Thursday, December 31, 2009

साहब ..मेरी बेटी को बचा लो.......

बाबूजी....मेरी बेटी को बचा लो.... उन लोगों ने उसको गोली मार दी है, फोन पर अनजान नंबर से आयी आवाज के दर्द और बेचारगी ने मुझे दहला दिया। अगस्त 2009 के दूसरे हफ्ते की बात है मैं एक स्टोरी के सिलसिले में भारत-नेपाल बार्डर के एक छोटे से होटल में रूका हुआ था। ऐसे में ये फोन दिल्ली नंबर से आया था और मुझे लगा कि कोई हमेशा कि तरह इँफोरमेशन दे रहा होगा इसी लिये मैंने वो फोन रिसीव कर लिया। फोन पर दर्द से रोते हुये युवक की आवाज को पहचानने में मुझे कुछ वक्त लगता इससे पहले ही मैंने पूछ लिया कि कौन बोल रहा है ...सोहराब बोल रहा हूं बाबूजी जहांगीर पुरी से। औऱ मेरे दिमाग में एक दम से सारी कहानी एक रील की तरह से चलने लगी। पूछा क्या हुआ सोहराब तेरी बेटी को ......साहब पुलिसइंस्पेक्टर के इशारे पर काम करने वाले गुंडों ने गोली मार दी.. चार साल की बेटी है मेरी सर प्लीज उसको बचा लो...रोते हुये बाप की बेबसी आपने फिल्मों में देखी होंगी ..लेकिन एक पत्रकार के तौर पर मैंने कई बार महसूस किया कि बच्चे के लिये रोते हुये इंसान और कटते हुये जानवर की अर्राहट में एक जैसी सिहरन होती है।
सोहराब की बेटी सफदरगंज हॉस्पीटल की इमरजेंसी विभाग में मौत और जिंदगी के बीच झूल रही थी। उसके गले में गोली फंसी थी और डॉक्टर इस हालत में नहीं थे कि बता सके कि बच्ची की जिंदगी बचेगी या नहीं। मैंने फौरन सफदरजंगरमें अपने परिचित लोगो से बात की और डिप्टी सीएमएस डॉक्टर सुधीर चन्द्रा साहब के ऑफिस में फोन किया तो वहां से कहा गया कि सोहराब को उनके ऑफिस भेज दे। मैंने सोहराब को फोन लगाया लेकिन फोन आउट ऑफ रीच में चला गया। मैंने भी अपने सोर्स के साथ भारत का बार्डर पार कर लिया था लिहाजा मेरे लिये भी अब एक पत्रकार के तौर पर फोन करना सहज नहीं था। स्टोरी में रात गुजर गयी औऱ मैं नेपाल के कृष्णानगर इलाके में ही रूक गया। मतलब मैं भूल गया कि सोहराब की बेटी का हुया। कुछ दिन बाद जब मैं वापस लौटा तो डॉक्टर साहब के ऑफिस से जानकारी मिली कि सोहराब वहां नहीं आया था शायद सोहराब की वो जरूरत खत्म हो गयी होगी कैसे नहीं जानता लेकिन आप को वो कहानी जरूर बता दूं कि जो रूचिका से भी ज्यादा दर्द से भरी है और हरियाणा पुलिस के जुल्मों से ताल्लुक रखती है और अभी भी चल रही है।
सोहराब फिरोजपुर झिरका के गांव खेडला पुन्हाना का रहने वाला है। दिल्ली के जहांगीरपुरी ळाके की जे जे कालोनी में रहकर कोई छोटा-मोटा काम करता है। 2005 में उसके गांव के बराबर वाले गांव में कार चोरी की एक घटना हुयी। सोहराब के गांव में उसके साथ वाले घर में हरियाणा पुलिस पूछताछ के लिेये गयी। जिस दौरान पुलिस के एसएचओ ओमप्रकाश और उसकी टीम पूछताछ कर रही थी उसी वक्त दूसरी छत पर सोहराब के भतीजे की पत्नी 18 साल की फरजाना कपड़े डालने पहुंची। दुर्भाग्य से जिस वक्त फरजाना कपड़े सुखा रही थी उसी वक्त एसएचओ की नजर उसपर पड गयी और कह सकते है कि गड़ गयी। अब एसएचओ सीधा उनके घऱ जा पहुंचा. घर पर फरजाना का ससुर यानि सोहराब का बड़ा भाई नौमान और दूसरे मर्द मौजूद थे। पुलिस अधिकारी ने पूछताछ शुरू की औऱ बार-बार घूम कर सिर्फ फरजाना की जानकारी हासिल करने में लगा रहा। इस पर घर के लोग समझ गये कि हरियाणा के इस दूर-दराज के गांव में पुलिस की नजर इस वक्त उनके परिवार की बहू की इज्जत पर है । पुलिस वाले नौमान को थाने ले गये। थाने में उससे जिद की गयी कि वो अपनी जवान बहू को एसएचओ साहब के मनोरंजन के लिये एक दो दिन के लिये दे दे,बस इससे ज्यादा कुछ नहीं। पिटा हुआ नौमान अपने घर पहुंचा और परिवार को पुलिस की कहानी बतायी। परिवार ने तय किया कि नव वधू को पुलिस के हाथों से बचाने का का एक ही तरीका है कि फरजाना और उसके पति को चाचा सोहराब के यहां दिल्ली भेज दिया जाये उनको यकीन था कि देश की राजधानी में जाने की हिम्मत हरियाणा पुलिस का दरोगा नहीं करेगा।
लेकिन वो गलत थे। अंग्रेजों के दम पर चल रही वर्दी में छिपे गुंड़ों को जैसे ही मालूम हुआ कि फरजाना को उसके परिवार ने दिल्ली भेज दिया तुरंत ससुर को उठा कर थाने तब तक मारा गया जब तक उसने सोहराब का पता नहीं उगल दिया। अगले दिन सुबह के चार बजे जहांगीर पुरी की उस कालोनी में हरियाणा पुलिस के वर्दीधारी गुंडे पहुंचे और फरजाना और उसके पति को पूरी कालोनी के सामने उठाकर चलते बने। सोहराब ने 100 नंबर को कॉल की लेकिन उस वक्त 100 नंबर वाले कहां थे इस बात का कभी कोई हिसाब नहीं मिलेगा।
फिरोजपुर झिरका के थाने में थाना प्रभारी ओमप्रकाश ने अपनी हवस मिटायी और उसके साथियों को भी अपनी भूख मिटाने का पूरा मौका मिला। इसके बाद फरजाना को धमकी दी गयी कि अगर कही मुंह खोला तो उसके पति और ससुर का इसी जी दारी के साथ एंकाउंटर कर दूंगा। सोहराब को देश पर यकीन था उसने रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की लेकिन दिल्ली पुलिस ने रिपोर्ट लिखना तो दूर की बात है डांटकर भगा दिया। तब सोहराब ने सफदरजंग में फरजाना का मेडीकल कराया और रिपोर्ट में साफ कहा गया कि फरजाना के साथ बलात्कार किया गया। दिल्ली पुलिस को रिपोर्ट न लिखनी न लिखी। आखिरकार सोहराब ने कोर्ट में गुहार लगायी और कोर्ट के दखल पर रिपोर्ट लिखी गयी लेकिन जांच में जुटी महिला पुलिस अधिकारी ने सोहराब से पैसे मांगे। और इस रिपोर्ट के दर्ज होने के बावजूद न ओमप्रकाश और उसके साथियो में कोई गिरफ्तार हुआ न उनके खिलाफ कोई कार्रवाही हुयी। उसके बाद एक दिन सोहराब मेरे पास आया हम लोगों ने ये मुद्दा उठाया तो ओमप्रकाश को गिरफ्तार कर तीसहजारी कोर्ट में पेश किया गया। सोहराब खुश था कि चलो कुछ तो कार्रवाई हुयी लेकिन ये एक खामख्याली थी। कुछ दिन बाद सोहराब ने मेरे दफ्तर आकर बताया कि उसको बेटी हुयी है साथ ही ये भी बताया कि ओमप्रकाश औऱ उसके साथियों को जमानत भी मिल गयी। मैं हैरान नहीं था क्योंकि मैं जानता था कि वर्दी की गुंडई का इस देश के कानून में कोई इलाज ही नहीं है।
सोहराब ने बताया कि उसके बाद उनके परिवार के खिलाफ फर्जी मुकदमों की बाढ़ आ गयी है और हर थानेदार एक ही बात कर रहा है कि ओमप्रकाश से सौदा कर लो चार लाख रूपये ले लो। लेकिन सोहराब ने कसम खायी कि वो ओमप्रकाश को सजा दिला कर रहेगा। और यही उसका गुनाह कुछ महीने पहले उसकी बेटी को खा गया। मेरे कानों में सोहराब की आवाज गूंज रही है औऱ आंखों के सामने अफसरों का रूचिका को लेकर कार्रवाही करने के खोखले बयान।
मैं नहीं जानता क्या हुआ सोहराब की बेटी को क्योंकि मेरे फोन में पुलिस अधिकारियों के नंबर सेव है सोहराब का नहीं....सोहराब की खबर खत्म हो चली है .........

Wednesday, December 30, 2009

बहुत निकले वर्दी के गुनाह फिर भी कम निकले

जहरीली हंसी के साथ अदालत से बाहर निकले एसपीएस राठौड़ का वो फ्रेम आज हर उस आदमी के जेहन में जड़ गया जिसने भी टीवी देखा या फिर अखबार पढ़ा। पूरे देश में इस बात को लेकर जैसे एक मुहिम सी छिड़ गयी कि राठौड़ को कड़ी सजा दी जाये। एक बात जो सबको हैरान कर रही है जो खास तौर पर उन लोगों को जो अपराध को कवर करते है वो बात है सरकार और प्रशासन का रवैया। जरूरत से ज्यादा पीडित के साथ दिख रहे है ये लोग। राजनेता हो या फिर पूर्व ब्यूरोक्रेट सब चाहते है कि रूचिका के साथ इंसाफ हो। पब्लिक को लग रहा है कि हां उसकी मुहिम बदलाव ला रही है और सत्ता में बैठे लोग भी भी बदलाव करना चाहते है। लेकिन सालों तक मीडिया में अपराध को कवर करने के बाद मेरा अपना जो अनुभव है वो साफ तौर पर इशारा कर रहा है कि सिस्टम वर्दीवाले गुनाहगारो के खिलाफ उठी एक मुहिम को फिर से विफल कर देना चाहता है पूरे मामले को राठौड़ का रंग देकर। जबकि मामला पूरे अपराधिक न्याय प्रक्रिया से जुड़ा है न कि राठौड़ से।
पूरे देश में शायद ही कोई इज्जतदार आदमी हो जो थाने में जाना पंसद करता हो बिना किसी मजबूरी के। आपको इस बात के हजारों सबूत मिल जायेंगे जिसमें किसी आदमी के घर पुलिस आने का मतलब उस आदमी के लिये बेईज्जती की बात है। देश के लाखों लोग ऐसे है जो थाने में जाकर पुलिस वालों की बदतमीजी का शिकार हुय़े होंगे। पिछले दस सालों से पूरे देश में अपराध के मामले कवर करने के बाद मैं इस बात को अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं अपराधियों के लिये पुलिस वालों से ज्यादा मददगार कोई दूसरा नहीं है। हर आदमी जानता है कि देश में थानों में कैसे दलाली होती है, कैसे कमजोर पीडित की रिपोर्ट के दम पर अपराधियों से पैसे उगाहे जाते है.
कैसे अदालतों में पुलिस के आईओ को याद ही नहीं रहता कि उसने जिस अपराधी को पकड़ा वो ही कठघरे में खडा़ है या नहीं। ऐसे हजारों नहीं लाखों और शायद करोड़ो मामले देश की अदालतों को फाईलों में धूल खा रहे है।
बात अगर मामलों की हो तो मैं ऐसे सैकड़ों मामले गिना सकता हूं जिसमें अपराधी से ज्यादा अपराधी साबित है पुलिस लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
कुछ मामले मैं आपके सामने रख सकता हूं रूचिका और राजस्थान की मल्ली मीणा मामले की तरह ही ये मामले भी मैंने पांच छह साल पहले टीवी में रिपोर्ट किये थे।
नौशाद नाम के एक अपराधी का दो बार एनंकाउंटर किया गया।
सहारनपुर में एक दो नहीं एक साथ पांच लोगों को एनकाउंटर किया गया और जांच में तत्कालीन एसएसपी हरीशचन्द्र सिंह को आरोपी बनाया गया। रिपोर्ट अभी पैंडिंग है और एसएसपी आज यूपी में आईजी बन चुके है।
हरियाणा के मेवात के फिरोजपुर झिरका थाने में एक रेप हुआ 18 साल की महिला के साथ थानेदार और उसके साथियो ने किया। रिपोर्ट अदालत के आ्देश के बाद हुयी खबर करने के बाद थानेदार की गिरफ्तारी हुयी लेकिन आज वो पूरी टीम बाहर है और पीडित महिला अपने परिवार के साथ घर-परिवार से बाहर जान बचाये घूम रही है।
मेरठ के सरधना इलाके में हुये तीन बेगुनाह लोगों के एऩकाउंटर की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुयी लेकिन बाद में मामला सीबीसीआईडी की फाईळों में घूम रहा है।
मुजफ्फरनगर में एक व्यापारी को हजारो लोगों के सामने अपनी जीप में बैठाकर लूटने औऱ हत्या कर देने वाले पुलिसकर्मियों का मामला भी जांच में गुम है।
इसके अलावा यदि पुलिस वालो की कहानी लिखने लगे तो कम से कम ब्लाग की मेमोरी ही कम पड़ जायेगी।
और प्रशासन जानता है कि इस वक्त पब्लिक सेंटीमेंट का साथ दो फिर मामला ठंडा पड़ने दो औऱ सब चलता रहेगा ऐसे ही जैसे अंग्रेजों के जमाने से चल रहा है यानि कमजोर की जोरो सबकी भाभी और ताकतवर की जोरू सबकी दादी......।

Sunday, December 27, 2009

मोहे गोरा रंग दे दे, दूजा रंग मीडिया को न भाये

पिछले दिनों एक अखबार की हैडलाईन पर नजर गड़ गयी। दिल्ली के साउथ इलाके में नये खुले इंटरनेशनल ब्रांड के आईसक्रीम पार्लर ने अपने यहां आने वाले ग्राहको के लिये एक खास किस्म के इंस्ट्रेक्शन जारी किये थे। इंटरनेशनल पासपोर्ट रखने वालो का स्वागत है ये उस लाईन का तर्जुमा है जो उस पार्लर के बोर्ड पर लिखा था। और ये लाईन दिल्ली में छप कर भी पर दुनिया की राजनीति करने वाले अंग्रेजी अखबारों को लगा कि ये तो नस्लवाद है। बात पहली नजर में दिखती भी है। लेकिन एक सेकेंड बाद ही आप को पूरा माजरा समझ में आ सकता है कि जब पूरा देश विदेशी कंपनियों के लिेए अपना जमीर जूते में ले कर खडा हुआ है तो फिर इस बात से कितना हल्ला हो सकता है। बात को यूं भी समझा जा सकता है कि इस खबर का जिक्र किसी हिंदी अखबार ने नहीं किया। पूरे मामले से एक बात जो साफ दिख रही थी कि या तो ये पब्लिशिटी स्टंट है और किसी तेज तर्रार पत्रकार की पार्लर के मीडिया पीआऱ को दी गयी सलाह है कि विवाद खडा कर पेज थ्री के लोगों को बता दो कि आप आ चुके है काले साहबों के लिये एक दम नायाब औऱ अलग सी जगह लेकर या फिर काले साहबों को ये दर्द दे दो कि तमाम क्रीम इस्तेमाल करने के बावजूद एक इंटरनेशनल ब्रांड उनको अग्रेंजों के बराबर नहीं मान रहा है। और इस पार्लर में जाने से उनका दर्जा बढ़ सकता है तो जल्दी ही ये पार्लर ग्राहकों से भर जायेगा।
रही बात रंगभेद की तो आम हिंदुस्तानी की तो वो जाने लेकिन हिंदुस्तानी मीडिया तो रंगभेदी है इस बात के सबूत आपको आसानी से मिल जाएंगे। सिर्फ देश भऱ के अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों पर नजर दौड़ाने की देर भऱ है। मैंने खबर पढने के बाद देश के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबारों में छप रहे विज्ञापनों पर निगाह डाली तो मुझे एक भी विज्ञापन में कोई काला रंग का तो छोड़ा श्याम रंग का मॉडल नजर नहीं न आया और न आयी। आप खुद अपने अखबारों में ये देख सकते है कि विज्ञापन घडी का या फिर स्वेटर का हर विज्ञापन में फिरंगी चेहरे मौजूद है। हर और सिर्फ फिरंगी चेहरे। और इस बात को और सरलता से समझने के लिये आपको सिर्फ रीयल स्टेट के विज्ञापनों पर निगाह दौडानी है। हर बिल्डर के ब्रोशर में जो फैमली नजर आ रही है वो विदेशी गोरे है और खेलती फिरंगियों के बच्चे। गार्डन जो सिर्फ ब्राशर में दिखते है उन में उछलते बच्चे, स्वीमिंग पूल जो विज्ञापन में पूरी बिल्डिंग से बडा नजर आता है और मौके पर जाने पर घऱ के बाथरूम से भी छोटा उसके किनारे पर बैठी विदेशी जवान लडकियां और पूल में तैरता कोई एक फिरंगी जोड़ा। अगर आप इससे भी मुतमईन न हो तो एक काले जोड़े का विज्ञापन मुझे जरूर बता दे ताकि मुझे लगे कि मेरी राय गलत है। एक बार मजाक में ही सही एक सहकर्मी ने ऐसे ही एक ब्रोशर को देख कर कहा था कि यार इन गोरो को देखन के लिये मैंने कितने संडे खराब कर इन बिल्डिंगों की खाक छानी है कही कोई विदेशी सूरत नहीं मिली। और वही से मैंने ध्यान दिया कि किसी भी विज्ञापन में देशी सांवले रंग या फिर काले रंग को तरजीह तो दूर की बात है जगह भी नहीं दी जाती हैं। तब मुझे लगता है इंगलिश मीडिया के काले साहबों को कोई बात नहीं चुभती है।
ऐसे में एक पार्लर को लेकर आसमान सिर पर उठाने वालों को मेरा सिर्फ यही सलाह है कि पेड न्यूज सिर्फ राजनीतिक खबरों में नहीं है मेरे भाई अपने मुद्दों पर भी नजर डालों। इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये सब लोग एंकरों को तो देखते ही हैं भाई.........।

Saturday, December 26, 2009

एक भी मगरमच्छ फंसे नहीं, एक भी छोटी मछली बचे नहीं

कानून किसको कहते है ये हमको मत बताओं बेटा, हम से ज्यादा तुम नहीं जानते होंगे, एक चैनल के रिपोर्टर होने के नाते तुम जो भरोसा मुझे दिला रहे हो उससे बेहतर है कि हम लोगों को उस राठौर की नजरों से दूर रहने दो। ......। हां शायद ये ही शब्द थे...रूचिका गिरोत्रा के पिता के। शिमला के एक मोहल्ले में बेहद अनाम तरीके से अपनी जिंदगी गुजार रहे गिरोत्रा के साथ उनका बेटा कमरे में मौजूद रिपोर्टर और कैमरामैन से जैसे पूरी तरह से अनजान... खामोंशी से छत की ओर ही देख रहा था। घर से भाग कर एक दूसरे राज्य में रह रहे गिरोत्रा साहब से इंटरव्यू लेने की पुरजोर कोशिश की लेकिन वो और उनका बेटा आंसूओं के साथ हाथ जोड़ कर हमसे चले जाने के लिये कहते रहे। ये बात सन 2004 की है जब मैं रूचिका मामले में पुलिस के एडीजी एसपीएस राठौर पर लगे आरोपों को लेकर एक स्टोरी कर रहा था। मैंने चंडीगढ़ में आनंद और उनकी पत्नी मधु से इंटरव्यू कर लिया था, पूरा मामला समझने के बाद मुझे लगा कि इस स्टोरी को अंजाम तक पहुंचाने के लिये जरूरी है कि गिरोत्रा परिवार से मिला जाये। मुझे उनकी तलाश करनी थी। और इसके लिये मैंने पूरे दो दिन का समय लिया। और आखिरकार मैं पहुंच गया था गिरोत्रा फैमली के पास। शायद मेरी एक गलती के लिये आज मुझे गिरोत्रा परिवार माफ कर दे कि मैंने उनके दर्द को कैमरे पर पेश कर दिया था। पूरी खबर को हमने छह मिनट की एक बड़ी स्टोरी में तब्दील किया था। खबर के एक सिरे पर गिरोत्रा परिवार था और दूसरे सिरे पर चंडीगढ़ के पॉश इलाके में पूरी शान से रह रहे राठौर दंपत्ति थे। मैंने कई बार राठौर के घर फोन किया लेकिन पुलिस अधिकारी के रौब दाब से उन लोगों ने मुझ बात करने से इंकार करने के साथ ही मुझे धमकी दी गयी कि अगर खबर में कुछ ही उनके खिलाफ हुआ तो वो मुझे कोर्ट में घसीट लेंगे। लेकिन मैं जिद करके उनके घर चला गया न दरवाजा खुला और न ही कोई जवाब। खैर हमने अपनी खबर पूरी की। जब तक मुझे खबर याद रही तो वर्दी की ताकत और उसके सामने मिमियाते कानून की औकात भी दिखती रही। इसके बाद मैं इस बारे में सिर्फ इसके कि मैंने उस स्टोरी में एक सवाल बड़ी शिद्दत से उठाया था कि अदालत ने जब ये मान लिया कि रूचिका के भाई के खिलाफ दर्ज दर्जन भर कार चोरी के मामले झूठे है तो इस एफआईआऱ को दर्ज करने वाले पुलिस वाले उसमें बयान देने वाला आईओ बरामदगी करने वाली पुलिस पार्टी और कोर्ट में खड़े होकर झूठ बोलने वाले पुलिस वालों के खिलाफ केस दर्ज कर उन्हें बर्खास्त क्यों नहीं किया जाता। सवाल अनसुना रह गया।.....
लेकिन एक सप्ताह पहले अदालत का फैसला आया। छह महीने की कैद और 1000 रूपये का जुर्माना राठौर के खिलाफ...। इसके बाद शान से मुस्कुराते हुय़े राठौर की टीवी चैनलों पर आयी तस्वीर ने मुझे रूचिका के पिता के शब्दों को दोबारा याद करा दिया। वो हंसी राठौर के लिये जीत की हंसी थी तो बाकी सबके लिये जहरीली हंसी। तेजी जवान होती एक पीढ़ी के लिये एक ऐसी हंसी जो उनके कानून नाम की किसी भी किताब पर से यकीन को और धुंधला कर रही हैं। खैर इस मामले में बहुत दिन से अंधविश्वास और दुनिया को डराने में जुटे न्यूज चैनलों को एक काम मिला और उन्होंने राठौर के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अब सरकार कह रही है कि राठौर का पदक छीनेंगे उसकी पेंशन रोकेंगे। लेकिन कोई ये नहीं कह रहा है कि उन पुलिस वालों का क्या करेंगे जिन लोगों ने विक्की के खिलाफ दर्जनों मुकदमें दर्ज किये थे। उन पुलिस वालों का क्या करेंगे जो इस बात पर मुहर लगा रहे थे कि देश और कानून नाम की चीज कम से कम पुलिस की वर्दी के लिये नहीं है।
चैनल हल्ला कर रहे है और न्यूजपेपर सवाल करने से बच रहे है। सवाल आज का नहीं है सवाल रूचिका का नहीं है, उस जैसी हजारों मासूम जिंदगियों का है जो रोजाना पुलिसिया जुल्म का शिकार होती है। कोई ये बात क्यों नहीं कर रहा है कि फर्जी मुकदमा बनाना भले कि कितना भी बड़ा अधिकारी क्यों न कहे कत्ल से बड़ा अपराध है। फर्जी गवाही देना किसी बड़ी ठगी से ज्यादा नुकसान करता है। और सबसे बड़ी बात है किसी भी आदमी की जवाबदेही क्यों नहीं हैं। किसी को आज भी हैरत नहीं है कि कौन आदमी है राठौर का साथ देने वाले उनकी जिम्मेदारी क्यों फिक्स नहीं हो रही है। क्योंकि आपके कानून में वो प्रावधान ही नहीं है, अंग्रेजों के इशारे पर देशवासियों की खाल उधेड़ कर उनकी औरतों को बेईज्जत करने वाली पुलिस के पास इतनी ताकत है और जवाबदेही का कॉलम जीरो का हैं। बात सिर्फ जवाबदेही की है अगर ये होती तो उस वक्त के डीजीपी ये कह कर न बच जाते कि मैंने तो उसके खिलाफ रिपोर्ट फाईल कर दी थी, मुख्य सचिव को ये भी याद नहीं कि राठौर को पदक दिया गया तो उस वक्त उन्होंने फाईल पर क्या लिखा था। तत्कालीन गृहमंत्री और मुख्यमंत्री की भी कोई जिम्मेदारी नहीं है। वो बेचारे कह रहे है कि ब्यूरोक्रेसी ने उनको जो लिख कर दिया उन्होंने उस पर साईन कर दिये। यानि रूचिका मामले में आप कुछ हासिल कर पायेंगे और वो कुछ भी नहीं सिवाय इसके कि जीरो बटा लड्डू।

Monday, November 2, 2009

रंग उतारे हुये

शीशे में उतरते हैं रंग
मैं उतार कर अपना चेहरा जब भी देखता हूं शीशे में
अजनबी सा दिखता हूं,
अधूरे ख्यालों से लिखी गयी किताब का
वो पन्ना
जो किसी को नहीं पढ़ना है
लेकिन लिखना था, किताब की जिल्द सही करने के लिये,
मेरा बेटा मेरी गोद सवालों से भर देता है
मैं जवाब देना शुरू करता हूं और खो जाता हूं
लेकिन उसके सवालों में जो भी बात होती है
मेरे उतार कर रखे गये चेहरे से जुड़ती है
मैं भूलना चाहता हूं उसको थो़ड़ी देर
लेकिन बेटे ने मेरा चेहरा कभी नहीं देखा उतरा हुआ
वो जानता है तो बस इतना
कि पापा कभी झूठ नहीं बोलते।
बात को अधूरी ही रहने देता हुआ
मैं
जब भी सोचने लगता हूं
मेरी बीबी कहती है
कि
बच्चों को हमेशा सही जबाव देने से क्यों बचते हो
वो नहीं जानती है
कि दस साल पहले उसने जिस को चुना था
वो अधूरे रंगों की तस्वीर था
उसने रंग भऱने की कोशिश की थी
कुछ दिन
मैं भी समझता रहा
कि मेरा चेहरा उसके
प्यार में
रंगा गया है.
उसके जाने बिना भी मैं समझ गया था
कि चेहरे पर प्यार के रंग बदलते मौसम की तरह होते है
जो आते तो हर साल है
लेकिन हर बार पहले वाली बात से महरूम होते है।
कई बार जब झांकती है मेरी आंखों में
मेरी बीबी
तो कहती है कि
इतना सोचना अच्छी बात नहीं है
बच्चे के साथ खेलों
भूल जाओं गये दुनिया के रंग

Friday, October 9, 2009

Thursday, July 30, 2009

कारगिल हार भी जाते तो क्या होता ?

विजय समारोह से
लौटते वक्त
एक राष्ट्रीय स्मारक की दीवार पर
एक युवक को पेशाब करते देखा
एक ख्याल आया
कारगिल हार भी जाते तो क्या होता।

Saturday, July 11, 2009

मां को चिट्ठी 01

मां
तुमने रोक क्यों नहीं लिया,
मुझे इस शहर आने से
कितना आसान था
तेरे पास
सच को सच
झूठ को झूठ कहना
तुम्हारे आशीष सदा सच बोलने के
चुभ रहे है
अब...
किसका सच बोलूं
दफ्तर का
घर का
रास्तों का
किससे सच बोलूं
बॉस से
दोस्त से
दुकानदार से
प्रेमिका से
या
इन सबसे अलग
अपने आप को
शीशे में देखकर सच बोलूं
दिन भर जो शरीर गतिमान रहता है
रात को घावों से टपकता दर्द बन जाता है
कितना आसान था
मां
विश्वास कर लेना
सहजता से
दुख
सुख
प्यार
या नफरत पर
जाने क्यों
अब विश्वास नहीं होता
भीख मांगते भिखारी की दयनीयता पर
झुंझला सा जाता हूं
मदद के अनुग्रह पर
मां
कितना मुश्किल था
तेरे पास ये मान लेना
कि चोर दिन में भी निकलते होंगे
जीत शेर की नहीं
सियार की होंगी
खरगोश जिंदा नहीं रहेगे
बिना दांतों के
यहां
अब
कितना सहज हो गया हूं
रोज मरते हुये
लोगों के बीच से गुजरते हुये
मां
याद ही नहीं आती
तेरी सुनायी हुई कहानी
कि
आखिर में जीत हुयी सही इंसान की
कितना सरल था
दोस्त.दुश्मन पहचानना
मां
मुझे रोक लेती
तो
अब बहुत कठिन नहीं रहता
मुझे सच और झूठ के बीच निकलना
मां
वहां
आज भी डरता ..मैं
पेड़ों पर उल्टे लटके चमगादडों से
गांव के कोनों पर बनीं बांबियों से
दिन में कहानी सुनने से
अब
ये सब बकवास लगते है
मां तुमने रोक क्यों नहीं लिया
मुझे शहर आने से
....................
कल एक ब्लाग में किसी ने लिखा कि कवियों को मां शहर में आकर ही क्यों याद आती है। बात तो सही थी। मैंने भी जब शहर में नया-नया आया था, मां को याद किया। लेकिन ये कहना शायद ज्यादती होंगी कि लोग मां को सिर्फ लिखने के लिये ही याद करते है। मां घने पेड़ की तरह होती है जब तक उसकी छांव में रहते है तो पेड़ से कितना फल मिलता है ये सोचते है लेकिन छांव को याद नहीं करते। और जैसे ही तेज धूप में जाते है तो सिर्फ पेड़ की छांव याद रहती है फल नहीं।

Friday, July 10, 2009

खुले घूम रहे हैं आठ लाख हत्यारें :

हर साल मिलती है चालीस हजार लावारिस लाशे। ये संख्या उन लाशों की है जिनकी हत्या हुई होती है। ऐसी लाशें जो गली-सड़ी मिलती है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट इशारा करती है कि मौत कैसे हुई। पुलिस पूरे तौर पर कानून का पालन करती है। यानि गली-स़ड़ी लाश को 72 घंटे तक कार्रवाई शिनाख्त के लिये रखती है। फिर अंतिम संस्कार कर देती है। सबूत ए शिनाख्त के तौर पर उसके कपड़े थाने के एक बंद कमरे में या फिर छत पर फेंक दिये जाते है। मौसम एक दो साल में उसे चट कर जाता है। इस तरह से हमारी तरह जीते-जागते इंसान की कहानी खत्म हो जाती है।
ये कहानी हिंदुस्तान में हर साल मिलने वाली चालीस से साठ हजार लाशों की है। इसमें वो लाशें शामिल नहीं है जो नहरों और नदियों में बहा दी जाती है। उन लाशों का ज्यादातर हिस्सा मछलियां या फिर कछुएं खा जाते है। कभी ये लाशें मिलती भी है तो कर्तव्यनिष्ठ पुलिस वाले के मुखबिर इन्हें अगले थाने के लिये बहा देते हैं।
मैं पुलिस की कहानी नहीं बता रहा हूं। ये फिर कभी। इन लोगों की गुमशुदगी की रिपोर्ट थानों के रजिस्टर में कभी-कभी दर्ज होती है। लगभग सारी लाशें गरीब और समाज के निचले तबके से रिश्ता रखने वालो की होती है। यानि उनकी रिपोर्ट न लिखी जाये तब भी कोई हाय-तौबा नहीं। घर वाले पांच दिन तक थाने के चक्कर लगाने के बाद अपनी रोटी की तलाश में इधर-उधर निकल जाते है।
यदि आपराधिक वारदात का विश्लेषण करे तो औसतन एक हत्या में दो लोग शामिल होते है। इसका मतलब हर साल 40 हजार लाश मिले तो 80 हजार हत्यारें भी पैदा हो जाते है। लेकिन पुलिस को कभी नहीं मिलते। पुलिस के पास उनकी तलाश के लिये वक्त भी नहीं होता। ऐसा संयोग कई बार हुआ है कि किसी मामले में कोई आदमी पुलिस की गिरफ्त में आये और वो पुरानी हत्याओं की बात भी कबूल कर ले। लेकिन ऐसा एक-दो बार ही होता है।
इसका मतलब है कि पिछले दस सालों की बात करें तो लगभग 8 लाख हत्यारे है जो हमारे आपके आस-पास फ्री घूम रहे है। कानून उन तक कभी नहीं पहुंच पायेगा।
मारे गये आदमी के फोटो के अलावा पुलिस के पास कुछ नहीं रह जाता। न उसका डीएनए सैंपल न उसकी पहचान के लिये कोई दूसरा तरीका। पुलिस मॉर्डनाईजेशन के नाम पर हजारों करोड़ रूपया डकारने वाले इस बात की ओर कोई ध्यान देना तो दूर सोचते भी नहीं है कि क्या लावारिस आदमी का डीएनए नहीं कराया जा सकता। और उसको रिकार्ड में रख कर देश के तमाम थानों तक भेज दिया जाये। गुमशुदा लोगों के रिश्तेदार आसानी से अपना रिश्ता बता कर ये चेक कर सकते है कि मारा गया बदनसीब उनका अपना खून था।

Thursday, July 9, 2009

पांच लाये दो मारे फिर भी पांच जेल में ?

..............>उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर का परौर थाना। शाम के सात बजे जीप थाने में पहुंची। थानेदार के सामने उन्होंने अपना परिचय दिया। जीप में सादी वर्दी में यूपी पुलिस की टीम थी। इस टीम में मेरठ और बागपत थाने के पुलिस वाले शामिल थे। टीम मिशन पर आयी थी। रात के अंधेंरे में ये टीम परौर थाने के गांव में पहुंची। वहां से ग्राम प्रधान को साथ लेकर गांव के बाहर की बस्ती से घूमंतू जाति(बावविये, सांसी, पंखी) के पांच लोगों को उठा कर ले आयी। परौर थाना इंचार्ज ने इन लोगों की हिरासत को रिकार्ड में दर्ज करने की बात कही तो टीम लोकल थाने पर गर्म होने लगी। और बिना इंट्री किये पांच लोगों को लेकर निकल गयी।
बागपत जिले की सदर कोतवाली में देर रात पांच आदमी पुलिसया टार्चर को झेल रहे थे। नशे में धुत्त पुलिस वालों ने वहशियत की सारी सीमाये पार कर ली थी। इसमें दो लोगों की सांसे बंद हो गयी। पुलिस वालों की नींद टूटी। रात में कस्वे के डाक्टर की कार मंगायी गयी। और नदी के किनारे मिट्टी के तेल से दो लाशों को जला दिया गया। बाकी बचे तीन लोगों को क्या किया जाये ये सवाल पुलिस के सामने आ खड़ा हुआ।
अगले दिन अलसुबह गौतमबुध्द नगर के सूरजपुर थाने में पुलिस की एक मुठभेड़ हुई। और बहादुर पुलिस ने पांच पंखियों को गिरफ्तार कर लिया। उनसे भारी मात्रा में अस्लाह भी बरामद मिला। पुलिसिया पूछताछ में पांचों पंखियों ने मेरठ मंडल में हुई दर्जनों डकैतियों, चोरी और लूट में अपना हाथ मान लिया।
अब तक आप इस कहानी के किसी सिरे को नहीं समझें होंगे। मैं अब इसे आसान कर देता हूं। परौर थाने से लेकर आये पंखियों की इंट्री थानेदार ने रोजनामचे में कर दी थी। इतना ही नहीं उसने पांचों लोगों के नाम भी रोजनामचे में दर्ज किये थे। पंखियों के रिश्तेदारों ने कई तार मानवाधिकार आयोग को किये थे।
सूरजपुर मुठभेड़ में गिरफ्तार तीन लोग वहीं थे जिनको मुठभेड़ में शामिल पुलिसवाले परौर से उठा कर लाये थे। किसी आला अफसर को मालूम नहीं कि अपनी हिरासत में रखे लोगों से पुलिस के बहादुर सिपाही किस तरह से मुठभेड़ कर पाये।
बागपत सदर थाने में इस बात कि कोई इंट्री नहीं है कि वहां किसी आदमी को उस दौरान हिरासत में रखा गया था। लेकिन इस घटना में मारे गये एक युवक की पत्नी शहाना ने मानवाधिकार आयोग को पूरी घटना का ब्यौरा लिख कर दिया था। उस पर आयोग ने जांच की। लेकिन तब तक शहाना गायब हो चुकी थी। कहां कोई नहीं जानता। बागपत जिले के एक एसपी कृष्णैया ने जांच की लेकिन वो फाईळों में कैद हो गयी।
अंत कथा इतनी कि इस घटना में शामिल एक सब इंस्पेक्टर ने अपनी बहादुरी को फिर दोहराया। तीन मासूम बच्चों को हिरासत में यातना दे कर मौत के घाट उतार दिया। दरोगा जी के साथ पूरा थाना सस्पैंड हुआ। और फरार हुआ। लेकिन आज वो सब लोग फिर से थानों में कानून की रक्षा करने में व्यस्त है। एक बात और उस वक्त उन पंखियों और मासूम बच्चों की तरफदारी करने वाले लोग आज सत्ता में है। सत्ता अब उन्हीं वर्दी वाले हत्यारों को बचाने में लगी है जिनका विऱोध विपक्ष में रहते हुये कर रहे थे।..................आगे

Tuesday, July 7, 2009

एक बदमाश दो एनकाउंटर दो थानों का ईनाम

जनवरी 1997 की रात। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के सरधना थाने में एक एनकाउंटर हुआ। मुठभेड़ में दो शातिर बदमाशों को बहादुर पुलिस ने मार गिराया। मुठभेड़ में मारे गये हजारों बदमाशों की तरह से इन दोनों ने भी तमचों के दम पर पुलिस पार्टी पर हमला किया। देर रात के अंधेरें में आबादी से दूर बदमाशों को पुलिस पार्टी की जीप दुश्मन दिखायी देती है जिसे वो आसानी से गुजर जाने दे सकते थे। बदमाश की शिनाख्त हुयी कुख्यात नौशाद और मुईन पहलवान के तौर पर। लाश की शिनाख्त पुलिस के अलावा बदमाशों के पिताओं ने भी की। नौशाद लाख रूपये ईनामी बदमाश था और उसका दोस्त मुईन भी इलाके की पुलिस के लिये सरदर्द बने हुये थे। पुलिस पार्टी को इनाम के अलावा शासन की ओर से आउट ऑफ टर्न प्रमोशन जैसे मनोवांछित इनाम की घोषणा भी हुयी।
लगभग छह महीने बाद जून 1997 में मेरठ मंडल के गाजियाबाद जिले का विजयनगर थाना। रात को एक बदमाश ने अपने अज्ञात साथियों के साथ पुलिस पार्टी पर हमला किया। शहर से दूर अंधेंरे में बहादुर पुलिस पार्टी ने जवाब दिया। एकतरफा( तमंचा चल नहीं सकता था) गोलीबारी में पुलिस ने एक बदमाश को मार गिराया बाकी साथी अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग गये। लाश की शिनाख्त हुयी। शिनाख्त की मारे गये बदमाश के पिता ने। ये बदमाश भी ईनामी नौशाद निकला। पुलिस पार्टी के बहादुर जवानों को ईनाम मिला आउट टर्न प्रमोशन की फीती की घोषणा भी हुयी।
अब कहानी का दूसरा सिरा सुनने से पहले ये जान ले कि नौशाद कौन था। मुजफ्फरनगर जिले के थाना चरथावल का रहने वाला नौशाद यूपी, दिल्ली और हरियाणा में कई दर्जन आपराधिक वारदात में शामिल था। तीनों राज्यों में पुलिस को उसकी तलाश थी। लेकिन ऐसा दुनिया में कोई दूसरा बदमाश नहीं हुआ जो एक बार नहीं दो-दो बार एनकाउंटर हुआ हो। दोनो बार पुलिस पार्टी को ईनाम-ईकराम मिला हो।
वारदात के अगले दिन चश्मदीदों ने अखबार वालों को बताया कि पुलिस वाले रात में एक युवक को पकड़ कर लाये थे और उसके बाद उन्होंने अगले दिन पुलिस की बहादुरी के किस्से सुने।
अखबार में फोटो छपी देख कर मुजफ्फरनगर जिले के थाना ककरौली गांव का एक किसान बेचारा थाने पहुंचा। और उसने कहा ये फोटो उसके बेटे मेहरबान की है जो दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में एक होटल में नौकरी करता था। विपक्षी नेताओं ने खूब हो हल्ला किया। सहानुभूति बटोरी और चल दिये। मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा लेकिन बाप को मालूम ही नहीं हुआ कि मामले में वकील पेश न होने के नाते अदालत ने उस मामले को खारिज कर दिया।
विकसित देश तो बहुत दूर की बात है किसी अफ्रीकी देश में भी ये वारदात हुयी होती थी सरकार चौंक जाती। लेकिन इस देश की सरकार तो दूर की बात राज्य सरकार ने इस बात की ओर कान नहीं दिया। एक मामला अल्पसंख्यक समुदाय के लड़के से जुड़ा था। उस पर दोनों ही मामलों में मुद्दई डाउन मार्केट मामला था।
आपको आज भी हिंदुस्तानी अदालत और पुलिस का ये कारनामा आज भी रिकार्ड में दर्ज है। एक ही मंडल के दो थानों में अलग-अलग मामला दर्ज है। सरधना पुलिस का रिकार्ड इस बात की गवाही दे रहा है कि उसके जाबांजों ने नौशाद का सफाया किया। इस बात की गवाही चरथावल थाने का रिकार्ड भी दे रहा है। दूसरी और विजयनगर पुलिस का रिकार्ड भी उसके साहसिक कारनामे की गवाही दर्ज है। लेकिन आपको यदि मेहरबान के बाप से मिलना हो तो ककरौली जा कर उसकी नवजात बच्ची और बीबी से मिल सकते है जो हिंदुस्तान की कसम खाते है कि खुदा किसी पुलिस वाले को उनके घर न भेंजे...................। कल)

Monday, July 6, 2009

वर्दी में हत्यारे ?

रणबीर सिंह। रण में वीरता दिखाने वाला शेर। मां-बाप ने यही नाम रखा था। देहरादून पुलिस ने रणबीर की हत्या कर दी। रणबीर या उसके मां-बाप को मालूम नहीं था रण में नहीं घर में मार देंगे वर्दी वाले गुंडे उसे। लाश गवाह थी कि रणबीर को कितनी यातनायें दी गयी थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी इस बात के सबूत मिल गये। संवैधानिक हत्यारों ने 14 गोलियों से बेध दिया एक मां का बेटा, बाप का शेर, बहन का भरोसा और भाई का सहारा। लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। कागज इस बात का भरोसा देते है कि एक सरकार वहां काम कर रही है। पुलिस ने मारने के बाद दावा किया कि एक बदमाश को मार गिराया। बाकी दो साथी भाग गये। थानेदार और सिपाही एक ही जूते में पांव रखे हुये थे। एसएसपी पर जिम्मेदारी थी कि वो इस बात की तफ्तीश कर ले कि उसकी पुलिस ने किसका काम तमाम कर दिया। लेकिन एसएसपी को डेयरिंग एसएसपी कहलाना था। लिहाजा उसने अपने हत्यारों की बात को तस्दीक कर दिया। और मेहनत से भरी कामयाबी हासिल कर रही एक जिंदगी बस याद में तब्दील हो गयी।

पहले तो सरकार ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि मुठभेड़ फर्जी थी। लेकिन बाद में हो हल्ला मचा। सबूत चीख-चीख कह रहे थे कि सरकारी गुंडों ने वर्दी के नशे में हत्या कर दी।

सरकार ने कार्रवाई के नाम पर कुछ पुलिस वालों को लाईन हाजिर कर दिया। एसएसपी को मुख्यालय भेज दिया। जीं हां यही कार्रवाई हुई जनता की सरकार की ओर से। हत्यारों को खुली छूट दी गयी कि वो बदल दे रिपोर्ट और डरा-धमका दे गवाहों को और बाईज्जत वापस लौट आये लूटमार और वसूली के अपने धंधें पर। क्योंकि अंग्रेजों की पुलिस की नजर में हिंदुस्तानियों की औकात कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है। ये वही वर्दी है जो आज भी अंग्रेजी कानून से चलती है। नेता जीत कर सत्ता में आता है तो उसके इशारे पर लाठी-गोली चलती है और जब विपक्ष में होता है तो उसके उपर चलती है। लेकिन जनता के पास कोई रास्ता नहीं है इस बात का कि वो हत्यारे पुलिस वालों के खिलाफ किसी कार्रवाई में शामिल हो।

पिछले दस सालों के अनुभव ने मुझे कई ऐसे मामलों से रू ब रू कराया जो देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचे और पुलिसिया दबाव में बिखर गये। ऐसे कई मामले है जो इस बात का सबूत है कि कानून को किस तरह हत्यारे अपने लिये इस्तेमाल कर रहे है। .......................................।

Wednesday, June 24, 2009

जिंदगी की प्यास और शैलेन्द्र

शैलेन्द्र सिंह के जाने की खबर मैंने सुनी तो यकीन नहीं हुआ। शैलेन्द्र से आखिरी मुलाकात तो कई साल पहले हुयी थी। लेकिन जब उनका गजल संग्रह आना था तो एक दिन मेरे पास उनका फोन आया था। मैंने वादा किया था कि मैं उनके गजल संग्रह के विमोचन के दिन जरूर आऊंगा। जा नहीं पाया। उनके जाने के बाद लोगों ने उनके बारे में कहा, लिखा और सुनाया। मैं उनके ज्यादातर किस्सों में तो शामिल नहीं था लेकिन मुझे याद है कि एक बार मैं कई सारी किताबे खरीद कर उनके सामने से गुजर रहा था उन्होंने किताबे देखी और एक किताब अपने पढ़ने के लिये रख ली। मैंने बाद में कहा तो उन्होंने कहा कि वो किताब तो अब मैं इस जन्म में तुमको वापस नहीं करूंगा। बात भूली सी हो गयी थी लेकिन उनके जाने के बाद किताब का नाम याद आया ....जिंदगी की प्यास।


कितने किस्सों में रह गया वो आदमी,
जिंदगी को कितनी तरह से कह गया वो आदमी।
चला गया हमेशा के लिये कितनों के लिये,
कितनों की यादों में रह गया वो आदमी।
रास्ते पर सहमा सा खडा था वो आदमी,
रफ्तार में जिंदगी खो गया वो आदमी।

तालिबान टीआरपी है भाई नक्सली नहीं.

पाकिस्तान पर कब्जा कर लेगा तालिबान। बुनेर तालिबानियों के कब्जे में। आतंकवादी दे रहे है महिलाओं को सजा। मोहब्बत करना हुआ गुनाह वजीरीस्तान में। हिदुस्तानी मीडिया की हाल की हैडलाईन है। खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये यू ट्यूब से लिये गये वीडियो टीआरपी मीटर को गति देने का साधन बन गये।
क्या हुआ पाकिस्तान के नौशेरा, बुनेर, और भी जाने कितने ऐसे कस्बों और गांव के नाम हिंदुस्तानियों की जबान पर ऐसे चढाये गये जैसे दिल्ली का कनॉट् प्लेस हो। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में किस जगह कितने तालिबानी है सबका हाल-पता है हिंदुस्तानी मीडिया के पास। उनके पास कितने हथियार है और उनका मेक कौन सा है ये भी आपको स्क्रीन पर खूबसूरती से इठलाते एंकर बता रहे है।
लालगढ़ कहां है भाई। वहां किसका कब्जा है। वहां भी औरते रहती है। वहां के कई थानों में हिंदुस्तानी कानून का नामो-निशान मिटा दिया गया। लेकिन हिंदुस्तानी मीडिया चुप है। लगता ही नहीं कि लालगढ़ का कोई नामों-निशान हिंदुस्तान में है। वहां कई महीनों से तिरंगा नहीं फहराया गया सरकारी ईमारतों में। थानों पर नक्सलियों का कब्जा था। लेकिन इस बात का किसी को ईल्म नहीं है कि कौन इस नक्सलियों की जमात को हैड कर रहा है। कौन से हथियार है इनके पास कहां से लाये है ये हथियार। लेकिन न हिंदुस्तान के मीडिया को इलाके की टूटी सड़के दिखी न दिखी वहां छायी गरीबी। ऐसा नहीं है कि टीवी पर लालगढ़ दिखा ही न हो लेकिन दिखा तो उस दिन जब टीवी चैनल्स को लगा कि आज पैरामिलिट्री और नक्सलियों के बीच खून खराबा होने वाला है। खूनखराबे का मतलब है अच्छी टीआरपी की फसल। ऐसा हुआ नहीं। और लालगढ़ टीवी के नक्शे से गायब। हालांकि अखबार के किसी पन्ने पर लिखा था कि अब पैरामिलिट्री फोर्स रामगढ़ को भी नक्सलियों के कब्जे स छुडाने वाली है। यानि अभी भी वो हिस्सा हिंदुस्तानी नक्शे में सरकार के नियंत्रण से बाहर है। ये यही इसी देश में है भाई क्या मीडिया को दिखता है भाई।

Monday, June 22, 2009

मेरा और सरकार का रिश्ता।

सरकार यानि देश को चलाने वाले लोग जिन्हें मैं चुनता हूं और मेरे बीच क्या रिश्ता है। एक सप्ताह भऱ पहले एक पुलिस कप्तान के साथ बातचीत के दौरान सवाल उभरा। बात पुलिस और आम पब्लिक के बीच बढ़ती दूरी पर शुरू हुयी। पुलिस कप्तान बहुत दुख से बता रहे थे कि पुलिस पर काम का बेहद बोझ है। पुलिस डिपार्टमेंट अंडरस्टाफ है। उनके आदमी बेहद तनाव में है। बात आगे बढ़ी, मैंने उनसे एक सवाल पूछा वही सवाल जो मैं आपसे भी कर सकता हूं।
सरकार मतलब देश में कानून-व्यवस्था चलाने वाले लोग। हर आदमी के लिये रोटी,कपड़ा और मकान देने वाली एजेंसी और सुरक्षा और शिक्षा देने वाली एजेंसी। मैं एक आम आदमी की जिंदगी से शुरू करता हूं। दूसरे ज्यादातर लोगों की तरह से मैं भी एक छोटे शहर से राजधानी पहुंचा। नौकरी की तलाश में। पढ़ाई-लिखाई छोटे शहर में हुयी, मेरे मातापिता के पैसों से। प्राईवेट स्कूल में।
यहां आने के बाद मैंने नौकरी हासिल की। प्राईवेट नौकरी। मालिक और मेरे बीच के रिश्ते में सरकार को इतना करना था कि मेरे साथ मानवीय रिश्ता रखते हुये मालिक अपने लाभ को नजर में रखे। और यदि इस बैलेंस में कुछ गड़बड़ हो तो सरकार ठीक करे। मालिक ने साईन कराया कुछ और दिया कुछ। मेरे हिस्से का पीएफ भी मेरी तनख्वाह से और मालिक का भी हिस्सा भी मेरी ही तनख्वाह से। लेकिन सरकार मेरे से टीडीएस काटती थी खैर दो साल बाद मैंने संस्थान बदल लिया और बेहतर संस्थान में चला आया।
मालिक और नौकरीशुदा आदमी के बीचऐसा ही रिश्ता है कि वो मालिक हर तरीके से अपने फायदे के लिये नौकर को इस्तेमाल करता है और सरकार से उसके नाम का फायदा भी लेता रहता है।
किराये के मकान की डीड किरायेदार और मकानमालिक के बीच। मकान मालिक तीन महीने का एडवांस ले या तीन साल का सरकार का कोई दखल नहीं। आफिस से घर तक की दूरी तय करने के लिये प्राईवेट बस है। सरकार के पास पर्याप्त बस नहीं है। प्राईवेट बस में जानवर के मानिंद रोज जिंदा रहने और अपनी इज्जत बचा कर घर में घुसने तक घरवालों की निगाह दरवाजे तक ही रहती है। हर आदमी की निगाह में दिल्ली की ब्लू लाईन बस के दरिंदे है। सरकार और उनके बीच का क्या रिश्ता है ये फिर कभी।
घर के लिये सरकार के पास अमला औऱ जमीन नहीं। आम आदमी प्राईवेट बिल्डर के सहारे। वही बिल्डर जिसके ब्रोशर पर खूबसूरत लड़कियां, घने जंगल में बने आलीशान मकान और स्विमिंग पूल में नहाते बच्चे होते है। हकीकत क्या है महानगर के करोड़ों लोग जानते है। सरकार को संपत्ति शुल्क और रजिस्ट्री दे दिया। बिल्डर के लिये अरबों रूपया खाने का सरकार ने पक्का बंदोबस्त किया। लाईट नहीं है लिहाजा हर घर में इनवर्टर है या फिर जेनरेटर पूल है। पानी के लिये सप्लाई नहीं है। जिनकी जेब में पैसा है वो पानी के जार मंगाये। जार में पानी कैसा है ये ईश्वर जानता है सरकार का कोई लेना-देना नहीं। सड़क पर मरने वाले साईकिल वाले और भागकर पैदल सड़क पार करने वालों के अलावा हर आदमी रोड़ टैक्स देता है लेकिन रोड़ है ही नहीं, बाकि जहां रोड़ है वहां टोल टैक्स के नाम पर दलालों के हवाले सड़क। बच्चा पब्लिक स्कूल में। स्कूल में जितनी हवा बच्चा लेता है उसका पैसा भी लुटेरों की तरह वसूलते है पब्लिक स्कूल। और सरकार पब्लिक स्कूलों को फ्री की जमीन देती है। अब बचा घर सिक्योरिटी का सवाल तो उसके लिये निजी सिक्योरटी एजेंसी को सोसायटी ने हायर किया हुआ है। इस रोज की जिंदगी में सरकार कहीं आती है तो किसकी हमदर्द बन कर।
बात चूंकि पुलिस से शुरू हुयी थी तो जब भी पुलिस की जरूरत पड़ती है तो वो सिर्फ और सिर्फ बेईमान और बदतमीज के अलावा कुछ और नजर नहीं आती। रात दिन सड़क पर पैसे वसूलते टैफिक पुलिस के सिपाही हो या फिर ठेले वालों औऱ मकान मालिकों से पैसे वसूलते बीट कांस्टेबल।
अब मैंने सिर्फ कप्तान साहब से ये ही सवाल किया था कि मेरे और सरकार के रिश्ते को क्या नाम देना चाहिये। मेरी जिंदगी में सरकार का क्या दखल है। या एक आदमी के लिये सरकार का क्या मतलब है।

Sunday, June 21, 2009

सिक्का बदल गया क्या ?

बचपन की एक कहानी की याद आती है ,कहानी का लेखक हो सकता आपको याद आ जाये,..सिक्का बदल गया। कहानी का समय है जब देश को आजादी मिलने वाली थी और देश में पूरे तौर पर उसकी गहमा-गहमी का माहौल था,
इसी दौरान एक अंग्रेज की बदतमीजी पर एक तांगेवाला उससे भिड़ पडता है तो उसे देशी सिपाही जो अंग्रेजी राज की देन थे गिरफ्तार कर लेते है और हवालात में पहुंचा देते है। हवालात में तांगेवाले को पहले से बंद कुछ स्वतंत्रता सेनानी मिलते है आजादी के बाद देश के बदलने वाले हालात की चर्चा कर रहे होते है। तांगेवाले को वो बातें अबूझी लगती है। जब वो आजादी के बारे में जानने की कोशिश करता है तो वो कार्यकर्ता उसके बारे में उसको बस इतना समझाते है कि आजादी का मतलब है सिक्का बदल जाना, यानि अब अंग्रेजों का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का सिक्का चलेगा और कोई भी बदतमीजी के बाद बेगुनाह आदमी जेल में बंद नहीं होगा। कुछ दिन बाद तांगेवाला रिहा हो जाता है और देश को भी आजादी मिल जाती है। कुछ दिनों बाद फिर उसी अंग्रेज से तांगेवाले का सामना होता है और अंग्रेज की बदतमीजी का विरोध करने पर फिर वही सिपाही उसी तांगेवाले को गिरफ्तार कर लेते है तो तांगेवाला चिल्ला-चिल्ला कर पूछता है कि अब तो सिक्का बदल गया। लेकिन इस बात का जवाब देने वाला कोई नहीं होता कि सिक्का बदल गया तो किसका चल रहा है,महारानी की विदाई के बाद देश का भाग्यविधाता कौन है। कहानी तो खत्म हो गयी लेकिन बचपन से इस कहानी ने दिलो-दिमाग में कुछ सवाल छोड़ दिये । सालों बाद भी जब पत्रकारिता में काम करना शुरू किया तो भी इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया। देश की आजादी के वक्त देश के स्वतंत्रता सेनानियों को इस लड़ाई में नायक बनाने वाले थे देश के करोड़ों हिंदुस्तानी जो गरीब. अनपढ़ और दूरदराज इलाकों में रहने वाले थे। और इस लड़ाई का नेतृत्व था महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, जिन्ना और सुभाषचन्द्र बोस और दूसरे ऐसे नेताओं के हाथ में जिनकी शिक्षा-दीक्षा देश में नहीं बल्कि विदेशों में हुयी। आजादी के लिये लड़ी जा रही पूरी जंग में पहली कतार के सेनानियों में वल्लभ भाई पटेल जैसे कुछ ही लोग होंगे जो अपनी पूरी पहचान के लिये गांव पर निर्भर थे। दशकों तक लंबी चली इस आजादी की निर्णायक लडाई 1920 के दशक में शुरू हो चुकी थी। नेताओं को भी यकीन था कि आजादी उनकी जिंदगी में ही हासिल हो जायेगी। इस दौरान देश के संविधान को बनाने की कार्रवाई शुरू हुयी। देश के ढ़ांचे पर विचार किया गया जो आजादी के बाद अंग्रेजों से देश की बागडोर संभालने वाला था। लेकिन नौकरशाही. और न्यायिक सेवाओं में अंग्रेजी राज की सेवा और वफादारी की शपथ लेकर काम करने वाले लाखों सरकारी कर्मचारियों के बदलाव के लिये कोई विचार-विमर्श नहीं हुआ।
देश को आजादी मिल गयी, देश के नेताओं को देश की बागड़ोर। लेकिन नेहरू और दूसरे तमाम राजनेताओं को जो बात अटपटी नहीं लगी वो ये कि तिलकमार्ग थाने का थानेदार 15 अगस्त 1947 को भी वही था जो 14 अगस्त 1947 को था। बात अटपटी जरूर है लेकिन समझ से बाहर नहीं। यूनियन जैक की हिफाजत और सम्मान के लिये लाखों हिंदुस्तानियों को मौत के घाट उतारने वाले और अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाले लाखों हिंदुस्तानियों और अंग्रेज सरकारी कर्मचारी ज्यों के त्यों अपने पदों पर बने थे। और ये बात किसी को अटपटी नहीं लगी सिवाय उनके जो आजादी की इस लड़ाई में सिर्फ प्यादे थे यानि देश के करोड़ों देसवासी। आप सिर्फ कल्पना करके देखिये कि आजादी की लडाई में हिस्सा लेने वाले एक आदमी को साल दर साल सिपाहियों से डंडे, प्रताडना और अपमान झेलना पड़ा और किसी -किसी के लिये तो परिवार के किसी सदस्य को मौत भी मिली इन्हीं पुलिसवालों से। लेकिन आजादी की धुन में वो इंसान लड़ता रहा और आखिर वो दिन भी आगया जिसका एक देश दो सौ सालों से इंतजार कर रहा था। 15 अगस्त 1947 देश के इतिहास का अमिट दिन। जोश और आजादी के खुमार में वो आदमी जब लालकिला अपने देश के नेताओं का भाषण सुनने पहुंचता है तो उसका सामना होता है उन्हीं सिपाहियों से जो अब तक उस पर आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने पर लाठियां बजा रहे थे और अब भाषण सुनने के लिये एक लाईन में करने के लिये लाठियां बजा रहे है।उस इंसान के बारे में सोचिये जो किसी न्यायधीश से सिर्फ इसलिये सजा पाया हो क्योंकि उसने देश की आजादी के लिये नारे लगाये थे और आजादी मिलने के साल भर बाद उसी न्यायधीश से इस लिये सजा पा रहा हो कि उसने तिंरगे को सही तरह से नहीं फहराया। ये सिर्फ बानगी भर है जिन अदालतों से सजा और थानों में गिरफ्तारी आजादी के दीवानों ने पायी होंगी वहां 14 अगस्त और 15 अगस्त के बीच कोई बदलाव नहीं था सिर्फ एक ऐसी तस्वीर के जिसे पहले इंग्लैंड की महारानी के नाम पर फिर बापू के नाम पर लगा दिया गया था। यहां सवाल ये ही खड़ा होता है कि इतने बड़े बदलाव के लिये देश तैयार था कि नहीं, और किसी नेता से हमको कोई गिला-शिकवा नहीं है लेकिन देश की जनता की नब्ज पहचानने वाले महात्मा गांधी कैसे ये चूक कर गये कि हिंदुस्तानी जनमानस इस बात को पचा नहीं पायेगा कि कभी अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाला सरकारी कर्मचारी बाद में भी देश के कानून को लागू करने की जिम्मेदारी ले। आम हिंदुस्तानी का साबका पूरी जिंदगी में एक बार भी शायद संविधान की किताब से पड़ता हो लेकिन मोहल्ले का दरोगा, बिजली विभाग का कर्मचारी और अस्पताल का बाबू उसकी जिंदगी की धड़कनों से जुडे रहे है लेकिन उसी में बदलाव नहीं था। यानि सिर्फ गद्दी पर बैठने वाले राजनेताओं को स्वायत्ता हासिल हुयी लेकिन आम हिंदुस्तानी को नहीं। स्वायत्ता शब्द इसलिये इस्तेमाल कर रहा हूं कि ये नेता 1935 से मंत्रीमंडल में थे और ब्रिटिश वायसराय के अधीन अपना शासन चला रहे थे। मैं अभी भी उस ब्यौरे की तलाश कर रहा हूं जिसमें घोर हिंदुस्तानी विरोधी मानसिकता के अधिकारियों बर्खास्त कर दिया गया हो आजादी के आंदोलन से तपकर निकले किसी आम हिंदुस्तानी को उसका चार्ज दिया गया हो। कहानी अपने आप में साफ है कि आजादी के नाम पर हिंदुस्तानी आम जनता को वो झुनझुना पकड़ा दिया गया जिसे वो भूख और प्रता़डना के वक्त बजा सकता है। इस कहानी के कई किरदारों से मेरी मुलाकात नहीं हुयी लेकिन जब भी किसी पुराने राजनेता या फिर नौकरशाह से बात हुयी तो उन्होंने कमोबेश एक ही सफाई दी कि नौसिखिये हिंदुस्तानियों को काम-काज की बागडोर कैसे सौंप दी जाती और इन लाखों सरकारी कर्मचारियों का क्या होता। हालात शायद इराक से भी बदतर हो जाते लेकिन इस बात की परवाह किसे है कि हालात तब इतने न बिगड़ते कि थानों में बेटी के साथ बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने गये आम आदमी को अपनी बेटी को पुलिस की बदनजर से बचाने की जद्दोजहद से जूझना पड़े। अदालत में भ्रष्ट्राचार के नंगे नाच को बेबसी से देखना न पड़ता।

Saturday, June 20, 2009

सटोरियों की जय

16 मई की सुबह। जगह दिल्ली का 24 अकबर रोड़। आठ बजते-बजते ढ़ोल-ताशों की थाप पर नाचते गाते लोग। जीत का जश्न था। और इस बात से नाइत्तफाकी शायद ही किसी को है कि ये लोग बेहद खुश थे। इनके अपने सत्ता में लौट आये है। 18 मई की सुबह। जगह मुंबई की दलाल स्ट्रीट। शेयर बाजार खुला ही नहीं कि कि बंद हो गया। किसी खौफ या हमले से नहीं। बल्कि मुनाफा संभाल न पाने की वजह से। बाजार में सर्किट लग गया। एक बार नहीं दो बार। इतिहास बन गया। महीनों से मंदी से घिरे बाजार की ये खुशी थी। नयी सरकार के बनने की खुशी। 2 लाख दस हजार करोड़ रूपये बिजनेस। बाजार खुला 1 मिनट 48 सेकेंड। लेकिन यही सरकार चुनावी नतीजों से पहले भी सत्ता चला रही थी। महज एक महीने में क्या हुआ जिसने बाजार को इतना खुश कर दिया कि लाखों करोड़ का कारोबार दो मिनट में हो गया। गिरगिट को मात देने वाले मीडिया के पास इसका सटीक जवाब है। स्थायी सरकार। और खुशहाल भविष्य की उम्मीद।
अब सीन को कुछ महीने पीछे के फ्रेम में ले जाते है। 26 नवंबर मुंबई में आतंकवादियों का सबसे बड़ा हमला। पूरा देश दहशत में। सरकार आतंकवादियों से जूझ रही थी और देश टीवी चैनलों पर नजर गड़ाये बैठा था। शेयर बाजार खुला और सेंसेक्स बढ़ गया। गिरगिटों के पास अपनी दलाली औऱ देशभक्ति दोनों को बताने का कोई मुहावरा नहीं था। लेकिन इस बात से इंकार करने की हैसियत में कौन है जो ये कहे कि बाजार को अच्छे ट्रैंड नहीं मिले। यानि आतंकवादियों के हमले ने बाजार को इस बात का हौसला दिया कि वो चढ़ कर इसका स्वागत करे।
मीडिया ने कहा कि आतंकवादियों को जवाब दिया है बाजार ने। किस तरह का जवाब क्योंकि 18 मई को बाजार ने नयी सरकार का स्वागत किया है।
यानि सरकार के आने और आतंकवादियों के हमले में ये बाजार कोई अंतर नहीं करता है। समझ में नहीं आता कि क्यों। लेकिन बात इतनी नहीं है। बाजार को उपर नीचे गिराने का काम करते है सटोरिये। यही आम आदमी जानताहै और यही समझ भी आता है। लेकिन सटोरियों कौन है। कौन है जिसको इनके फायदे की फ्रिक रहती है।सरकार कौन चुनता है और सरकार किसके लिये काम करती है। ये कई सवाल लगातार जेहन में आते रहते है। मेरे आस-पास के लोग भी जिनको देश की फ्रिक (बातों में) होती है बेईमानी (दूसरे की) से नाराज होते है शेयर बाजार के चढ़ने से बेहद खुश और गिरने से हताश होते है। बाजार क्या है इससे उन्हें मतलब है कि पैसा उनका कितना परसेंट बढ़ गया। हालांकि मीडिया ने इसके लिये जाने कितने जवाब दिये वो सारे जवाब मेरे पास है, लेकिन मेरे जैसे मूर्ख को कौन समझा सकता है।
एक कहानी और मुझे याद आती है कि एक गांव के लोगों को उस गांव के जमींदार के घर होने वाली दावत का इंतजार रहता था। दावत में उसके यहां बाहर के मेहमान आते थे। दावत में जो मांस पकता था उसकी खुशबू से पूरा गांव महकता रहता था। दावत खत्म होती थी और बचा हुआ मांस और हड्डियां जमींदार के नौकर गांव के लोगों में बांट देते थे। लेकिन हर बार दावत से पहले आस-पास के गांवों से कुछ बच्चे गायब हो जाते थे। जब वो दूसरे गांव वाले इस गांव में आकर छानबीन करना चाहते थे तो जमींदार के गांव के लोग उन्हें गांव में कदम भी नहीं रखने देते थे। और अब जमींदार के गांव वाले इस बात इंतजार करते है कि कब आस-पास से बच्चे के गायब होने की खबर आये और कब जमींदार के यहां से बचा हुआ मांस और हड्डियां का खाना उनको परोसा जाये।

Thursday, April 23, 2009

कविता

आज पुरानी किताब के पन्ने उलटते हुये कुछ कविताओं पर नजर गयी। मैं उनमें से कुछ कविता यहां दे रहा हूं कवि का नाम कविता के बाद लिख दिया है।



तुम्हारे शब्द पत्थर है, पर तुम्हारी वाणी वर्षा है,
तुम्हारी पीठ समुद्र पर दोपहर है,
तुम्हारी हंसी उपनगर में छिपी धूप,
तु्म्हारे खुले केश सुबह की छत पर एक तूफान,
तुम्हारा उदर समुद्र की सांस और दिन का स्पंद है,
तुम्हारा नाम मूसलाधार और तुम्हारा नाम चारागाह है,
तुम्हारा नाम पूरा ज्वार है,
पानी के सारे नाम तुम्हारे है,
लेकिन तुम्हारा यौन अनामित है,
होने का दूसरा चेहरा,
समय का दूसरा चेहरा।
..................................आक्तावियो पाज
सरियलिस्ट लव पॉयम्स टेट से पब्लिश




वह मेरी पलकों पर खड़ी है,
और उसके केश मेरे हाथ में हैं,
उसकी आकृति मेरे हाथों जैसी है,
मेरी आंखों जैसा उसका रंग,
वह मेरी परछाईयों में समायी है,
जैसे आकाश पर एक पत्थर ।
...........................................आंद्रे बेतों
प्रेम हमेशा पहली बार से साभार



रात देर गये हम फल बीनने गये,
जो मेरे मृत्यु स्वप्नों के लिये चाहिये थे,
वे बैंजनी अंजीर ,
पुरातन मृत घोड़े,बाथ टब की शक्ल में,
गुजरते है पास से और ओझल हो जाते हैं,
सिर्फ खाद बोलती है,
हमें आश्वत करती हुयी।
...........................रेने सां

Wednesday, April 15, 2009

बेटा बन रहा हूं एक बार

दिन भर दुनिया में,
अपने हिस्से का नमक बहाकर लौटता हूं,
दो मंजिला घर की सीढिंया चढते वक्त,
न मुझे दुनिया की याद रहती है,
न दुनिया में बहाये अपने नमक की,
मेरा सारा ख्याल बस एक घंटी में बस जाता है,
मैं घंटी बजाता हूं,
दो दरवाजे पार अंदर से उठता है जैसे एक तूफान,
दरवाजे के सीखंचों के बीच से झांकता है,
जल..
पापा आ गये,
मैं भूल जाता हूं,
दुनिया में कम हो गया मेरा एक और दिन,
मेरे गले मे उसकी बांहे,
मुझे बेगाना कर देती है,
इन दरवाजों से बाहर की दुनिया से,
मेरे दिल की धड़कन,
जैसे उसकी धड़कन से मिलती है,
मेरी सांस में उसकी हवा महकती है,
मैंने कभी नहीं सोचा था,
पिताजी घर में घुसते ही,
क्यों पूछते है,
कहां गया है बब्लू,
घर से बाहर इस वक्त,
मैं जब लौटता हूं घर पर,
क्यों नहीं मिलता है घर पर,
कभी पढ़ नहीं पाया,
पिताजी की आंखों को,
पल भर में क्या-क्या गुजर जाता है,
उनकी आंखों के सामने से,
जब वो देखते हैं लौट कर मुझे,
जल मेरी बांहों में और मैं समझ रहा हूं
मेरी गोद में जल नहीं
पिताजी की गोद में खेल रहा
बब्लू है
कैसे समझूं
कि
मैं बेटा बन रहा हूं
फिर से एक बार

Tuesday, April 14, 2009

कौन सा धर्मयुद्ध

तलवार मेरे हाथ में थी...
उन्होंने दी थी,
धार इतनी तेज कि खतरनाक नहीं.... खूबसूरत लगी,
चमक इतनी कि आंखे चौंधियां दी.
फिर मेरे हाथ में गीता दी,
कहां कि धर्म युद्ध में रिश्ते नहीं होते,
सिर्फ कर्तव्य होता है,
बात साफ थी,
तलवार को अपने और पराये में अंतर नहीं करना था,
मेरे उडा दी हर वो गर्दन जो भी मेरी पहुंच में थी,
पहुंच में थे, रिश्तेदार, दोस्त और जान-पहचान के लोग।
सब को मैंने देखा
रोटी के लिये लड़ते हुये।
रोटी के लिये रेंगते हुये,
लेकिन ये लोग शांति को खतरा थे,
और मेरे कानों में गीता गूंज रही थी,
जमीन पर लुढ़कती हर एक गर्दन मुझे नशा देती थी,
फर्ज पर मर-मिटने का नशा,
तलवार घूमाते-घूमाते मैं थक कर झुका... तो नजर में आ गया उनका चेहरा
मेरे हाथ में तलवार देने वाले लोग,
खून से प्यास बुझा रहे थे,
मेरी तलवार से मारे गये लोगों के खून से,
मैं अकबकाया .....
मेरा हाथ धीमा हुआ,
मैंने उनकी तरफ घूरा,
चिल्लाया कि क्या ये धर्मसम्मत हैं,
उनकी आंखों में डर नहीं उपहास था,
उन्होंने हंसते हुए कहा कि लो हो गयी इसकी जबान भी गज भर लंबी
इसका दौर भी पूरा हुआ,
मैं तलवार उठाता उनके खिलाफ,
उससे पहले ही मेरे पांव फिसलने लगे,
मैंने पहली बार देखा जमीन को,
जिस पर मैं खड़ा था,
वो खाई पर जमी... बर्फ की जमीन थी
जिसके नीचे उन्होंने अब आग जला दी थी।

Friday, April 10, 2009

कैसे जियोगे जल अपनी जिंदगी

शिकारियों ने मार गिराया शेर को पालतू कुत्तों के साथ,
शेरों की संख्या अब जल्दी हो जायेगी निल....,
लेकिन शेर नहीं बदलता अपनी आदत,
बारिश में तलाश करना साये की,
पेड हो या फिर कोई मुंडेर,
हर पंछी की यही जरूरत होती है।
मैंने बाद में जाना कि बादलों के पार....
उड जाता है बाज बारिश से बचने के लिये,
बाज खत्म हो रहे है अंधाधुंध शिकार के चलते।
इन सबके बीच ......
जल,
मैं जो कह नहीं पा रहा हूं,
तुम्हारी जानने की उम्र के बावजूद.......
अपनी शर्तों पर जीना,
हर रोज मौत की उम्मीद के साथ,
या
कुत्तों के पट्टे में,
शेरों का शिकार करते हुये,
मालिकों के हांके पर नोंचते हुये
घेरे में आये शिकार को,
उनकी शर्तों पर जीते हुये,
उसके बाद हासिल मांस के छोटे से टुकड़े से पेट भरकर,
शांति से मरना एक कुत्ते की मौत ,
इन दोनों रास्तों में कौन सा रास्ता तुम चुनोगे,
मैं नहीं जानता ,
जिंदा रहा तो तुम्हारी चाल/उडान से मुझे पता चल जायेगा।
मैं नहीं रहा तो.
श्राद्ध करने से बेहतर होगा
लिख कर रख दो मेरे पास।
कि तुमने कौन सा जीवन जिया।
और एक बात जो मैं तुम को जरूर बताउंगा,
मेरे पिता खुश नहीं है,
मेरे शांत जीवन की शर्तों से,

Tuesday, April 7, 2009

जल स्कूल जायेगा....।

जल
मैं इस दरवाजे तक तुम्हारे साथ हूं।
मैंने तुम्हे सिखाया है ,
सच बोलना ,
गलती हो तो मान लेना,
संभल कर चलना,
कुछ बाते जो मैंने सीखी
संभाल कर रखी
और तुम तक पहुंचाया
बाअदब....
मेरे पुरखों की तहजीब।
अब इस दरवाजे के अंदर
तुम को जो सीखना है
उसमें मेरा दखल नहीं है।
तुम्हें जन्म दिया,
नाम दिया मैंने,
लेकिन अंदर तुम को सीखना है,
तरीका... जिंदगी जीने के लिये,
तुम जिनको चुनोगे
जिंदगी में अपने साथी
वो बता देंगे मुझे तुम्हारी....
आगे की जिंदगी के रास्तों का पता।
मैं छोड़ रहा हूं,
आज....
तुमको इस दरवाजे के अंदर
जहां से जिंदगी की कोरी किताब पर
तुमको लिखने होंगे अपने अक्षर
ये दरवाजा
जिसे दुनिया स्कूल कहती है
मेरे लिये तुम्हारी आगे की दुनिया का
कैनवास है,
जिसकी कूंचिया तुमको तराशनी होंगी
जिसके रंग तुम को भरने होंगे।

Monday, April 6, 2009

मैं शक के दायरे में हूं आजकल

मैं शक के दायरे में हूं इन दिनो
हर दिन, हर जगह, हर पल
दिख रहा है कुछ
समझ रहा हूं कुछ
खूबसूरती,,ताकत
उभरती मल्टीस्टोरी
चमकते मॉल्स, दमकते चेहरे
तेजी से दौडता बाजार दिखता है
रात/दिन
ऊपर की और चढ़ता सेंसेक्स का ग्राफ
तस्वीरों से चमकते चेहरे
रैंप पर चढ़ते-उतरते चेहरे
जींस के बटन खुलवाते कसरती जिस्म
बटन खोलते हुये गुलाबी हाथ
मेरी नजर में है दिन -रात
झिलमिलाते तारों सी मुस्कुराहट के साथ
समाचार पढ़ती है एंकर
खनखनाती हंसी के साथ सामान खोलती लडकी
मोहक अंदाज, बेदाग अंग्रेजी में समझाते लडके
दिखते है माल्स हो या शोरूम
कम्प्यूटर पर तेजी से उंगलियां चलाती लडकियां
कार हो या फाईटर प्लेन चलाती लडकियां
लेकिन
दिमाग वो समझ नहीं पा रहा है
जो दिखा रही है नजरे ।
हजार वाट की
नियान लाईटों से बाहर निकलते ही
शुरू होते है
पार्किंग के अंधेंरे
बस स्टाप की रोती हुयी हुयी रोशनी में
अधपूछी लिपिस्टिक
आंखों से चिपकी उदासी के साथ
ऑटो- बस का इंतजार करती लडकी
ये तो वही चेहरा था।
रूक कर कोने में कस्टम शॉप पर
मोल-भाव करते
लडके की इंग्लिश कहां गयी।
समाचार
जो पढ़े नहीं गये
भूख से मरते परिवार
आत्महत्या करने वाले दंपत्ति
बस से कुचले गये बाप का
इंतजार करती मासूम आंखे
मॉल्स की रोशनी में अचानक
चढ़ जाती है मेरे दिमाग में
अखबार न पढूं ,
इंधर ने देखूं ,
उधर न सुनूं,
क्या न करूं ,
शक से बाहर आने को मैं।
स्क्रीन से ओझल
कंपनी का कोट उतारती एंकर
सैंडिल का फ्लैफ बांधती एंकर,
गाड़ी कब मिलेगी,
शिफ्ट क्या लगेगी,
कुछ तो था जो समझ नहीं पायी,
पढ़ गयी
अकाल मौत को
बेटी से बाप के बलात्कार को
मुस्कुराहट के साथ।
वरूण गांधी जेल में है,
लालू मुनाफे से चमकती रेल में है,
सचिन धोनी एड के खेल में है,
तीसरा- चौथा मोर्चा दिलों के मेल में है,
दिख रहा है रात दिन।
बेघर राहुल सोनिया
बे-कार है
मेरे पास एक अदद मोटरसाईकिल
घर और कार है।
दाई जानती थी मेरे जन्म के वक्त,
स्विस बैंकों में जमा होते है पैसे।
आडवानी ने हाल ही में जाना पहली बार
काला धन विदेशों में इकट्ठा होता है ऐसे।
आम चुनाव की कवरेज है,
देश का नक्शा ब्यूरों चीफ के सामने पेश है,
यूपी, दिल्ली, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान पूरा,
मध्यप्रदेश में कुछ फेस है,
नार्थ ईस्ट, साउथ स्टेट से...
परहेज है।
नक्शे में पूरा दिखता
समझ में नहीं आता
कहां तक मेरा देश है।
मेरी जुबान पर मुझे शक है,
चिल्ला देगी कभी भी,
कही भी,
ये सब फरेब है।

.....मैं शक के दायरे में हूं इन दिनों

Thursday, April 2, 2009

जल का टीवी

जल ने जब पहली बार आंखे खोली
अहसास किया एक बेहद प्यारे से स्पर्श का
शब्द दिया मां
लगा जिंदगी जीने के लिये मिली है
कुछ देर बाद एक हाथ जिसमें
प्यार था लेकिन मां की तरह कोमल नहीं
वो बाप का हाथ था
लगा कि जिम्मेदारियां से कडक हो जाती है जिंदगी
फिर कुछ सफेद कपडों पहने नर्से और डॉक्टर मिले
प्यार और देखरेख की जिंदगी में कडवे घूंट
और इंजेक्शन की चुभन भी सहनी होगी।
ये दुनिया बड़ी आसान सी दुनिया थी
लेकिन घर में जब जल ने टीवी देखा
तो उसकी समझ से बाहर हो गयी दुनिया
और अब वो जिस दुनिया में जी रहा है वों
मां- बाप , डॉक्टर और नर्स की दुनिया नहीं हैं
ये वो दुनिया भी नहीं है
जिसमें जिये है उसके पुरखे।
जल को रास्ता बनाना है
उस दुनिया में
जो जमीन पर नहीं, हवा के सहारे चलती है।
जिसमें इंसान खून से नहीं फ्रेम से पहचाना जाता है।

Monday, March 23, 2009

तुम मत रोना मां.......।

सर्द रात में
अकेले काफी वक्त गुजारा है तारों की छांव में
बंदूक के सहारे,
कई बार मेरा कंधा काम आया
अपने सिपाहियों को विदाई देने में,
आज गुजर रहा हूं आखिरी बार अपने शहर की सड़कों से
तिंरगे में लिपटा हुआ
ट्रक पर चलते देख रहा हूं आखिरी बार.....
लोग दुखी है,
सुबह घर से निकलते ही जाम मिलने से
देर हो जायेगी उनको दफ्तर पहुंचने में
ट्रैफिक जाम हो गया ट्रक को रास्ता देने में,

ट्रैफिक पुलिस का सिपाही दुखी है,
चार घंटे तो यूं ही गुजर गये सड़क पर
बचे चार घंटे में
कितने ट्रक गुजरेंगे
कितनी वसूली हो पायेगी
इस तरह से तिरंगे में लिपटी लाशों के आने-जाने में
सुबह की ड्यूटी में ही आना था इस लाश को भी
उसे
मेरा नाम मालूम है.. न.... ही वो जानना चाहता है मेरी शहादत की वजह
उसको एक ही उम्मीद है कि अधिकारी लौट जायेंगे
वही से
और वो कर पायेगा अपना रोजमर्रा का काम.....

आगे चल रही जीप का सीओ भी दुखी है
आज के केस में कुछ मिलना था
नेताजी का मामला था
कुछ तारीफ
तो कुछ माल भी मिल जाता
अब चला जायेगा केस दूसरे सीओ प्रताप के पास
अच्छी ड्यूटी लगी इस लाश के साथ .......

मेरे बचपन के दोस्त नहीं थे
मेरी विदाई के वक्त
सुबोध आईबीएम बैंगलोर है
विनोद इस वक्त यूएस में
कमल भी यूके चला गया था,
तुमको जल्द ही मिल जायेगे
उनके खत
जिसमें दुखी होंगे मेरे यूं असमय जाने से
लेकिन ये लिखेंगे जरूर कि उनको गर्व है
मेरी शहादत पर,
मां,
गली का लाला भी दुखी है
दुकान बंद करनी होंगी जब तक लाश गली में है,
वो बता रहा है
शर्मा जी का लड़का जबसे मेजर बना है
खूब माल बना रहा होगा
उसको मालूम है मेरे जाने के बाद
तुमको मिलेगा लाखों रूपया
मिल जाये शायद किसी पेट्रोल पंप का लाईसेंस भी
कितना पैसा आ सकता है,
ये बता सकता है वो अभी कुछ ही पलों में
उसकी उँगलियों में सिमटा है सब हिसाब,
रक्षा मंत्री भी दुखी है,
चुनाव की सीटों को लेकर समझौता करना है दूसरी पार्टी से
हाईकमान का आदेश है
ऐसे में एक लाश पर फूल चढ़ाने जाना
टाईम खराब करना होगा
शायद उनको याद भी न रहे मेरी,
....अपनी फ्लाईट के टाईमटेबल के बीच,

मुझे श्मशान तक और भी जाने कितने दुखी चेहरों को देखना होगा मां
लेकिन
घर से दफ्तर जाने वाले लोगों का घर और दफ्तर
ट्रैफिक पुलिस के सिपाही का चौराहा और घर
सीओ का ऑफिस या फिर श्मशान तक का रास्ता
ये सब उसी सीमा के अंदर आता है ना मां
जिसमें घुसना चाहते थे आतंकवादी
उनसे
देश बचाने में छलनी हो गया मेरा जिस्म
सब दुखी है......
लेकिन
तुम मत रोना मां
तुमने तिलक लगाकर भेजा था सीमा पर
सबके मना करने के बावजूद..
तुम तो जानती हो मां
मेरी शहादत
और अपने दूध की कीमत
तुम मत रोना मां।

Friday, March 20, 2009

काले को काला. सफेद को सफेद कहना

काला
वो बोले
भय से भीगी जनता चिल्लाई.... काला,
लेकिन वो काला रंग नहीं था
मैंने हाथों से मली आंखें बार-बार
दिमाग पर जोर डाला कई बार,
लेकिन ये तो नहीं है काला
मेरे चारो ओर घिर आये लोग
जोर देकर उन्होंने कहा कि काला
ध्यान से देखा मैंने फिर
लेकिन ये नहीं है काला
थोड़ी धीमी हो गयी थी मेरी आवाज
वो जिनकी तेज निगाह थी मुझ पर
उन्होंने कहा देखो ध्यान से
अचानक मुझे लगने लगा कि हां वो काला ही तो है
भीड़ से आवाज मिलाकर मैं चिल्लाया
हां.... कितना..... काला,
उसके बाद से मुझे नहीं मिला किसी भी रंग में अंतर
जो वो देखते रहे, मुझे भी लगता रहा वैसा ही
मैंने काले को सफेद, सफेद को हरा,
हरे को लाल और नीले को कहा काला
और फिर मैं भूल गया कि मैंने क्या कहा किस को
लेकिन
मेरे हाथ कांप रहे है आज
मुश्किल हो रही है मुझे बोलने में
जल पूछ रहा है,
रंगों की किताब हाथ में लेकर
पापा जरा बताओं तो ये कौन सा रंग है
मैं समझ नहीं पा रहा हूं
कि
इसको कौन सा रंग कौन सा बताना है।

Thursday, March 19, 2009

मैं तुम को प्यार करता हूं।

समंदर की अथाह जलराशि,
नीले रंग का असीम फैलाव,
उमड़ती आवाज का जादू ,
मैं मूक हो गया
जब मैंने पहली बार समंदर देखा।
रूई के फाहों सी टपकती,
सफेद ही सफेद ,
आकाश से टपक रही हो रोशनी,
मैं खामोश था जब मैंने देखी ,
पहली बार गिरती बर्फ।
धवल हिमशिखर ,
इतने खूबसूरत कि कोई सानी नहीं,
मेरे आनंद को मिल सके न कोई शब्द,
कुदरत की खूबसूरती के आगे
हमेशा की तरह बेआवाज मैं।
.तुम को ये शिकायत क्यों है मुझसे
.तुम मिली मुझे...इतनी बार ,और
.मैंने प्रेम कहा नहीं।

Wednesday, March 18, 2009

रास्ता

मुझसे जो कहा गया
मैं वही नहीं बन पाया
खेल के मैदान में कहा गया,
मुझे बड़ा खिलाडी बनना है
मैं सही से खेल नहीं पाया
स्कूल में मुझे सबको टॉप करना था
और मैं अपने ही सबक भूल गया।
मुझे जब पढना था, मैंने खेलने को तरजीह दी
और जब खेलना था, तब मैं पढ़ने लगा
इस तरह खो गया अपने रास्ते
अब जल कहता है पापा खेलना है
मैं कहता हूं कि हां... यदि मन करे तो
और जब वो कहता है कि पापा किताब
तो मैं कहता हूं हां यदि पढ़ना चाहों तो
रास्ता तुमको तय करना है,
जूते मेरे मत पहनना।

Tuesday, March 17, 2009

मैं झूठ बोलता रहा

तुमने (राजनेता)
कहा आग
मैंने कहा जला देगी
नहीं तुमने इशारा किया,
मैंने कहा रोटी पका देगी
तुमने कहा पानी
मैंने कहा बहा देगा
तुमने इशारा किया
मैंने कहा जीवन देगा
तुमने कहा हवा
मैंने कहा उडा देगी
तुम्हारा इशारा
मैंने कहा सांसे देगी
तुमने कहा जमीन
मैंने कहा उलट जायेगी
इशारा तुम्हारा था
मैंने कहा घर देगी
तुमने कहा आसमान
मैंने कहा फट जायेगा
तुमने इशारा किया
मैंने कहा छत देगा
तुम्हारे कब्जे में आग, हवा, पानी ,जमीन और आसमान आया
आग ने तुम्हारी रोटियां पकाई
हवा ने तुम्हारी सांसे बढ़ाई
पानी आनंद दिया
जमीन पर महल खड़े किये
और आसमान में हवाई जहाज उडाये
मैं चिल्लाया
तो तुमने कहा झूठ
और कोई इशारा नहीं था
आग से जली, हवा से महरूम, पानी से तरसती,
बेघर, धूप से तपती जनता चिल्लायी
सच
मैं उनके लिये जनता से झूठ बोलता रहा।

मुतालिक का हमला औरतों पर

मुतालिक हिटलर है,..........
मेरी आवाज में गुस्सा था,
दिखाना जरूरी था
क्योंकि एंकर भी गुस्से में थी,
इसका ख्याल रखते हुये
मेकअप न बिगड़ जाये,
या आवाज में दिख न उम्र का असर।
बहुत मुश्किल होता है आवाज को सुरीला रखना
बढ़ती उम्र के बावजूद,
एंकर जानती है आवाज की तेजी एक सीमा से बढ़ी नहीं
कि प्रोड्यूसर को मौका मिल जायेगा कहने का
उम्र हो गयी है इसकी, अब प्राईम टाईम में नयी एंकर को जगह दो,
मुझे चैट करनी थी उनके साथ जिनकी इंग्लिश बेहद नफीस थी,
बहुत नाराज थी वो सब मुतालिक सेना के पब पर हमले से,
कुछ ने पिंक चढ्ढियां भेजी, कुछ ने दौरा किया
कुछ ने अखबारों में लिखा कुछ ने टीवी पर चिल्लाया,
आखिर आईटी सिटी में हमला था देश की तरक्कीयाफ्ता लड़कियों पर
चैट लंबी थी, चर्चा देर तक चली,
मेकअप को ठीक करती शालीन औरते मुस्करा रही थी
चर्चा में कही अपनी धारदार बातों को याद करके।
और मुझे गुजरना था,
दिल्ली की जीबी रोड से,
मेरठ के वैली बाजार से,
कोलकता के सोनागाछी से,
और मुंबई के कमाठीपुरा जैसे हर शहर के बाजार से..............,
जहां इतनी देर में मुझ जैसे चार ग्राहक निबटा चुकी होगी
औरते जैसी दिखने वाली मांस और हड्डी की मूर्तियां
मुतालिक क्यों नहीं जाते तुम उधर......,
शालीन औरतों को उधर नहीं जाना चाहिये दाग लग जाता है
कैमरे के ढंके लैंस में तस्वीरे नहीं उभरती है जनाब

Monday, March 16, 2009

दोस्त से बातचीत

तुम जानते हो यार
ओबामा अमेरिका को बदल देंगे।
ओसामा छिपा है हिंदुकुश के पहाडो़ में,
इजराईल ने बना लिया है नया रडार,
आतंकियों के हाथ लग सकता है कैमीकल बम।
हैंड्रान से मिल सकता है गॉड पार्टिक्लस,
है भगवान हैच फंड से बैठ गया भट्ठा देश की अर्थव्यवस्था का।
बैगन...टमाटर मत खाना हो सकता है कैंसर,
दो पैंग शराब से पीने से रहेगा दिल मजबूत
मालूम नहीं है मुझे ये सब,
लेकिन तुम बताओ दोस्त
आखिरी बार कब देखा था तुमने ख्वाब
कि
खेतों में तितलियों के पीछे दौड रहा तुम्हारा बेटा
और उसे पकड़ रहे हो तुम,
या
तुम्हारी गोद में बैठा बेटा पूछ रहा
पापा यदि चांद हमारा मामा है तो घर क्यों नहीं आता.
उसमें काला दाग क्यों हैं।
तुमने कब देखा था नीम और शीशम के पत्तों का अतंर आखिरी बार।
और कौन सा पेड कटा आखिरी में
घर से स्कूल के रास्ते पर
जिसके दोनों और पेड ही पेड थे।
हां
मैं जानता हूं ये बात
नया सीखने के लिये पुराना भूलना पड़ता है
........शायद........हां ...शायद....नहीं

Saturday, March 14, 2009

बेटे को सीख

बाहर मत जाना अकेले......।
अकेले दरवाजा मत खोलना।
पार्क में किसी अनजान आदमी के पास न जाना।
प्रसाद ही क्यों न हो पुजारी का दिया, बाहर किसी से लेकर कुछ न खाना।
सीखा रहा हूं अपने बेटे को रात दिन।
लेकिन
किसी को दरवाजे पर देखकर दरवाजा खट से खोलना
दरवाजा खुला देख कर फट से बाहर निकलना।
इंसान को देखकर, भले ही अनजान हो मुस्कुराना।
तीन साल की जिंदगी में ही सीख चुका है वो इतनी बाते।
जो उसकी जिंदगी को आसान नहीं मुश्किल कर देंगी।
उसको सीखना है किसी भी तरह से जिंदा रहना।
उसे फरिश्तों में नहीं इंसानों में रहना है।

Thursday, March 12, 2009

शहर बदल गया

बस स्टैंड के सामने झोपड़ी नहीं फ्लैट दिखने लगे,
खाली पड़े मैदान में रातों-रात उग आया मॉल,
कूचा अमीर सिंह, चोर गली, गली संगतराशान, के नाम पर
रिक्शा वाले तो दूर दुकान वाले भी होने लगे हैरान,
लेकिन कभी नहीं लगा कि शहर बदल गया।
अपने ही स्कूल की इमारत में खुल गया साईं मंदिर,
खेल के मैदान में पुलिस का थाना,
स्टेशन पर बन गये कई और प्लेटफार्म,
लेकिन शहर नहीं बदला,
मैं जा कर भी नहीं गया इस शहर से,
लेकिन
दोस्त की आंखों में जब शरारत नहीं समझदारी दिखायी दे,
होली से उठता धुंआं आंखों में कड़वा लगने लगे,
रास्ता पूछने पर कोई आदमी तुम्हारी तरफ पलटे भी नहीं
तब लगता है कि शहर बदल गया है।
साल दर साल त्यौहार पर शहर लौटने में
बदलाव की चमक आंखों को चौंधियाने लगे,
खूबसूरत लडकियों के पतों, से निकले बच्चों पर चिल्लाती हुयी औरते
मां से हर बार किसी ऐसे रिश्तेदार की बात सुनना, जिससे आप मिले ही ना हो
लगता है कि शहर बदल गया है।
जब इंतजार लंबा हो जाये कि भीड़ से चिल्ला कर कोई आदमी आप से पूछे
अरे क्या कर रहे हो आजकल
बेपरवाह कोई धौल जमा दे कमर पर,
और कोई उलाहना न मिले एक पूरी रात और दो दिन में भी
तब लगता है कि शहर बदल गया।
और आज लगा कि मैं आकर भी इस शहर में हूं नहीं
किसी भी पल में हिस्सेदार...........।

Friday, March 6, 2009

ख्वाब से रिश्ता

तु्म्हारों ख्वाबों से मेरी नींद का कोई रिश्ता जरूर है,
बीच रात खुलती है मेरी नींद तो तुम कसमसा रहे होते हो,
मेरी आंखे खुलती है जब भी हल्के से,
तुम नींद में मुस्करा रहे होते हो,
अचानक उठा जब मैं चौंक कर
तुम नींद में किसी ख्वाब में घबरा रहे होते हो।
मैं समझ नहीं पाता कि क्या रिश्ता है
लेकिन जल............... मेरे बेटे
मेरी गोद में सोने की जिद के बाद
तुम्हारीं धीरे-धीरे बंद होती आंखों में
जैसे ही कोई ख्बाव पनपता है,
मेरी आंखों में भी नींद पसर जाती है।
कुछ यूं ही है तीन साल से मेरी
और तुम्हारी नींद का अनजाना रिश्ता।

Thursday, February 19, 2009

आंख और आईना

आंख और आईने में फर्क होता है,
आंखों में मोहब्बत होती है
नफरत होती है,
आईना लकींरे दिखला देता है,
आंखों में लकीरे लिखावट में बदल जाती है।
आईना न सुंदर देखता है,
ना मेरी बदसूरती पर बिसूरता है,
दिखला देता है जो भी आईने के सामने है
खुला ..
लेकिन आंखों में दिख सकता है इश्क भी
अश्क भी,
बस एक चीज जिसके लिये मुझे तुम्हारी आंखे नहीं आईना चाहिये
मेरी उम्र,
आईना बता देता है सही सही
लेकिन तुम्हारी आंखों में नमी आ जाती है

दीवार पर दुनिया

मैं घर का दरवाजा खोलता हूं,
सबसे पहले देखता हूं दीवार,
कई रंगों की आड़ी-तिरछी लाईनों से भरी,
मेरे घर की दीवार।
नयी लाईन को तलाशता हूं,
और फिर उसमें खोजता हूं, डायनासोर, ट्रैन, मेट्रो या फिर प्लेन।
इतने में जल चिल्लाता है, पापा मैंने आज क्या बनाया है।
और उस उलझी हुयी दुनिया से फिर नयी लाइन उभरने लगती है.
नयी तस्वीरें, उतनी ही खूबसूरत जितनी तीन साल की दुनिया की आंखों को लगती है।
शुक्रिया जल,
तुमने ला दिया मेरे घर की दीवारों को मेरे इतना करीब
जब मैं चाहूं छू सकता हूं, देख सकता हूं, उभरती लाईनें, तु्म्हारी विस्तार लेती दुनिया,
और मुझसे सांसे लेते हुये एक बाप को.
शुक्रिया जल ।

Tuesday, February 10, 2009

सच की दुविधा

छीनने के लिये पैसा, लूटने के लिये मकान।

नारों के लिये ईश्वर, और नेता दोनों ही सहज उपलब्ध।

मकान लूट लू या नारा लगाऊं, मैं क्या करूं,

हत्याओं के लिये आदमी, झपटने के लिये कार

हटाने के लिये नैतिक बोध , मिटाने के लिये नक्शे

तब मैं क्या करूं

बलात्कार करने के लिये लड़कियां, ठगने के लिये स्त्रियां

छलने के बुढियाएं सारी

मैं क्या करूं

। जलाने के लिये बस्तियां , लूटने के लिये बाजार।

इन सबसे भी बड़ा है व्यापार।

मैं क्या करूं