नजर टिक कर जैसे हट ही नहीं रही थी। जंग ताले पर था और जराजीर्ण रिश्ते दिख रहे थे। नवागाम में एक बेहद गंदगी से भरे हुए माहौल में इस कमरे के बाहर खड़ा होना मुझे कुछ कहने से भी रोक रहा था। लेकिन महात्मा को इस जगह से प्यार था। जिंदा भी और शहादत के बाद भी इस जगह से तो महात्मा का ऐसा रिश्ता बना हुआ था कि टूट ही नहीं रहा है। ये गांव, ये राजनेता, ये देश और हम सब रिश्तें को खत्म करने पर आमादा है लेकिन किसी पेड़ से जुड़ी लचकती हुई डाल की तरह से रिश्ता टूट नहीं रहा । ये ही गांधी जी का रिश्ता है देश के साथ, हम तोड़ने में जुटे है और वो लचक कर कह रहा है कि मैं तुम्हारे लिए ही हूं, साथ रहने दो अंधेरे में काम हौंसला दूंगा।
बरेजा को पार करने के बाद गांव के बाहर मेन रोड़ पर आएं तो फिर से सरकार की दांडी को लेकर की गई सरकारी पैसों की बरसात दिखने लगी। फिर से नारों में दांडी दिखने लगी। बरेजा से आगे नवागाम रोड़ पर चर्खे से सजे हुए मील के पत्थर दिखने लगे। किनारे पर पीले रंग से रात में लाईट पर चमकने वाले दांडी पथ के स्टीकर लगे हुए पोल भी दिखने लगे। और बीच रोड़ पर बने हुए बडे साईनबोर्ड जिन पर दांडी पथ लिखा हुआ था दिखने लगे। बरेजा पार करते ही गांधी खेड़ा जिले में आ चुके थे। हम लोग भी दांडी यात्रा का पीछा करते हुए गांधी जी के दिल के बहुत करीब इस जिले में पहुंच गए। गांधी जी के रिश्तों को देखते हुए लगा कि यहां से दांडी पथ पर श्रद्धा सुमन के साथ स्मृति चिन्हों से गांधी जी की खुशबू मिल रही होगी। मुख्य मार्ग पर आपको एक तरफ घर दिखेगे तो सामने एक स्कूल पर बड़ा सा बोर्ड दिखता है जो गांधी और स्कूल के रिश्तों की बात करता सा दिखता है।
गाड़ी रोकी। स्कूल के अंदर चला गया। स्कूल में परीक्षा का माहौल था। हाथ में माईक देखकर बच्चों को आसानी से अंदाजा हो गया कि मैं किसी चैनल से जुड़ा हुआ हूं। स्वाभाविक उत्सुकता के साथ बच्चों ने घेर लिया। मैंने बच्चों से पूछा कि क्या यहां गांधी जी रूके थे ?। बच्चों ने कहा... हां गांधी जी की मूर्ति है। किस तरफ है ?। उन्होंने एक तरफ हाथ उठा दिया। एक शिक्षक दिखाई दिए तो उनसे भी मैंने जानकारी हासिल करने के लिए यही सवाल पूछा पूछा उन्होंने कहा कि हां यहां एक हाल्ट हुआ था उस तरफ बोर्ड पर लिखा हुआ है आप देख सकते है। मैं बोर्ड की ओर चल दिया। सामने पार्क में गांधी जी की एक मूर्ति लगी हुई थी। मूर्ति को बेहद सादगी के साथ तैयार किया गया था। महात्मा गांधी के भाव चेहरे से उमड़ते हुए दिखते थे और गांधी जी चादर की परतें भी उस पर दिखती थी। लेकिन निर्माण कार्य चल रहा था और पूरी मूर्ति धूल से भरी हुई थी। गले में एक माला जो सूत से तैयार की गई थी पहनाई गई थी। इस यात्रा में ये पहली बार गांधी जी के गले में सूत से बनी हुई माला दिखी इससे पहले पोरबंदर में गांधी जी के घर के सामने बनी हुई मूर्ति पर सूखे हुए फूलों की माला जरूर दिखी थी। मैं अभी मूर्ति के सामने खड़ा हुआ देख ही रहा था कि सामने से एक सज्जन आएँ।और पूछा कि आप कौन है और कहां से आएं है। मैंने अपना परिचय दिया। वो स्कूल के हैड थे। उन्होंने एक बेहद गंदी सी दीवार पर लगी हुई एक धुंधली सी पट्टिका की ओर इशारा किया। पट्टिका पर लिखा था कि पूजनीय महात्मा गांधी ने दांडी मार्च के दौरान अपने अनुयायियों के साथ यहां प्रार्थना की थी। बेहद गंदी दीवार, उस पर टूटा हुआ प्लॉस्टर और धुंधली होती महात्मा की कहानी। मूर्ति और पट्टिका में सफाई पर मैं अभी कुछ बोल ही रहा था कि उन्होंने पहले से ही कह दिया कि अभी स्कूल में काम चल रहा है। मैं चाह कर भी ये नहीं बोल पाया कि महात्मा तो 61 साल की उम्र में अपना बोझ उठा कर इस यात्रा को खुद से तय कर रहे थे और आप स्कूल के बच्चों को महात्मा की मूर्ति साफ करना भी नहीं सिखा सके। स्कूल में इतने बच्चे है अगर क्रमवार किसी को भी कह देंगे तो वो अपने क्रम से महात्मा की मूर्ति को साफ कर सकते है कम से कम दिन में दो बार तो कर ही सकते है। लेकिन ये कहने से पहले दीवार पर नजर चली गई। इस स्कूल को बनाने वाले भी स्वतंत्रता सेनानी ही थे और दीवार पर उनके नाम के लिए एक बड़ी सी पत्थर की पट्टिका था और उस पर उनका योगदान काफी विस्तार से अंकित था।
स्कूल से थोड़ा सा आगे गांव पहुंचा। गांव में मेन रोड़ पर बैठने का एक छायादार गोल स्थान बना हुआ था। पत्थरों की बेंचों पर बैठे हुए बुजुर्ग आपस में चुनाव की चर्चा में डूबे हुए थे। मैंने नमस्कार कर गांव और गांधी की रिश्ते की कहानी पूछी तो उन्होंने सड़क के सामने एक स्कूल की ओर इशारा कर दिया कि गांधी जी वही रूके थे... शायद। मैं कुछ और सुनना चाह था और वो इस तरह से सुनाने के लिए तैयार नहीं थे। लिहाजा मैं सड़क के दूसरी ओर चला गया। एक दरवाजे के अंदर घुसते ही उल्टे हाथ पर एक नया बना हुआ भवन दिख रहा था। ये बाहर से दिख रहा था। अंदर बड़ा सा मैदान था। सामने टूटा-फूटास्कूल का भवन। जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे पढ़ने जैसी एक कसरत को करने के लिए रोज आते है। मास्टर किसी को अपनी कहानी सुनाने गये होगे। लिहाजा बच्चें मैदान में अपने हिस्से की धूप को हासिल कर रहे थे। और फिर एक ऐसे आदमी को देखकर जिसके साथ एक कैमरा वाला भी है उनकी उत्सुकता काफी प्रखर हो चली थी। मैंने एक दो सवाल पूछ लिए रस्मी तौर पर। क्योंकि उत्तर मुझे मालूम था। ये सिर्फ मां-पिता की उस इच्छा को पूरी करने आएं है जो इन्हें साक्षर करने के लिए रात दिन मैदानों में खेतों में और सड़कों पर खट रहे है। सरकारी रजिस्टरों में इन्होंने अपना नाम दर्ज करा लिया है और मिड डे मिल और सरकारी किताबों, बस्तों और ड्रैस जैसे नारों को लिखने के लिए इश्तेहार बनने आते है। सामने भगवान का मंदिर था। इधर महात्मा का मंदिर था। लेकिन अंदर घुसते ही मितली सी आ गई। इतनी गंदगी। जाने क्या क्या सामान भरा पड़ा हुआ था। गंदगी से अटा हुआ ये कमरा महात्मा का नया बनाया हुआ मंदिर था। किस लिए बनाया था और क्यों बनाया था इस तरह के सवाल बचपन में हरचरना पूछ सकता था लेकिन वो फटे पुराने सुत्तने के साथ तिरंगे को सलामी देने चला गया था। कमरे में अंदर की गंदगी पार करने के बाद आपको एक बाथरूमनुमा हि्स्सा दिखेगा जहां कमोड़ तो नहीं दिखा लेकिन कमोड़ की सीट टूटी पड़ी थी। मैं बाहर आया। बराबर वाले कमरे में ताला जड़ा था। शायद स्कूल का कुछ सामान था। बच्चे मास्टर जी को खोजने जा चुके थे। इस तरह से दोनों एक खोज में लग चुके थे। मंदिर में एक युवा जोड़ा आया था। मैंने बाईक सवार से पूछा कि यहां महात्मा गांधी से जुड़ी कोई स्मारिका कही लगी है तो उसने कहां कि उसको अभी ये ही मालूम नहीं कि यहां महात्मा जी से कोई इस जगह का रिश्ता है। मंदिर के बराबर में अधबना सा कुछ खड़ा था। तभी एक पुराने से सज्जन आएँ।उन्होंने कहा कि इस पर गांधी की मूर्ति लगनी है। अभी टाईल्स भी नहीं लगी है। क्योंकि इस जगह के पीछे वो जगह है जहां महात्मा गांधी जी ने रात गुजारी थी। उस जगह को पूछा तो उसने कहा कि हठीले हनुमान जी का मंदिर है उसके सामने का कमरा गांधी जी के रूकने की जगह थी। अब महात्मा जी के रूकने का कमरा तो बंद हो गया। वो एक छोटा सा कमरा था और जगह भी बहुत छोटी थी लिहाजा इस जगह महात्मा मंदिर बना दिया गया है ताकि आने वाले को इसके बारे में बताया जा सके। कही कोई जानकारी नहीं थी कि महात्मा मंदिर क्यों बनाया गया है, और महात्मा गांधी कहां रूके थे। मैं आगे की ओर चला तो पहले एक छोटा सा कमरा दिखा जिसमें से एक बच्चा अपने बाल संवारता हुआ हाथ में शीशा और कंघा लेकर बाहर निकला। ये परिवार एक मजदूर का परिवार था। बच्चे के कपड़ों से पता चल रहा था कि वो स्कूल जाने की तैयारी में है। मैंने पूछा तो बराबर में एक छोटा सा रास्ता दिखा दिया। उस जगह पर गुजराती में कुछ लिखा था और लोहे के दरवाजे लगे थे। इस वक्त खुले थे तो मैं अंदर चला गया। सामने एक छोटा सा दालान दिखा जिसके एक तरफ कमरा तो सामने ठीक हनुमान जी का मंदिर था। हठीले हनुमान जी शायद इसी तरह से उस शखस ने बताया था ये भी एक संयोग था कि एक तरफ भगवान भी हठी के तौर पर प्रसिद्ध तो सामने ऐसे भक्त का कमरा जिसकी राम पर हनुमान जी के बराबर नहीं तो किसी तरह कम श्रद्धा भी नहीं थी। और वो भी अपनी जिद पर इतने हठी कि दुनिया की ताकत से एक छोटी सी लाठी के सहारे चलते हुए टकराने निकल पड़े। अजब सी बात जाने किसने इन हनुमान मंदिर को हठीले हनुमान के तौर पर पुकारा होगा और क्यों मालूम नहीं।
कमरे पर ताला लगा था। ताले पर भारत का नक्शा बना हुआ था और ताले पर जंग लग चुका था।। जंग लगे हुए ताले पर भारत का जंग लगा हुआ नक्शा, वही नक्शा जिसको एक देश बनाने में लगा हुआ एक बूढ़ा आदमी 78 जवानों के साथ इस जगह पर रूक कर गुजरा था। खिड़की से झांका तो एक स्मारक पट्टिका लगी हुई दिखाई दी। धुंधली सी थी। अंदर जाले लगे हुए थे। और कमरे का फर्श कच्चा था कभी उस पर सीमेंट हुआ होगा ये कुछ कुछ जगह दिख रहा था। मैंने उसी घर के दरवाजे पर खड़े होकर पूछा कि भाई ये ताला किसका है। वही बच्चा बाहर आया। उसने कहा कि मां से पूछना होगा। वो कहां तो पता चला कि मजदूरी करने गई है। ये मुझे परेशान करने वाली थी क्योंकि मेरे पास समय भी कम था। मैंने पूछा कहां ? । राहत हुई कि बराबर में जो कॉपरेटिव का खाद स्टोर है वही वो बोझा उतारती है। मैं बच्चे को साथ लेकर वहां पहुंचा तो पता चला कमरे की चाबी एक फलां आदमी के पास है। और वो सुपरवाईजर है। जो गांव के अंदर रहता है। मैंने उस जगह पर खड़े हुए हैड को परिचय दिया। उसने मदद के तौर पर एक आदमी को साईकिल पर चाबी लाने के लिए भेजा।( गुजरात में आदमियों की मदद करने की कोई सीमा नहीं है। वो लोग हर पल मदद करने के लिए तैयार रहते है ये मेरा पूरे गुजरात को घूमने के बाद आया हुआ निष्कर्ष है।) कुछ पलों तक मैं आस-पास देखता रहा। एक और तालाब को समुद्र सोख से सूखते हुए। उस मायावी हरियाली में अपने लिए मछलियों को तलाशते हुए बगुले की मेहनत। फिर उन्हीं बूढों के पास जा बैठा। गांधी जी के बारे में बात करना शुरू किया तो पता चला कि वो वहां फैली हुई गंदगी से बहुत नाराज है। सरकार गंदगी साफ नहीं करती है। इस सरकार को थोड़ा ठीक करना पड़ेगा। उस यात्रा में जब गांधी जी रूके थे तो गांवों की बहुत भीड़ जमा हुई थी। खेडा जिला सरदार पटेल के खेड़ा सत्याग्रह का भी केन्द्र रहा था इस बात को भी वो एक कहानी के तौर पर जानते थे। मैं समय का सदुपयोग करना चाह रहा था तो पता चला कि यहां किसान अब काफी परेशाना है हालांकि जमीनों की कीमतें आसमान पर है लेकिन मजदूरी नहीं मिलती है। इसी बीच वो शख्स चाबी लेकर आ गया। और मैं फिर उस कमरे की ओर चल दिया। जंग लगे हुए ताले को खोलना एक मशक्कत का काम है। ताला खुला तो जैसे एक पन्ना खुल गया। दरवाजे के एक दम सामने दायी और एक बड़ी सी पत्थऱ की पट्टिका लगी हुई थी और उस पर गुजराती में लिखा हुआ था. कमरे में पीछे की ओर एक ओर खिड़की थी लेकिन अब वो ईंटों से बंद कर दी गई। पूरे कमरे में जाले भरे हुए थे। ये स्कूल की क्लॉस थी। बहुत दिन तक चली। बच्चों ने इस कमरे में चहल-पहल से कमरे को गुंजाया होगा। लेकिन फिर स्कूल को आगे दूसरे भवन में भेज दिया गया तो ये कमरा अकेला हो गया। पूरे कमरे की दीवारों पर दीमक ने अपना घर बना लिया था। बोर्ड इतना काला पड़ चुका था कि काले अक्षरों को उस पर पढ़ना और भी मुश्किल हो रहा था। मेरे ड्राईवर नानू भाई ने और उस शख्स ने मेरी मुश्किल आसान की, तो पता चला कि इस कमरे में महात्मा सिर्फ जिंदा ही नहीं बल्कि अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थि कलश को भी एक रात रखा गया था।
पत्थर पर लिखा था कि पूजनीय महात्मा गांधी ने 1918 के खेड़ा सत्याग्रह के दौरान इस कमरे में कई दिन गुजारे थे।लोगों को सत्याग्रह में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था और 13 मार्च 1930 की रात इस कमरे में उन्होंने अपना रात्रि विश्राम किया था। और फिर माही सागर में सिलाने के लिए उनकी राख के अस्थि कलश को इस कमरे में एक रात के लिए रखा गया था। पता नहीं क्यों लग रहा था कि इस कमरे में बैठकर महात्मा ने जो भाषण दिया था उसको एक बार फिर सुनना चाहिए शायद कुछ रास्ता मिल जाता।
(उस दिन की बात) महात्मा ने इस मार्च के शुरूआत में ही ये साफ किया था कि वो इस मार्च में सिर्फ अपने आश्रम के सहयोगियों को साथ रखेंगे तो इसका एक बड़ा कारण 13 साल से साबरमति में अनुशासन के लिए कड़ाई से काम कर रहे गांधी अपनी शक्ति को परखना चाहते थे। अपनी आवाज में वो करनी से पैदा हुई ताकत को आजमा रहे थे। हिंदुस्तान के लाखों गांवों को बेआवाज मानकर गुलाम, सैनिक या फिर अनाज पैदा करने वाली इंसानी आकृतियां मान रहे समाज से वो चेतना की आवाज चाहते और उनको आवाज मिल रही थी। बरेजा से निकल कर महात्मा जब यहां पहुंचे थे तो गांव के लोग ढोल. ताशों और नगाड़ों के साथ स्वागत के लिए तैयार खड़े थे। ये गांव महात्मा का गांव था। अंग्रेजी शासन की नजर में विद्रोही किसानों का गांव था जो आसानी से महात्मा की एक आवाज पर उनके साथ खड़े हो जाते थे। दशक पुराने रिश्तों के सहारे ये गांव अपने को महात्मा की कुटिया का एक तृण मानता था।बरेजा से निकले गांधी को गांव की इसी जगह पर रूकना था लेकिन आज जहां स्कूल है वो जगह खेतों से भरी थी। रास्ते में ही वक्त हो चला था शाम की प्रार्थना का। महात्मा ने अपनी घड़ी देखी और फिर वही रूक कर प्रार्थना करने के लिए कहा। तमाम लोग खेत के उस हिस्से में रूक गए जहां आज एक स्कूल खड़ा है। गांव के लोग गांधी जी की जय, सरदार की जय के नारों के साथ खेत में प्रार्थना करते हुए एक महात्मा को देख रहे थे। ऐसा महात्मा जो इंसानों को ही भगवान मानता था। किसान और गरीब की जिंदगी में बदलाव की लड़ाई उनके सहारे लड़ने की कोशिशों में ये बूढ़ा शख्स लड़ रहा था।
प्रार्थना के बाद आगे बढ़ कर महात्मा गांधी गांव पहुंच गए थे। इस जिले में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी की बहुत चर्चा थी क्योंकि इसी जिले के कलेक्टर ने सरदार को गिरफ्तार किया था तो लग रहा था कि महात्मा की गिरफ्तारी यहां हो सकती है। लेकिन आंशकाओं और अफवाहों से मुक्त महात्मा गांधी अपने रंग में थे। शाम से ही इस इलाके के लोग जो सरकारी नौकरियों में अपने इस्तीफे महात्मा गांधी के पैरों में रखने का इंतजार कर रहे थे। आंदोलनकारी उत्साह से लबरेज थे क्योंकि यहां काफी संख्या में लोग स्वयंसेवक बनने के लिए थे और साथ ही सरकारी सेवा से इस्तीफा देने वाले भी लोग लाईन में लगे थे। सब को लग रहा था कि आंदोलन ने भारत की आत्मा को जगाने में सफलता हासिल करनी शुरू कर दी। लेकिन महात्मा किसी और चिंतन में थे। वो अपनी हड्डियों को गला कर ऐसे वृज को तैयार कर रहे थे जिसमें लेशमात्र भी झूठ और धोखे की मिलावट न हो।रात के लगभग 8 बज चुके थे। पंडित खरे ने हमेशा की तरह संगीतमय भजनों के साथ प्रार्थना की। महात्मा गांधी की जय और सरदार पटेल की जय के नारों के बीच महात्मा गाधी ने अपना संबोधन शुरू किया। गांधी जी ने भाषण में सरदार पटेल की गिरफ्तारी और इस जिले से अपने पुराने मधुर रिश्तों का जिक्र किया। महात्मा गांधी ने भीड़ से कहा कि लड़ाई के लिए पैसा और सरकारी लोगों के इस्तीफे चाहिए लेकिन उससे भी ज्यादा आगे की लड़ाई के लिए स्वयंसेवक चाहिए। यानि नमक सत्याग्रह की आगे की लडाई के लिए सेनानी। किसी भी उम्र के लोग महिलाएं, पुरूष, बच्चे बूढे या जवान कोई भी तमाम लोग इस अपनी शक्ति के साथ इस लड़ाई में शामिल हो सकते है।
महात्मा ने आजादी के अपने ख्वाब को लोगों से साझा किया, एक ऐसी आजादी का सपना जहां सबसे पिछली कतार का आदमी भी आगे पहुंच सके। अखबारों और अफवाहों के माध्यम से ये बात गांधी तक पहुंच चुकी थी कि रास्ते में आने वाले गांवों के लोग मतदार, पटेल या पुलिस पटेल पर दबाव बना कर नौकरी से इस्तीफे दिलवा रहे है। इस पर गांधी जी नाराज हो गए। फिर उन्होंने पुलिस पटेल, मतदार और दूसरे तमाम लोग जो इस्तीफा देने आएं थे उनसे खुद बात की। और इस तरह के काम को इस लडाई के लिए फरेब का नाम दिया।
मैं आप सब लोगों को इस्तीफा देने के लिए बधाई देता हूं। लेकिन आप लोगों ने अगर ये इस्तीफे किसी दबाव में दिए है तो मैंआपसे आग्रह करता हूं कि आप अपने इस्तीफे वापस ले, और मुझे इस बात से कोई दुख नहीं होगा बल्कि मैं आप लोगों का उन लोगों से बचाव भी करूंगा जो आप पर इस तरह से इस्तीफे देने के लिए दबाव बना रहे है। ये लड़ाई सच पर आधारित है, मैं ऐसी कोई विजय नहीं चाहता हूं जो इसके अतिरिक्त किसी और पर टिकी हो। अपने शब्दों पर टिके रहना चाहिए। महात्मा गांधी जी ने रामचरित मानस की प्रसिद्ध चौंपाई " रघुकुल रीत सदा चली आ प्राण जाए पर वचन न जाई।" का जिक्र करते हुए कहा कि आप लोग इस बात को सुने, सोचे और स्वीकार करे कि अगर आप सरकारी सेवा से इस्तीफा देने के लिए स्वेच्छा से तैयार नहीं है तो निडर होकर अपना इस्तीफा वापस ले। खेडा ने हमेशा मुझे प्यार दिया है और वादा भी कि कभी वो मुझे किए वादों से नहीं फिरेगे। मैं इस्तीफा देने की पेशकश से पीछे हटने वालों को बहादुर आदमी के तौर पर स्वीकार करूंगा अगर वो भय या दबाव से इस्तीफा दे रहे है और अब वापस ले। क्योंकि इस लड़ाई को सिर्फ सच के हथियार से लड़ना है। झूठ का एक भी कण नहीं शामिल होना है।
इस पर वहां मौजूद मुखिया और सात मतदारों ने गांधी जी बताया कि वो स्वेच्छा से इस लड़ाई में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे रहे है। गांव की ओर से महात्मा गांधी को 125 रूपये भेट दिये गए। नवागाम से ही मार्च में लाए गए घोड़े को भी वापस मालिक चीनूभाई के पास भेज दिया गया। क्योंकि महात्मा के आत्मबल ने उनकी शारीरिक इच्छाशक्ति को अंनत कर दिया था और वो जानते थे कि इस घोड़े की उनको जरूरत नहीं पड़ने वाली है। एक अखबार ने इस घोड़े के लिए भी लिखा था कि भारत की पुरानी प्रथा के मुताबिक राजसूय यज्ञ के लिए एक सवार रहित घोड़े को छोड़ दिया जाता और राजकुमार अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में इस घोडे के साथ चलते थे महात्मा गांधी ने अपनी इस अनूठी लड़ाई के लिए उस पौरोणिक मान्यता को देखते हुए इस घोड़े को साथ लिया है। (फोटो -सौमित्र)
(चलते है अगले पड़ाव की ओर।सच की कुछ और परतों में उतराते हुए।)
बरेजा को पार करने के बाद गांव के बाहर मेन रोड़ पर आएं तो फिर से सरकार की दांडी को लेकर की गई सरकारी पैसों की बरसात दिखने लगी। फिर से नारों में दांडी दिखने लगी। बरेजा से आगे नवागाम रोड़ पर चर्खे से सजे हुए मील के पत्थर दिखने लगे। किनारे पर पीले रंग से रात में लाईट पर चमकने वाले दांडी पथ के स्टीकर लगे हुए पोल भी दिखने लगे। और बीच रोड़ पर बने हुए बडे साईनबोर्ड जिन पर दांडी पथ लिखा हुआ था दिखने लगे। बरेजा पार करते ही गांधी खेड़ा जिले में आ चुके थे। हम लोग भी दांडी यात्रा का पीछा करते हुए गांधी जी के दिल के बहुत करीब इस जिले में पहुंच गए। गांधी जी के रिश्तों को देखते हुए लगा कि यहां से दांडी पथ पर श्रद्धा सुमन के साथ स्मृति चिन्हों से गांधी जी की खुशबू मिल रही होगी। मुख्य मार्ग पर आपको एक तरफ घर दिखेगे तो सामने एक स्कूल पर बड़ा सा बोर्ड दिखता है जो गांधी और स्कूल के रिश्तों की बात करता सा दिखता है।
गाड़ी रोकी। स्कूल के अंदर चला गया। स्कूल में परीक्षा का माहौल था। हाथ में माईक देखकर बच्चों को आसानी से अंदाजा हो गया कि मैं किसी चैनल से जुड़ा हुआ हूं। स्वाभाविक उत्सुकता के साथ बच्चों ने घेर लिया। मैंने बच्चों से पूछा कि क्या यहां गांधी जी रूके थे ?। बच्चों ने कहा... हां गांधी जी की मूर्ति है। किस तरफ है ?। उन्होंने एक तरफ हाथ उठा दिया। एक शिक्षक दिखाई दिए तो उनसे भी मैंने जानकारी हासिल करने के लिए यही सवाल पूछा पूछा उन्होंने कहा कि हां यहां एक हाल्ट हुआ था उस तरफ बोर्ड पर लिखा हुआ है आप देख सकते है। मैं बोर्ड की ओर चल दिया। सामने पार्क में गांधी जी की एक मूर्ति लगी हुई थी। मूर्ति को बेहद सादगी के साथ तैयार किया गया था। महात्मा गांधी के भाव चेहरे से उमड़ते हुए दिखते थे और गांधी जी चादर की परतें भी उस पर दिखती थी। लेकिन निर्माण कार्य चल रहा था और पूरी मूर्ति धूल से भरी हुई थी। गले में एक माला जो सूत से तैयार की गई थी पहनाई गई थी। इस यात्रा में ये पहली बार गांधी जी के गले में सूत से बनी हुई माला दिखी इससे पहले पोरबंदर में गांधी जी के घर के सामने बनी हुई मूर्ति पर सूखे हुए फूलों की माला जरूर दिखी थी। मैं अभी मूर्ति के सामने खड़ा हुआ देख ही रहा था कि सामने से एक सज्जन आएँ।और पूछा कि आप कौन है और कहां से आएं है। मैंने अपना परिचय दिया। वो स्कूल के हैड थे। उन्होंने एक बेहद गंदी सी दीवार पर लगी हुई एक धुंधली सी पट्टिका की ओर इशारा किया। पट्टिका पर लिखा था कि पूजनीय महात्मा गांधी ने दांडी मार्च के दौरान अपने अनुयायियों के साथ यहां प्रार्थना की थी। बेहद गंदी दीवार, उस पर टूटा हुआ प्लॉस्टर और धुंधली होती महात्मा की कहानी। मूर्ति और पट्टिका में सफाई पर मैं अभी कुछ बोल ही रहा था कि उन्होंने पहले से ही कह दिया कि अभी स्कूल में काम चल रहा है। मैं चाह कर भी ये नहीं बोल पाया कि महात्मा तो 61 साल की उम्र में अपना बोझ उठा कर इस यात्रा को खुद से तय कर रहे थे और आप स्कूल के बच्चों को महात्मा की मूर्ति साफ करना भी नहीं सिखा सके। स्कूल में इतने बच्चे है अगर क्रमवार किसी को भी कह देंगे तो वो अपने क्रम से महात्मा की मूर्ति को साफ कर सकते है कम से कम दिन में दो बार तो कर ही सकते है। लेकिन ये कहने से पहले दीवार पर नजर चली गई। इस स्कूल को बनाने वाले भी स्वतंत्रता सेनानी ही थे और दीवार पर उनके नाम के लिए एक बड़ी सी पत्थर की पट्टिका था और उस पर उनका योगदान काफी विस्तार से अंकित था।
स्कूल से थोड़ा सा आगे गांव पहुंचा। गांव में मेन रोड़ पर बैठने का एक छायादार गोल स्थान बना हुआ था। पत्थरों की बेंचों पर बैठे हुए बुजुर्ग आपस में चुनाव की चर्चा में डूबे हुए थे। मैंने नमस्कार कर गांव और गांधी की रिश्ते की कहानी पूछी तो उन्होंने सड़क के सामने एक स्कूल की ओर इशारा कर दिया कि गांधी जी वही रूके थे... शायद। मैं कुछ और सुनना चाह था और वो इस तरह से सुनाने के लिए तैयार नहीं थे। लिहाजा मैं सड़क के दूसरी ओर चला गया। एक दरवाजे के अंदर घुसते ही उल्टे हाथ पर एक नया बना हुआ भवन दिख रहा था। ये बाहर से दिख रहा था। अंदर बड़ा सा मैदान था। सामने टूटा-फूटास्कूल का भवन। जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे पढ़ने जैसी एक कसरत को करने के लिए रोज आते है। मास्टर किसी को अपनी कहानी सुनाने गये होगे। लिहाजा बच्चें मैदान में अपने हिस्से की धूप को हासिल कर रहे थे। और फिर एक ऐसे आदमी को देखकर जिसके साथ एक कैमरा वाला भी है उनकी उत्सुकता काफी प्रखर हो चली थी। मैंने एक दो सवाल पूछ लिए रस्मी तौर पर। क्योंकि उत्तर मुझे मालूम था। ये सिर्फ मां-पिता की उस इच्छा को पूरी करने आएं है जो इन्हें साक्षर करने के लिए रात दिन मैदानों में खेतों में और सड़कों पर खट रहे है। सरकारी रजिस्टरों में इन्होंने अपना नाम दर्ज करा लिया है और मिड डे मिल और सरकारी किताबों, बस्तों और ड्रैस जैसे नारों को लिखने के लिए इश्तेहार बनने आते है। सामने भगवान का मंदिर था। इधर महात्मा का मंदिर था। लेकिन अंदर घुसते ही मितली सी आ गई। इतनी गंदगी। जाने क्या क्या सामान भरा पड़ा हुआ था। गंदगी से अटा हुआ ये कमरा महात्मा का नया बनाया हुआ मंदिर था। किस लिए बनाया था और क्यों बनाया था इस तरह के सवाल बचपन में हरचरना पूछ सकता था लेकिन वो फटे पुराने सुत्तने के साथ तिरंगे को सलामी देने चला गया था। कमरे में अंदर की गंदगी पार करने के बाद आपको एक बाथरूमनुमा हि्स्सा दिखेगा जहां कमोड़ तो नहीं दिखा लेकिन कमोड़ की सीट टूटी पड़ी थी। मैं बाहर आया। बराबर वाले कमरे में ताला जड़ा था। शायद स्कूल का कुछ सामान था। बच्चे मास्टर जी को खोजने जा चुके थे। इस तरह से दोनों एक खोज में लग चुके थे। मंदिर में एक युवा जोड़ा आया था। मैंने बाईक सवार से पूछा कि यहां महात्मा गांधी से जुड़ी कोई स्मारिका कही लगी है तो उसने कहां कि उसको अभी ये ही मालूम नहीं कि यहां महात्मा जी से कोई इस जगह का रिश्ता है। मंदिर के बराबर में अधबना सा कुछ खड़ा था। तभी एक पुराने से सज्जन आएँ।उन्होंने कहा कि इस पर गांधी की मूर्ति लगनी है। अभी टाईल्स भी नहीं लगी है। क्योंकि इस जगह के पीछे वो जगह है जहां महात्मा गांधी जी ने रात गुजारी थी। उस जगह को पूछा तो उसने कहा कि हठीले हनुमान जी का मंदिर है उसके सामने का कमरा गांधी जी के रूकने की जगह थी। अब महात्मा जी के रूकने का कमरा तो बंद हो गया। वो एक छोटा सा कमरा था और जगह भी बहुत छोटी थी लिहाजा इस जगह महात्मा मंदिर बना दिया गया है ताकि आने वाले को इसके बारे में बताया जा सके। कही कोई जानकारी नहीं थी कि महात्मा मंदिर क्यों बनाया गया है, और महात्मा गांधी कहां रूके थे। मैं आगे की ओर चला तो पहले एक छोटा सा कमरा दिखा जिसमें से एक बच्चा अपने बाल संवारता हुआ हाथ में शीशा और कंघा लेकर बाहर निकला। ये परिवार एक मजदूर का परिवार था। बच्चे के कपड़ों से पता चल रहा था कि वो स्कूल जाने की तैयारी में है। मैंने पूछा तो बराबर में एक छोटा सा रास्ता दिखा दिया। उस जगह पर गुजराती में कुछ लिखा था और लोहे के दरवाजे लगे थे। इस वक्त खुले थे तो मैं अंदर चला गया। सामने एक छोटा सा दालान दिखा जिसके एक तरफ कमरा तो सामने ठीक हनुमान जी का मंदिर था। हठीले हनुमान जी शायद इसी तरह से उस शखस ने बताया था ये भी एक संयोग था कि एक तरफ भगवान भी हठी के तौर पर प्रसिद्ध तो सामने ऐसे भक्त का कमरा जिसकी राम पर हनुमान जी के बराबर नहीं तो किसी तरह कम श्रद्धा भी नहीं थी। और वो भी अपनी जिद पर इतने हठी कि दुनिया की ताकत से एक छोटी सी लाठी के सहारे चलते हुए टकराने निकल पड़े। अजब सी बात जाने किसने इन हनुमान मंदिर को हठीले हनुमान के तौर पर पुकारा होगा और क्यों मालूम नहीं।
कमरे पर ताला लगा था। ताले पर भारत का नक्शा बना हुआ था और ताले पर जंग लग चुका था।। जंग लगे हुए ताले पर भारत का जंग लगा हुआ नक्शा, वही नक्शा जिसको एक देश बनाने में लगा हुआ एक बूढ़ा आदमी 78 जवानों के साथ इस जगह पर रूक कर गुजरा था। खिड़की से झांका तो एक स्मारक पट्टिका लगी हुई दिखाई दी। धुंधली सी थी। अंदर जाले लगे हुए थे। और कमरे का फर्श कच्चा था कभी उस पर सीमेंट हुआ होगा ये कुछ कुछ जगह दिख रहा था। मैंने उसी घर के दरवाजे पर खड़े होकर पूछा कि भाई ये ताला किसका है। वही बच्चा बाहर आया। उसने कहा कि मां से पूछना होगा। वो कहां तो पता चला कि मजदूरी करने गई है। ये मुझे परेशान करने वाली थी क्योंकि मेरे पास समय भी कम था। मैंने पूछा कहां ? । राहत हुई कि बराबर में जो कॉपरेटिव का खाद स्टोर है वही वो बोझा उतारती है। मैं बच्चे को साथ लेकर वहां पहुंचा तो पता चला कमरे की चाबी एक फलां आदमी के पास है। और वो सुपरवाईजर है। जो गांव के अंदर रहता है। मैंने उस जगह पर खड़े हुए हैड को परिचय दिया। उसने मदद के तौर पर एक आदमी को साईकिल पर चाबी लाने के लिए भेजा।( गुजरात में आदमियों की मदद करने की कोई सीमा नहीं है। वो लोग हर पल मदद करने के लिए तैयार रहते है ये मेरा पूरे गुजरात को घूमने के बाद आया हुआ निष्कर्ष है।) कुछ पलों तक मैं आस-पास देखता रहा। एक और तालाब को समुद्र सोख से सूखते हुए। उस मायावी हरियाली में अपने लिए मछलियों को तलाशते हुए बगुले की मेहनत। फिर उन्हीं बूढों के पास जा बैठा। गांधी जी के बारे में बात करना शुरू किया तो पता चला कि वो वहां फैली हुई गंदगी से बहुत नाराज है। सरकार गंदगी साफ नहीं करती है। इस सरकार को थोड़ा ठीक करना पड़ेगा। उस यात्रा में जब गांधी जी रूके थे तो गांवों की बहुत भीड़ जमा हुई थी। खेडा जिला सरदार पटेल के खेड़ा सत्याग्रह का भी केन्द्र रहा था इस बात को भी वो एक कहानी के तौर पर जानते थे। मैं समय का सदुपयोग करना चाह रहा था तो पता चला कि यहां किसान अब काफी परेशाना है हालांकि जमीनों की कीमतें आसमान पर है लेकिन मजदूरी नहीं मिलती है। इसी बीच वो शख्स चाबी लेकर आ गया। और मैं फिर उस कमरे की ओर चल दिया। जंग लगे हुए ताले को खोलना एक मशक्कत का काम है। ताला खुला तो जैसे एक पन्ना खुल गया। दरवाजे के एक दम सामने दायी और एक बड़ी सी पत्थऱ की पट्टिका लगी हुई थी और उस पर गुजराती में लिखा हुआ था. कमरे में पीछे की ओर एक ओर खिड़की थी लेकिन अब वो ईंटों से बंद कर दी गई। पूरे कमरे में जाले भरे हुए थे। ये स्कूल की क्लॉस थी। बहुत दिन तक चली। बच्चों ने इस कमरे में चहल-पहल से कमरे को गुंजाया होगा। लेकिन फिर स्कूल को आगे दूसरे भवन में भेज दिया गया तो ये कमरा अकेला हो गया। पूरे कमरे की दीवारों पर दीमक ने अपना घर बना लिया था। बोर्ड इतना काला पड़ चुका था कि काले अक्षरों को उस पर पढ़ना और भी मुश्किल हो रहा था। मेरे ड्राईवर नानू भाई ने और उस शख्स ने मेरी मुश्किल आसान की, तो पता चला कि इस कमरे में महात्मा सिर्फ जिंदा ही नहीं बल्कि अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थि कलश को भी एक रात रखा गया था।
पत्थर पर लिखा था कि पूजनीय महात्मा गांधी ने 1918 के खेड़ा सत्याग्रह के दौरान इस कमरे में कई दिन गुजारे थे।लोगों को सत्याग्रह में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था और 13 मार्च 1930 की रात इस कमरे में उन्होंने अपना रात्रि विश्राम किया था। और फिर माही सागर में सिलाने के लिए उनकी राख के अस्थि कलश को इस कमरे में एक रात के लिए रखा गया था। पता नहीं क्यों लग रहा था कि इस कमरे में बैठकर महात्मा ने जो भाषण दिया था उसको एक बार फिर सुनना चाहिए शायद कुछ रास्ता मिल जाता।
(उस दिन की बात) महात्मा ने इस मार्च के शुरूआत में ही ये साफ किया था कि वो इस मार्च में सिर्फ अपने आश्रम के सहयोगियों को साथ रखेंगे तो इसका एक बड़ा कारण 13 साल से साबरमति में अनुशासन के लिए कड़ाई से काम कर रहे गांधी अपनी शक्ति को परखना चाहते थे। अपनी आवाज में वो करनी से पैदा हुई ताकत को आजमा रहे थे। हिंदुस्तान के लाखों गांवों को बेआवाज मानकर गुलाम, सैनिक या फिर अनाज पैदा करने वाली इंसानी आकृतियां मान रहे समाज से वो चेतना की आवाज चाहते और उनको आवाज मिल रही थी। बरेजा से निकल कर महात्मा जब यहां पहुंचे थे तो गांव के लोग ढोल. ताशों और नगाड़ों के साथ स्वागत के लिए तैयार खड़े थे। ये गांव महात्मा का गांव था। अंग्रेजी शासन की नजर में विद्रोही किसानों का गांव था जो आसानी से महात्मा की एक आवाज पर उनके साथ खड़े हो जाते थे। दशक पुराने रिश्तों के सहारे ये गांव अपने को महात्मा की कुटिया का एक तृण मानता था।बरेजा से निकले गांधी को गांव की इसी जगह पर रूकना था लेकिन आज जहां स्कूल है वो जगह खेतों से भरी थी। रास्ते में ही वक्त हो चला था शाम की प्रार्थना का। महात्मा ने अपनी घड़ी देखी और फिर वही रूक कर प्रार्थना करने के लिए कहा। तमाम लोग खेत के उस हिस्से में रूक गए जहां आज एक स्कूल खड़ा है। गांव के लोग गांधी जी की जय, सरदार की जय के नारों के साथ खेत में प्रार्थना करते हुए एक महात्मा को देख रहे थे। ऐसा महात्मा जो इंसानों को ही भगवान मानता था। किसान और गरीब की जिंदगी में बदलाव की लड़ाई उनके सहारे लड़ने की कोशिशों में ये बूढ़ा शख्स लड़ रहा था।
प्रार्थना के बाद आगे बढ़ कर महात्मा गांधी गांव पहुंच गए थे। इस जिले में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी की बहुत चर्चा थी क्योंकि इसी जिले के कलेक्टर ने सरदार को गिरफ्तार किया था तो लग रहा था कि महात्मा की गिरफ्तारी यहां हो सकती है। लेकिन आंशकाओं और अफवाहों से मुक्त महात्मा गांधी अपने रंग में थे। शाम से ही इस इलाके के लोग जो सरकारी नौकरियों में अपने इस्तीफे महात्मा गांधी के पैरों में रखने का इंतजार कर रहे थे। आंदोलनकारी उत्साह से लबरेज थे क्योंकि यहां काफी संख्या में लोग स्वयंसेवक बनने के लिए थे और साथ ही सरकारी सेवा से इस्तीफा देने वाले भी लोग लाईन में लगे थे। सब को लग रहा था कि आंदोलन ने भारत की आत्मा को जगाने में सफलता हासिल करनी शुरू कर दी। लेकिन महात्मा किसी और चिंतन में थे। वो अपनी हड्डियों को गला कर ऐसे वृज को तैयार कर रहे थे जिसमें लेशमात्र भी झूठ और धोखे की मिलावट न हो।रात के लगभग 8 बज चुके थे। पंडित खरे ने हमेशा की तरह संगीतमय भजनों के साथ प्रार्थना की। महात्मा गांधी की जय और सरदार पटेल की जय के नारों के बीच महात्मा गाधी ने अपना संबोधन शुरू किया। गांधी जी ने भाषण में सरदार पटेल की गिरफ्तारी और इस जिले से अपने पुराने मधुर रिश्तों का जिक्र किया। महात्मा गांधी ने भीड़ से कहा कि लड़ाई के लिए पैसा और सरकारी लोगों के इस्तीफे चाहिए लेकिन उससे भी ज्यादा आगे की लड़ाई के लिए स्वयंसेवक चाहिए। यानि नमक सत्याग्रह की आगे की लडाई के लिए सेनानी। किसी भी उम्र के लोग महिलाएं, पुरूष, बच्चे बूढे या जवान कोई भी तमाम लोग इस अपनी शक्ति के साथ इस लड़ाई में शामिल हो सकते है।
महात्मा ने आजादी के अपने ख्वाब को लोगों से साझा किया, एक ऐसी आजादी का सपना जहां सबसे पिछली कतार का आदमी भी आगे पहुंच सके। अखबारों और अफवाहों के माध्यम से ये बात गांधी तक पहुंच चुकी थी कि रास्ते में आने वाले गांवों के लोग मतदार, पटेल या पुलिस पटेल पर दबाव बना कर नौकरी से इस्तीफे दिलवा रहे है। इस पर गांधी जी नाराज हो गए। फिर उन्होंने पुलिस पटेल, मतदार और दूसरे तमाम लोग जो इस्तीफा देने आएं थे उनसे खुद बात की। और इस तरह के काम को इस लडाई के लिए फरेब का नाम दिया।
मैं आप सब लोगों को इस्तीफा देने के लिए बधाई देता हूं। लेकिन आप लोगों ने अगर ये इस्तीफे किसी दबाव में दिए है तो मैंआपसे आग्रह करता हूं कि आप अपने इस्तीफे वापस ले, और मुझे इस बात से कोई दुख नहीं होगा बल्कि मैं आप लोगों का उन लोगों से बचाव भी करूंगा जो आप पर इस तरह से इस्तीफे देने के लिए दबाव बना रहे है। ये लड़ाई सच पर आधारित है, मैं ऐसी कोई विजय नहीं चाहता हूं जो इसके अतिरिक्त किसी और पर टिकी हो। अपने शब्दों पर टिके रहना चाहिए। महात्मा गांधी जी ने रामचरित मानस की प्रसिद्ध चौंपाई " रघुकुल रीत सदा चली आ प्राण जाए पर वचन न जाई।" का जिक्र करते हुए कहा कि आप लोग इस बात को सुने, सोचे और स्वीकार करे कि अगर आप सरकारी सेवा से इस्तीफा देने के लिए स्वेच्छा से तैयार नहीं है तो निडर होकर अपना इस्तीफा वापस ले। खेडा ने हमेशा मुझे प्यार दिया है और वादा भी कि कभी वो मुझे किए वादों से नहीं फिरेगे। मैं इस्तीफा देने की पेशकश से पीछे हटने वालों को बहादुर आदमी के तौर पर स्वीकार करूंगा अगर वो भय या दबाव से इस्तीफा दे रहे है और अब वापस ले। क्योंकि इस लड़ाई को सिर्फ सच के हथियार से लड़ना है। झूठ का एक भी कण नहीं शामिल होना है।
इस पर वहां मौजूद मुखिया और सात मतदारों ने गांधी जी बताया कि वो स्वेच्छा से इस लड़ाई में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे रहे है। गांव की ओर से महात्मा गांधी को 125 रूपये भेट दिये गए। नवागाम से ही मार्च में लाए गए घोड़े को भी वापस मालिक चीनूभाई के पास भेज दिया गया। क्योंकि महात्मा के आत्मबल ने उनकी शारीरिक इच्छाशक्ति को अंनत कर दिया था और वो जानते थे कि इस घोड़े की उनको जरूरत नहीं पड़ने वाली है। एक अखबार ने इस घोड़े के लिए भी लिखा था कि भारत की पुरानी प्रथा के मुताबिक राजसूय यज्ञ के लिए एक सवार रहित घोड़े को छोड़ दिया जाता और राजकुमार अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में इस घोडे के साथ चलते थे महात्मा गांधी ने अपनी इस अनूठी लड़ाई के लिए उस पौरोणिक मान्यता को देखते हुए इस घोड़े को साथ लिया है। (फोटो -सौमित्र)
(चलते है अगले पड़ाव की ओर।सच की कुछ और परतों में उतराते हुए।)
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