बैशाखियों के सहारे सीढ़िया चढ़ता हुआ वो आदमी पीछे से बहुत बेबस और मजबूर दिख रहा था। किसी तरह से सीढ़यों को पार करता हुआ बस जैसे किसी कर्ज को उतारने पहुंच रहा हो।
बूढ़ी मां थक बैठ गई नीम के पेड़ के नीचे एक बैंच पर, बैंच की प्लेट पर कागज चिपका था क्योंकि जिसके सौंजन्य से वो लगाई गई थी वो चुनाव में खड़ा था। मां की इंजियोग्राफी होनी थी और किशोरवय की पौत्री उसके साथ संभाल रही थी। बूढ़ी मां की जिद् थी कि वो पहले वोट कर फिर अस्पताल जाएंगी। बेटा और पति दोनों साथ में थे। किशोरी ने वोट डलवाया और फिर वो अस्पताल की ओर रवाना हो गए।
एक बच्ची पहली बार वोट डालने पहुंची। पिता और मां पीछे छूट गए थे और वो किशोरी अपनी धुन में पहले वोट डालने पहुंची थी।
सीढ़ियां चढ़ रहे उस आदमी ने वोट डाला और फिर जब वो बाहर पलट कर आया तो जैसे सीन एक दम से बदल गया। वो एक कमजोर बेबस आदमी नहीं था वो एक मजबूर नहीं था वो चेहरे से हंसता हुआ एक ताकतवर आदमी था जो अपने लिए एक सरकार चुन रहा था। वो बूढ़ी मां अपने बच्चों के लिए एक उम्मीद चुन रही थी और वो भी उस उस उम्र में जब खुद के लिए वो कच्चा केला भी पकने की उम्मीद के साथ नहीं खरीदती। (बेटे ने मजाक में कहा था और मैे मां के सम्मान के साथ लिख रहा हूं मजाक में नहीं)
उस किशोरी से आदतन सवाल पूछा तो उसका जवाब था कि वो अपना कीमती वोट कॉस्ट कर लौटी है और उसने पहले माता-पिता से पूछा था और फिर खुद से सोचकर वोट कर किया। वो दुनिया में अपने लिए ख्बाव बुन रही थी और उसमें ये भी एक घौंसला था।
ये महेसाणा या मेहसाणा जो कहना है कह सकते है कि कुछ तस्वीरें जो दिमाग में अंकित हो ई। चुनाव का आखिरी दिन था। वोटिंग कवर करने के लिए नेताओं को नहीं जनता को चुना। (पता नहीं क्या बात है मेरा कद ही मुझे मजबूर करता है कि अपने जैसों के बीच जाने के लिए नेताओं के बीच कभी सहज नहीं हो पाता हूं यहां तक उनका इंटरव्यू मेरे लिए मुश्किल होता है)
लेकिन इन सबके बीच में अचानक मुझे लगा कि वो दिल्ली मेें बैठे हुए बौने, या फिर यहां गुजरात में हम बारात में घुमते हुए बौंनों की नजर में ये सब क्या है। फिर रात भर में स्टूडियों में चीखते हुए उन बौंनों को देख रहा था जो बिना उन्हें जाने उनके लिए चीख चीख कर इनकी रक्षा की आवाजें उठा रहे थे। इस दौरान सोशल मीडिया एक नया मंच है जिसमें हम बौंने अपने लिए झांकते है ( दूसरे क्यों मुझे नहीं मालूम)। अपना शिकवा किसी आम आदमी या कार्यकर्ता से नहीं है वो तो अपनी समझ के साथ काम करे उसमें उसकी प्रतिबद्धता हो इसका देश पर कम फर्क पड़ता है। लेकिन बौंनों का गैंग आजकल आजादी को लेकर बहुत चिंतित है। खास तौर से एक पूरा गैंग्स सुपारी किलर की तरह से इस बात पर चिंतित है कि देश में फासीवाद का दौर चल रहा है, किसी को लग रहा है कि अभिव्यक्ति खतरे में है ( हालांकि उसी प्रोग्राम में वो चीख चीख कर हर गाली का इस्तेमाल कर रहा है लेकिन खबर नहीं दे रहा बस) । कुछ लोग नए नए है तो किताबों के रैंफरेस के सहारे विद्धान बनने के लिए सीधे हिटलर तक ही पहुंच रहे है ( बीच में हिंदुस्तान का कोई शहर जिला राज्य नहीं सीधे यूरोप)। और उनकी घृणा का कारोबार इतना बड़ा है कि वो लेखों से बोलने से साफ झलकता है । (क्योंकि बौना हूं स्टॉफ की भाषा समझता हूं)। लोकतंत्र सामूहिक जिम्मेदारी है ऐसा पढ़ कर बड़ा हुुआ। कई लोगों को करीब से देखा समझा। उनके मत बदलते देखे और सत्ता से मिलने वाली रेवड़ियां कब तक भाषा के साथ खड़ी रही ये भी देखा। शायद लेख में बहक रहा हूं लेकिन वापस आता हूं।
गुजरात चुनाव में एक जमात पूरी तरह से बौंने पत्रकारों की आड़ में सिर्फ इस बात के लिए खोजती रही कि वो पहले सरकार को फिर नेता को गालियों से नवाज सके। वो उसको नेस्तनाबूद कर सके क्योंकि वो उनके आईने में फिट नहीं हो रहा है। ये बौंने डिक्टेटरों की जमात है जो हल्ला मचा रही है कि वो आजादी के हक में बात कर रही है। फिर आप चुनावों के रिजल्ट को देखते है तो वो अपने मुंह पर कालिख पोत कर दर्शकों के सामने स्क्रीन काली कर देते है। क्योंकि वहां तो उनका आईडिया फेल हो जाता है। जनता को बेवकूफ, मूर्ख बताना शुरू कर देते है। अब जरा सोचिये किस की बात करनी शुरू की थी जनता की और किसको मूर्ख बता दिया अपनी निराशा और हताशा में जनता को। अब जनता इनके लिए क्या है इसको देखना भी जरूरी हो जाता है जनता इनके लिए रबड़ का ऐसा गोला है जिसको ये अपनी मर्जी से जब चाहे मोड़ दे। इनको लाखों की सैलरी चाहिए, प्रेस क्लब की सब्सिड़ी की दारू चाहिए जहां रूके सरकारी गेस्टहाउस चाहिए और गाली देने के लिए एक खलनायक। जनता किसे चुने ये तय कर देंगे। ये खेल कई बार चला। झूठ के सहारे की रिपोर्टिंग लगातार मैं देखता रहा हूं (मैं ऊंचाई नहीं कि बदलाव ला दूं रोटियों के लिए दिन को खेता हुआ एक बौना ही हूं ) ये झूठे और मक्कार उन लोगों से बात करते है जिनका रिश्ता जमीन से ऐसे ही होता है जैसे चांद से।
आखिर ईवीएम का हल्ला क्या है। आखिर ये कौन सी लाईन है कि कोई नेता ईवीएम का बाप हो गया। क्या हो रहा है। उस बैशाखियों वाले मजबूत आदमी की मजबूती से नफरत क्यों है. आखिर उस उम्मीद बुन रही बूढ़ी मां के ख्वाब से दिक्कत क्यों है आखिर उस जवान होती बच्ची के स्वप्नों से इनकी परेशानी क्या है। क्यों ये उसके ख्वाब को अविश्वास के तेजाब से जला डालने पर आमादा है।
क्यों ये भेड़िया भेड़िया चिल्ला रहे है क्योंकि ये झूठ बोलने वाले मासूम नहीं है ये मासूम को सामने रखे हुए है खुद से पेड़ पर बैठे हुए भेडिया भेड़िया कह कर गांव वालों का यकीन खो देना चाहते है उस मासूम पर ताकि भेड़िया आ भी जाएं, गांव वाले बेयकीनी में न आएं और भेड़िये के शिकार मासूम के बचे हुए जिस्म से ये बौंने बोटियां नोंच कर दारू के साथ रात बिता दे ये कहते हुए कि हम तो पहले से चेता रहे थे आप की गलती है। मैं बहुत व्यक्तिगत नहीं हो रहा हूं लेकिन इंडिया इंटरनेशनल की खूबसूरत शाम में एक जन आधारित व्यक्ति के पैग गिनने की कोशिश कर रहा था ( मेरे जैसे बौंने को एक ऑफिसर ने बुलाया था ताकि वो कुछ पूछ सके -बताना नहीं था उन्हें)। वो इनता दुखी था कि आवाज आ रही थी तीन टेबल पार के। अभिव्यक्ति का गला घुट रहा था।
दरअसल ये यकीन खोए हुए लोगों की जमात है। इस जमात को शहर में तमाशा कर गांव में अपने लिए तमाशा खोजने की आदत है। ये अपने झूठ को मक्कारी के साथ सच बताना चाहते है।
सरकार कब से कोई चैनल और अखबार चुनने लगे। नेता कब से इनके सहारे बनने लगे। दरअसल कोई भी नेता जनता ही चुनती है ईवीएम नहीं। किसी नेता की अभी कोई हिम्मत मुझे नहीं दिखती जो इस लोकतंत्र में उम्मीद देख रहे लोगों को धोखा देने का दुस्साहस कर सके। गांव गांव में लोगों के साथ बात कीजिए तो पता चल जाएंगा वो दिल्ली में बैठे हुए बौंनों में से किसी को नहीं जानते। उनको पता नहीं कि बौंने उनकी लड़ाई लड़ रहे है । वो गांव में बैठे हुए आदमी जानते है उनके वोट से सरकार गिर जाएंगी या सरकार बन जाएेगी। लेकिन उनके दिमाग में दिल्ली से बैठकर ये बौंने जहर भर रहे है , उनका यकीन तोड़ रहे है । एक ऐसा देश बनाने की जुगत में है जो यकीन खोए हुए लोगों का देश हो। और लोकतंत्र को खतरा तुमसे है बौंनों किसी नेता से नहीं। नेताओं और पार्टियों को ये जब चाहे बदल देंगे। जब चाहेंगे धूल में मिला देंगे ये लोग। किसी को भी तख्त से उठाकर जमीन पर और किसी को भी जमीन से उठाकर तख्त पर बैठा देंगे।
तुम जनता को डराना बंद करों क्योंकि तुम्हारी मक्कारियों ने उन बौंनों को खतरे में डाल दिया है जो तुम्हारे तमाशे के लिए जनता के बीच जाकर सच खोजने की कोशिश कर रहे है। जिनको किसी पार्टी से राग-विराग हो लेकिन वो जनता पर थोपते नहीं है और एक बात तुम्हारी तरह से किसी के टुकड़ों के लिए तर्क नहीं खोजते। वो जनता के यकीन में यकीन मिलाते है।
इसीबीच कई बड़े बुद्धिजीवी बौंनों को हिटलर ही नहीं बल्कि नास्त्रडैमस भी याद आ गया उन्होंने बेचारों ने कई भविष्यवाणियां कर दी लेकिन एक कथा जिक्र तक नहीं किया ( पढ़ा नहीं होगा ये कल्पना नहीं कर सकता क्योंकि रात दिन ये वही तो पढ़ रहे है जनता को छोड़कर) नास्त्रडैमस के बेटे ने एक दिन फ्रांस के मशहूर किले में आग लगने से भस्म होने की भविष्यवाणी की थी और जब तय तारीख पर आग नहीं लगी तो रात में मशाल से वो खुद ही आग लगाने पहुंच गया और किले के रक्षकों के हाथों मारा गया। ये भी संयोग है कि लोगों ने मरने के बाद खुद नास्र्डैम की भविष्यवाणियों में बेटे के इस तरह मरने की बात खोज ली।
( अपने को किसी पार्टी-नेता के आने-जाने से तकलीफ नहीं है। मैं बौंना मानता हूं कि लोकतंत्र में जनता का कद सबसे ऊंचा होता है। और हमको अपनी पंसद के ऊपर जनता की पसंद को तरजीह देनी होती है)
बूढ़ी मां थक बैठ गई नीम के पेड़ के नीचे एक बैंच पर, बैंच की प्लेट पर कागज चिपका था क्योंकि जिसके सौंजन्य से वो लगाई गई थी वो चुनाव में खड़ा था। मां की इंजियोग्राफी होनी थी और किशोरवय की पौत्री उसके साथ संभाल रही थी। बूढ़ी मां की जिद् थी कि वो पहले वोट कर फिर अस्पताल जाएंगी। बेटा और पति दोनों साथ में थे। किशोरी ने वोट डलवाया और फिर वो अस्पताल की ओर रवाना हो गए।
एक बच्ची पहली बार वोट डालने पहुंची। पिता और मां पीछे छूट गए थे और वो किशोरी अपनी धुन में पहले वोट डालने पहुंची थी।
सीढ़ियां चढ़ रहे उस आदमी ने वोट डाला और फिर जब वो बाहर पलट कर आया तो जैसे सीन एक दम से बदल गया। वो एक कमजोर बेबस आदमी नहीं था वो एक मजबूर नहीं था वो चेहरे से हंसता हुआ एक ताकतवर आदमी था जो अपने लिए एक सरकार चुन रहा था। वो बूढ़ी मां अपने बच्चों के लिए एक उम्मीद चुन रही थी और वो भी उस उस उम्र में जब खुद के लिए वो कच्चा केला भी पकने की उम्मीद के साथ नहीं खरीदती। (बेटे ने मजाक में कहा था और मैे मां के सम्मान के साथ लिख रहा हूं मजाक में नहीं)
उस किशोरी से आदतन सवाल पूछा तो उसका जवाब था कि वो अपना कीमती वोट कॉस्ट कर लौटी है और उसने पहले माता-पिता से पूछा था और फिर खुद से सोचकर वोट कर किया। वो दुनिया में अपने लिए ख्बाव बुन रही थी और उसमें ये भी एक घौंसला था।
ये महेसाणा या मेहसाणा जो कहना है कह सकते है कि कुछ तस्वीरें जो दिमाग में अंकित हो ई। चुनाव का आखिरी दिन था। वोटिंग कवर करने के लिए नेताओं को नहीं जनता को चुना। (पता नहीं क्या बात है मेरा कद ही मुझे मजबूर करता है कि अपने जैसों के बीच जाने के लिए नेताओं के बीच कभी सहज नहीं हो पाता हूं यहां तक उनका इंटरव्यू मेरे लिए मुश्किल होता है)
लेकिन इन सबके बीच में अचानक मुझे लगा कि वो दिल्ली मेें बैठे हुए बौने, या फिर यहां गुजरात में हम बारात में घुमते हुए बौंनों की नजर में ये सब क्या है। फिर रात भर में स्टूडियों में चीखते हुए उन बौंनों को देख रहा था जो बिना उन्हें जाने उनके लिए चीख चीख कर इनकी रक्षा की आवाजें उठा रहे थे। इस दौरान सोशल मीडिया एक नया मंच है जिसमें हम बौंने अपने लिए झांकते है ( दूसरे क्यों मुझे नहीं मालूम)। अपना शिकवा किसी आम आदमी या कार्यकर्ता से नहीं है वो तो अपनी समझ के साथ काम करे उसमें उसकी प्रतिबद्धता हो इसका देश पर कम फर्क पड़ता है। लेकिन बौंनों का गैंग आजकल आजादी को लेकर बहुत चिंतित है। खास तौर से एक पूरा गैंग्स सुपारी किलर की तरह से इस बात पर चिंतित है कि देश में फासीवाद का दौर चल रहा है, किसी को लग रहा है कि अभिव्यक्ति खतरे में है ( हालांकि उसी प्रोग्राम में वो चीख चीख कर हर गाली का इस्तेमाल कर रहा है लेकिन खबर नहीं दे रहा बस) । कुछ लोग नए नए है तो किताबों के रैंफरेस के सहारे विद्धान बनने के लिए सीधे हिटलर तक ही पहुंच रहे है ( बीच में हिंदुस्तान का कोई शहर जिला राज्य नहीं सीधे यूरोप)। और उनकी घृणा का कारोबार इतना बड़ा है कि वो लेखों से बोलने से साफ झलकता है । (क्योंकि बौना हूं स्टॉफ की भाषा समझता हूं)। लोकतंत्र सामूहिक जिम्मेदारी है ऐसा पढ़ कर बड़ा हुुआ। कई लोगों को करीब से देखा समझा। उनके मत बदलते देखे और सत्ता से मिलने वाली रेवड़ियां कब तक भाषा के साथ खड़ी रही ये भी देखा। शायद लेख में बहक रहा हूं लेकिन वापस आता हूं।
गुजरात चुनाव में एक जमात पूरी तरह से बौंने पत्रकारों की आड़ में सिर्फ इस बात के लिए खोजती रही कि वो पहले सरकार को फिर नेता को गालियों से नवाज सके। वो उसको नेस्तनाबूद कर सके क्योंकि वो उनके आईने में फिट नहीं हो रहा है। ये बौंने डिक्टेटरों की जमात है जो हल्ला मचा रही है कि वो आजादी के हक में बात कर रही है। फिर आप चुनावों के रिजल्ट को देखते है तो वो अपने मुंह पर कालिख पोत कर दर्शकों के सामने स्क्रीन काली कर देते है। क्योंकि वहां तो उनका आईडिया फेल हो जाता है। जनता को बेवकूफ, मूर्ख बताना शुरू कर देते है। अब जरा सोचिये किस की बात करनी शुरू की थी जनता की और किसको मूर्ख बता दिया अपनी निराशा और हताशा में जनता को। अब जनता इनके लिए क्या है इसको देखना भी जरूरी हो जाता है जनता इनके लिए रबड़ का ऐसा गोला है जिसको ये अपनी मर्जी से जब चाहे मोड़ दे। इनको लाखों की सैलरी चाहिए, प्रेस क्लब की सब्सिड़ी की दारू चाहिए जहां रूके सरकारी गेस्टहाउस चाहिए और गाली देने के लिए एक खलनायक। जनता किसे चुने ये तय कर देंगे। ये खेल कई बार चला। झूठ के सहारे की रिपोर्टिंग लगातार मैं देखता रहा हूं (मैं ऊंचाई नहीं कि बदलाव ला दूं रोटियों के लिए दिन को खेता हुआ एक बौना ही हूं ) ये झूठे और मक्कार उन लोगों से बात करते है जिनका रिश्ता जमीन से ऐसे ही होता है जैसे चांद से।
आखिर ईवीएम का हल्ला क्या है। आखिर ये कौन सी लाईन है कि कोई नेता ईवीएम का बाप हो गया। क्या हो रहा है। उस बैशाखियों वाले मजबूत आदमी की मजबूती से नफरत क्यों है. आखिर उस उम्मीद बुन रही बूढ़ी मां के ख्वाब से दिक्कत क्यों है आखिर उस जवान होती बच्ची के स्वप्नों से इनकी परेशानी क्या है। क्यों ये उसके ख्वाब को अविश्वास के तेजाब से जला डालने पर आमादा है।
क्यों ये भेड़िया भेड़िया चिल्ला रहे है क्योंकि ये झूठ बोलने वाले मासूम नहीं है ये मासूम को सामने रखे हुए है खुद से पेड़ पर बैठे हुए भेडिया भेड़िया कह कर गांव वालों का यकीन खो देना चाहते है उस मासूम पर ताकि भेड़िया आ भी जाएं, गांव वाले बेयकीनी में न आएं और भेड़िये के शिकार मासूम के बचे हुए जिस्म से ये बौंने बोटियां नोंच कर दारू के साथ रात बिता दे ये कहते हुए कि हम तो पहले से चेता रहे थे आप की गलती है। मैं बहुत व्यक्तिगत नहीं हो रहा हूं लेकिन इंडिया इंटरनेशनल की खूबसूरत शाम में एक जन आधारित व्यक्ति के पैग गिनने की कोशिश कर रहा था ( मेरे जैसे बौंने को एक ऑफिसर ने बुलाया था ताकि वो कुछ पूछ सके -बताना नहीं था उन्हें)। वो इनता दुखी था कि आवाज आ रही थी तीन टेबल पार के। अभिव्यक्ति का गला घुट रहा था।
दरअसल ये यकीन खोए हुए लोगों की जमात है। इस जमात को शहर में तमाशा कर गांव में अपने लिए तमाशा खोजने की आदत है। ये अपने झूठ को मक्कारी के साथ सच बताना चाहते है।
सरकार कब से कोई चैनल और अखबार चुनने लगे। नेता कब से इनके सहारे बनने लगे। दरअसल कोई भी नेता जनता ही चुनती है ईवीएम नहीं। किसी नेता की अभी कोई हिम्मत मुझे नहीं दिखती जो इस लोकतंत्र में उम्मीद देख रहे लोगों को धोखा देने का दुस्साहस कर सके। गांव गांव में लोगों के साथ बात कीजिए तो पता चल जाएंगा वो दिल्ली में बैठे हुए बौंनों में से किसी को नहीं जानते। उनको पता नहीं कि बौंने उनकी लड़ाई लड़ रहे है । वो गांव में बैठे हुए आदमी जानते है उनके वोट से सरकार गिर जाएंगी या सरकार बन जाएेगी। लेकिन उनके दिमाग में दिल्ली से बैठकर ये बौंने जहर भर रहे है , उनका यकीन तोड़ रहे है । एक ऐसा देश बनाने की जुगत में है जो यकीन खोए हुए लोगों का देश हो। और लोकतंत्र को खतरा तुमसे है बौंनों किसी नेता से नहीं। नेताओं और पार्टियों को ये जब चाहे बदल देंगे। जब चाहेंगे धूल में मिला देंगे ये लोग। किसी को भी तख्त से उठाकर जमीन पर और किसी को भी जमीन से उठाकर तख्त पर बैठा देंगे।
तुम जनता को डराना बंद करों क्योंकि तुम्हारी मक्कारियों ने उन बौंनों को खतरे में डाल दिया है जो तुम्हारे तमाशे के लिए जनता के बीच जाकर सच खोजने की कोशिश कर रहे है। जिनको किसी पार्टी से राग-विराग हो लेकिन वो जनता पर थोपते नहीं है और एक बात तुम्हारी तरह से किसी के टुकड़ों के लिए तर्क नहीं खोजते। वो जनता के यकीन में यकीन मिलाते है।
इसीबीच कई बड़े बुद्धिजीवी बौंनों को हिटलर ही नहीं बल्कि नास्त्रडैमस भी याद आ गया उन्होंने बेचारों ने कई भविष्यवाणियां कर दी लेकिन एक कथा जिक्र तक नहीं किया ( पढ़ा नहीं होगा ये कल्पना नहीं कर सकता क्योंकि रात दिन ये वही तो पढ़ रहे है जनता को छोड़कर) नास्त्रडैमस के बेटे ने एक दिन फ्रांस के मशहूर किले में आग लगने से भस्म होने की भविष्यवाणी की थी और जब तय तारीख पर आग नहीं लगी तो रात में मशाल से वो खुद ही आग लगाने पहुंच गया और किले के रक्षकों के हाथों मारा गया। ये भी संयोग है कि लोगों ने मरने के बाद खुद नास्र्डैम की भविष्यवाणियों में बेटे के इस तरह मरने की बात खोज ली।
( अपने को किसी पार्टी-नेता के आने-जाने से तकलीफ नहीं है। मैं बौंना मानता हूं कि लोकतंत्र में जनता का कद सबसे ऊंचा होता है। और हमको अपनी पंसद के ऊपर जनता की पसंद को तरजीह देनी होती है)
No comments:
Post a Comment