बरी हो गए। नौ साल एक ऐसे अपराध के लिए बंद जो सोचने भर से किसी के भी रोंगटें खड़े कर सकता है। लेकिन एक यौन कुंठित समाज के लिए ये कहानी थी जिसको बौंनों ने खूब नमक मिर्च लगाकर परोसा था। या सिर्फ मिर्च और नमक भर कर परोसा था।एक तेरह साल की मासूम के काल्पनिक रिश्तों को उछालने में बौंने चूके न उनके सरदार। सालों बाद भी उस केस से जुड़ी हुई ज्यादातर बातें याद है। इस लिए नहीं कि केस पहला था इस देश में हर नया केस पुराने को बदलता चला जाता है। बस उसमें यौन कुंठाएं सहलाने की ताकत हो और मीडिया में बैठे हुए बौंनों को ये पारस पत्थर मिला हुआ है। बेरोक-टोक जो मन चाहे लिख दो दिखा दो बस कुछ वर्दी में बैठे हुए गुंड़ों या विकृत मानसिकता के सोर्स के नाम पर । अपना दिमाग गया तेल लेने।
कल कई लोगों के फोन आएं कई से बातें हुई। इस केस को लेकर शायद बौंनों ने काफी बहसे की।
मुझे कभी हैरानी नहीं हुई क्योंकि ज्यादातर महिला पत्रकारों का नूपूर के खिलाफ अति उत्साह से खबर करने और उसे कातिल मानने का सबसे बड़ा सबूत था कि उसकी आंखों में आंसू नहीं दिखे। वाह क्या सबूत निकाला था।
और वहां बैठे हुए बाकि बौंनों के दिमागों में जिस तरह कि विकृत कुस्सित कहानियां गूंजती थी वो लिखने के काबिल भी नहीं है। टीवी पर चली वाईफ स्वैपिंग की कहानी और उस पर प्रोग्राम। क्या इसके बाद भी बहुत कुछ कहना बाकि रहता है कि कातिल से ज्यादा बडे़ हत्यारे कौन है। ये तक लिखा गया कि उस रात नूपूर और राजेश घर में नहीं थे बल्कि कही पार्टी कर रहे थे। एक के बाद एक कहानियां थी।
खैर अभी ये केस सुप्रीम कोर्ट जाएंगा। मैं हर बार इस लिए सोचता था कि हिंदुस्तानी कानून की बुनियाद कि डॉउट ऑफ बैनिफिट यानि संदेह का लाभ आरोपी को जाएंगा उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया। तीन जांच और तीनों में अलग अलग कारण, सबूत व्याख्याएं। मुझे ये लिखने में बहुत संकोच हुआ कि नुपूर तलवार की रीढ़ को देखकर बहुत से लोगों को उससे जलन हो रही थी। ऐसी जलन जिसको मौके पर बैठा हुआ शख्स ही महसूस करता था । वो पत्रकारबौंनों के सामने दया की भीख नहीं मांग रहे थे, वो किसी बौंने को अपने यहां बुलाकर पुचकार नहीं रहे थे और आखिर में वो महिला जज जिसको लग रहा था कि ये लोग किसी तरह से दयनीय नहीं दिख रहे है और जांच एजेंसी जिन सबूतों को अपर्याप्त मान रही थी उसको वही पर्याप्त लगे ( यहां मैं अदालत की तौहीन नहीं कर रहा हूं उस वक्त अदालत में तारीखों पर होने के अपने अनुभव शेयर कर रहा हूं )
खैर इस पर एक किताब लिख रहा था काफी पेज लिखे और फिर अपने से ही हाथ खींच लिए थे क्योंकि बौंनों ने जिस तरह से पूरे माहौल को गंदला कर दिया था उसमें कुछ कहना भी अपने पीछे एक झुंड को न्यौतना था। लेकिन मुझे याद है एजेंसी के वकील साहब का बौंनों को ऐसी कहानी बताना जिन कहानियों में यौन कुंठाओं का जिक्र होता रहे उस पर हम बौंनों का ठहाका मार कर हंसना और सहमति में अपनी भी कल्पना को वहां शेयर करना सिर्फ ये सोचने पर मजबूर करता था कि ये ही कानून के इकबाल के लिए लड़ रहे है। खैर एक ऐसी एजेंसी का इस तरह खड़े होना कि सबूत है नहीं लेकिन ये कातिल है क्योंकि मेरी मर्जी।
एक और बात जिसका सारे फंसाने में जिक्र था वो था कि बौंनों ने एक हवा बहुत तेजी से चलाई थी जिसको वो आज भी उतना ही उड़ाते है कि तलवार दंपत्ति के खिलाफ जांच में ढिलाई इस लिए बरती गई कि वो बडे़ रसूखदार लोग थे। उनकी पहुंच थी। कभी वो पहुंच सामने नहीं आई। आज भी विजय माल्या के तमाम राजनैतिक हस्तियों या फिर देश के तमाम ताकतवर लोगों के साथ फोटो मीडिया ने बिना किसी डर के शेयर किये तब बौंनों की गर्दन पर किसी का प्रहार नहीं हुआ, मैं सोचता हूं कि फिर ऐसे किन भगवान लोगों के साथ तलवार दंपत्ति के रिश्तें थे जो बौंनों को उनको फोटो या फिर उनके बारे में डिटेल्स लिखने से रोकते रहे।
मैं शायद यही कह सकता हूं कि सुप्रीम कोर्ट में इस का फैसला जो भी हो लेकिन बौंनों ने देश में लोकतंत्र के लिए कितना बड़ा खतरा खड़ा कर दिया है उस पर बात की जानी चाहिए। बौंने डेमोक्रेसी की ऐसी ऊपज है जो खेत को खा रही है। उनकी समझ उनकी लेखनी और उनके मोटिव पर बात करना जरूरी है। जरूरी है कि लिखने वालों से ये भी पूछा जाएँ कि भाई सुना था कि किसी के रिश्तों को अगर उनका केस से कोई लेना-देना नहीं है तो उछाला नहीं करते लेकिन ये तो बिना रिश्तों के बेड़ बना देते है।
मैं लिखना नहीं चाहता वो शुरूआती परिवार का नाम जिसके नाम को इस तरह उछाला गया था कि वो शायद ही किसी से बात कर पाते होंगे उस आदमी से जो उनको जानता नहीं।
मैं जानता हूं कि बहुत से लोग इस पर काफी नाराज हो सकते है लेकिन अगर बौंनों की हकीकत को पुलिस की तरह ही जानना हो तो जहां भी ऐसे मामलों में रिपोर्टिंग हुई हो वहां जाकर खामोश बैठकर उन लोगों के विचार बौंनों के बारे में सुनना जिस तरह थाने के बाहर खडे़ हुए लोगों से वर्दी का हाल जान सकते हो।
कल कई लोगों के फोन आएं कई से बातें हुई। इस केस को लेकर शायद बौंनों ने काफी बहसे की।
मुझे कभी हैरानी नहीं हुई क्योंकि ज्यादातर महिला पत्रकारों का नूपूर के खिलाफ अति उत्साह से खबर करने और उसे कातिल मानने का सबसे बड़ा सबूत था कि उसकी आंखों में आंसू नहीं दिखे। वाह क्या सबूत निकाला था।
और वहां बैठे हुए बाकि बौंनों के दिमागों में जिस तरह कि विकृत कुस्सित कहानियां गूंजती थी वो लिखने के काबिल भी नहीं है। टीवी पर चली वाईफ स्वैपिंग की कहानी और उस पर प्रोग्राम। क्या इसके बाद भी बहुत कुछ कहना बाकि रहता है कि कातिल से ज्यादा बडे़ हत्यारे कौन है। ये तक लिखा गया कि उस रात नूपूर और राजेश घर में नहीं थे बल्कि कही पार्टी कर रहे थे। एक के बाद एक कहानियां थी।
खैर अभी ये केस सुप्रीम कोर्ट जाएंगा। मैं हर बार इस लिए सोचता था कि हिंदुस्तानी कानून की बुनियाद कि डॉउट ऑफ बैनिफिट यानि संदेह का लाभ आरोपी को जाएंगा उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया। तीन जांच और तीनों में अलग अलग कारण, सबूत व्याख्याएं। मुझे ये लिखने में बहुत संकोच हुआ कि नुपूर तलवार की रीढ़ को देखकर बहुत से लोगों को उससे जलन हो रही थी। ऐसी जलन जिसको मौके पर बैठा हुआ शख्स ही महसूस करता था । वो पत्रकारबौंनों के सामने दया की भीख नहीं मांग रहे थे, वो किसी बौंने को अपने यहां बुलाकर पुचकार नहीं रहे थे और आखिर में वो महिला जज जिसको लग रहा था कि ये लोग किसी तरह से दयनीय नहीं दिख रहे है और जांच एजेंसी जिन सबूतों को अपर्याप्त मान रही थी उसको वही पर्याप्त लगे ( यहां मैं अदालत की तौहीन नहीं कर रहा हूं उस वक्त अदालत में तारीखों पर होने के अपने अनुभव शेयर कर रहा हूं )
खैर इस पर एक किताब लिख रहा था काफी पेज लिखे और फिर अपने से ही हाथ खींच लिए थे क्योंकि बौंनों ने जिस तरह से पूरे माहौल को गंदला कर दिया था उसमें कुछ कहना भी अपने पीछे एक झुंड को न्यौतना था। लेकिन मुझे याद है एजेंसी के वकील साहब का बौंनों को ऐसी कहानी बताना जिन कहानियों में यौन कुंठाओं का जिक्र होता रहे उस पर हम बौंनों का ठहाका मार कर हंसना और सहमति में अपनी भी कल्पना को वहां शेयर करना सिर्फ ये सोचने पर मजबूर करता था कि ये ही कानून के इकबाल के लिए लड़ रहे है। खैर एक ऐसी एजेंसी का इस तरह खड़े होना कि सबूत है नहीं लेकिन ये कातिल है क्योंकि मेरी मर्जी।
एक और बात जिसका सारे फंसाने में जिक्र था वो था कि बौंनों ने एक हवा बहुत तेजी से चलाई थी जिसको वो आज भी उतना ही उड़ाते है कि तलवार दंपत्ति के खिलाफ जांच में ढिलाई इस लिए बरती गई कि वो बडे़ रसूखदार लोग थे। उनकी पहुंच थी। कभी वो पहुंच सामने नहीं आई। आज भी विजय माल्या के तमाम राजनैतिक हस्तियों या फिर देश के तमाम ताकतवर लोगों के साथ फोटो मीडिया ने बिना किसी डर के शेयर किये तब बौंनों की गर्दन पर किसी का प्रहार नहीं हुआ, मैं सोचता हूं कि फिर ऐसे किन भगवान लोगों के साथ तलवार दंपत्ति के रिश्तें थे जो बौंनों को उनको फोटो या फिर उनके बारे में डिटेल्स लिखने से रोकते रहे।
मैं शायद यही कह सकता हूं कि सुप्रीम कोर्ट में इस का फैसला जो भी हो लेकिन बौंनों ने देश में लोकतंत्र के लिए कितना बड़ा खतरा खड़ा कर दिया है उस पर बात की जानी चाहिए। बौंने डेमोक्रेसी की ऐसी ऊपज है जो खेत को खा रही है। उनकी समझ उनकी लेखनी और उनके मोटिव पर बात करना जरूरी है। जरूरी है कि लिखने वालों से ये भी पूछा जाएँ कि भाई सुना था कि किसी के रिश्तों को अगर उनका केस से कोई लेना-देना नहीं है तो उछाला नहीं करते लेकिन ये तो बिना रिश्तों के बेड़ बना देते है।
मैं लिखना नहीं चाहता वो शुरूआती परिवार का नाम जिसके नाम को इस तरह उछाला गया था कि वो शायद ही किसी से बात कर पाते होंगे उस आदमी से जो उनको जानता नहीं।
मैं जानता हूं कि बहुत से लोग इस पर काफी नाराज हो सकते है लेकिन अगर बौंनों की हकीकत को पुलिस की तरह ही जानना हो तो जहां भी ऐसे मामलों में रिपोर्टिंग हुई हो वहां जाकर खामोश बैठकर उन लोगों के विचार बौंनों के बारे में सुनना जिस तरह थाने के बाहर खडे़ हुए लोगों से वर्दी का हाल जान सकते हो।
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