Friday, September 19, 2014

मां
क्या कहती मां
पहाड़ों में डूबते उन लोगों की जिंदगी पर
 काम में डूबे हुए अपने बेटे को
बेरहमी से मारते हुए उन्हीं लोगों की हरकतों पर
क्या सोचती मां,
क्या रोते हुए
उन बदनसीब लोगों को कोसती मेरी मां,
पानी के सैलाब में तबाह भीड़
और भीड़ के बीच से पीड़ाओं के तार उठाकर
एक महीन कपड़े की तरह बुनकर
दुनिया की निगाह के सामने
रखने की कोशिश में पिटते हुए
देखना अपने प्यारे बेटे को
एक मां को कैसा लगता
ऐसे ही सैकड़ों सवालों के जवाब
तलाशता हूं मैं हर बार
जब भी मां को खोजना होता है
एक लोटा जल में
एक थाली खाने में
मां को खूबसूरत दिखने वाली चीजों में
ऐसा क्या था जो उन्हें खूबसूरत बनाता था
ऐसा क्या कि रूक कर पूछ लेती थी किसी भी बच्चें का नाम
मंदिर की दीवारों पर चिपकी हुई अपनी प्रार्थनाओं में
ऐसा क्या जादू का वजूका बांधती थी मां
कि
सालों बाद भी उस मंदिर की सीढ़ियां न चढ़नें बावजूद
सैकड़ों किलोमीटर दूर पिटते हुए बेटे के
शरीर पर लिपटते उन प्रार्थनाओं के शब्द
रोकने की कोशिश करते थे मार के असर को,
कई बार याद करने पर भी याद नहीं आती
ऐसी कोई याचना
गोद में बैठे हुए बेटे की सलामती के अलावा
कुछ और मांग रही हो मां
साल दर साल
मेरी आवाज की नदी  का प्रवाह होता है धीमा
समय के भंवरों में गुम होती मां, नदी के कोने में सिमटती है
लेकिन नदी धीमी हुई या चली तेज
मां  दिये की लौ की तरह
लपलपाती है किसी भी अपशगुन पर
तेज धाराओं में बहती है मेरे लिए
शुभकामनाएं जुटाती हुई
शांत धाराओं में रास्ता बताती हुई
कितनी ही खूबसूरत चीजों को देखकर
भी
उसको यकीन था अपने बेटे के सबसे खूबसूरत होने का
एक लोटा जल, एक थाली भोजन
बस यहीं है मां की उन निगाहों के लिए मेरे पास
वहीं निगाहें जो दूर कहीं आसमान में बैठी
अभी भी
देख रही है अपने बेटे को

Tuesday, February 4, 2014

ताकत में कुछ भी गलत नहीं होता ।


मैं तुमको यहां नीचे खड़ा दिखता हूं,
नीचा नहीं हूं मैं यहां खड़ा होकर भी।

हां मेरे फैसले अब मैं नहीं ले रहा हूं,
लेकिन फैसले ले रहे है जो,

 उन्हें जानता हूं मैं।

मेरी कुछ उल्टी चालों ने 
 यहां ,
ला पटका मुझे

वरना तो कम नहीं थी

सत्ता के शतरंज की मेरी समझ
मैंने कुछ गलतियां की

कुछ छोटी. कुछ बड़ी
अपनों को धोखा दिया,

अजनबियों को जी भर के लूटा
बेसहाराओं को दोनो हाथों लपेटा

भीड़ में नारे लगाये, उनके भविष्य को बेचते हुए
मौका मिलते ही धक्का दिया आगे वाले को

मैं समझता रहा
ये बड़ी गलतियां की मैंने ,

बॉस के कहने से नहीं बदले शब्द
 कहने पर उनके

 झूठ तो लिखा सच की ही तरह

लेकिन उसमें नुक्तें डाल दिये अपनी समझ से
जिस्म थी लड़कियां, औरतें 

चादर- तौलिये और कपड़ों बदलते है जैसे
ऐसे ही बदली जाती है औरतें

ये अच्छी बात नहीं है कह बैठा मैं कई बार
हो सकता है ये उतना गलत न होता

अगर मैंने कहा होता अकेले में
मैंने बक दिया भीड़ में

जिसकी इच्छा नहीं है
उसको नौकरी/तरक्की के नाम पर

बिस्तर पर बिछाना ठीक नहीं,
सोचा ये छोटी-छोटी गलती है मेरी

यूं तो सब कुछ ठीक करने की कोशिश की मैंने
अपने झूठ को नया समय

लालच को जरूरत, लूट को मजबूरी
बॉस के पैरों में लेटने को एक्सरसाईज कह  कर छिपाया

हर किताब खरीदी मैंने

जो भी बड़े लोगों के शेल्फ में थी,

फोन में थे ताकतवर लोगों के नाम,नंबर
समझ में ठीक था,

ताकत की तुला के इशारे सही समझता था
हवा के बदलने से पहले बदल लेता था पाला

किस्मत के मारों को नाकारा

भीख मांगते लोगों को काहिल

भूख के खिलाफ आवाज उठाते आदमियों को
ढोंगी, गद्दार, विदेशी एजेंट लिख सकता था

खूबसूरत वंदना को बदल सकता था निंदा में
बस थोडा सा गड़बड़ हो गया

जिसे में समझता रहा अपनी बड़ी गलतियां
वो तो गुण थे

और जिसे मैंने छोटी गलतियां
वहीं तो सबसे बड़े अवगुण थे

समझ के इस फेर से
फिर गया मेरा समय

मैं फैसले लेता था जिनके बारे में
मुझे फेंक दिया उसी भीड़ में उठाकर

समझ गया हूं मैं
हर वक्त हाथ चलने थे

दूसरों के गले और जेंब पर
नारों और नींद दोनों में करनी थी

ताकत की पूजा
ताकत में कुछ भी गलत नहीं होता ।

ताकत से कुछ भी गलत नहीं होता।

Thursday, January 23, 2014

इतनी जल्दी सपना मत तोड़ों केजरीवाल

एक हीरो की फीलिंग क्या होती है। मुझे नहीं पता। लेकिन इस सवाल का जवाब अगर आज कोई देना चाहे तो वो केजरीवाल हो सकते है। दिल्ली चुनाव की जमीन पर नये इरादों के हल की नोंक से जीत लिखने वाले केजरीवाल इस वक्त नायक है। जनता उनके पीछे नारे लगा  रही है। गौर कीजिये मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते वक्त केजरीवाल के गीत से ज्यादा लुभावना था रामलीला ग्राउंड की भीड़ सांस रोक कर शांत खड़े रहना। ये नायक का चरम था। हजारों की भीड़ शांत खड़ी होकर एक प्रार्थना सुन रही थी लेकिन उसकी आंखों में नयी राजनीति का सपना था। कुछ ही दिन में बदलाव आने लगा। बीस किलोलीटर पानी और चार सौ यूनिट्स तक बिजली में छूट की घोषणा।कांग्रेस और बीजेपी के घाघ राजनेताओं की समझ में नहीं आ रहा है कि ये कौन सी चाल है। दिल्ली के सीएम इन वेटिंग के बाद कही अब बीजेपी को पीएम इन वेटिंग न मिल जाये इस के चलते बीजेपी के रणनीतिकारों के पसीने निकल रहे है। कई सारे सवाल जेहन में है। कवरेज के दौरान कई बार आप पार्टी के नेताओं से सामना हुआ। कभी नहीं लगा कि वो जनता की प्रयोगशाला के नये इंस्ट्रूमेंट है। लेकिन जनता ने प्रयोग किया। अप्रैल 2010 से शुरू हुआ ये प्रयोग दिसंबर 2013 में एक ठोस परिणाम लेकर सामने आया। सवाल जेहन में जरूर उठते है कि ये सब कैसे संभव हो गया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि विकास और धर्मनिरपेक्षता के कोरस के बीच आम आदमी की भी कोई आवाज है। थके इंसान को मीठी लोरियों की तरह से लग रही आप पार्टी के नेताओं के कई अटपटे बयान भी आये। नजरअंदाज कर दिये गये। बीजेपी और कांग्रेस को राजनीति सिखाने या हूं फिर पांच-पांच कमरों दो बड़े अपार्टमेंट रिहाईश के तौर पर लेने की बात सामने आई। लगभग चार दिन तक ऑटों पर आने वाले आप पार्टियों के मंत्रियों का वीआईपी नंबर की इनोवा में बैठते वक्त की दलील कि उन्होंने लाल बत्ती लेने से मना किया था न कि सरकारी कार।  कोई ये बयान भी दे सकता है कि कांग्रेस के मंत्री लेफ्ट वाले दरवाजे से कार में बैठते थे हम तो राईट में ड्राईवर साईड़ से अंदर घुसते है। लेकिन पहली बार सत्ता में आई पार्टी को बदलाव के लिये वक्त देना चाहिये। उस पर टिप्पणी लिखने से पहले महीनों तक उसकी कार्यपणाली को भी जरूर देखना चाहिये।केजरीवाल साहब ने मीडिया में मचे हल्ले के बाद फिरोजशाह रोड़ के दो अपार्टमेंट लेने से इंकार कर दिया। इस बात पर आप पार्टी के कार्यकर्ता उनका महिमामंडन कर सकते है। ट्व्टिर और फेस बुक पर बाकायदा एक जंग छेड़ सकते है। लेकिन अगर एक आईआरएस अफसर ये जानता है कि केजी बेसिन 6 में गैस को जानबूझ कर कम निकालने पर देश को कितना नुकसान हो सकता है तो ये भी जानता होगा कि फिरोजशाह रोड़ पर पांच कमरों और 6500 स्केवयर फीट के एक फ्लैट का महीना किराया कितना होता है। उसके लिये जनता की प्रतिक्रिया का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। केजरीवाल साहब ने शपथ ग्रहण में कई चीजों को साफ किया। लेकिन दो चीजों पर हमें जरूर आश्चर्य हुआ ...एक तो वो सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ है, दूसरा देश की ब्यूरोक्रेसी काफी ईमानदार है। अगर केजरीवाल साहब का चेहरा सामने न हो और ये दोनो लाईनें आप आंखें बंद करके सुने तो देश के कई नेताओं के चेहरे आपके सामने आ सकते है। जनता का  जादुई समर्थन उनको सांप्रदायिक ताकतों और अफसरशाही की तारीफ करने के लिये नहीं मिला। उसके लिये उसके लिये मुलायम सिंह जैसे वंशवादी राजनीति के शिखरपुरूष मौजूद है। इन मामलों पर उनकी पहले से पकड़ है लिहाजा आपकी जरूरत नहीं है। दरअसल कुछ  लोगों के लिये अरविंद केजरीवाल का मुख्यमंत्री बनना एक सपने का सच हो जाना है। ये देश के भावुक मध्यमवर्ग के सपने की कहानी है। जातियों और क्षेत्रवाद में लिपटी राजनीति में बदलाव की संभावना में मीडिया और मोबाईल का रोल 2019 में दिख रहा था। लेकिन उसने 2013 में  दिल्ली में ये चमत्कार हो गया। लेकिन ये सिर्फ एक सपना था। इस बात को मानने के लिये कई बार महीने और कई बार साल भर का इंतजार करना पड़ता है। हालांकि अरविंद की टीम में जितने कारीगर मौजूद है वो अपनी कारीगरी से जल्दी ही इस सपने को तोड़ सकते है। दरअसल बाद की कहानी कुछ दिनों बाद दूसरे लेख में लिखना चाहूंगा।  ये लेख अरविंद की शपथ के सात दिन बाद ही लिखना शुरू किया था लेकिन आखिरी लाईने लिखने में तीन हफ्ते गुजर गये। और मुझे बस हैरानी है कि जिस तेजी से अरविंद के उत्थान को देखा उतनी तेजी से उनके साथी पतन की गाथा लिखने में जुट गये।